14-01-2013, 11:56 PM | #201 |
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Re: छींटे और बौछार
स्फूर्ति आ गयी है जन जन में आज कैसी सुगंध छा गयी है वातावरण में कैसी हैरान हैं ये लोग परेशान हैं ये लोग आज लग रही है हर वस्तु नई जैसी चौंकिए ना कोई, यह माया अनंत है फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है रंगीले पुष्प खिल गए हैं आज डाल डाल पर भ्रमर यूथ गा रहे हैं आज स्वर ताल पर ठुमक ठुमक नाच रही तितलियाँ समूह में लाली आ गयी है आज कलियों के गाल पर घूँघट की ओट किये बैठी दुल्हन नयी लज्जा से आँखें नत, सामने ही कन्त है फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है स्वागत के लिए खड़े अति विनम्र द्रुम सभी हरित पट से तन ढके, नग्न थे जो कभी मुस्कुरा रहा है व्योम, खिलखिला रही धरा पवन मंद बह रही, खुश हैं खग-मृग सभी लहलहा रहे हैं आज, सरसों के खेत 'जय' सुभाशीष दे रहे, जैसे साधु-संत हैं फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
20-01-2013, 06:31 PM | #202 |
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Re: छींटे और बौछार
जिसे पायलों की धुन समझा, वो बेड़ी की खनखन निकली
जिसे ब्रह्मनाद सी शांति कही, वो अपनों की अनबन निकली मृगमरीचिका लिए हुए, 'जय' भटक रहा प्रति पल प्रति दिन मीठे जल की धारा भी क्यों, वारि रहित बलुआ-नद निकली
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20-01-2013, 06:44 PM | #203 |
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Re: छींटे और बौछार
बशीर बद्र साहब की कुछ लाइने पेश कर रहा हू..!!
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
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20-01-2013, 06:57 PM | #204 |
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Re: छींटे और बौछार
इसी बडे शायर की दो चार लाइने और पेश है..
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता
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20-01-2013, 07:05 PM | #205 | |
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Re: छींटे और बौछार
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बिना परखे बिना जाने, कोई अपना नहीं होता जो चेहरों को समेटे ना, वो दर्पण तो नहीं होता मेरे बाजू खुले रहते, निम्न को भी उच्च को भी बिना बूँदों के मिलने से, सागर 'जय' नहीं होता
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21-01-2013, 04:25 PM | #206 | ||
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Re: छींटे और बौछार
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आप दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया. जितनी सुन्दर और भावप्रवण जय जी द्वारा प्रणीत क्रिया (मूल रचना) है उतनी ही मधुर अक्ष जी की प्रतिक्रिया भी है. बशीर साहब का ही एक शे'र हाज़िर है: कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से. ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फांसले से मिला करो. |
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21-01-2013, 06:34 PM | #207 | |
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Re: छींटे और बौछार
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सूत्र भ्रमण एवं मूल्यवान प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक अभिनन्दन रजनीश जी। नहीं मिलता गले तो क्या, न हाथों को मिलाये तो ? 'जय' अपने जैसा करता है, उन्हें भी अपना करने दो
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21-01-2013, 09:18 PM | #208 | |
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Re: छींटे और बौछार
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भले ही सहज रूप से आपने इसे रच दिया हो पर सच कहूँ तो ऐसी गुणवता के साथ ऐसी कविता लिख देना कोई आसान बात नहीं ।
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ये दिल तो किसी और ही देश का परिंदा है दोस्तों ...सीने में रहता है , मगर बस में नहीं ...
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21-01-2013, 11:17 PM | #209 |
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Re: छींटे और बौछार
रणवीर जी, सूत्र पर आपकी सार्थक अभिव्यक्ति के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। अपार आभार बन्धु।
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21-01-2013, 11:19 PM | #210 |
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Re: छींटे और बौछार
बन्धुओं, आज मैं अपने छोटे भाई के साथ हुई कुछ काव्यात्मक परिचर्चा प्रस्तुत कर रहा हूँ। वर्ष 2001 में वह कारगिल युद्ध का समय चल रहा था। जलसेना में भर्ती हुआ मेरा छोटा भाई "पञ्च" उस समय कोचीन में अपनी ट्रेनिंग ले रहा था। तभी एक दिन उसका एक पत्र मुझे मिला। जी हाँ, पत्र ही संदेशों की कड़ी थे उस समय हम लोगों के मध्य। पारिवारिक चर्चाओं के मध्य उस पत्र में पञ्च ने एक काव्यात्मक खंड भी लिखा था। इस काव्य में निहित कुछ बातों ने मेरे अंतर में द्वंद्व किया और तब मैंने उसे अगले छः सप्ताह तक प्रति सप्ताह एक पत्र लिखा था और प्रत्येक पत्र में एक कविता लिखा थी।
बन्धुओं, मैं उन्ही में से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। शायद आप सभी को रुचिकर लगे।
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