06-11-2011, 12:16 PM | #21 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
महो छावनी में 1928 में जन्मे अमीक़ 'हन्फी' उन कुछ शोअरा में हैं, जो पुरानी पीढ़ी के प्रतिनिधि होते हुए भी आधुनिक उर्दू शायरी की रहनुमाई भी उसी कौशल से करते हैं ! उनके सृजन में उर्दू अदब की पारंपरिक धड़कनें मौजूद हैं, तो आधुनिक उर्दू जगत भी उन्हें अपनी जमात में खड़ा पाता है ! अपनी ग़ज़लों में हिंदी के विशिष्ठ शब्दों के खूबसूरत प्रयोग उन्हें उर्दू काव्य जगत के प्रयोगवादी रचनाकारों की पांत में ला खड़ा करते हैं ! यहां प्रस्तुत है उनकी एक छोटी, लेकिन साहित्य जगत की कसौटियों की दृष्टि से बड़ी ग़ज़ल ! आनंद उठाएं ! मैं भी कब से चुप बैठा हूं, वो भी कब से चुप बैठी है है ये विसाल की रस्म अनोखी, ये मिलने की रीत नई है वो जब मुझको देख रही थी, मैंने उसको देख लिया था बस इतनी सी बात थी लेकिन बढ़ते-बढ़ते कितनी बढ़ी है बेसूरत बेज़िस्म आवाज़ें अन्दर भेज रही हैं हवाएं बंद हैं कमरे के दरवाज़े लेकिन खिड़की खुली हुई है मेरे घर की छत के ऊपर सूरज आया, चांद भी उतरा छत के नीचे के कमरों की जैसी थी, औक़ात वही है ________________________________________ शोअरा : शायर का बहुवचन, विसाल : मिलन, बेसूरत : जिसका कोई चेहरा न हो, अनजान, बेजिस्म : जिसका कोई शरीर न हो, औक़ात : स्थिति
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 03:17 AM. |
06-11-2011, 12:18 PM | #22 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'मुनीर' नियाज़ी
होशियारपुर में 1928 में जन्मे मोहम्मद मुनीर खां उर्दू काव्य जगत में 'मुनीर' नियाज़ी के नाम से विख्यात हैं ! इश्क-ओ-हुस्न (प्रेम और सौंदर्य) 'मुनीर' की शायरी के केन्द्रीय विषय अवश्य हैं, लेकिन इन पर भी नज़र उनकी अपनी है और इसके साथ-साथ वे अपने इर्द-गिर्द से बेखबर भी नहीं हैं ! ग़ज़ल के रिवायती अल्फाज़ और प्रचलित तरकीबों के बल पर ही उन्होंने अपना रचना - संसार खड़ा किया है, लेकिन ज़मीन बिलकुल नई और खुद अपनी तलाशी है ! आइए, बिताएं इस अनूठी साहित्यिक ज़मीन पर कुछ नायाब लम्हे ! बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना छलकाए हुए फिरना खुशबू लबे-लाली की इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना उस हुस्न का शेवा है जब इश्क नज़र आए परदे में चले जाना, शरमाए हुए रहना इक शाम सी कर रखना, काजल के करिश्मे से इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना आदत ही बना ली है तुमने तो 'मुनीर' अपनी जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना ____________________________________ जज्बा : भावना, लबे-लाली : लाल होंठ, शेवा : ढंग
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10-11-2011, 08:42 PM | #24 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
माजिद-उल-बाकरी 'माजिद'
आगरा के निकटवर्ती मोहम्मदाबाद में 1928 में जन्मे 'माजिद' उर्दू काव्य जगत में एक चर्चित और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनके सृजन में लोक, इर्द-गिर्द के बिम्ब और यथार्थ मुखर हैं, किन्तु उनका अपना मुहावरा और बात करने का अपना अलग ढंग उर्दू अदब में उन्हें जुदा मुकाम अता करता है ! ऐसा नहीं है कि 'माजिद' की शायरी उर्दू काव्य परंपरा की इश्किया धारा से सर्वथा दूर है और उसके तमाम प्रतीक जुदा हैं, लेकिन उनका अपना अंदाज़े-बयां और अल्फ़ाज़ के चयन में हिंदी-उर्दू के झगड़े को दूर का सलाम कहना उनके कलाम को एक ऐसी अनोखी रवानी देता है कि पढने-सुनने वाला उन्हें सलाम करता है ! आइए, पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल और सलाम करें उनके अनोखे अंदाज़ को ! वो ज़र्द चेहरा मुअत्तर निगाह जैसा था हवा का रूप था, बोलो तो आह जैसा था अलील वक्त की पोशाक था बुखार उसका वो एक जिस्म था, लेकिन कराह जैसा था भटक रहा था अंधेरों में दर्द का दरिया वो एक रात का जुगनू था, राह जैसा था गली के मोड़ पर ठहरा हुआ था इक साया लिबास चुप का बदन पर निबाह जैसा था चला तो साए की मानिंद साथ-साथ चला रुका तो मेरे लिए मेहरो - माह जैसा था क़रीब देख के उसको ये बात किससे कहूं ख़याल दिल में जो आया, गुनाह जैसा था बहुत सी बातों पे मजबूर था वो हम से भी तकल्लुफात में आलम निबाह जैसा था खबर के उड़ते ही यूं ही मर गया 'माजिद' पुराने घर का समा, जश्ने-निगाह जैसा था ________________________________ मुअत्तर : सुगन्धित, अलील : बीमार, मेहरो - माह : सूर्य और चन्द्र, तकल्लुफात : औपचारिकताएं, आलम : स्थिति, समा : दृश्य, जश्ने-निगाह : दृष्टि का उत्सव
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10-11-2011, 08:45 PM | #25 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
राजनारायन 'राज'
अविभाजित भारत के बिलोचिस्तान के लोरालाई में 1930 में जन्मे राजनारायन 'राज' उर्दू काव्य जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनकी शायरी, विशेषकर ग़ज़लों में रिवायती धड़कनों अर्थात फ़ारसीयत की छाप को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है ! इसके बावजूद अपने इर्द-गिर्द और समाजी हलचलों पर वे पैनी नज़र करते चलते हैं ! वक़्त की जरूरतें और बदलाव के स्वर भी उनकी शायरी में पूरी तरह मुखर हैं ! आइए, आनन्द लें राजनारायन 'राज' की एक ऐसी ही ग़ज़ल का - जाने किस ख्वाब का सय्याल नशा हूं मैं भी उजले मौसम की तरह एक फ़ज़ा हूं मैं भी राह पामाल थी, छोड़ आया हूं साथी सोते कोरी मिट्टी का गुनहगार हुआ हूं मैं भी कैसी बस्ती है, मकीं जिसके हैं बच्चे बूढ़े क्या मुकद्दर था, कहां आके रुका हूं मैं भी एक बेचेहरा सी मख्लूक है चारों जानिब आईनो, देखो मुझे, मस्ख़ हुआ हूं मैं भी हाथ शमशीर पे है, ज़ेहन पसो-पेश में है 'राज' किन यारों के माबैन खड़ा हूं मैं भी _______________________________ सय्याल : तरल, फ़ज़ा : वातावरण, पामाल : दलित, दबी-कुचली; मकीं : निवासी, रहने वाले; मख्लूक : प्राणी वर्ग, जानिब : ओर, मस्ख़ : विकृत, टूटा; शमशीर : तलवार, ज़ेहन : मस्तिष्क, पसो-पेश : असमंजस, माबैन : दरवाज़े पर !
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16-11-2011, 03:30 AM | #26 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
मुस्तफा ज़ैदी
इलाहाबाद में 1930 में पैदा हुए मुस्तफा ज़ैदी शुरुआत में 'तेग़' इलाहाबादी के तख़ल्लुस से शायरी किया करते थे, लेकिन विभाजन के वक़्त पाकिस्तान जाने के लिए इलाहाबाद छूटा, तो यहां का नाम यहीं छोड़ गए और नए मुल्क में नया इस्मे-शरीफ 'मुस्तफा ज़ैदी' अपनाया ! किन्तु उन्हें न नया मुल्क रास आया, न नया नाम ! बाद की चालीस साला काव्य-यात्रा इसी बात की गवाह है कि उनकी रग-रग में इलाहाबाद बसा हुआ था, जिससे वे मरते-मरते भी पीछा नहीं छुड़ा पाए ! उन्होंने कहा भी था - इन्हीं पत्थरों प' चलकर अगर आ सको तो आओ मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है पढ़ें उनकी इसी स्थिति का अफसोस और दर्दनाक बयान करती यह ग़ज़ल - नगर-नगर मेले को गए, कौन सुनेगा तेरी पुकार ऐ दिल, ऐ दीवाने दिल, दीवारों से सर दे मार रूह के इस वीराने में, तेरी याद ही सब कुछ थी आज तो वो भी यूं गुज़री, जैसे गरीबों का त्योहार पल-पल सद्दियां बीत गईं, जाने किस दिन बदलेगी एक तिरी आहिस्ता-रवी, एक ज़माने की रफ़्तार पिछली फ़स्ल में जितने भी अहले-जुनूं थे काम आए कौन सजाएगा तेरी मश्क़ का सामां अबकी बार सुबह के निकले दीवाने अब क्या लौट के आएंगे डूब चला है शहर में दिन, फैल चला है सायादार ______________________________ तख़ल्लुस : उपनाम, इस्मे-शरीफ : शुभनाम, कहकशां : आकाशगंगा, छायापथ; प' : पर, दर्दनाक : पीड़ाजनक, रूह : आत्मा, सद्दियां : सदी का बहुवचन, सदियां; आहिस्ता-रवी : धीमी गति, फ़स्ल : ऋतु, अहले-जुनूं : जुनून वाले, उन्मादी लोग; मश्क़ : अभ्यास, सायादार : वृक्ष की छाया
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16-11-2011, 07:36 AM | #27 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
रचनाकारों के इन चित्रों के साथ तो सूत्र और अभी दर्शनीय हो गया है.
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
16-11-2011, 08:06 AM | #28 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बिलकुल मैं भी यही कहना चाहता हूँ
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
16-11-2011, 10:31 AM | #29 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
अब काफी अच्छा लग रहा है।
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17-11-2011, 10:19 AM | #30 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'मख्मूर' सईदी
राजस्थान की तत्कालीन टोंक रियासत में 1934 के दिसंबर की इकतीसवीं तारीख को पैदा हुए सुलतान मुहम्मद खां उर्दू अदब में 'मख्मूर' सईदी के रूप में बड़ी पहचान रखते हैं ! अंग्रेजी, कन्नड़ और फ़ारसी रचनाओं से उर्दू पाठकों का परिचय कराने वाले 'मख्मूर' के 'गुफ्तनी', 'सियाह बर सफ़ेद', 'आवाज़ का जिस्म', 'सबरंग', 'पेड़ गिरता हुआ' आदि शायरी के नौ संकलन तथा अनेक अन्य संपादित ग्रन्थ प्रकाशित हुए ! साहित्यिक पत्रिका 'तहरीक़' का भी उन्होंने लम्बे समय तक सम्पादन किया ! उन्हें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकादमियों ने उनकी रचना-धर्मिता के लिए सम्मानित किया ! यहां पढ़ें उनकी एक ग़ज़ल - आंखों के सब ख़्वाब कहीं खो जाते हैं आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर' चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं ------------------------------------------------------------------ ख्वाब : स्वप्न, सपना; दरमां : चिकित्सा, वाबस्ता : जुड़े हुए, सम्बंधित, सम्बद्ध; मंज़र : दृश्य, ख्वाबे-सफ़र : यात्रा का स्वप्न, तसव्वुर : कल्पना, ज़ेहन : मस्तिष्क, मर्क़द : समाधि-भवन
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