02-04-2011, 10:51 AM | #111 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा, “हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।
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02-04-2011, 10:51 AM | #112 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया। फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले, “वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।
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02-04-2011, 10:52 AM | #113 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा, “हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी काम-वासना जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी काम-वासना को शांत करें।” उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले, “हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा, “तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।
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02-04-2011, 10:52 AM | #114 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले, “वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।”
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02-04-2011, 10:52 AM | #115 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
अर्जुन की वापसी
पाण्डवगण उत्तराखंड के अनेक मनमोहक द*ृश्यों को देखते हुये ऋषि आर्ष्टिषेण के आश्रम में आ पहुँचे। उनका यथोचित स्वागत सत्कार करने के पश्*चात् महर्षि आर्ष्टिषेण बोले, “हे धर्मराज! आप लोगों को अब गन्धमादन पर्वत से और आगे नहीं जाना चाहिये क्योंकि इसके आगे केवल सिद्ध तथा देवर्षिगण ही जा सकते हैं। अतः आप लोग अब यहीं रहकर अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करें।” इस प्रकार पाण्डवों की मण्डली महर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम में ही रह कर अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। उस प्रतीक्षा-काल में भीम ने वहाँ निवास करने वाले समस्त दुष्टों और राक्षसों का अन्त कर दिया।
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02-04-2011, 10:52 AM | #116 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
उधर जब अर्जुन देवराज की पुरी अमरावती में रह रहे थे तो एक दिन इन्द्र ने उनसे कहा, “हे पार्थ! यहाँ रहकर तुम समस्त अस्त्र-शस्त्रादि विद्याओं में पारंगत हो चुके हो और तुम्हारे जैसा धनुर्धर इस जगत में कदाचित ही कोई दूसरा होगा। अब में तुम मेरे शत्रु निवातकवच नामक दैत्य से युद्ध करके उसका वध करो। यही तुम्हारे लिये गुरुदक्षिणा होगी।” इतना कहने के बाद इन्द्र ने अर्जुन को अमोघ कवच पहनाकर तथा अपने दिव्य रथ में बिठाकर अर्जुन को निवातकवच के साथ युद्ध के लिये भेज दिया। उस रथ में बैठकर अर्जुन निवातकवच की नगरी में पहुँचे जो कि समुद्र में बसा था।
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02-04-2011, 10:53 AM | #117 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
यह देखकर कि वह नगरी इन्द्र की पुरी अमरावती से भी अधिक मनोरम थी, अर्जुन आश्*चर्यचकित रह गये। उनके आश्*चर्य का निवारण करने के लिये इन्द्र के सारथी मातलि बोले, “हे अर्जुन! पहले देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित इसी नगरी में निवास करते थे। किन्तु ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर निवातकवच अत्यन्त प्रबल हो गया और इन्द्र पर विजय प्राप्त कर लिया फलस्वरूप देवराज को इस नगरी को छोड़कर अमरावती में जाना पड़ा।” मातलि की बात सुनकर अर्जुन ने अपने शंख की ध्वनि से उस नगरी को गुँजा दिया।
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02-04-2011, 10:53 AM | #118 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
शंख की ध्वनि सुनकर निवातकवच अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अर्जुन से युद्ध करने आ गया। दोनों महारथियों में घोर युद्ध होने लगा और अन्त में अर्जुन के हाथों निवातकवच मारा गया। निवातकवच के वध करके वापस आने पर देवराज इन्द्र ने उनके पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा, “हे पार्थ! अब यहाँ पर आपका कार्य समाप्त हुआ। आपके भाई गन्धमादन पर्वत पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। चलिये मैं आपको अब उनके पास पहुँचा दूँ।” इस प्रकार अर्जुन देवराज इन्द्र के साथ उनके रथ में बैठकर गन्धमादन पर्वत में अपने भाइयों के पास आ पहुँचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने देवराज इन्द्र का विधिवत् पूजन किया। अर्जुन भी ऋषिगणों, ब्राह्मणों, युधिष्ठिर तथा भीमसेन के चरणस्पर्श करने के पश्*चात् नकुल, सहदेव तथा मण्डली के अन्य सदस्यों से गले मिले। इसके पश्*चात देवराज इन्द्र उस मण्डली की गन्धमादन पर्वत पर स्थित कुबेर के महल में रहने की व्यवस्था कर वापस अपने लोक चले गये।
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02-04-2011, 10:54 AM | #119 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
जयद्रथ की दुर्गति
एक बार पाँचों पाण्डव आवश्यक कार्यवश बाहर गये हुये थे। आश्रम में केवल द्रौपदी, उसकी एक दासी और पुरोहित धौम्य ही थे। उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ, जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था, उधर से निकला। अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रौपदी पर उसकी द*ृष्टि पड़ी और वह उस पर मुग्ध हो उठा। उसने अपनी सेना को वहीं रोक कर अपने मित्र कोटिकास्य से कहा, “कोटिक! तनिक जाकर पता लगाओ कि यह सर्वांग सुन्दरी कौन है? यदि यह स्त्री मुझे मिल जाय तो फिर मुझे विवाह के लिया शाल्व देश जाने की क्या आवश्यकता है?”
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02-04-2011, 10:54 AM | #120 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
मित्र की बात सुनकर कोटिकास्य द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, “हे कल्याणी! आप कौन हैं? कहीं आप कोई अप्सरा या देवकन्या तो नहीं हैं?” द्रौपदी ने उत्तर दिया, “मैं जग विख्यात पाँचों पाण्डवों की पत्*नी द्रौपदी हूँ। मेरे पति अभी आने ही वाले हैं अतः आप लोग उनका आतिथ्य सेवा स्वीकार करके यहाँ से प्रस्थान करें। आप लोगों से प्रार्थना है कि उनके आने तक आप लोग कुटी के बाहर विश्राम करें। मैं आप लोगों के भोजन का प्रबन्ध करती हूँ।” कोटिकास्य ने जयद्रथ के पास जाकर द्रौपदी का परिचय दिया। परिचय जानने पर जयद्रथ ने द्रौपदी के पास जाकर कहा, “हे द्रौपदी! तुम उन लोगों की पत्*नी हो जो वन में मारे-मारे फिरते हैं और तुम्हें किसी भी प्रकार का सुख-वैभव प्रदान नहीं कर पाते। तुम पाण्डवों को त्याग कर मुझसे विवाह कर लो और सम्पूर्ण सिन्धु तथा सौबीर देश का राज्यसुख भोगो।” जयद्रथ के वचनों को सुन कर द्रौपदी ने उसे बहुत धिक्कारा किन्तु कामान्ध जयद्रध पर उसके धिक्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने द्रौपदी को शक्*तिपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया।
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