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Old 29-06-2013, 09:08 AM   #31
VARSHNEY.009
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

बच्चे की सीख

बचपन से ही मुझे अध्यापिका बनने तथा बच्चों को मारने का बड़ा शौक था। अभी मैं पाँच साल की ही थी कि छोटे-छोटे बच्चों का स्कूल लगा कर बैठ जाती। उन्हें लिखाती पढ़ाती और जब उन्हें कुछ न आता तो खूब मारती।
मैं बड़ी हो कर अध्यापिका बन गई। स्कूल जाने लगी। मैं बहुत प्रसन्न थी कि अब मेरी पढ़ाने और बच्चों को मारने की इच्छा पूरी हो जाएगी। जल्दी ही स्कूल में मैं मारने वाली अध्यापिका के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

एक दिन श्रेणी में एक नया बच्चा आया। मैंने बच्चों को सुलेख लिखने के लिए दिया था। बच्चे लिख रहे थे। अचानक ही मेरा ध्यान एक बच्चे पर गया जो उल्टे हाथ से बड़ा ही गंदा हस्तलेख लिख रहा था। मैंने आव देखा न ताव, झट उसके एक चाँटा रसीद कर दिया। और कहा, "उल्टे हाथ से लिखना तुम्हें किसने सिखाया है और उस पर इतनी गंदी लिखाई!"
इससे पहले कि बच्चा कुछ जवाब दे, मेरा ध्यान उसके सीधे हाथ की ओर गया, जिसे देख कर मैं वहीं खड़ी की खड़ी रह गयी क्यों कि उस बच्चे का दायाँ हाथ था ही नहीं। किसी दुर्घटना में कट गया था।
यह देख कर मेरी आँखों में बरबस ही आँसू आ गए। मैं उस बच्चे के सामने अपना मुँह न उठा सकी। अपनी इस गलती पर मैंने सारी कक्षा के सामने उस बच्चे से माफ़ी माँगी और यह प्रतिज्ञा की कि कभी भी बच्चों को नहीं मारूँगी।
इस घटना ने मुझे ऐसा सबक सिखाया कि मेरा सारा जीवन ही बदल गया।
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Old 29-06-2013, 09:09 AM   #32
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बुद्धिमान कौन

वजीर के अवकाश लेने के बाद बादशाह ने वजीर के रिक्त पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार बुलवाए। कठिन परीक्षा से गुज़र कर ३ उम्मीदवार योग्य पाए गए। तीनों उम्मीदवारों से बादशाह ने एक-एक कर एक ही सवाल किया, 'मान लो मेरी और तुम्हारी दाढ़ी में एकसाथ आग लग जाए तो तुम क्या करोगे?'

'जहाँपनाह, पहले मैं आप की दाढ़ी की आग बुझाऊँगा,' पहले ने उत्तर दिया।

दूसरा बोला, 'जहाँपनाह पहले मैं अपनी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा।'

तीसरे उम्मीदवार ने सहज भाव से कहा, 'जहाँपनाह, मैं एक हाथ से आपकी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा और दूसरे हाथ से अपनी दाढ़ी की।'

इस पर बादशाह ने फ़रमाया, 'अपनी ज़रूरत नज़रंदाज़ करने वाला नादान है। सिर्फ़ अपनी भलाई चाहने वाला स्वार्थी है। जो व्यक्तिगत जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरे की भलाई करता है। यही बुद्धिमान है।'

इस तरह बादशाह ने वजीर के पद पर तीसरे उम्मीदवार की नियुक्ति कर दी।
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Old 29-06-2013, 09:09 AM   #33
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बेहतर भविष्य का संकरा मुहाना

एक शिक्षण संस्थान की यह परंपरा थी - अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों में जो योग्यतम आठ-दस होते थे, उन्हें देश की औद्योगिक संस्थाएँ नियुक्त कर लेती थीं। उस साल भी वही हुआ। ऊपर के नौ लड़के ऊँची पद-प्रतिष्ठा वाली नौकरियाँ पाकर खुशी-खुशी चले गए। लेकिन उनके बीच का एक लड़का जो चुने गए साथियों से कम नहीं था, रह गया।
चूँकि वह बहुत परिश्रमी था और अपने संस्थान को उसकी सेवा से लाभ ही होता इसलिए उसे अस्थायी तौर पर कुछ भत्ता दे कर काम पर लगा लिया गया। फिर भी अपने साथियों की तुलना में उसकी यह नियुक्ति आर्थिक दृष्टि से बड़ी मामूली थी। वह उदास रहने लगा। लोग भी उसके भाग्य को दोष देने लगे थे।
लेकिन यह स्थिति अधिक दिन नहीं रही। एक बहुत नामी औद्योगिक संस्था ने अचानक उस शिक्षण संस्थान से संपर्क कर जैसे व्यक्ति की माँग की, यह युवक पूरी तरह उसके अनुकूल सिद्ध हुआ।
उसे अपनी योग्यता के अनुरूप काम और वेतन मिला, बात इतनी ही नहीं थी, उसकी यह नियुक्ति अपने साथियों की तुलना में बहुत ऊँची भी थी। अर्थ और
सामाजिक प्रतिष्ठा - दोनों ही दृष्टि से वह उन सबसे श्रेष्ठ हो गया था।

इसी तरह कभी-कभी अनुकूल समय के लिए प्रतीक्षा की घड़ियाँ आया करती हैं। अक्सर ही जिसे लोग भाग्य का दोष मान बैठते हैं, वह होता है एक बेहतर भविष्य
का संकरा मुहाना।
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Old 29-06-2013, 09:09 AM   #34
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भारत माता का घर
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया। उसमें शिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे।

सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर हर्षाया। पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी। बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खड़ा।

कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया। सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया।

तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा। दोनों टकराए, गिरे, काँटे चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे।

हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये। धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये।

कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई। काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों को समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते।

अभी भी समय है... बड़े हो जाओ...
आदमीं बन जाओ।
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Old 29-06-2013, 09:09 AM   #35
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महानता के लक्षण

एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।

उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'

बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।' माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर
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Old 29-06-2013, 09:10 AM   #36
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रास्ते की रुकावट

विद्यार्थियों की एक टोली पढ़ने के लिए रोज़ाना अपने गाँव से छह-सात मील दूर दूसरे गाँव जाती थी। एक दिन जाते-जाते अचानक विद्यार्थियों को लगा कि उन में एक विद्यार्थी कम है। ढूँढने पर पता चला कि वह पीछे रह गया है।
उसे एक विद्यार्थी ने पुकारा, "तुम वहाँ क्या कर रहे हो?"
उस विद्यार्थी ने वहीं से उत्तर दिया, "ठहरो, मैं अभी आता हूँ।"

यह कह कर उस ने धरती में गड़े एक खूँटे को पकड़ा। ज़ोर से हिलाया, उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया फिर टोली में आ मिला।
उसके एक साथी ने पूछा, "तुम ने वह खूँटा क्यों उखाड़ा? इसे तो किसी ने खेत की हद जताने के लिए गाड़ा था।"
इस पर विद्यार्थी बोला, "लेकिन वह बीच रास्ते में गड़ा हुआ था। चलने में रुकावट डालता था। जो खूँटा रास्ते की रुकावट बने, उस खूँटे को उखाड़ फेंकना चाहिए।"
वह विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
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Old 29-06-2013, 09:10 AM   #37
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रूप या गुण
सम्राट चंद्रगुप्त ने एक दिन अपने प्रतिभाशाली मंत्री चाणक्य से कहा-
“कितना अच्छा होता कि तुम अगर रूपवान भी होते।“
चाणक्य ने उत्तर दिया,
"महाराज रूप तो मृगतृष्णा है। आदमी की पहचान तो गुण और बुद्धि से ही होती है, रूप से नहीं।“

“क्या कोई ऐसा उदाहरण है जहाँ गुण के सामने रूप फींका दिखे। चंद्रगुप्त ने पूछा।
"ऐसे तो कई उदाहरण हैं महाराज, चाणक्य ने कहा, "पहले आप पानी पीकर मन को हल्का करें बाद में बात करेंगे।"
फिर उन्होंने दो पानी के गिलास बारी बारी से राजा की ओर बढ़ा दिये।

"महाराज पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े का था और दूसरे गिलास का पानी काली मिट्टी की उस मटकी का था। अब आप बताएँ, किस गिलास का पानी आपको मीठा और स्वादिष्ट लगा।"
सम्राट ने जवाब दिया- "मटकी से भरे गिलास का पानी शीतल और स्वदिष्ट लगा एवं उससे तृप्ति भी मिली।"

वहाँ उपस्थित महारानी ने मुस्कुराकर कहा, "महाराज हमारे प्रधानमंत्री ने बुद्धिचातुर्य से प्रश्न का उत्तर दे दिया। भला यह सोने का खूबसूरत घड़ा किस काम का जिसका पानी बेस्वाद लगता है। दूसरी ओर काली मिट्टी से बनी यह मटकी, जो कुरूप तो लगती है लेकिन उसमें गुण छिपे हैं। उसका शीतल सुस्वादु पानी पीकर मन तृप्त हो जाता है। आब आप ही बतला दें कि रूप बड़ा है अथवा गुण एवं बुद्धि?"
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Old 29-06-2013, 09:11 AM   #38
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लालच

रेलवे स्टेशन पर मालगाड़ी से शीरे के बड़े-बड़े ड्रम उतारे जा रहे थे। उन ड्रमों से थोड़ा-थोड़ा शीरा मालगाड़ी के पास नीचे ज़मीन पर गिर रहा था। जहाँ शीरा गिरा था मक्खियाँ आकर बैठ गई और शीरा चाटने लगीं। ऐसा करने से उनके छोटे-छोटे मुलायम पंख उस शीरे में ही चिपक गए, फिर भी मक्खियों ने उधर ध्यान न देकर शीरे का लालच न छोड़ा और काफ़ी देर तक शीरा चाटने में ही मगन रहीं।
कुछ समय बाद वहाँ एक कुत्ता भी आ गया। कुत्ते को देखकर वे मक्खियाँ डरीं और वहाँ से उड़ने की कोशिश करने लगीं, परंतु पंख शीरे में चिपक जाने के कारण वे उड़ नहीं सकीं और शीरे के साथ-साथ वे सब भी कुत्ते का भोजन बनती गई। उसी समय उड़ते-उड़ते और कई मक्खियाँ भी उस शीरे पर आकर बैठती गई। उन सबके पंख भी शीरे में चिपक गए और वे भी उस कुत्ते का भोजन बन गई। उन्होंने पहले से पड़ी मक्खियों की दुर्गति और विनाश देखकर भी उनसे कोई सीख नहीं ली, जबकि वही विनाश उनकी भी प्रतीक्षा कर रहा था।
यही दशा इस संसार की है। मनुष्य देखता है कि लोभ-मोह किस तरह आदमी को दुर्गति में, संकट में डालता है, फिर भी वह दुनिया के इन दुर्गुणों से बचने की कोशिश कम ही करता है। परिणामत: अनेक मनुष्यों की भी वही दुर्गति होती है, जो उन लोभी मक्खियों की हुई।
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Old 29-06-2013, 09:11 AM   #39
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विदेशी तिरंगा

हर स्वतंत्रता दिवस पर मेरे दादाजी हमारे घर की छत पर तिरंगा फहराया करते थे और हम राष्ट्रीय गीत गाया करते थे। १९९७ में १५ अगस्त के दिन मैंने यह तय किया कि मेरी तीन साल की बेटी को अपने घर में तिरंगा फहराकर स्वदेश भक्ति के बारे में सचेत किया जाय।
हमने तिरंगा ख़रीदने का निश्चय किया। काग़ज़ के बने छोटे-छोटे तिरंगे झंडे उस समय भी बेचे जाते थे लेकिन मैं कपड़े का बुना हुआ झंडा अपने घर में फहराना चाहती थी। कैंप की एक भी दुकान में मुझे कपड़े का बुना हुआ तिरंगा नहीं मिला। एक बुजुर्ग ने बताया कि कपड़े का बुना हुआ तिरंगा झंडा सिर्फ़ स्कूल, कॉलेज, और सरकारी दफ़्तरों में ही लहराया जाता है। व्यक्तिगत स्थानों जैसे घरों में झंडा फहराना कानून के ख़िलाफ़ था। पुणे में भी मैंने कभी किसी घर में तिरंगे को लहराते नहीं देखा था। सीधे, सत्यवादी और सरल जीवन व्यतीत करने वाले मेरे दादाजी ने इन क़ानूनों और अपने उसूलों को तोड़ना कभी सही नहीं समझा लेकिन हमें हमेशा इस बात को लेकर प्रोत्साहित ज़रूर करते रहते थे। मैंने भी अपने दादाजी की तरह इस बात को लेकर कभी पहल नहीं की मुझे लगा कि इस बात के दूसरे पक्ष को परखने की हिम्मत और उचित अधिकार मुझमें नहीं थे।
१९९८ में १५ अगस्त को एक साल अधिक बड़ी और बुद्धिमान, मैंने अपने दादाजी के देशभक्ति के प्रोत्साहन पर ग़ौर करना ज़्यादा उचित समझा। इस बार मैंने शहर के दूसरे सिरे से तिरंगे की खोज शुरू की, हर जगह जवाब वही था। तभी लौटते समय एक इमारत की चौथी मंज़िल की बालकनी में तिरंगा लहराता हुआ दिखाई दिया। मैंने ऊपर जा कर मालिक से पूछा कि यह तिरंगा उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। उनके जवाब से मैं हैरान रह गई। उन्होंने कहा, "विदेश से।"

ज़रा सोचिए! देश की आज़ादी की ५० वीं सालगिरह पर हम अपने फ़ोन से यंत्रवत तरीके से वंदेमातरम कहकर बधाई देने से लेकर बंकिम चंद्र चटर्जी के वंदेमातरम को ए. आर. रहमान की धुनों में रूपांतरित कर टी.वी. के हर चैनल दिखाते और सार्वजनिक स्पीकरों पर बजाते हैं, बोर्डो से लेकर बसों, ऑटो रिक्शा और लारियों को 'मेरा भारत महान' से पोत देते हैं, इस दिन सुबह से अपने सारे नेता भारत की स्वतंत्रता के गुणगान करते नज़र आते हैं, वहीं ब*ड़ों की दी हुई सीख और गर्व की परंपरा को निभाने के लिए यदि हम हमारा तिरंगा फहराना चाहते हैं तो उसे ख़रीदने क्या हमें विदेश जाना होगा?

एक मित्र ने कहा था कि विश्व के अधिकतर देशों में हर व्यक्ति अपने घर में एक झंडा ज़रूर रखता है और अपने राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर उसे फहराने में गर्व अनुभव करता है जबकि भारतीय स्वदेश में रहकर भी अपने तिरंगे को घर में रखना ज़रूरी ही नहीं समझते। हम भारतीय जो विदेशों की सैर को गर्व से जताने से नहीं चूकते, उन्होंने कभी अपने ही भारत की सैर कर उसे जानने की कितनी कोशिश की है? हम जब विदेशों की सैर करते हैं तब कुछ यादगार चीज़ें वहाँ से लाते हैं लेकिन आज ग़ौर करने का समय आया है कि हम कितने भारतीयों के घरों में कोणार्क चक्र की प्रतिकृति है? जब हम विदेशी झंडों और विश्वविद्यालयों के चिह्नों से अंकित कपड़े गर्व के साथ धारण करते है तो क्या हम उसी शौक से अपनी मातृभूमि के नारों से सजे कपड़े पहनते हैं? सालोंसाल भारत में रहने वाले विदेशी अपने अंग्रेज़ी भाषा बोलने की लहज़े को नहीं बदलते, वहीं थोड़े सालों में अमरीका जाकर हम भारतीय विदेशी लहज़े में हिंदी बोलना सीख कर लौटते हैं ऐसा जब किसी विदेशी ने ही मुझसे कहा होगा तो आप सोच सकते हैं, मैंने कैसे महसूस किया होगा।
बाद में, काफ़ी छानबीन के बाद इस पुणे शहर में हमें एक छोटी-सी दुकान में कपड़े से बुना हुआ तिरंगा मिल ही गया। इस तरह १५ अगस्त १९९८ को हमने अपने घर में तिरंगा फहराया और राष्ट्रीय गीत गाया तब मेरी चार साल की बेटी ने इसे खुशी से देखा और शायद गर्व भी महसूस किया कि भारत का झंडा उसके घर में फहर रहा था।
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विश्वास
एक डाकू था जो साधू के भेष में रहता था। वह लूट का धन गरीबों में बाँटता था। एक दिन कुछ व्यापारियों का जुलूस उस डाकू के ठिकाने से गुज़र रहा था। सभी व्यापारियों को डाकू ने घेर लिया। डाकू की नज़रों से बचाकर एक व्यापारी रुपयों की थैली लेकर नज़दीकी तंबू में घूस गया। वहाँ उसने एक साधू को माला जपते देखा। व्यापारी ने वह थैली उस साधू को संभालने के लिए दे दी। साधू ने कहा की तुम निश्चिन्त हो जाओ।

डाकूओं के जाने के बाद व्यापारी अपनी थैली लेने वापस तंबू में आया। उसके आश्चर्य का पार न था। वह साधू तो डाकूओं की टोली का सरदार था। लूट के रुपयों को वह दूसरे डाकूओं को बाँट रहा था। व्यापारी वहाँ से निराश होकर वापस जाने लगा मगर उस साधू ने व्यापारी को देख लिया। उसने कहा; "रूको, तुमने जो रूपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों ही है।"
अपने रुपयों को सलामत देखकर व्यापारी खुश हो गया। डाकू का आभार मानकर वह बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। सरदार ने कहा; "व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैली दे गया था। उसी कर्तव्यभाव से मैंने उन्हें थैली वापस दे दी।"
किसी के विशवास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी हमेशा के लिए शक के घेरे में आ जाती है।
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