28-10-2011, 06:31 AM | #1 |
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हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
28-10-2011, 06:35 AM | #2 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिए ।
जंग है ज्यादा जरूरी या सुलह कुछ सोचिए। यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी, पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिए। मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर, अब कहां होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिए। अब कहां ढूंढें भला अवशेष हम ईमान के, खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिए। दे न पाए रोटियां बारूद पर खर्चा करे, या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिए। आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहां, क्या तलाशी जाएगी इसकी वजह कुछ सोचिए। -महेश अग्रवाल
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28-10-2011, 06:39 AM | #3 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
भड़कने की पहले दुआ दी गई थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गई थी। मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूं, ये जीने की कैसी अदा दी गई थी। बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो, पलट कर मुझे क्यों सदा दी गई थी। अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब बढा़, शम्मा तब ही बुझा दी गई थी। मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था, मेरी हैसियत यूं बता दी गई थी। सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया, मेरी शख्सियत ही भुला दी गई थी। गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं, तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी। -कृष्ण सुकुमार
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28-10-2011, 06:41 AM | #4 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला। आज़माइश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है, इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला। दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से, ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला। सरहदें रोक न पाएंगी कभी रिश्तों को, खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला। रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी, रोज़, हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला। तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में, ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला। यूं तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है, गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला। -मुफ़लिस लुधियानवी
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28-10-2011, 06:44 AM | #5 | |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
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28-10-2011, 06:45 AM | #6 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है।
यादों का तेरी कितना अनमोल उजाला है। वो कैसे समझ पाए दुनिया की हकीक़त को, सांचे में उसे अपने जब दुनिया ने ढाला है। ये दिन भी परेशां है ये रात परेशां है, लोगों ने सवालों को इस तरह उछाला है। इंसानियत का मन्दिर अब तक न बना पाए, वैसे तो हर इक जानिब मस्जिद है शिवाला है। सपनों में भी जीवन है फुटपाथ पे सोते हैं, जीने का हुनर अपना सदियों से निराला है। सब एक खुदा के ही बन्दे हैं जहां भर में, नज़रों में मेरी कोई अदना है न आला है। गंगा भी नहा आए तन धुल भी गया लेकिन, मन पापियों का अब तक काले का ही काला है। -विनय मिश्र
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28-10-2011, 06:48 AM | #7 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक। तपस्या भंग सी लगने लगी है, कहां से आ गई ’तितली’ अचानक। अभी सामान तक खोला नहीं था, यहां से भी हुई बदली अचानक। समझ में आ रहा है स्वर पिता का, विमाता कर गई चुगली अचानक। तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर, मुझे आने लगी मितली अचानक। ये पापी पेट भरने की सजा है, नचनिया, बन गई तकली अचानक। मछेरे की पकड़ से छूटते ही, नदी में जा गिरी मछली अचानक। -जहीर कुरेशी
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28-10-2011, 06:52 AM | #8 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
हम हुए आजकल नीम की पत्तियां ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियां । गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं, कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियां । खून का घूंट हम खून वे पी रहे, स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियां । सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिए, हो रही खुद खरल नीम की पत्तियां। आग की लाग हैं सूखते बांस वन, अब न होंगी सजल नीम की पत्तियां। वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी, सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियां। एक छल है गुलाबी फसल देश में, दरअसल हैं असल नीम की पत्तियां । -रामकुमार 'कृषक'
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28-10-2011, 06:56 AM | #9 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था। वो ज़माना भी कितना अच्छा था, मिलना-जुलना था आना-जाना था। यक-बयक मां की आंख भर आई, हाल बेटे ने उसका पूछा था। दिल मचलता है चांद की खातिर, ऐसा नादां भी इसको होना था। उसको आना था ऐसे वक्त कि जब, कोई ग़फ़लत की नींद सोता था। दिल है बेचैन उसके जाने पर, बेवफाई ही उसका पेशा था | -अनु जसरोटिया
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28-10-2011, 06:59 AM | #10 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख। लौट के धरती पर आ जा, अब ना चांद सितारे लिख। हवा-हवाई ही मत रह, कुछ तो ठोस-करारे लिख। पाला मार रहा सबको, लिख,जलते अंगारे लिख। दुरभि-संधियां फैल रहीं, इनके वारे-न्यारे लिख। समझौतों की रुत में भी, खुद्दारी ललकारे लिख। सिर पर है बाज़ार चढा़, जो यह ज्वार उतारे लिख। जहां-जहां अंधियारे हैं, वहां-वहां उजियारे लिख। हार-जीत जो हो सो हो, लेकिन मन ना हारे लिख। -शिवकुमार ’पराग’
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