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19-11-2012, 04:13 PM | #1 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
यदि आप इन चित्रों को ज़ूम करें तो यहाँ की भवन निर्माण कला तथा सुन्दर भित्ति चित्रांकन का आनंद ले सकते हैं. इन हवेलियों के भूतल (ground floor) पर आम तौर से तहखाने बनाए जाते थे. कभी खूबसूरत रहीं ये शानदार विशालकाय बहुमंजिली हवेलियाँ आज काफी खस्ता हालत में हैं. इनकी दीवारों पर अंकित चित्र भी काफी हद तक मौसम की मार तथा वक्त के थपेडों से क्षतिग्रस्त हुये हैं, धूमिल हो चुके हैं या नष्ट होने की कगार पर हैं. सुनते हैं कि राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से कुछ हवेलियों और उनके चित्रों के पुनरुद्धार का काम हाथ में लिया गया है. लेकिन यह काम इतना खर्चीला और व्यापक है कि वर्तमान में चल रहे काम को ऊँट के मुँह में जीरा ही कहा जाएगा. जिस प्रकार हम आज शहरों में सेरेमिक टाईलों का इस्तेमाल देखते हैं उसी प्रकार शेखावाटी की इन हवेलियों में दीवारों पर ऐसे सफ़ेद प्लास्टर का प्रयोग किया जाता था जिसकी चमक टाईलों से किसी प्रकार कम नहीं थी. जिन दीवारों पर यह प्लास्टर लगाया जाता था जो बीसियों साल तक ज्यों का त्यों बना रहता था और वहाँ बार बार सफेदी अथवा डिस्टेम्पर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. Last edited by Dark Saint Alaick; 28-11-2012 at 11:05 PM. |
19-11-2012, 04:20 PM | #2 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
लगभग तीन दशक के बाद, जब मैं कुछ अरसा पहले वहाँ फिर गया तो मैंने देखा कि श्री रावत मल पारख की जिस हवेली में मैं सन १९७८ तक रहा था उसके बाहरी जालीदार दरवाजे और ऊपर चढ़ती सीढ़ियों के बीचोंबीच पीपल का एक पेड़ उग आया था जिसका भरा पूरा तना देख कर मालूम पड़ता था कि पिछले तीस वर्षों से वहाँ किसी व्यक्ति ने कदम नहीं रखा.
चूरू शहर की प्रमुख और पुरानी हवेलियों में से माल जी का कमरा (जिसके दालान में इतालवी स्थापत्य कला के स्तम्भ और मूर्तिकला के दर्शन होते हैं यद्यपि इनमे काफी टूट फूट हो चुकी है), सुराणा हवा महल (इसका यह नाम कई मालों पर लगी इसकी सैकड़ों, शायद ११००, खिड़कियों के कारण पड़ा), कन्हैया लाल बागला की हवेली, बांठिया हवेली, जय दयाल खेमका की हवेली, पोद्दारों की हवेली आदि सैंकडों छोटी बड़ी हवेलियाँ देखने वालों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं. इस नगर की अधिकतर हवेलियाँ आज उजाड़ हालत में हैं और जर्जर हो चुकी हैं. इन में कोई नहीं रहता. जैसे विलियम डेलरिम्पल ने दिल्ली की प्राचीन और उजाड़ ऐतिहासिक इमारतों के कारण दिल्ली को ‘दि सिटी ऑफ जिन्न’ कहा है, उसी प्रकार यह संज्ञा चूरू (या शेखावाटी) के लिये और भी उपयुक्त लगती है. रात के समय इन भूतिया हवेलियों में घुसने के लिये लोहे का कलेजा चाहिए. |
19-11-2012, 04:26 PM | #3 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
चूरू नगर प्रसिद्ध है अपने मारवाड़ी सेठों के लिये. ये लोग दशाब्दियों पहले यहाँ से व्यापार की खातिर महानगरों में पलायन करने लगे थे. कहते हैं की ये मारवाड़ी यहाँ से बंबई, कलकत्ता और अहमदाबाद आदि बड़े औद्योगिक – व्यापारिक केन्द्रों में जा कर बस गए थे. एक किम्वदंति के अनुसार यहाँ से जाते हुये इन मारवाड़ियों के पास केवल एक लोटा होता था. कालान्तर में उन्होंने अपनी व्यापारिक सूझ बूझ के बल पर अकूत धन सम्पदा अर्जित की और उन्होंने अपने पैत्रिक स्थान में बड़ी रीझ से व रुचिपूर्वक विशालकाय हवेलियाँ निर्मित कीं जिनमे उनकी रईसी के दर्शन होते थे. हवेलियों के निर्माण के बाद मालिकान अधिक समय तक नहीं रह पाते थे. मालिक सपरिवार ब्याह शादियों या इसी प्रकार के बड़े अवसरों पर यहाँ पधारते लेकिन कुछ दिन ठहरने के बाद वापिस चले जाते. इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी यह सिलसिला चलता रहा और बाद में वह भी बन्द हो गया.
रिहाइश न होने के कारण इन हवेलियों के सभी कमरों के दरवाजों पर सीलबंद ताले जड़ दिए गए (हवेलियों के सभी कमरे एक चौक में खुलते हैं). देख भाल की जिम्मेदारी एक विश्वासपात्र चौकीदार को सौंप दी जाती थी. आज स्थिति यह है कि अधिकतर हवेलियों में चौकीदार भी नहीं रहे. प्रवेशद्वार भी खुले रहते हैं और उनमे चमगादड़ और कबूतर निवास करते हैं. Last edited by rajnish manga; 20-11-2012 at 03:01 PM. |
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