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Old 10-09-2014, 10:53 AM   #1
rafik
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Thumbs down ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

मैंने स्कूल के दिनों में पढ़ी रामचंद्र जी "ईर्ष्या" साहित्य, शास्त्र जो मुझे बहुत ही प्रेरणादायक लगी !
जो एक सत्य से अवगत कराती है ,जो हम समाज में देख सकते और महसूस कर सकते !जो आपके साथ शेयर कर रहा हूँ,जो मैंने अभी इंटरनेट पर
पढ़ी है जिसका लिंक भी दे रहा हूँ
इस साहित्य का समाज से बहुत ही लेना देना है जो हमे समाज का आईना दिखाता है !
जिसमे
"ईर्ष्या"को पहलुओं पर वर्णन किया गया है
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Last edited by rafik; 10-09-2014 at 03:43 PM.
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Old 10-09-2014, 10:55 AM   #2
rafik
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल



जैसे दूसरे के दु:ख को देख दु:ख होता है वैसे ही दूसरे के सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दु:ख होता है, जिसे ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भावों के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुओं में तो शायद होता ही न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है जिसकी संप्राप्ति आलस्य, अभिमन और नैराश्य के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं तब कभी कभी ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमन हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मुझे मिले या न मिले, दूसरे के काम में न आए अर्थात् उसकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले पहल इसी रूप में व्यक्त होती है।
ईर्ष्या प्राप्ति की उत्तेजित इच्छा नहीं है। एक के पास कोई वस्तु है और दूसरे के पास नहीं है तो वह दूसरा व्यक्ति इस बात के लिए तीन प्रकार से दु:ख प्रकट कर सकता है-
1. क्या कहें, हमारे पास भी वह वस्तु होती।
2. हाय! वह वस्तु उसके पास न होकर हमारे पास होती तो अच्छा था।
3. वह वस्तु किसी प्रकार उसके हाथ से निकल जाती, चाहे जहाँ जाती।
इन तीनों वाक्यों को ध्या नपूर्वक देखने से जान पड़ेगा कि इनमें दूसरे व्यक्ति की ओर जो लक्ष्य है उसे क्रमश: विशेषत्व प्राप्त होता गया है और वस्तु की ओर जो लक्ष्य है वह कम होता गया है। पहले वाक्य से जो भाव झलकता है वह ईर्ष्या नहीं है, साधारण स्पीर्धा अर्थात् लाभ की उत्तेजित इच्छा का एक अच्छा रूप है। उसमें वस्तु की ओर लक्ष्य है, व्यक्ति की ओर नहीं। ईर्ष्याष व्यक्तिगत होती है और स्पतर्धा वस्तुगत। दूसरे वाक्य में ईर्ष्याथ का कुछ और तीसरे में पूरा आभास है। इन दोनों में से एक (दूसरे) में दूसरे को वंचित न कर सकने का दु:ख गौण और दूसरे (तीसरे) में प्रधन या एकांत है।
http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%88%E0...2#.VA_kvqPkHXQ
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Last edited by rafik; 10-09-2014 at 10:58 AM.
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Old 10-09-2014, 11:04 AM   #3
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

स्पर्धा में किसी सुख, ऐश्वर्य, गुण या मन से किसी व्यक्ति विशेष को सम्पन्न देख अपनी त्रुटि पर दु:ख होता है, फिर प्राप्ति की एक प्रकार की उद्वेगपूर्ण इच्छा उत्पन्न होती है, या यदि इच्छा पहले से होती है तो उस इच्छा को उत्तेजना मिलती है। इस प्रकार की वेगपूर्ण इच्छा या इच्छा की उत्तेजना अंत:करण की उन प्रेरणाओं में से है जो मनुष्य को अपने उन्नति साधन में तत्पर करती है। इसे कोई संसार को सच्चा समझनेवाला बुरा नहीं कह सकता। यह उत्तेीजना ऐश्वर्य गुण या मन के किसी चित्ताकर्षक रूप या प्रभाव के साक्षात्कार से उत्पन्न होती है और कभी कभी उस ऐश्वर्य, गुण या मन को धारण करनेवाले की पूर्व स्थिति के परिज्ञान से बहुत बढ़ जाती है। किसी अपने पड़ोसी या मित्र की विद्या का चमत्कार या आदर देख विद्या प्राप्ति की इच्छा उत्तेड़जित होती है और यह जानकर कि पहले वह एक बहुत साधारण बुद्धि या वित्त का मनुष्य था, यह उत्तेहजना आशाप्रेरित होकर और भी बढ़ जाती है। प्राप्ति की इस उत्तेजित इच्छा के लिए सम्पन्न व्यक्ति ऐसा मूर्तिमन और प्रत्यक्ष आधार हो जाता है जिससे अपनी उन्नति या सम्पन्नता की भी आशा बँधती है और कार्यक्रम की शिक्षा मिलती है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छावाले को किसी ऐसे व्यक्ति को देख, जिसने अपने पुरुषार्थ से वह वस्तु प्राप्त की हो, कभी कभी बड़ा सहारा हो जाता है और वह सोचता है कि 'जब उस मनुष्य ने उस वस्तु को प्राप्त कर लिया तब क्या मैं भी नहीं कर सकता?' ऐसे सम्पन्न व्यक्ति की ओर जो इच्छुक या स्पर्धावान का बार बार ध्याकन जाता है वह उसकी स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी स्थिति में परिवर्तन करने के लिए। स्पछर्धा में अपनी कमी या त्रुटि पर दु:ख होता है, दूसरे की सम्पन्नता पर नहीं। स्पछर्धा में दु:ख का विषय होता है, मैंने उन्नति क्यों नहीं की? और ईर्ष्यां में दु:ख का विषय होता है, उसने उन्नति क्यों की? स्पर्धा संसार में गुणी, प्रतिष्ठित और सुखी लोगों की संख्या में कुछ बढ़ती करना चाहती है और ईर्ष्या कम।
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Old 10-09-2014, 11:09 AM   #4
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

ऊपर के विवरण से यह बात झलक गई होगी कि ईर्ष्या एक अनावश्यक विकार है, इससे उसकी गणना मूल मनोविकारों में नहीं हो सकती। यह यथार्थ में कई भावों के विचित्र मिश्रण से संघटित एक विष है। जब किसी विषय में अपनी स्थिति को रक्षित रख सकने या समुन्नत कर सकने के निश्चय में अयोग्यता या आलस्य आदि के कारण कुछ कसर रहती है तभी इस इच्छा का उदय होता है कि किसी व्यक्ति विशेष की स्थिति उस विषय में हमारे तुल्य या हमसे बढ़कर न होने पाए। यही इच्छा बढ़कर द्वेष में परिवर्तित हो जाती है और तब उस दूसरे व्यक्ति का अनिष्ट, न केवल उस विषय में बल्कि प्रत्येक विषय में वांछित हो जाता है। वैर और द्वेष में अंतर यह है कि वैर अपनी किसी वास्तविक हानि के प्रतिकार में होता है, पर द्वेष अपनी किसी हानि के कारण या लाभ की आशा से नहीं किया जाता।
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Old 10-09-2014, 11:36 AM   #5
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

यह बात ध्याषन देने की है कि ईर्ष्या व्यक्ति विशेष से होती है। यह नहीं होता कि जिस किसी को ऐश्वर्य, गुण या मन से सम्पन्न देखा उसी से ईर्ष्याव हो गई। ईर्ष्याठ उन्हीं से होती है जिनके विषय में यह धारणा होती है कि लोगों की दृष्टि हमारे साथ साथ उन पर भी अवश्य पड़ती होगी। अपने से दूरस्थ होने के कारण अपने साथ साथ जिन पर लोगों का ध्याजन जाने का निश्चय नहीं होता उनके प्रति ईर्ष्या नहीं उत्पन्न होती। काशी में रहनेवाली किसी धानी को अमेरिका के किसी धानी की बात सुनकर ईर्ष्या नहीं होगी। हिन्दी के किसी कवि को इटली के किसी कवि का महत्तव सुनकर ईर्ष्या नहीं होगी। संबंधियों, बालसखाओं, सहपाठियों और पड़ोसियों के बीच ईर्ष्या का विकास अधिक देखा जाता है। लड़कपन से जो आदमी एक साथ उठते बैठते देखे गए हैं उन्हीं में से कोई एक दूसरे की बढ़ती से जलता हुआ भी पाया गया है। यदि दो साथियों में से कोई किसी अच्छे पद पर पहुँच गया तो वह इस उद्योग में देखा जाता है कि दूसरे किसी अच्छे पद पर न पहुँचने पाए। प्राय: अपनी उन्नति के गुप्त बाधाकों का पता लगाते लगाते लोग अपने किसी बड़े पुराने मित्र तक पहुँच जाते हैं। जिस समय संसर्ग सूत्र में बाँधकर हम औरों को अपने साथ एक पंक्ति में खड़ा करते हैं उस समय सहानुभूति, सहायता आदि की संभावना प्रतिष्ठित होने के साथ ही साथ ईर्ष्या और द्वेष की संभावना की नींव भी पड़ जाती है। अपने किसी विधन से हम भलाई ही भलाई की संभावना का सूत्रपात करें और इस प्रकार भविष्य के अनिश्चय में बाधा डालें, यह कभी हो ही नहीं सकता। भविष्य की अनिश्चयात्मकता अटल और अजेय है। अपनी लाख विद्या बुद्धि से भी हम उसे बिलकुल हटा नहीं सकते।
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Old 10-09-2014, 11:40 AM   #6
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

अब ध्याहन देने की बात यह निकली कि ईर्ष्या के संचार के लिए ईर्ष्या करनेवाले और ईर्ष्या के पात्र के अतिरिक्त स्थिति पर ध्या न देनेवाले समाज की भी आवश्यकता है। इसी समाज की धारणा पर प्रभाव डालने के लिए ही ईर्ष्या की जाती है; ऐश्वर्य गुण या मन का गुप्त रूप से बिना किसी समुदाय को विदित कराए, सुख या संतोष भोगने के लिए नहीं। ऐश्वर्य या गुण में हम चाहे किसी व्यक्ति से वस्तुत: बढ़कर या उसके तुल्य न हों, पर यदि समाज की यह धारणा है कि हम उससे बढ़कर या उसके तुल्य हैं तो हम संतुष्ट रहेंगे, ईर्ष्या का घोर कष्ट न उठाने जाएँगे। कैसी अनोखी बात है कि वस्तु प्राप्ति से वंचित रहकर भी हम समाज की धारणा मात्र से संतुष्ट रहते हैं। ईर्ष्याश सामाजिक जीवन की कृत्रिमता से उत्पन्न एक विष है। इसके प्रभाव से हम दूसरे की बढ़ती से अपनी कोई वास्तविक हानि न देखकर भी व्यर्थ दु:खी होते हैं। समाज के संघर्ष से जो अवास्तविकता उत्पन्न होती है वह हम पर प्रभाव डालने में वास्तविकता से कम नहीं। वह हमें सुखी भी कर सकती है, दु:खी भी। फारसी मसल है, मार्गे अंबोह जशने दारद। हम किसी कष्ट में हैं, इसी बीच में कोई दूसरा व्यक्ति हमसे अपना भी कष्ट वर्णन करने लगता है तो हमारे मुँह पर कुछ हँसी आ जाती है और हम कुछ आनंदित होकर कहते हैं, भाई! हम भी तो इसी बला में गिरफ्तार हैं। यदि दस पाँच आदमी वही कष्ट बतानेवाले मिलें तो हमारी हँसी कुछ बढ़ भी जाती है। एक बार किसी ने अपने संबंधी के मरने पर एक विद्वान् से पूछा, हम धैर्य कैसे धारण करें? उसने कहा, थोड़ी देर के लिए सोचो कि इसी संसार में लाखों अनाथ इधर उधर ठोकर खा रहे हैं, लाखों बच्चे बिना माँ बाप के रो रहे हैं, लाखों विधवाएँ ऑंसू बहा रही हैं। यदि हमें कोई कष्ट है तो क्या दूसरों को भी उसी कष्ट में देखकर थोड़ी देर के लिए हमारा वह कष्ट सचमुच घट जाता है? यदि नहीं घटता है तो यह हँसी कैसी, यह धैर्य कैसा? यह हँसी केवल स्थिति के मिलान पर निर्भर है, जिससे अपनी स्थिति के विशेषत्व का परिहार होता है। यह लोक संश्रय का एक गुण है कि कभी कभी स्थिति के बने रहने पर भी उसके विशेषत्व के परिहार से तत्संबंधी भावना में अंतर पड़ जाता है। पर यह अंतर ऐसा ही है जैसे रोते रोते सो जाना या फोड़ा चिराते समय क्लोरोफार्म सूँघ लेना।
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समाज में पड़ते ही मनुष्य देखने लगता है कि उसकी स्थिति दोहरी हो गई है। वह देखता है कि मैं यह हूँ, और मैं बड़ा समझा जाता हूँ। इस निश्चय के साथ एक यह निश्चय और जुड़ जाने से कि मैं बड़ा समझा जाता हूँ मनुष्य के आनंद या सुख के अनुभव में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मैं क्षुद्र हूँ इस धारणा के साथ मैं क्षुद्र समझा जाता हूँ इस धारणा के योग से दु:ख के अनुभव की वृद्धि होती है। इस प्रकार स्थिति के एकांत और सामाजिक दो विभाग हो जाने से कोई तो दोनों विभागों पर दृष्टि रख सकते हैं और कोई एक ही पर। शक्तिशाली और प्रतिभासम्पन्न मनुष्य पहले यह प्रयत्न करते हैं कि 'हम ऐसे हों'। फिर वैसे हो जाने पर यदि आवश्यक हुआ तो वे यह प्रयत्न भी करते हैं कि 'हम ऐसे समझे जाएँ'। इन दोनों के प्रयत्न जुदे जुदे हैं। संसार में शक्ति सम्पन्न सब नहीं होते, इससे बहुत से लोग स्थिति के पहले विभाग के लिए जिन प्रयत्नों की आवश्यकता है उनमें अपने को असमर्थ देख दूसरे ही विभाग से किसी प्रकार अपना संतोष करना चाहते हैं और उसी पर दृष्टि रखकर प्रयत्न करते हैं। ईर्ष्या ऐसे लोगों के हृदय में बहुत जगह पाती है और उनके प्रयत्नों में सहायक भी होती है। भाव प्रवर्तन आदि के बल से जिस समुदाय के प्राणी परस्पर ऐसे बन गए हैं कि अपने इंद्रियानुभव और भावनाओं तक को जवाब देकर दूसरों के इंद्रियानुभव और भावनाओं द्वारा निर्वाह कर सकते हैं, उसी से ईर्ष्या का विकास हो सकता है। अत: ईर्ष्या का अनन्य अधिकार मनुष्य जाति ही पर है। एक कुत्ता किसी दूसरे कुत्तो को कुछ खाते देख उसे आप खाने की इच्छा कर सकता है, पर वह यह नहीं चाह सकता कि चाहे हम खाएँ या न खाएँ वह दूसरा कुत्ता न खाने पाए। दूसरे कुत्तोंर की दृष्टि में हमारी स्थिति कैसी है, इसकी चिंता उस कुत्तो को न होगी।
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Old 10-09-2014, 11:46 AM   #8
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

अपने विषय में दूसरों के चित्त में अच्छी धारणा उत्पन्न करने का प्रयत्न अच्छी बात है। इस प्रयत्न को जो बुरा रूप प्राप्त होता है वह असत्य के समावेश के कारण, दूसरों की धारणा की अवास्तविकता और अपनी स्थिति की सापेक्षता के कारण, जब हम अपने विषय में दूसरों की झूठी धारणा और अपनी स्थिति के सापेक्ष रूप मात्र से संतोष करना चाहते हैं तभी बुराइयों के लिए जगह होती है और ईर्ष्यान की राह खुलती है। जैसी स्थिति हमारी नहीं है, जैसी स्थिति प्राप्त करने की योग्यता हममें नहीं है, हम चाहते हैं कि लोग हमारी वैसी स्थिति समझें। जैसी स्थिति से वास्तव में हमें कोई सुख नहीं है वैसी स्थिति किसी दूसरे के समन या दूसरे से अच्छी स्वयं समझने से नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा समझी जाने से ही हम संतोष करते हैं। ऐसे असत्य आरोपों के बीच यदि ईर्ष्या् ऐसी असार वृत्ति का उदय हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।
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Old 10-09-2014, 11:48 AM   #9
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ऊपर जो कुछ कहा गया उससे शायद यह धारणा हो सकती है कि ईर्ष्यात अप्राप्त वस्तु ही के लिए होती है। पर यह बात नहीं है। हमारे पास जो वस्तु है उसे भी दूसरे के पास देखकर कभी कभी हमें बुरा लगता है, हम दु:खी होते हैं। किसी गरीब पड़ोसी को क्रमश: धानी होते देख आसपास में धानी माना जानेवाला मनुष्य कभी कभी बुरा मनने लगता है। एक ऊँची जाति का आदमी किसी नीच जाति के आदमी को अपने ही समन वस्त्रा आदि पहने देख बुरा मनता और कुढ़ता है। इसका कारण यह अस्थायी बुद्धि या अहंकार है कि 'हम ऊँचे हैं वह नीचा है, हम बड़े हैं, वह छोटा है।' लोक व्यवस्था के भीतर कुछ विशेष वर्ग के लोग, जैसे- शिष्ट, विद्वान्, धर्म चिंतक, शासन कार्य पर नियुक्त अधिकारी, देश रक्षा में प्राण देने को तैयार वीर इत्यादि औरों से अधिक आदर और सम्मान के पात्र होते हैं। इनके प्रति उचित सम्मान न प्रदर्शित करना अपराध है। अन्य वर्ग के लोग धार्मानुसार इन्हें बड़ा मनने को विवश हैं। पर इन्हें दूसरों को छोटा प्रकट करने या मनने तक का अधिकार नहीं है। जहाँ इन्होंने ऐसा किया कि सम्मान का अस्तित्व खोया।
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Old 10-09-2014, 02:26 PM   #10
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Thumbs down Re: ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्

न्यायाधीश न्याय करता है, कारीगर ईंट जोड़ता है। समाज कल्याण के विचार से न्यायाधीश का साधारण व्यवहार में कारीगर के प्रति यह प्रकट करना उचित नहीं कि तुम हमसे छोटे हो। जिस जाति में इस छोटाई बड़ाई का अभिमन जगह जगह जमकर दृढ़ हो जाता है, उसके भिन्न भिन्न वर्गों के बीच स्थायी ईर्ष्या स्थापित हो जाती है, और संघ शक्ति का विकास बहुत कम अवसरों पर देखा जाता है। यदि समाज में उन कार्यों की, जिनके द्वारा भिन्न भिन्न प्राणी जीवन निर्वाह करते हैं परस्पर छोटाई बड़ाई का ढिंढोरा न पीटा जाए, बल्कि उनकी विभिन्नता ही स्वीकार की जाए, तो बहुत सा असंतोष दूर हो जाए, राजनीतिक स्वत्व की आकांक्षा से स्त्रियों को पुरुषों की हद में न जाना पड़े, सब पढ़े लिखे आदमियों को सरकारी नौकरियों ही के पीछे न दौड़ना पड़े। जहाँ इस छोटाई बड़ाई का भाव बहुत प्रचार पा जाता है और जीवन व्यवहारों में निर्दिष्ट और स्पष्ट रूपों में दिखाई पड़ता है, वहाँ लोगों की शक्तियाँ केवल कुछ विशेष विशेष स्थानों की ओर प्रवृत्त होकर उन उन स्थानों पर इकट्ठी होने लगती हैं और समाज के कार्य विभागों में विषमता आ जाती है। अर्थात् कुछ विभाग सूने पड़ जाते हैं, और कुछ आवश्यकता से अधिक भर जाते हैं, जैसा कि आजकल इस देश में देखा जा रहा है। यहाँ कृषि, विज्ञान, शिल्प, वाणिज्य आदि की ओर तब तक पढ़े लिखे लोग ध्यायन न देंगे जब तक कुछ पेशों और नौकरियों की शान लोगों की नजरों में समाई रहेगी। इस प्रकार की शान प्राय: किसी शक्ति के अनुचित प्रयोग में अधिक समझी जाती है। कोई पुलिस का कर्मचारी जब अपने पद का अभिमन प्रकट करता है तब यह नहीं कहता कि 'मैं जिस बदमाश को चाहूँ उसको पकड़कर तंग कर सकता हूँ' बल्कि यह कहता है कि 'मैं जिसको चाहूँ उसको पकड़कर तंग कर सकता हूँ।
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