19-08-2013, 01:01 PM | #1 |
Diligent Member
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ग़ज़ल - मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ
मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ सबको खोया है आजमाने मेँ कैसे कैसे सवाल करता है जैसे बैठा हूँ उसके थाने मेँ साथ मेरे कलम न होती तो वक्त कटता ये सर झुकाने मेँ माँगे मोटा वो हार सोने का मैँ तो पतला हुआ कमाने मेँ कर्म को छोड़ पूजते तुमको उनको रखते हो आने जाने मेँ यूँ ना 'आकाश' ग़मज़दा होना वक्त लगता है उनके आने मेँ ग़ज़ल - आकाश महेशपुरी Aakash maheshpuri . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . पता- वकील कुशवाहा उर्फ आकाश महेशपुरी ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरस्थान जनपद- कुशीनगर उत्तर प्रदेश |
19-08-2013, 02:40 PM | #2 |
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Re: ग़ज़ल - मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ
वाह! क्या बात है !! बहुत खूब आकाश जी !
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19-08-2013, 06:42 PM | #3 |
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Re: ग़ज़ल - मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ
Bahut khub
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19-08-2013, 11:58 PM | #4 |
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Re: ग़ज़ल - मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ
बहुत खूब, आकाश जी. ग़ज़ल के क्षेत्र में आपका लेखन बहुत प्रभावशाली हो कर सामने आ रहा है. आपके कहन में अलफ़ाज़ के साथ खिलवाड़ नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी भरा रिश्ता दिखाई देता है. यही काव्य का सौंदर्य है, यही उसकी ताकत है.[QUOTE=आकाश महेशपुरी;350418]ग़ज़ल- सोने के हार का ज़िक्र हुआ तो मैं बताना चाहता हूँ कि कभी कभी सरकारी अधिकारी किये गये काम के बदले इस प्रकार की मांगें रख देते हैं. ऐसा मैंने प्रत्यक्ष देखा है. |
20-11-2019, 08:28 AM | #5 |
Diligent Member
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Re: ग़ज़ल - मुझसा पागल कहाँ जमाने मेँ
{संपादन के उपरांत}
ग़ज़ल- आज बैठा हूँ मैं वीराने में ★★★★★★★★★★★ आज बैठा हूँ मैं वीराने में सबको खोया है आजमाने में कैसे कैसे सवाल करता है जैसे बैठा हूँ उसके थाने में साथ मेरे कलम न होती तो वक्त कटता ये सर झुकाने में माँगे मोटा वो हार सोने का मैं तो पतला हुआ कमाने में यूँ ना 'आकाश' ग़मज़दा होना कौन दुखिया नहीं ज़माने में ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी |
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