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Old 14-12-2010, 06:59 AM   #1
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मुल्ला नसरुद्दीन

वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन
मध्यपूर्व के मुस्लिम देशों में 13वीं शताब्दी में हुए मुल्ला नसरुद्दीन, अपने समय का सर्वाधिक बुद्धिमान और खुशमिज़ाज व्यक्ति था।

तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से वह धन जमा करता और उसे गरीबों, जरूरतमंदों में बांट देता। इसलिए समाज के गरीब और बेसहारा लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय था।
लोगों में उसकी लोकप्रियता से बादशाह और सरदार उससे चिढ़ते थे। वे उसे सदा सजा देने की ताक में रहते, पर हर बार अपनी चालाकियों से वह बच निकलता।

शासकों की नजर से बचने के लिए वह सदा एक शहर से दूसरे शहर वेश बदल कर घूमता रहता। रास्ते में आने वाली मुश्किलों से घबराने की बजाय वह उसका जम कर मजे लेता। उसकी कहानियां अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की जैसे मध्यपूर्व के देशों में काफी प्रचलित हैं।


वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन...


शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के कदमों की धीमी आवाज दूर से आती सुनाई देने लगी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ऊंटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था।

उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचाकर भाग जाना पड़ा था।

जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे।

कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।

नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
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Old 14-12-2010, 07:00 AM   #2
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:2
एक शानदार रात की याद

(आपने इससे पहले पढ़ा: सरदारों-अमीरों की नजरों से बचता हुआ, मुल्ला दर-दर भटक रहा था। उन कठिन दिनों में भी मुल्ला मौज-मस्ती करने का मौका छोड़ता नहीं था। उन्हीं मौकों में से वह याद करता है वह खूबसूरत रात, जो उसने अपने एक दुश्मन अमीर(सरदार) के घर पर बिताई थी....)


पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।

जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”


‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया। ‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’



‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”

‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’

‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’

‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’

‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’

मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।


‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’

इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
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Old 14-12-2010, 07:02 AM   #3
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:3
फिर शुरू हुआ सफर

मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज किए अमीर के महल से बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल। फिर वह सिपाहियों की नज़रों में छूमंतर हो गया। एक बार फिर उसके गधे की तेज टापों से सड़क गूँजने लगी थी। धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा।

.एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आनेवाले संकटों में निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला जाता। लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा।

उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाखा़नों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते; और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज्यादा दूर तक फैल जाती।

अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफे़द पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों में पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती।


जिरहबख्त़र की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता, "ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना कीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता। "
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Old 14-12-2010, 07:04 AM   #4
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:4
इसके पहले आपने पढ़ा
मुल्ला को सबसे प्यारा था अपना वतन बुखारा। और आज वह बुखारा की सरहद पर अपनी रात बिताने की तैयारी कर रहा था।


अपना शहर बुखारा छोड़ने के बाद के वर्षों में मुल्ला अनेक नगरों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता था, अपनी एक-न-एक ऐसी याद छोड़ जाता था, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता था। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुखारा लौट रहा था। पवित्र बुखारा-जहाँ वह अपना नाम बदलकर कुछ दिन इधर-उधर भटकने से छुट्टी पाकर आराम करना चाहता था।


वह व्यापारियों के एक काफि़ले के पीछे-पीछे चल पड़ा था। उसने बुखारा की सरहद पार कर ली। आठवें दिन गर्द की धुंध में उसे इस बड़े और मशहूर नगर की ऊँची-ऊँची मीनारें दिखाई दीं।


प्यास और गर्मी से निढाल ऊँट वालों ने फटे गलों से आवाजें लगाईं। ऊँट और भी तेजी से आगे बढ़ने लगे। सूरज डूब रहा था। फाटक बंद होने से पहले बुखारा में दाखिल होने के लिए तेज़ी जरूरी थी। मुल्ला नसरुद्दीन कारवाँ में सबसे पीछे था- धूल के मोटे और भारी बादलों में लिपटा हुआ। यह धूल उसके अपने वतन की धूल थी- पवित्र धूल, जिसकी खुशबू उसे दूर देशों की मिट्टी की खुशबू से कहीं अधिक अच्छी लग रही थी।
छींकता, खाँसता वह अपने गधे से कहता चला जा रहा था- ‘अच्छा ले, हम लोग पहुँच ही गए। आखि़र अपने वतन में पहुँच ही गए। खुदा ने चाहा तो खुशियाँ और सफलताएँ यहाँ इंतजार कर रही होंगी’।

जब कारवाँ शहर के परकोटे तक पहुँचा तो पहरेदार फाटक बंद कर चुके थे।


‘खुदा के लिए हमारा इंतजार करो।’ कारवाँ का सरदार सोने का सिक्का दिखाते हुए दूर से चिल्लाया।

लेकिन तब तक फाटक बंद हो गए। साँकलें लग गईं। परकोटे के ऊपर बनी बुर्जियों में लगी तोपों के पास पहरेदार आकर खड़े हो गए। तेज हवा चलने लगी। धुंध भरे आकाश पर फैली गुलाबी रोशनी रात के धुँधलकों में दबकर गायब हो गई। दूज का नाजुक चाँद आकाश से झाँकने लगा। रात के फैलते झुटपुटे की खामोशी में अनगिनत मस्जिदों की मीनारों से अजान देने वालों की ऊँची आवाजें तैरती हुई आने लगीं. वे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुला रहे थे।

जैसी ही व्यापारी और ऊँटवाले नमाज के लिए सजदे में झुके, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर खिसक गया।

इन व्यापारियों के पास कुछ है, जिसके लिए खुदा को धन्यवाद दें। शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं। थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे। ऐ मेरे वफ़ादार गधे, हम दोनों भूखे हैं। अगर अल्लाह यह चाहता है कि हम उसे धन्यवाद दें तो मेरे लिए पुलाव की एक प्लेट और तेरे एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न रात का खाना मिलने की कोई उम्मीद दिखाई दे रही है।
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Old 14-12-2010, 07:07 AM   #5
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-5
इसके पहले आपने पढ़ा
(बुखारा की सरहद पर पहुंचते-पहुंचते शहर का दरवाजा बंद हो जाता है, सभी सरहद पर ही रात बिताने की तैयारी करते हैं....)

मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया। ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था।

इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे।

धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।

इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।

अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था।


बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई। नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे।
छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी।

परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी।

उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते। अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं। झरने याद आते। खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया।

पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे।
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ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।

नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था।

नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी। दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं। व्यापार घटता चला जा रहा था।

मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-6
इसके पहले आपने पढ़ा
(अपने शहर के सीमा पर मुल्ला ने दूसरे व्यापारियों के साथ खुले आकाश तले रात बिताई, अब उजाला फैलने लगा...)

सवेरे तड़के अजान देने वालों ने मीनारों से फिर अजान दी। फाटक खुल गए और कारवाँ धीरे-धीरे शहर में दाखिल होने लगा। ऊँटों के गले में बँधी घंटियाँ धीरे-धीरे बजने लगीं।

लेकिन फाटक में घुसते ही कारवाँ रुक गया। सामने की सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। उनकी संख्या बहुत अधिक थी। कुछ पहरेदार ढंग और सलीके से वर्दी पहने हुए थे। लेकिन जिन्हें अमीर की नौकरी में अभी तक पैसा जुटाने का पूरा-पूरा मौक़ा नहीं मिला था, उनके बदन अधनंगे थे। पाँव नंगे थे। वे चीख़-चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए, जो उन्हें अभी-अभी मिलने वाली थी, एक-दूसरे को ठेल रहे थे, आपस में झगड़ रहे थे।

कुछ देर बाद एक कहवाख़ाने से कीच भरी आँखोंवाला एक मोटा-ताजा टैक्स अफसर निकला। उसकी रेशमी खलअत की आस्तीनों में तेल लगा था। पैरों में जूतियाँ थीं। उसके मोटे थुल-थुले चेहरे पर अय्याशी के चिन्ह साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे।

उसने व्यापारियों पर ललचायी हुई नजऱ डाली। फिर कहने लगा- ‘स्वागत है व्यापारियों! अल्लाह तुम्हें अपने काम में सफलता दे। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि अमीर का हुक्म है कि जो भी व्यापारी अपने माल का छोटे-से छोटा हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा, उसे बेंत मार-मारकर मार डाला जाएगा।’


परेशान व्यापारी अपनी रँगी हुई दाढ़ियों को खा़मोश सहलाते रहे। बेताबी से चहलक़दमी करते हुए पहरेदारों की ओर मुड़कर टैक्स अफसर ने अपनी मोटी उगलियाँ नचाईं।

इशारा पाते ही वे चीख़ते-चिल्लाते हुए ऊँटों पर टूट पड़े। उन्होंने उतावली में एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते अपनी तलवारों से रस्से काट डाले और सामान की गाँठें खोल दीं।

रेशम और मखमल के थान, काली मिर्च, कपूर और गुलाब की क़ीमती इत्र की शीशियाँ, कहवा और तिब्बती दवाओं के डिब्बे सड़क पर बिखर गए।

भय तथा परेशानी ने व्यापारियों की जुबान पर जैसे ताले लगा दिए। जाँच दो मिनट में पूरी हो गईं। सिपाही अपने अफसर के पीछे क़तार बाँधकर खड़े हो गए। उनके कोटों की जेबें लूट के माल में फटी जा रही थीं।


इसके बाद शहर में आने और माल टैक्स की वसूली आरंभ हो गईं। मुल्ला नसरुद्दीन के पास व्यापार के लिए कोई सामान नहीं था। उसे केवल शहर में घुसने का टैक्स देना था।

अफसर ने पूछा, ‘तुम कहाँ से आ रहे हो? और तुम्हारे आने की वजह क्या है?’

मुहर्रिर ने सींग से भरी स्याही में बाँस की क़लम डुबाई और मोटे रजिस्टर में मुल्ला नसरुद्दीन का बयान लिखने के लिए तैयार हो गया।

‘हुजूर आला, मैं ईरान से आ रहा हूँ। यहाँ बुखारा में मेरे कुछ रिश्तेदार रहते हैं।’

‘अच्छा।’ अफसर ने कहा, तो तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो? इस हालत में तुम्हें मिलनेवालों का टैक्स अदा करना होगा।’
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‘लेकिन मैं उनसे मिलूँगा नहीं। मैं तो एक ज़रूरी काम से आया हूँ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया।

‘काम से आए हो?’ अफसर चिल्लाया। उसकी आँखें चमकने लगीं, ‘तो तुम रिश्तेदारों से भी मिलने आए हो और काम पर लगने वाला टैक्स भी दो। और खुदा की शान में बनी मस्जिदों की सजावट के लिए ख़ैरात दो, जिन्होंने रास्ते में डाकुओं से तुम्हारी हिफाज़त की।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, मैं तो चाहता था कि खुदा उस समय मेरी हिफाज़त करता। डाकुओं से बचने का इंतजाम तो मैं खुद ही कर लेता। लेकिन वह चुप रहा। उसने हिसाब लगा लिया था कि अगर वह बोला तो हर शब्द की की़मत उसे दस तंके चुकानी पड़ेगी।

उसने अपना बटुवा खोला और पहरेदारों की ललचायी, घूरने वाली नजरों के सामने शहर में दाखिल होने का टैक्स, मेहमान टैक्स, व्यापार टैक्स, मस्जिदों की सजावट के लिए खै़रात दी। अफसर ने सिपाहियों की ओर घूरा तो वे पीछे हट गए। मुहर्रिर रजिस्टर में नाक गड़ाए बाँस की क़लम घसीटता रहा।


टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं।

‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’

अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’

इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।
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Old 14-12-2010, 07:13 AM   #9
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-7
पिछली बार आपने पढ़ा:
(टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं। ‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’


अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’

इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।)

उसके आगे:

मुल्ला अपने गधे पर


वह बराबर कहता जा रहा था- ‘और तेज़ और जल्दी मेरे वफ़ादार गधे, जल्दी भाग। नहीं तो तेरे मालिक को एक और टैक्स अपना सिर देकर चुकाना पड़ेगा।’


मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे।

उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।
शहर के फाटकों पर पहरेदार इस साहसी स्वतंत्र विचार वाले व्यक्ति की तलाश में भीड़ छान रहे थे। व्यापारी मुस्कुराते हुए एक-दूसरे से कानाफूसी कर रहे थे। ‘यह उत्तर तो केवल मुल्ला नसरुद्दीन ही दे सकता था।’

दोपहर होते-होते यह समाचार पूरे शहर में फैल चुका था। व्यापारी बाज़ार में यह घटना अपने ग्राहकों को सुना रहे थे और वे दूसरों को। सुनकर हर व्यक्ति हँसकर कहने लगता, ‘ये शब्द तो मुल्ला नसरुद्दीन ही कह सकता था।’
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मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 8
मुल्ला पहुंचा अपने शहरः मिली वालिद के मौत की खबर

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने गधे पर

मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।

......मुल्ला गधे पर भागता हुआ अपने शहर में दाखिल होता है।)

उसके आगे

मुल्ला अपने शहर में

बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला। वह मकान, जहाँ उसने जन्म लिया था। न वह छायादार बगीचा ही मिला, जहाँ सर्दी के मौसम में पेड़ों की पीली-पीली पत्तियाँ सरसराती हुई झूलती थीं। जहाँ मक्खियाँ मुरझाते हुए फूलों के रस की अंतिम बूँद चूसती हुई भनभनाया करती थीं और सिंचाई के तालाब में झरना रहस्यपूर्ण अंदाज में बच्चों को कभी ख़त्म न होने वाली अनोखी कहानियाँ सुनाया करता था। वह स्थान अब ऊसर मैदान में बदल गया था। उस पर बीच-बीच में मलबे के ढेर लगे थे। टूटी हुई दीवारें खड़ी थी। वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन को न तो एक चिड़ियाँ दिखाई दी और न ही एक मक्खी। केवल पत्थरों के ढेर के नीचे से, जहाँ उसका पैर पड़ गया था, अचानक ही एक लंबी तेल की धार उबल पड़ी थी और धूप में हल्की चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में जा छिपी थी। वह एक साँप था; अतीत में इन्सान के छोड़े हुए वीरान स्थानों का एकमात्र और अकेला निवासी।

मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा। परेशानियों और ग़रीबों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर धरती को लाँघते हुए उसी ओर आ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘मैं उनसे एक मुद्दत से परिचित था। शेर मुहम्मद सुप्रसिद्ध मुल्ला नसरुद्दीन के पिता थे। और ऐ मुसाफि़र, तुमने मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।’ ‘हाँ, कुछ सुना तो है। लेकिन आप यह बताइए कि मुल्ला नसरुद्दीन के पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले कहाँ गए?’ ‘इतने जोर से मत बोलो मेरे बेटे। बुखारा में हजा़रों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हम परेशानियों में पड़ जाएँगे।...हमारे शहर में मुल्ला नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानियत है। उसका नाम लेना ही जेल में ठूँस दिए जाने के लिए काफ़ी है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ।’
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