18-10-2011, 09:06 PM | #1 |
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अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
जब मर्द के पास आकर जम जाते है तो हिमालय की बर्फ पिघलने लगती है, लालिमा,कालिख के साथ मिल कर देने लगती है हुंकार कि बता तो दो कि तुम आखिर हो कौन?
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
18-10-2011, 09:06 PM | #2 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
2. अहसान
जिन पैरों तले कुचला गया वह पैर अब कांटो पर चल रहे हैं और अहसास मिट्टी में पड़े हैं.
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18-10-2011, 09:07 PM | #3 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
3. उस दाढ़ी में
दिखे कितने तिनके जिस पर चिड़िया ने घौसला बना लिया.
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18-10-2011, 09:07 PM | #4 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
4. नम जमीन पर
अकुंरित होने के लिये मचल रहे हैं कितने बीज लेकिन जमीन को कर्ज की तलाश है.
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18-10-2011, 09:07 PM | #5 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
5. आपस की समझदारी में
इतना तो करना ही था मेरे पीठ के दाग को दूसरों को दिखाने से पहले मुझे ही दिखा दिया होता
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18-10-2011, 09:07 PM | #6 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
6. तड़पते जमाने में
उफनती नदियां किनारों को बहाती है और किनारे अपना दायरा बड़ा लेते हैं. और अब कुछ कज़ल भी देखिये
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18-10-2011, 09:08 PM | #7 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
दिखा नहीं
देकर हम ने खुद को, देखा क्या देखा? यह दिखा नहीं पानी निकला नाली से जब कैसे बिखरा दिखा नहीं बरबादी की नादानी में हमने पूरा गांव जलाया लेकिन उसमें जलता सा अपना घर तो दिखा नहीं.
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18-10-2011, 09:08 PM | #8 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
पता नहीं
देखो हमने तीर चलाया तुमको लगा क्या? पता नहीं हम घी बनकर आहुति देते थे आग लगी क्या? पता नहीं. देखो हमसे बचकर रहना कब सनकेंगे? पता नहीं लाख टके की एक बात थी पल्ले पड़ी क्या? पता नहीं वो मुझको अब उल्लू कहता खुद पट्ठा है पता नहीं मैं सबको रोटी देता हूँ, खुद के घर का पता नहीं.
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18-10-2011, 09:09 PM | #9 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
चाँदनी को क्या हुआ कि आग बरसाने लगी
झुरमुटों को छोड़कर चिड़िया कहीं जाने लगी पेड़ अब सहमे हुए हैं देखकर कुल्हाड़ियाँ आज तो छाया भी उनकी डर से घबराने लगी जिस नदी के तीर पर बैठा किए थे हम कभी उस नदी की हर लहर अब तो सितम ढाने लगी वादियों में जान का ख़तरा बढ़ा जब से बहुत अब तो वहाँ पुरवाई भी जाने से कतराने लगी जिस जगह चौपाल सजती थी अंधेरा है वहाँ इसलिए कि मौत बनकर रात जो आने लगी जिस जगह कभी किलकारियों का था हुजूम आज देखो उस जगह भी मुर्दनी छाने लगी
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18-10-2011, 09:09 PM | #10 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
तेरी इस मासूमियत का
तुझे क्*या इनाम दूं दिल तोड़ के मेरा तुझे कौन सा नाम दूं तुझे बहुत से लोग बेवफा कहेंगे पर मैं तुझे कौन सा नाम दूं अपनों को छोड़कर जाओगी तो लोग बेगाने कहेंगे पर मैं तुझे कौन सा नाम दूं सजा तो प्*यार की मैं पा लूगाँ पर लोग तो मुझे बेजान कहेंगे पर मैं तुझे कौन सा नाम दूं तेरी इस मासूमियत का तुझे क्*या इनाम दूं
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