03-04-2011, 08:30 PM | #1 |
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प्रादेशिक लोकगीत
होली मेँ गाया जाने वाला फगुआ बिना रंगोँ के ही , भीतर कोने कोने को रंगीन कर डालता था । अपने अब्बू के साथ गाँव जाने पर चौपाल मेँ आल्हा की तान सुनता था तो मेरी माटी की ख़ुश्बू पूरी फ़िजां मे बिखरी मिलती थी । शादी के वक़्त गायी जाने वाली गालियोँ की मिठास शायद ही मेरे मुल्क़ के इलावा कहीँ और मिले । ये मेरा नसीब है कि मैँने इस मुल्क़ मेँ जन्म लिया और कजरी , सोहर , बन्ना मेँ छिपी अपनी जड़ोँ को गौर से देखा । पर न जाने आज कैसी वक़्त की मार पड़ी कि हमारे ये लोकगीत हाशिये पर चले गये और चली गयी हमारी तहज़ीब की मिठास । आपकी मीठी यादोँ को ताजा करने के लिये कुछ लोकगीत इस सूत्र मेँ लेकर आया हूँ । आपकी हौसला आफजाई इस सूत्र को बरक़रार रखने मेँ मेरी मदद करेगी ।
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03-04-2011, 08:32 PM | #2 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
विवाह–गीत
अन्दर से लाड्डो बाहर निकलो कँवर चौंरी चढ़ गयौ होय लो न रुकमण सामणी -मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया लखिया सा बाबा मेरी सामणी। तेरे बाबा को अपणी दादी दिला दूँ होय लो न रुकमण सामणी। -मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया लखिया सा ताऊ मेरी सामणी तेरे ताऊ को अपणी ताई दिला दूँ होय लो न रुकमण सामणी -मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया लखिया सा भाई मेरी सामणी तेरे भाई को अपणी बाहण दिला दूँ, होय लो न रुकमण सामणी -मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया लखिया सा बाबुल मेरी सामणी तेरे बाबुल को अपणी अम्मा दिला दूँ होय लो न रुकमण सामणी।
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03-04-2011, 09:40 PM | #3 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अँगना में रौरा मचाइल चिरैयाँ सत-बहिनी !
बिरछन पे चिक-चिक, किरैयन में किच-किच,चोंचें नचाइ पियरी पियरी ! चिरैयाँ सत-बहिनी ! एकहि गाँव बियाहिल सातो बहिनी,मइके अकेल छोट भइया, 'बिटियन की सुध लै आवहु रे बिटवा' कहि के पठाय दिहिल मइया ! 'माई पठाइल रे भइया, मगन भइ गइलीं चिरैंयाँ सत-बहिनी !' सात बहिन घर आइत-जाइत, मुख सुखला, थक भइला, साँझ परिल तो माँगि बिदा भइया आपुन घर गइला! अगिल भोर पनघट पर हँसि-हँसि बतियइली सत-बहिनी ! हमका दिहिन भैया सतरँग लहंगा, हम पाये पियरी चुनरिया, सेंदुर-बिछिया हमका मिलिगा, हम बाँहन भर चुरियाँ ! भोजन पानी कौने कीन्हेल अब बूझैं सत-बहिनी ! का पकवान खिलावा री जिजिया? मीठ दही तू दिहली ? री छोटी तू चिवरा बतासा चलती बार न किहली ? तू-तू करि-करि सबै रिसावैं गरियावैं सत-बहिनी ! भूखा-पियासा गयेल मोर भइया , कोउ न रसोई जिमउली , दधि-रोचन का सगुन न कीन्हेल कहि -कहि सातों रोइली , उदबेगिल सब दोष लगावैं रोइ-रोइ सत-बहिनी ! 'तुम ना खबाएल जेठी?', 'तू का किहिल कनइठी?' इक दूसर सों कहलीं एकल हमार भइया, कोऊ तओ न पुछली सब पछताइतत रहिलीं ! साँझ सकारे नित चिचिहाव मचावें गुरगुचियाँ सत-बहिनी!
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03-04-2011, 09:42 PM | #4 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अंगना में कुइयाँ खोनाइले, पीयर माटी नू ए,
ए ललना जाहिरे जगवहु कवन देवा, नाती जनम लिहले हो। नाती जनमले त भल भइले, अब वंस बाढ़हू ए। ए ललना देह घालऽ सोने के हँसुअवा, बाबू के नार काटहु ए। ए ललना देइ घालऽ सोने के खपड़वा, बाबू के नहवाईवि ए। ए ललना जाहि रे जगवहु कवन देवा, नाती जनम लिहले ए । नाती जनमले त भल भइले, अब वंस बाढ़हु ए । ए ललना देई घालऽ रेशमऽ के कपड़वा, जे बाबू के पेनहाइवि ए ।
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03-04-2011, 09:45 PM | #5 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अंजन की सीटी में म्हारो मन डोले चला चला रे डिलैवर गाड़ी हौले हौले ।। बीजळी को पंखो चाले, गूंज रयो जण भोरो बैठी रेल में गाबा लाग्यो वो जाटां को छोरो ।। चला चला रे ।। डूंगर भागे, नंदी भागे और भागे खेत ढांडा की तो टोली भागे, उड़े रेत ही रेत ।। चला चला रे ।। बड़ी जोर को चाले अंजन, देवे ज़ोर की सीटी डब्बा डब्बा घूम रयो टोप वारो टी टी ।। चला चला रे ।। जयपुर से जद गाड़ी चाली गाड़ी चाली मैं बैठी थी सूधी असी जोर को धक्का लाग्यो जद मैं पड़ गयी उँधी ।। चला चला रे ।। शब्दार्थ: डलेवर= ड्राईवर
गाबा= गाने लगना डूंगर= पहाड़ नंदी= नदी ढांडा= जानवर जद= जब (जदी, जर और जण भी कहा जाता है) असी= ऐसा, इतना
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03-04-2011, 09:49 PM | #6 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अजी बाबा जी अजी ताऊ जी हमारे आप वर ढूँढो सास हो जैसी गऊ माता ससुर हों दिल्ली के दादा जी। पति हों बाल ब्रह्मचारी जो राखै प्राणों से प्यारी जी गड़ा दो केले के खम्बे जी दिला दो वेद से फेरे जी। ( इस गीत में इसी प्रकार पिता ,चाचा, जीजा ,बड़े भाई से यह गीत सम्बोधित होकर आगे बढ़ता है) फेरों के गीत-2 हम तो हो गए हैरान लाड्डो तेरे लिए…
गोकुल भी ढूँड्या लाड्डो मथुरा भी ढूँड्या ढूँड्या- ढूँड्या शेरपुर लाड्डो तेरे लिए… सारे कॉलिज के लड़के भी ढूँड्डे ढूँड्या- ढूँड्या ये लल्लू लाड्डो तेरे लिए… बिन्दी भी देंगे लाड्डो टिक्का भी देंगे देंगे- देंगे ये झूमर लाड्डो तेरे लिए…
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03-04-2011, 09:52 PM | #7 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अपना बन्ना फूल गुलाबी, बन्नो चम्पे की कली
इनकी मनोहर जोड़ी लागे कितनी भली अपना बन्ना फूल गुलाबी, बन्नो चम्पे की कली बहना के घर में ये पहली ख़ुशी है पहली ख़ुशी बड़ी देर से मिली है सपना पूरा हुआ, मन की आशा फली इनकी मनोहर जोड़ी लागे कितनी भली अपना बन्ना फूल गुलाबी, बन्नो चम्पे की कली दिन रंग भरे आएँगे, होगी हर रात दिवाली संग ले के चली अपने घर, अब दिया जलाने वाली प्यारे भैया ने पाई दुल्हन साँचे में ढली इनकी मनोहर जोड़ी लागे कितनी भली अपना बन्ना फूल गुलाबी, बन्नो चम्पे की कली
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03-04-2011, 09:59 PM | #8 |
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Join Date: Nov 2010
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
शुक्रिया जनाब ! ख़ालिस देशी लोकगीतोँ के माध्यम से एक ताज़ा हवा का झोँका आया है जो हमारी पोर पोर को शीतलता का अहसास करायेगा । इन लोकगीतोँ की रचना किसने की , किसी को भी नहीँ मालूम , बस विरासत मेँ ये मिलते गये । हमारे ये परम्परागत गीत हमारी अमूल्य थाती हैँ । इन गीतोँ मेँ छिपी है भारतीय संस्कृति और बसा है जीवन दर्शन । आपके सूत्र की सफलता के लिये मेरी शुभकामनायेँ ।
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दूसरोँ को ख़ुशी देकर अपने लिये ख़ुशी खरीद लो । |
03-04-2011, 10:14 PM | #9 | |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
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उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार
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04-04-2011, 06:59 AM | #10 |
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Re: प्रादेशिक लोकगीत
अमवा के लागेला टकोरवा रे संगिया
गूलर फरे ले हड़फोर गोरिया के उठेलाहा छाती के जोबनवाँ पिया के खेलवना रे होइ भावार्थ 'आमों के टिकोरे लग गए, ओ संगी ! गूलर भी हड्डियों को फोड़कर फलों से लद गए हैं गोरी के उरोज भी उभर आए हैं अरे ये तो प्रियतम के लिए खिलौने बनेंगे !'
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