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Old 15-11-2012, 05:41 PM   #31
amol
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

यह समाचार सुनते ही मन्थरा को जैसे कम्प आ गया। मारे डाह के जल उठी। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि कैकेयी के राजकुमार भरत गद्दी पर बैठें और कैकेयी राजमाता हों, तब मैं जो चाहूंगी, करुंगी फिर तो मेरा ही राज होगा और रानियों की दासियों पर धाक जमाऊंगी। सिर से पैर तक गहनों से लदी हुई निकलूंगी तो लोग मुझे देखकर कहेंगे, वह मन्थरा देवी जाती हैं। फिर मुझे किसी ने कुबड़ी कहा तो मजा चखा दूंगी। इसी तरह के मनसूबे उसने दिल में बांध रखे थे। इस खबर ने उसके सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। जिस काम के लिये जाती थी उसे बिल्कुल भूल गयी। बदहवास दौड़ी हुई महल में गयी और कैकेयी से बोली—महारानी जी! आपने कुछ और सुना? कल राम का तिलक होने वाला है।
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Old 15-11-2012, 05:41 PM   #32
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

तीनों रानियों में बड़ा परेम था। उनमें नाम को भी सौतियाडाह न था। जिस तरह कौशल्या भरत को राम की ही तरह प्यार करती थीं, उसी तरह कैकेयी भी राम को प्यार करती थीं। रामचन्द्र सबसे बड़े थे इसलिए यह मानी हुई बात थी कि वही राजा होंगे। मन्थरा से यह खबर सुनकर कैकेयी बोली—मैं यह खबर पहले ही सुन चुकी हूं, लेकिन तूने सबसे पहले मुझसे कहा, इसलिए यह सोने का हार तुझे इनाम देती हूं। यह ले।
मन्थरा ने सिर पर हाथ मारकर कहा—महारानी! यह इनाम में शौक से लेती अगर राम की जगह राजकुमार भरत के तिलक की खबर सुनती। यह इनाम देने की बात नहीं है, रोने की बात है। आप अपना भलाबुरा कुछ नहीं समझतीं। कैकेयी—चुप रह डाइन! तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते लाज भी नहीं आती? रामचन्द्र मुझे भरत से भी प्यारे हैं। तू देखती नहीं कि वह मेरा कितना आदर करते हैं? बिना मुझे सलाह लिये कोई काम नहीं करते! फिर यह सबसे बड़े हैं। गद्दी पर अधिकार भी तो उन्हीं का है! फिर जो ऐसी बात मुंह से निकाली, तो जबान खिंचवा लूंगी।
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Old 15-11-2012, 05:41 PM   #33
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

मन्थरा—हां, जबान क्यों न खिंचवा लोगी! जब बुरे दिन आते हैं, तो आदमी की बुद्धि पर इसी परकार पर्दा पड़ जाता है। तुम जैसी भोलीभाली, नेक हो, वैसा ही सबको समझती हो। राम को बेटाबेटा कहते यहां तुम्हारी जबान सूखती है, वहां रानी कौशल्या चुपकेचुपके तुम्हारी जड़ खोद रही हैं। चार दिन में वही रानी होंगी। तुम्हारी कोई बात भी न पूछेगा। बस, महाराज के पूजा के बर्तन धोया करना। मेरा काम तुम्हें समझाना था, समझा दिया। तुम्हारा नमक खाती हूं, उसका हक अदा कर दिया। मेरे लिये जैसे राम, वैसे भरत। मैं दासी से रानी तो होने की नहीं। हां, तुम्हारे विरुद्ध कोई बात होते देखती हूं तो रहा नहीं जाता। मेरे मुंह में आग लगे कहां से कहां मैंने यह जिक्र छेड़ दिया कि सबेरेसबेरे डाइन, चुड़ैल बनना पड़ा। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।
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Old 15-11-2012, 05:41 PM   #34
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इन बातों ने आखिर कैकेयी पर असर किया। समझी, ठीक ही तो है, रामचन्द्र राजा होकर भरत को निकाल दें या मरवा ही डालें तो कौन उनका हाथ पकड़ेगा। मैं भी दूध की मक्खी की तरह निकाल दी जाऊंगी। बहुत होगा रोटी, कपड़ा मिल जायगा। राज्य पाकर सभी की मति बदल जाती है। राम को भी अभिमान हो जाय तो क्या आश्चर्य है। जभी कौशल्या मेरी इतनी खातिर करती हैं। यह सब मुझे तबाह करने की चालें हैं। यह सोचकर उसने मन्थरा से कहा—मन्थरा, देख, मेरी बातों को बुरा न मान। मैं क्या जानती थी कि मुझे और भरत को तबाह करने के लिए कौशल रचा जा रहा है। मैं तो सीधीसादी स्त्री हूं, छक्कापंजा क्या जानूं। अब तूने यह बात सुनायी तो मुझे सचाई मालूम हो रही है; मगर अब तो तिलक की साइत निश्चित हो चुकी। कल सबेरे तिलक हो जायगा। अब हो ही क्या सकता है।
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Old 15-11-2012, 05:44 PM   #35
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मन्थरा—होने को तो बहुत कुछ हो सकता है। बस जरा स्त्रीहठ से काम लेना पड़ेगा। मैं सारी तरकीबें बतला दूंगी। जरा इन लोगों की चालाकी देखो कि तिलक की साइत उस समय ठीक की, जब राजकुमार भरत ननिहाल में हैं। सोचो, अगर दिल साफ होता तो दसपांच दिन और न ठहर जाते! भरत के आ जाने पर तिलक होता तो क्या बिगड़ जाता। मगर वहां तो दिलों में मैल भरा हुआ है। उनकी अनुपस्थिति में चुपके से तिलक कर देना चाहते हैं। कैकेयी—हां, यह बात भी तुझे खूब सूझी। शायद इसीलिए भरत को पहले यहां से खिसका दिया है, पहले से ही यह बात सधीबदी थी। खेद है, मुझे मिट्टी में मिलाने के लिए ऐसेऐसे षड्यंत्र रचे जाते रहे और मैं बेखबर बैठी रही। बतला, अब मैं क्या करुं? मेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती।
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Old 15-11-2012, 05:44 PM   #36
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मन्थरा ने अपना कूबड़ हिलाकर कहा—वारी जाऊं महारानी! आप भी क्या बातें करती हैं। आपको ईश्वर ने ऐसा रूप दिया है और महाराज को आपसे ऐसा परेम है कि रात भर में आप न जाने क्याक्या कर सकती हैं। आप तो सारी बातें भूल जाती हैं। ऐसी भुलक्कड़ न होतीं तो बैरियों को ऐसे षड्यंत्र करने का मौका ही क्यों मिलता। अब तक तो भरत का कभी तिलक हो गया होता। तुम्हीं ने एक बार मुझसे कहा था कि महाराज ने तुम्हें दो वरदान देने का वचन दिया है। क्या वह बात भूल गयीं?
कैकेयी—हां, भूल तो गयी थी, पर अब याद आ गया। एक बार महाराज लड़ाई के मैदान से घायल होकर आये थे और मैंने मरहमपट्टी करके रात भर में उन्हें अच्छा कर दिया था। उसी समय उन्होंने मुझे दो वरदान दिये थे। मैंने कहा था, मुझे आपकी दया से किस बात की कमी है। जब आवश्यकता होगी, मांग लूंगी। मन्थरा—बस, फिर तो सारी बात बनीबनायी है। आज तुम कोपभवन में जाकर बैठ जाओ। आभूषण इत्यादि सब उतार फेंको। केवल एक मैलीकुचैली साड़ी पहन लेना, और सिर के बाल खोलकर ज़मीन पर पड़ रहना। महाराज तुम्हारी यह दशा देखते ही घबरा जायेंगे। बस उसी समय दोनों वचन की याद दिलाकर कहना कि अब उन्हें पूरा कीजिये—एक यह कि राम के बदले भरत का तिलक हो, दूसरे यह कि राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिया जाय। महाराज वचन के पक्के हैं, अवश्य ही मान जायंगे। फिर आनन्द से राज्य करना।
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Old 15-11-2012, 05:44 PM   #37
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दिन तो उत्सव की तैयारियों में गुजरा। रात को जब राजा दशरथ कैकेयी के महल में पहुंचे तो चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ, न कहीं गाना, न बजाना, न राग, न रंग। घबराकर एक दासी से पूछा—यह अंधेरा क्यों छाया हुआ है, चारों तरफ उदासी क्यों फैली हुई है? तू जानती है, महारानी कैकेयी कहां हैं? उनकी तबियत तो अच्छी है?
दासी ने कहा—महारानी जी ने गानेबजाने का निषेध कर दिया है। वह इस समय कोपभवन में हैं।
महाराजा का माथा ठनका। यह रंग में क्या भंग हुआ। अवश्य कोई न कोई विपत्ति आने वाली है। उनका दिल धड़कने लगा। घबराये हुए कोपभवन में गये तो देखा, कैकेयी भूमि पर पड़ी सिसकियां भर रही हैं। राजा दशरथ कैकेयी को बहुत प्यार करते थे। उनकी यह दशा देखते ही उनके हाथों के तोते उड़ गये। भूमि पर बैठकर बोले—महारानी! कुशल तो है? तुम्हारी तबियत कैसी है? शीघर बतलाओ, वरना मैं पागल हो जाऊंगा। क्या बात हुई है? तुम्हें किसी ने कुछ ताना दिया है? कोई बात तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हुई है? जिसने तुमसे यह धृष्टता की हो, उसको इसी समय दण्ड दूंगा।
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Old 15-11-2012, 05:44 PM   #38
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कैकेयी ने आंसू पोंछते हुए कहा—मुझे कुछ नहीं हुआ। बहुत भली परकार हूं। खाने को रोटियां, पहनने को कपड़े, रहने को मकान मिल ही गया है, अब और किस बात की कमी हो सकती है? आप भी परेम करते ही हैं। जाइये, उत्सव मनाइये। मुझे पड़ी रहने दीजिए। जिसका भाग्य ही बुरा है, उसे आप क्या करेंगे।
राजा ने कैकेयी को भूमि से उठाने की चेष्टा करते हुए कहा—महारानी, ऐसी बातें न करो। मुझे दुःख होता है। तुम्हें ज्ञात है, मैं तुमसे कितना परेम करता हूं। मैंने कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। तुम्हें जो शिकायत हो, साफसाफ कह दो। मैं परतिज्ञा करता हूं कि इसी समय उसे पूरा करुंगा। कैकेयी ने त्योरियां बदलकर कहा—आप जितना मुझसे कहते हैं, उसका एक हिस्सा भी करते, तो मेरी हालत आज ऐसी खराब न होती। अब मुझे मालूम हुआ है कि आपका यह परेम केवल बातों का है। आप बातों से पेट भरना खूब जानते हैं। दुनिया आपको वचन का पक्का कहती है। आपके वंश में लोग वचन के पीछे जान देते चले आये हैं; मगर मुझसे तो आपने जितने वादे किये, उनमें एक भी पूरा न किया। अब और किस मुंह से मांगूंगी।
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Old 15-11-2012, 05:45 PM   #39
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

राजा—मुझे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है। जहां तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारे साथ जितने वादे किये, वे सब पूरे किये। वह कौनसा वादा है, जिसे मैंने नहीं पूरा किया? इसी समय पूरा करुंगा। बस तनिकसी बात के लिए तुम्हें कोपभवन में बैठने की क्या जरूरत थी?
कैकेयी भूमि से उठकर बैठी और बोली—याद कीजिये, एक बार आपने मुझे दो वरदान दिये थे—जिस दिन आप लड़ाई में घायल होकर लौटे थे।
राजा—हां, याद आ गया। ठीक है। मैंने दो वरदान दिये थे। मगर तुमने ही तो कहा था कि जब मुझे जरूरत होगी, मैं लूंगी।
कैकेयी—हां, मैंने ही कहा था। अब वह समय आ गया है। आप उन्हें पूरा करने को तैयार हैं?
राजा—मन और पराण से। यदि तुम जान भी मांगो तो निकालकर दे दूंगा। कैकेयी ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा—तो सुनिये। मेरा पहला वरदान यह है कि राम के बदले भरत का तिलक हो, दूसरा यह कि राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिया जाय।
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Old 15-11-2012, 05:45 PM   #40
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ओह निष्ठुर कैकेयी! तूने यह क्या किया? तुझे अपने वृद्ध पति पर तनिक भी दया न आयी? क्या तुझे ज्ञात नहीं कि रामचन्द्र ही उनके जीवनाधार हैं! राजा के चेहरे का रंग पीला पड़ गया। मालूम हुआ, सांप ने काट लिया। ठंडी सांस भरकर बोले—कैकेयी क्या तुम्हारे मुंह से विष की बूंदें टपक रही हैं? क्या तुम्हारे हृदय में राम की ओर से इतना मालिन्य है? राम का आज संसार में कोई बुरा चाहने वाला नहीं। वह सबकी आंखों का तारा है। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, उतना अपनी शायद मां का नहीं करता। तुमने आज तक उसकी शिकायत न की, बल्कि हमेशा उसके शीलविनय की तारीफ किया करती थी! आज यह कायापलट क्यों हो गया? अवश्य किसी शत्रु ने तुम्हारे कान भरे हैं और राम की बुराइयां की हैं। कैकेयी ने तिनककर कहा—कान तुम्हारे भरे हैं, मेरे कान नहीं भरे गये हैं। अपना लाभ और हानि जानवर तक समझते हैं। क्या मैं जानवरों से भी गयीबीती हूं? निश्चय देख रही हूं कि मेरा बाग उजाड़ किया जा रहा है। क्या उसकी रक्षा न करुं? अपनी गर्दन पर तलवार चल जाने दूं? आपको अब तक मैं निर्मलहृदय समझती थी। मगर अब मालूम हुआ कि आप भी केवल बातों से परेम के हरेभरे बाग दिखाकर मुझे नष्ट करना चाहते हैं। कौशल्या रानी ने आपको खूब मन्त्र पॄाया है। उस नागिन के काटे की दवा नहीं। अब मैं दिखा दूंगी कि कैकेयी भी राजा की लड़की है, किसी शूद्र, चमार की नहीं कि इन चालों को न समझे।
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