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Old 05-02-2012, 09:50 PM   #11
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 7 )

बहुत सी साधारण , छोटी - मोटी दिखने वाली चीजें आदमी के आस - पास बिखरी - चिपकी रहती हैं - - - मगर इस तेज रफ़्तार व्यस्त ज़माने में , उसे अपने ढंग से कभी यह सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती कि ये सब आखिर है क्यों . इनके अस्तित्व का औचित्य क्या है ? अब कमीज कि जेब को ही लें . छाती पर ही क्यों होती है . वह भी बायीं ओर , दिल के ऊपर ही क्यों चस्पा रहती है . कागज़ कलम या रूपये भर रखना ही अगर उद्देश्य होता तो दायीं ओर या फिर तोंद के ऊपर भी तो रखी जा सकती थी . उसके नियत स्थान के पीछे कुछ तो शुरुवाती कारण रहा होगा . कोई चीज प्रारम्भ होकर , अनवरत रहकर , यूं ही तो परम्परा नहीं बन जाती . है न ? दिल के ऊपर जेब का आविष्कारक निश्चित ही कोई मौलिक व सच्चा आशिक रहा होगा . तभी तो उसने इसके लिए यह ख़ास व संवेदनशील जगह चुनी . संभवतः उसकी कोई प्रेमिका रही होगी . उसकी अनुपस्थिति में भी , उसकी मधुर यादों को दिल से चिपकाये रखने की , इससे अधिक उपयुक्त जगह इस स्थान विशेष पर स्थित जेब के अतिरिक्त और हो भी क्या सकती थी . और अगर उस दिलदार आविष्कारक का विचार मौलिक , ह्रदय स्पर्शी , सर्व प्रिय और सर्व मान्य न होता तो बायीं तरफ जेब - रुपी परम्परा बनकर आज तक जिंदा नहीं रह सकता था . आखिर हर व्यक्ति की ज़िन्दगी में किसी न किसी की तस्वीर जेब में रखने - बसाने का वक्त कभी न कभी तो आता ही है .
इन दिनों गुलशन भी कुछ ऐसे ही दौर से गुज़र रहा था . उसने पायल की फोटो को अपनी बांयी छाती पर धड़कती जेब से निकालकर गुमसुम नज़रों से निहारा और दूसरा पैग हलक के नीचे उड़ेल कर बुरा - सा मुंह बनाया - - - जैसे नीम का अर्क पी गया हो .
और तभी !
गेसू कमरे में दाखिल हुई . घुसते ही उसके मस्तिष्क पर आश्चर्य का एक भरपूर हथौड़ा पड़ा और उसके हाथों के तोते उड़ गए . हतप्रभ हुई गेसू को गुलशन का ये रूप देख कर ऐसा लगा , जैसे उसने खुदा को खून करते देख लिया हो . उसके मन में गुलशन के लिए बड़ी इज्जत थी और उसने उसके इस रूप के बारे में कभी कल्पना तक नहीं की थी . सच ही है - - - प्रायः हम दूर से सितारों को जितना चमकदार समझते है - - - वास्तव में नज़दीक से वो उतने रौशन होते नहीं .
दोनों की निगाहें चार होते ही - - - गुलशन ने हड़बड़ा कर बोतल को छिपाने का प्रयास किया . और क्योंकि प्रयास हड़बड़ाहट में किया गया था , अतः उसे तो असफल होना ही था .
विस्मय भरे अंदाज़ में गेसू पलंग पर उसके समीप बैठते हुए बोली -- " ओह - - - तो नशा करते हो ! "
" नहीं ! दर्द पर शराब का छिड़काव करता हूँ - - - उसे कम करने की गरज से . " गुलशन ने कराहता जवाब दिया .
" आखिर दर्द काहे का है ? "
" क्या करोगी जानकर ! " गुलशन ने उसकी बात को टालना चाहा .
गेसू उसकी मंशा भांपकर बोली -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! लगता है - - - तुम मेरी बात का जवाब नहीं देना चाहते . टालना - टरकाना चाहते हो . मगर मैं समझती हूँ - - - कि तुम्हारे इस व्यवहार से मेरे विचारों का दमन होगा . और ध्यान रखो - - - विचारों के दमन से श्रृद्धा नहीं , विरोध जागता है . अगर कोई कुछ समझना चाहता है - - - तो उसकी बात का समाधान होना ही चाहिए . तुम्हें मेरे प्रश्न का उत्तर देना ही चाहिए . मुझे अपने दर्द में साझीदार बनाकर तो देखो . "
" लेकिन हम - तुम अभी इतने अधिक परिचित भी तो नहीं - - - कि मैं तुम्हें अपने दर्द में शामिल करूँ ."
" मगर अब - - - हम लोग एक दूसरे के लिए अपरिचित भी तो नहीं रह गए . दोस्त ! मुलाक़ात चाहे घंटों की हो या वर्षों की - - - ये तो सामीप्य का प्रश्न है . यदि आत्मीयता है - - - तो अपना दर्द सुनाया जा सकता है . किसी नजदीकी के सामने अपने दर्द को बेपर्दा करके मन का बोझ थोड़ा हल्का किया जा सकता है - - - और इससे कभी - कभी दर्द से उबरने का उपाय भी सामने आ जाता है . "
" - - - - - - " गुलशन चुप रहा .
गेसू ही पुनः बोली -- " वैसे शायद - - - मैं ये जानती हूँ कि तुम्हें दर्द काहे का है . उसी का न ! जिसकी फोटो तुम्हारी जेब में है - - - और जिसे थोड़ी देर पहले तुम बड़े ध्यान से देख रहे थे !! लेकिन जहां तक मेरा ख़याल है - - - वो तुम्हें मिलने से रही . "
" तो क्या हुआ ! एक खूबसूरत दुर्लभ फूल को - - - जिसे आदमी पा नहीं सकता - - - छूना चाहता है - - - और जिसे छू भी नहीं सकता - - - उसे मात्र देखना चाहता है . तसल्ली का कोई न कोई तरीका तो तलाशना ही पड़ता है . "
" हाँ - - - सो तो ठीक है - - - पर इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम अपनी तलाश में बौखला कर अपना खोया हुआ ऊँट गगरी में तलाशो . शराब के प्याले में डूब कर अपना भविष्य चौपट करो . उसे अन्धकार मय बनाओ !! "
" अंधकार मय ! " गुलशन दर्द में पगी कुम्हलाई मुस्कान बिखेर कर बोला -- " अरे - - - मेरा तो कोई भविष्य ही नहीं है . "
" मैं ये मानती हूँ मेरे दोस्त - - - कि तुम्हारे साथ - - - तुम्हारे ख़याल में एक बड़ी त्रासदी घट गयी है - - - मगर शराब से समस्यायें तो हल नहीं होतीं . "
" राहत तो मिलती है . मैं इसमें शान्ति तलाश करता हूँ . "
" शान्ति बाहरी वस्तुओं में तलाशना व्यर्थ है दोस्त . वो तो इंसान के अन्दर छुपी रहती है . बस - - - उसे तलाशने का सही तरीका आना चाहिये . और ज़रा सोचो - - - शराब भी क्या शान्ति दे सकती है ? "
" कम से कम उलझे हुए विचारों और उबलते हुए उद्गारों को कदाचित सामयिक तौर पर दबा तो देती है . "
" अरे क्या ख़ाक दबा देती है ! मैं तो कहती हूँ , चेतना ही मार देती है . शराब पीने से चेतना ही लुप्त हो जाती है . जबकि चेतना ही मनुष्य को ईश्वर से मिली सबसे बड़ी नियामत है और चेतना ही यदि लुप्त हो जाए तो मनुष्य जानवर भर है - - - क्योंकि जानवरों का स्वभाव होता है कि वो दुखों को उतनी सूक्ष्मता से अनुभव नहीं करते , जितना कि मनुष्य . " गेसू समझाने लगी -- " गुलशन ! तुम्हारा ह्रदय प्रेम की असफलता में जल रहा है - - - और तुम - - - तुम आग से आग बुझाने का बचकाना प्रयास कर रहे हो . "
" नहीं - -- - मैं आग से आग बुझा नहीं रहा - - - बल्कि मैं तो आग से आग लगा रहा हूँ . " गुलशन हारी - भारी आवाज़ में बोला -- " गेसू ! ये बात और है - - - कि वो निर्मित न हो सकें , वैसे हर मस्तिष्क में कुछ ताजमहल होते हैं . और मैं - - - मैं चाहता हूँ कि दहकती हुई इस आग में जलकर मेरे दिमाग का ताजमहल राख हो जाए ."
" देखती हूँ - - - ये तुम नहीं बोल रहे . तुम्हारा नशा बोल रहा है . शराब में डूबकर आदमी - आदमी नहीं रह जाता . सिर्फ नशा बन जाता है . एक बदसूरत नशा . "
" लेकिन मैं इस नशे में वो ख़ुशी पाता हूँ - - - जो सामान्य अवस्था में नहीं मिलती . नशे की अवस्था में - - - कम से कम मैं हंस - मुस्करा तो सकता हूँ - - - और कुछ क्षण जी भी लेता हूँ . " इतना कहकर गुलशन सचमुच हँस पड़ा -- " ह - - - हा - - - हा . "
किन्तु उसकी इस हंसी पर गेसू के मन में दया उमड़ आयी . वह पूर्ववत गंभीर मुद्रा में ही बोली -- " मेरे दोस्त ! इन कहकहों से तुम खुद को बहला रहे हो या फिर मुझे बहकाना चाहते हो !! मै अच्छी तरह देख - परख रही हूँ - - - तुम्हारी हंसी बीमार है , खोखली है , झूठ है , फरेब है , एक नकली ओढ़ी हुई जिंदगी को उम्र देने का बहाना है ." वह कहती रही -- " और सरकार की जालिम कृपा से ये जहर --शराब -- सरेआम बिकती है . अनाज काले बाजार के गोदामों में पड़ा रोता है और ये निगोड़ी दिलजलों को बर्बाद करने के लिए चौराहों पर सजी दुकानों में चमचमाती है . "
" हुँह - - - - - -." गुलशन ने एक छोटी और फीकी मुस्कान फेंकी .
" गुलशन ! आदतों पर यदि अंकुश न रखा जाए तो वो निरंकुश ज़रूरतें बन जाती हैं . मै एक हितैषी के नाते तुम्हें समझाती हूँ कि शराब की आदत अच्छी नहीं होती ."
" आदत कोई भी हो कभी अच्छी नहीं होती . फिर भी - - - आदत तो आखिर आदत ही होती है . "
" हाँ - - - आदत वो मोटी रस्सी है - - - जिसको धीरे - धीरे व्यक्ति स्वयं बटता है और मजबूत हो जाने पर खुद ही उसे तोड़ने में अपने को असमर्थ पाता है . "
" - - - - - - - - ." गुलशन खामोश रहा .
गेसू बात की दिशा बदल कर बोली -- " गुलशन ! मुझे पता चल चुका है कि तुम्हें पायल से प्यार है . "
" तो इसमें आश्चर्य क्या . ये तो आगे - पीछे होना ही था . इश्क और असली व्यक्तित्व अधिक दिनों तक छुपाये नहीं छुपते . "
" मगर मेरी समझ में ये नहीं आता कि जब पायल इश्क में तुम्हारी संगत को तैयार नहीं - - - तो तुम क्यों उसी का राग छेड़े पड़े हो ! "
" काश - - - तुमने कभी प्यार किया होता तो मेरा दर्द जानती . "
" हँह - - - ज्यादातर चोट खाए व्यक्ति इसी गलत फहमी में जीते हैं की उन्हीं का दर्द सबसे बड़ा है . "
" - - - - - - - -- "
" गुलशन ! मेरे दोस्त !! इस दुनिया में हर व्यक्ति अपने - अपने स्तर पर अपने - अपने महत्व के युद्ध लड़ रहा है किन्तु तुम प्रेम के मैदान में पराजित होकर , इस तरह अपना जीवन बर्बाद करके एक तरह से आत्महत्या ही कर रहे हो . जबकि मोहब्बत तो हर हाल में अमृत है . पूरी हो जाए तो सोने पर सोहागा की तरह गृहस्थी संवार देती है और अधूरी रहने पर भी ये दर्पण की तरह आदमी को उसकी कमियों - कमजोरियों का एहसास कराकर उसे महानता की बुलन्दियों तक पहुंचा सकती है . मोहब्बत में असफल व्यक्ति - - - मोहब्बत की प्रेरणा के सहारे - - - क्या से क्या नहीं कर सकता ! किसी के प्यार को न पाने के बाद व्यक्ति का जीवन कुछ ऐसी करवट लेता है कि वह ज़िन्दगी के क्षेत्र विशेष में कुछ चमत्कार भी कर सकता है . लेकिन अफ़सोस - - - कि मैं तुममे ऐसी किसी संभावना कि आहट नहीं पा रही . तुम तो तालाब के बंधे जल की तरह ठहर गए हो . जहाँ निरर्थक जलकुम्भी - सी बे लगाम विस्तार पायी किसी की दुखद यादों ने तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व को ही ढक - जकड़ कर सीमित कर दिया है . तुम तो बस पायल के प्यार का ही रोना लिए बैठे हो . तुम्हें तो उसके ख़याल से ही फुर्सत नहीं . "
" तुम ठीक कह रही हो गेसू . जैसे पपड़ीयाए घाव को छेड़ने में कुछ अजीब सा दर्द भरा सुख मिलता है , वैसा ही सुख मुझे पायल की याद में - - - उसके ख़यालों के घेरे में मिलता है . "
" लेकिन इन सबसे पायल न मिल सकेगी दोस्त . तुम्हारे लिए उसको भूलने की कोशिश करना ही अच्छा है . "
" कैसे भूलूँ ! पायल मेरी ज़िन्दगी में आने वाली पहली औरत है - - - और पहली औरत को भुला पाना संभव नहीं है . "
" ज़रा कोशिश करके तो देखो . समय गुज़रते - गुज़रते - - - पानी पर बने अक्स की तरह - - - उसकी यादों के काले बादल तुम्हारे दिल - दिमाग से छंट जायेंगे , मिट जायेंगे . "
" गेसू ! समय पुरानी यादों के झरनों को परिस्थितियों की झाड़ियों तले ढांक जरूर सकता है , उसे सुखा - मिटा नहीं सकता . "
" ऐ दोस्त ! भावनाओं के झरने में बहने से पहले जीवन की वास्तविकताओं के बारे में मनन करो - - - तो बेहतर होगा . "
" लेकिन मुझे तो पायल के विचारों से ही फुर्सत नहीं . मैं केवल ये जानता हूँ - - - कि मैं पायल को चाहता हूँ ."
" किन्तु केवल चाहने भर से तो सब कुछ नहीं मिलता . योग्यता चाहिए , प्रयास चाहिए और चाहिए भाग्य . बिना इन तीनों का संगम हुए अनुकूल परिणाम असंभव ही समझना चाहिये . मैं फिर कहूँगी कि तुम पायल को भूल जाओ . "
" कुछ गम भुलाए नहीं जाते गेसू . "
" मै जानती हूँ - - - लेकिन मेरा अनुभव ये कहता है कि बीतते समय के साथ गम धीरे - धीरे स्वतः हल्का हो जाता है . "
" यह तो समय ही बतायेगा - - - पर अभी तो मुझे पायल कि स्मृतियाँ , उसकी यादें , क्षण प्रतिपल कचोटती रहती हैं . " गुलशन धीरे - धीरे वाक्य को घसीटते हुए बोला -- " मगर करूँ क्या ! अब वही स्मृतियाँ ही तो जीवन का सहारा हैं . और शेष है भी क्या ! "
" तुम्हारा ख़याल एकतरफा है गुलशन . मेरी समझ में तो स्मृतियाँ ही ह्रदय पर बोझ डालकर कचोटती हैं , डुबो देना चाहती हैं - - - और वही डूबते को सहारा भी देती हैं . "
" वो कैसे ? "
" वो ऐसे - - - कि जब हम अपनी स्मृतियों को जीवन की अमूल्य निधि मानकर पथ - प्रदर्शक की भाँति उन्हें बनाए रखना चाहते हैं , उनसे सबक लेते हैं - - - तो वो सहारा देती है - - - और जब उन्ही स्मृतियों को फिर से जीवन के व्यवहार में लाना - दोहराना चाहते हैं , तो वो अभाव बनकर व्याकुल करने लगती हैं . "
" लेकिन जब मुझे पायल की स्मृति मात्र से बल मिलता है तो उसे पाने की इच्छा को कैसे भुला सकता हूँ ! " गुलशन नशे की झोंक में दीवानों की तरह बोला .
उसकी तोता रटन्त से झुंझलाकर गेसू कहने लगी -- " ओफ्फोह - - - पता नहीं किस मिट्टी के बने हो तुम . तुम्हारा जीवन भी कितना अजीब है . "
" हाँ गेसू मुझे अपना जीवन - - - जैसा हो गया और जैसा मैं चाहता था - - - उसका द्वन्द जान पड़ता है . "
" गुलशन ! तुम्हारी सोच एक सामान्य सच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं . इसमें विशेष क्या है ! क्योंकि ऐसा तुम अनोखे के साथ ही नहीं है . ऐसा तो प्रायः होता है . आदमी जो होता है और जो होना चाहता है - - - केवल वही नहीं रह जाता . बहुत कुछ और भी अनचाहा अकल्पित जुड़ जाता है उसके साथ . गुजरते वक्त के साथ , परिस्थितियों के सांचे में ढलकर , आदमी का आकार बदल जाता है . जैसे कि तुम्हारा . मैं तो कहती हूँ - - -ज़िन्दगी की राहों में जो कुछ मिलता है - - - स्वीकार कर लो - - - क्योंकि उसे नकारा नहीं जा सकता . यही ज़िन्दगी का मूलमंत्र है . मेरे हिसाब से - - - आदमी के लिए बेहतर ये रहता है कि वो ज़िन्दगी के साथ जबरन चस्पा हो गयी इन अनपेक्षित चीजों - घटनाओं से ताल मेल बैठाकर इन्हीं के साथ सन्तोष पूर्वक जीना सीख ले . वर्ना दुःख के सिवाए कुछ हाथ न आएगा , " गेसू ने कहा -- " समझ में नहीं आता कि प्रतिकूल वास्तविकताओ से मुंह चुराकर कब तक तुम पायल के दुःख को सहन करते रहोगे . "
" जिस दुःख का उपाय नहीं , सीमा नहीं , उसे भाग्य मानकर सहते रहने के अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है ! " गुलशन निराशा के भाव में बोला .
गेसू दयाद्र हो उठी -- " उफ़ - - - कितनी कडुवाहट बटोरे हो तुम , अपने जीवन में . "
" सच ही कहा तुमने गेसू . मेरी जिंदगी बहुत कडुवी है . नीम की पत्ती की तरह . जब तक रहेगी - - - कडुवापन लिए रहेगी - - - और धीरे - धीरे पीली पड़कर एकदिन अचानक झड़ जायेगी . सच्चाई तो ये है कि मेरी ज़िन्दगी मुझे हर मर्ज की एक कडुवी खुराक से मिलाकर बनायी गयी लगती है "
" दोस्त ! समय रहते अपने आपको संभालो . अगर बीता हुआ कल तुम्हारे बीच इसी तरह आता रहा - - - तो तुम आज को कभी भी ईमानदारी से जी नहीं पाओगे . उस लड़की के इंतज़ार ने तुम्हें बर्बाद करके छोड़ा है . तुम्हारा सुख - चैन - - - . "
गेसू अभी अपना वाक्य पूरा भी न कर पायी थी कि गुलशन नें अपनी सख्त अंगुलियाँ उसके नर्म होठों पर रख दीं और बोला -- " न - - - ``- - - ऐसा मत कहो . उसने दिया भी मुझे कुछ कम नहीं . सच तो ये है कि पायल ने अन्जाने में मुझे जो दिया है - - - कोई और दे भी नहीं सकता . उसने मुझे प्रेरणा दी है और मेरी सोई हुई कला को प्रेरित किया है . उसकी याद में जब मेरा दिल तड़पता है तो मेरी कला की देवी व्याकुल हो उठती है और - - - . "
" और तुम एक हाथ में जाम और दूसरे में कलम उठा लेते हो . यही ना ! " गेसू व्यंग्य कसने के बाद धीरे से बोली -- " गुलशन ! मुझे तो तुम जीवन की सबसे ऊंची इमारत से गिरी हुई एक अजूबी मूर्ति मालूम पड़ते हो , जिसके टुकड़े - टुकड़े हो गए हैं - - - और हर टुकड़ा अपना अलग जीवन गुजार रहा है . कोई टुकड़ा कलम संभाले है , तो कोई जाम . कोई ठहाके लगा रहा है , तो कोई उदास है मातम मना रहा है ."
गुलशन ने बात को दूसरी दिशा देने के विचार से कहा -- " अच्छा ये बताओ गेसू ! तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की ? "
" कोई बढ़िया आदमी ही नहीं मिला था अब तक . "
" कमाल करती हो . इतनी बड़ी दुनिया - - - और एक अदद मनपसन्द आदमी न मिला अब तक तुम्हें ! आखिर कैसा आदमी पसन्द करती हो तुम ? शादी के लिए किस तरह के आदमी की तलाश है तुम्हें ? "
" मै ऐसे आदमी की तलाश में हूँ , जो पर्वतों की तरह महान हो . दरिया की भाँति तेज और संगीतमय हो . फूल की तरह कोमल , कांटे के सदृश कठोर , सीप की भांति बन्द और कमल की तरह खुला हो ."
" फिर तो वह किसी किताब में मिलेगा . "
" उं - - - हुंअ - - - नहीं . वो मिल गया है . वो तुम हो . पर थोड़ा सा ऐब है तुममें . बस - - - तुम्हारी शराब छुड़ानी पड़ेगी . " इतना कह - - - गेसू ने थोड़ा भावुक होकर पूछा - - - " दोस्त गुलशन ! एक बात कहूं !! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं - मैं न रहूँ - - - तुम - तुम न रहो - - - बल्कि मैं और तुम मिलकर हम बन जायें ? "
उसकी बात सुनकर पहले तो गुलशन चौंका - - - मगर फिर गंभीर होकर कहने लगा -- " नहीं . कम से कम इस या शादी के मामले में नहीं . गेसू ! अमावस और पूनम की रातों के बीच बहुत सी तिथियों के अवरोध हैं . दोनों का मिलन कभी नहीं हो सकता . "

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Old 05-02-2012, 09:52 PM   #12
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

"लेकिन मैं तुम्हारे ही साए में रहकर तुम्हें संवारना चाहती हूँ . "
" गेसू शून्यताओं को सीने में लिपटाए , भूख और तंगी से जूझता हुआ मैं बड़ा हुआ हूँ . मेरे पास तुम्हें क्या मिलेगा ! मात्र गिरती हुई दीवारों का साया . समय और दुर्भाग्य के थपेड़ों ने मुझे खंडहर बना दिया है . सच तो ये है कि मैं सिर्फ पायल से प्यार करता हूँ . सिर्फ पायल से ."
" नहीं ! तुम खुद और दूसरों को धोखा देते हो . सच तो ये है कि उसे आकर्षित करने लायक तुम्हारे पास दूसरा कोई जरिया न होने के कारण तुम उस महत्वाकांक्षी लड़की को प्यार की ओट में पाना चाहते हो . जबकि मैं - - - मैं तुम्हारी बाहों में प्यार का नाटक रचाए बिना ही आना चाहती हूँ . "
" आखिर तुम प्यार को समझती क्या हो ? "
" खूब समझती हूँ . अच्छी तरह जानती हूँ . व्यक्ति प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ उस जगह करता है - - - जहाँ वह कीमत देने में असमर्थ होता है . हर वह वास्तु - - - जिसे बिना कीमत के प्राप्त करने का प्रयास किया जाय - - - उस स्वांग को प्यार कहते हैं . जो बिकाऊ नहीं है , जिसे आदमी खरीद नहीं सकता , उसे प्यार की ओट में पाना चाहता है . जैसे कि तुम पायल को . किन्तु मै तुम्हे बगैर किसी बहाने - - - बिना किसी पर्दे - प्रपंच के - - - सीधे - सीधे पाना चाहती हूँ . "
" पर मुझे तो तुम्हारे प्रस्ताव में प्यार नहीं , सेक्स नज़र आता है . "
" लेकिन मेरी नज़र में सेक्स ही वो है , जिसे तुम प्यार कहते हो . और इस तरह सेक्स ही प्यार है . प्यार का प्रमुख अंश है . बाकी सभी कुछ उसकी तैयारी है . उसके लिए एक समुचित वातावरण और विश्वास का निर्माण करना भर है . "
" गेसू मुझे तो लगता है - - - तुम्हें लगता है कि स्त्री - पुरुष के बीच सिर्फ सेक्स का ही रिश्ता है . "
" बेशक . यही एक प्रमुख रिश्ता है . गुलशन ! मुझमें इतनी हिम्मत है कि मैं कह सकूँ कि यही एक कुदरती रिश्ता है आदमी - औरत के बीच . बाकी सब व्यवस्था बनाए रखने के लिये खड़े किये गये सामाजिक अवरोध मात्र हैं . मेरे ख़याल से पारिवारिक रिश्तों को यदि छोड़ दें तो नवपरिचित हमउम्र आदमी और औरत के रिश्तों का प्रारम्भ चाहे जो भी स्वघोषित नाम देकर किया जाय - - - अगर वो लम्बे चले , तो अनुकूल एकान्त में फल - फूल कर उनका अन्त प्रायः निश्चित शारीरिक संबन्धों पर ही होता है . "
" किन्तु मुझे तो मेरे - तुम्हारे संबन्धों में ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती ! "
" थोड़ा सब्र करो . संभावना भी बनेगी और मूर्त रूप भी लेगी . ज़रा गुजरते समय के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ तो होने दो . देखना ! आने वाला कल मेरी बातों का सबूत बन कर आएगा . "
इतना कहते - कहते वह भावुक हो उठी . उसने अधीर हो पूछा -- " बताओ दोस्त ! क्या तुम मुझे अपनी बाहों में जगह देना पसन्द करोगे ? "
" अक्ल से काम लो गेसू . फिलहाल मैं गरीब हूँ . मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ . मेरे पास तुम्हारे स्तर को बनाए रखने के लिये धन - साधन , जमीन - जायदाद नहीं है . "
" तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं , यह सच है - - - लेकिन मेरी नज़र में तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी व आकर्षक चीज़ है , जो आम आदमी , विशेष कर अमीरों में प्रायः नहीं होती . "
" क्या ? मैं समझा नहीं . "
" शराफत . तुम बेहद शरीफ हो . "
" केवल शराफत को क्या तुम शहद लगाकर चाटोगी ? "
" तब फिर पायल को किस बूते पर पाना चाहते हो ? वह भी तो तुमसे पूछ सकती है कि तुम्हारी सूखी शराफत को वह ओढ़ेगी या बिछाएगी - - - या फिर पतीली में पकाकर अपने पेट की आग बुझाएगी क्या ?"
" लेकिन मैं क्या करूँ ! मैं दिल के हाथों मजबूर हूँ . मैं उसके बगैर अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता . सोच तक नहीं सकता ."
" तुम्हारे सोचने न सोचने से क्या ! तुम क्या सोचते हो कि तुम्हारी दीवानगी पर रहम खाकर पायल तुम्हारी बाहों में आ जायेगी !! " गेसू तनिक कटु होकर बोली -- " सच - सच सुन लो दोस्त ! फिलहाल तुम कवि ह्रदय लेखक हो और कल्पना की लम्बी पतंगें उड़ाते हो - - - लेकिन सच्चाई तो यही है कि कुछ रिश्तों , कुछ अपवादों को यदि छोड़ दें , तो दुनिया में कोई किसी से मोहब्बत नहीं करता . ये सब बेकार कि बातें हैं . बेकार का रोना है . व्यक्ति बस अपने आपसे - - - अपनी इच्छाओं से मोहब्बत करता है , जैसे कि तुम्हारी इच्छा है कि तुम पायल को पाओ - - - क्योंकि पायल तुम्हें अच्छी लगती है - - - और इसीलिये तुम उससे मोहब्बत का ढोंग रचाते हो . "
" तुम भी तो मुझे पाने की बात करती हो ! "
" हाँ - - - करती हूँ . लेकिन मैं तुम्हारी तरह टेसुए बहाकर गली - गली मोहब्बत कि डुग्गी नहीं पीटती . मैं तो अपनी इच्छाओं के जंगल में उड़ता हुआ आज़ाद पँछी हूँ . मेरे भीतर जो भी नैसर्गिक इच्छा पैदा होती है , मैं यथा संभव तुरत - फुरत पूरा कर डालती हूँ . जैसे - - - ."
" जैसे ? "
" जैसेकि इस वक्त मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं तुम्हें चूम लूँ ." इतना कहकर - - - गेसू ने सचमुच ही झटपट गुलशन को चूम लिया .
गुलशन इस आकस्मिक हमले से हड़बड़ाकर बोला -- " उफ़ - - - बड़ी स्पष्ट हो ."
" हाँ - - - इसीलिए उलझाव से दूर हूँ . " वह कहती रही -- " दोस्त ! मैं उन लोगों में से नहीं हूँ - - - जो सोचते कुछ और हैं , कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं . मेरा दिल - - - मेरी जबान पर आकर बोलता है और जबान दिल का साथ देती है . एक वाक्य में - - - मैं तुम्हें बहुत पसन्द करती हूँ और सामाजिक रूप से प्राप्त करना चाहती हूँ . गुलशन ! मैंने अपना दिल तुम्हारे सामने खोलकर रख दिया है . बिल्कुल उसी तरह , जैसे कोई मासूम बच्चा बड़े प्यार से अपने किसी दोस्त को अपने घर लाता है और अलमारी में से अपने सारे खिलौने निकालकर उसके सामने रख देता है , भले ही वो उसे पसन्द आयें या न आयें . "
" लेकिन अब मैं आगे औरतों पर भरोसा करने पर यकीन नहीं रखता ."
" तुम साँप से डरे हो और रस्सी की तरफ हाँथ बढ़ाने में कतरा रहे हो . " गेसू ने कहा -- " आखिर तुमने औरतों को समझ क्या रखा है ? "
" औरत ! हुं ह !! औरत शराब से भरा एक जाम है - - - जो देखने में तो बेहद आकर्षक है - - - मगर अपने ह्रदय में एक मीठा जहर संजोये रहता है . "
" मेरे नादाँ दोस्त ! कुछ जामों में जहर होता है और कुछ में अमृत . अब इसे आदमी की किस्मत या दृष्टि का पैनापन ही कहना चाहिए कि वो अपनी प्यास बुझाने के लिए किस जाम को चुनता है . "
" - - - - - - - . " गुलशन चुप रहा .
" गेसू ने बातों को मोड़ देते हुए पूछा -- " ये बताओ - - - तुम्हें शादी कि इच्छा नहीं होती ? "
" दुनिया के भीतर अपनी एक छोटी सी दुनिया बसाने का ख़्वाब कौन नहीं देखता ! लेकिन सबके सपने तो हकीकत में नहीं ढलते . "
" गुलशन ! मेरे दोस्त !! एक बार मेरा हाथ थाम कर तो देखो - - - अपनी किस्मत कि लकीरों में मुझे बसा करके तो देखो - - - फिर जानोगे कि ज़िन्दगी कितनी हसीन और जायकेदार है . "
" जानता हूँ . ज़िन्दगी से ज्यादा उसकी उम्मीद जायकेदार है - - - क्योंकि ज़िन्दा रहने के लिए कीमतें इतनी ज्यादा बढ़ गयी हैं - - - फिर भी हम उससे लटके जा रहे हैं . " गुलशन ने बुरा सा मुंह बना कर कहा - - - जैसे उसके मुंह का जायका बिगड़ गया हो . कसैला सा .
गुलशन की भाव - भंगिमा देखकर गेसू पुनः बोली -- " दोस्त ! मुझे तुमपर कभी तरस आता है , कभी क्रोध - - - और ये सच है कि मुझसे तुम्हारा दुःख व निराशा नहीं देखी जाती . तुम्हारी सारी तकलीफों की दवा बहुत आसान और एक है . मेरी मानो तो शादी कर लो . मैं तैयार हूँ . मैं न सही - - - किसी और से भी कर सकते हो - - - मगर कर लो . "
" पायल को अनदेखा करके मुझे शादी की कोई जरूरत नहीं . "
" आखिर सामान्य जीवन भी तो अपने आप में एक जरूरत है ! "
" लेकिन हर जीवन तो सामान्य नहीं हुआ करता . "
" लेकिन सामान्य होने के लिए ईमानदार कोशिश तो करता है . "
" हाँ , तब - - - जब जीवन में कुछ आकर्षण बचा हो . "
"पूर्वाग्रही ! आकर्षण उत्पन्न करने के लिए ही तो बार - बार तुम्हारी शादी पर जोर दे रही हूँ . शादी कर लोगे तो गाँठ बँधी स्त्री के व्यक्तित्व की गहराइयों में डूबकर जो कर्तव्य हाथ आयेंगे , उनके निर्वाह की जिम्मेदारियों में उलझकर धीरे - धीरे पायल को स्वतः भूल जाओगे . तुम्हारे वीरान और उजाड़ गुलशन में फिर से बहार आ जायेगी . और फिर - - - साधारणतः अकेला व्यक्ति जीवन में पूर्णता भी तो अनुभव नहीं करता . "
" किन्तु जीवन की पूर्णता या सार्थकता के लिए शादी - विवाह के अतिरिक्त दूसरे साधन भी तो हो सकते हैं . "
" जैसे ? "
" जैसे साहित्य या लेखन . "
" दोस्त ! जीवन संघर्षों की रणभूमि है . कला या साहित्य की क्रीडा - स्थली नहीं . और फिर - -- - साहित्य या लेखन या और कुछ - या और कुछ - - - ज़िन्दगी के शौक तो हो सकते हैं - - - उद्देश्य नहीं . जिंदगी का उद्देश्य तो ज़िन्दगी ही है . एक पूर्ण ज़िन्दगी . भरपूर जी हुई ज़िन्दगी . जिसके लिए औरत और मर्द एक दूसरे के पूरक हैं - - - एक दूसरे के ईष्ट हैं . गुलशन ! जब तक पुरुष किसी स्त्री से नहीं बँधता - - - वह नहीं जान पाता कि वह क्या है . सुबह के शुरुवाती उजाले में जैसे पहाड़ और नगर उभरने लगते हैं - - - वैसे ही स्त्री के संसर्ग में पुरुष का व्यक्तित्व आकार लेने लगता है और उसमें छिपी समस्त संभावनाएं मूर्त हो उठती हैं . इसीलिए कहती हूँ - - - तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए . "
" इसका उत्तर मैं दे चुका हूँ . "
" यही ना - - - कि तुम पायल के अलावा किसी दूसरी लड़की से शादी नहीं करोगे . और जहाँ तक मैं समझती हूँ - - - पायल तुमसे शादी नहीं करेगी . और अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें उम्र भर कुंवारा रहना पड़ेगा ."
" क्या फर्क पड़ता है ! " वह थोड़ा सा मुस्करा कर बोला -- " कहावत है कि कुंवारों का जीवन काफी लम्बा होता है . "
" नहीं ! सच्ची बात तो ये है कि ऐसा होता नहीं , बस तन्हाई के कारण जीवन लम्बा लगता भर है . "
" लगने दो . परवाह नहीं ." वह झुंझलाया .
" हँ ह - - - ' परवाह नहीं ' कहना जितना आसान है - - - आजीवन अविवाहित रहना उतना ही कठिन . गुलशन ! शादी का सेक्स कि पुर्ति से सीधा सम्बन्ध है - - - और सेक्स मानव की बुनियादी , मौलिक और आदि आवश्यकता है . जिस तरह अन्य जरूरतों व क्षुधा की पूर्ति आवश्यक है - - - उसी तरह जीवन को सामान्य ढंग से चलाने और संतुलित विकास हेतु यौन - तृप्ति होना भी परम आवश्यक है . और फिर - - - सामान्यतः जो लोग अधिक उम्र तक या उम्र भर अविवाहित रहते हैं - - - वो भी तो वासना से दूर नहीं रह पाते . विवाह नहीं करते - - - लेकिन अप्राकृतिक या समाज द्वारा अस्वीकृत उपायों का प्रयोग करते हैं . चाहे वो स्त्री हों या पुरुष . "
" क्या तुम भी ऐसा करती हो ? " गुलशन ने मुस्कराकर उसे उसी की बातों में फाँस कर अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाही .
" दोस्त ! हर बात बतायी तो जाती है , पर हर व्यक्ति से नहीं . " वह हंसकर बड़ी चतुराई से बोली -- " और वैसे भी - - - अभी मेरी उम्र ही क्या है ! बाली उमर है . बोलो है कि नहीं . बोलो न ! "
"- - - - - - - -" गुलशन की तो बोलती ही बन्द हो गयी . थोड़ी देर कुछ सोचते रहने के पश्चात वह गंभीरता पूर्वक बोला -- " सोचता हूँ - - - वो भी क्या वक्त था , जब मैं पायल की तरफ से निराश नहीं था . पायल और मैं - - - कॉलेज में साथ - साथ उठते - बैठते थे . और अब - - - . हुं ह - - - , गेसू ! क्या हम वक्त को रोक नहीं सकते ? "
" रोक क्यों नहीं सकते ! रोक सकते हैं . बस उतनी देर के लिए - - - जब तक हमारी बाहें एक - दूसरे के गले में पड़ी हों , होठ एक - दूसरे के होठों पर रखे हों और धड़कनें एक - दूसरे के दिलों की संगत कर रही हों ." इतना कहते - कहते वह झुंझला पड़ी -- " मगर तुम चाहते ही नहीं , "
" मैं तो सिर्फ पायल को चाहता हूँ . "
" लेकिन तुम्हारे आंसुओं से पायल का दिल मोम नहीं होगा ."
" पत्थर भी कभी न कभी पसीज उठते हैं . उसे पिघलाने के लिए प्यार का सच्चा ताप चाहिये . "
" देखती हूँ - - - उसे पिघलाते - पिघलाते तुम खुद पत्थर होते चले जा रहे हो . " उसकी आँखें नम हो गयीं . वह बोली -- " सच तो ये है - - - कि तुम्हारी उम्मीदों के चिराग बुझ चुके हैं - - - लेकिन फिर भी तुम उन्हें जलाए रखने का असफल प्रयास कर रहे हो . "
" प्रयत्न करना तो आदमी का धर्म है . "
" तो ठीक है . तुम अपना प्रयत्न करो और मैं अपना . " समझ में नहीं आता - - - आखिर पायल में ऐसा क्या है , जो मुझमें नहीं ."
" गेसू तुम दिल , दिमाग और चेहरा - - - सभी से खूबसूरत हो . तुम्हें पाकर कोई भी निहाल हो जाएगा . मगर मैं अपने दिल का क्या करूँ ! ये - - - ."
" कोई बात नहीं . " गेसू उसकी बात काटकर तेज भरभराई आवाज में बोली -- " लेकिन सुन लो ! हुस्न की तलवार बहुत पैनी हुआ करती है . उसका वार कभी न कभी भरपूर पड़ ही जाया करता है . और कोई नहीं जानता कि - - - उसे औरत कि कौन सी अदा किस वक्त भा जाय . देखना मैं तुम्हें बदल कर रहूंगी . "
" गेसू ! मुझे तुमसे सहानुभूति है - - - मगर - - - . "
" सहानुभूति प्रेम की पहली सीढ़ी है . मैं ऐसी ही सीढ़ियाँ चढ़कर तुम तक पहुँचूँगी . धीरे - धीरे तुम्हें पायल की तरफ से मेरी ओर मुड़ना ही पड़ेगा . वो भी खुशी - ख़ुशी . "
" ओफ्फोह ! छोड़ो भी इन बातों को . चाय नहीं पियोगी ? मैं बनाऊँ या तुम बना लोगी ? रसोई में सब सामान सामने ही दिखेगा . "
" रसोई ! क्या तुम्हें खाना बनाना आता है ? "
" मैडम ! दुनिया के सारे बेहतरीन बावर्ची मर्द ही होते हैं . कहिये तो नमूने के तौर पर बेहतरीन चाय बनाकर पिलाऊँ ? "
" नहीं शेखी मत बघारो . मैं ही जाती हूँ . " कहकर गेसू मुंह बिसूर कर रसोई की ओर बलखाकर चल दी .
थोड़ी देर में वो चाय बनाकर ले आयी .
चाय की चुस्की लेते हुए गुलशन मुस्करा कर बोला -- " बड़ी सोंधी - स्वादिष्ट बनी है चाय . क्या मिला दिया है इसमें ? "
" बताऊँ ? "
" हाँ -- हाँ ! बोलो न . "
" थोडा सा प्यार मिला दिया ही इसमें . " गेसू ने हौले से मुस्कराकर मादक जवाब दिया .
गुलशन भी बिना मुस्कराये न रह सका -- " ओह - - - अच्छा - - - ये बात है . "
बात के रुख को मोड़ते हुए गेसू बोली -- " मुझे तुम्हारा ये कमरा कुछ जँचा नहीं . तुम इस छोटे से पिंजरेनुमा कमरे में कैसे रहते हो ? तुम्हारा ये कमरा - - - . "
" हँ ह - - - ये कमरा ही क्यों - - - सारी दुनिया मुझे यही जान पड़ती है . एक पिंजरा . इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - -- - पिंजरा चाहे सोने का ही हो - - - वह पिंजरा है . एक कैद खाना . जिसमे हम खुलकर सांस नहीं ले सकते . हमारी इच्छायें पंख नहीं खोल सकतीं . लगता है - - - सीलन और कीड़े - मकोड़े से भरे अँधेरे तहखाने को दुनिया का नाम दे दिया गया है . और हम - - - हम इसमें जीने के लिए मजबूर हैं . मेरा बस चले तो - - - . "
" ओफ्फोह गुलशन ! देखती हूँ - - - तुम बहक रहे हो . " गेसू ने उसकी बात काट कर कहा - - - और फिर अचानक कुछ याद आते ही बोली -- " एक बात बताओ दोस्त ! रसोई में - - - जब मैं चाय बना रही थी , तो मुझे लगा , जैसे छत पर से फ्लश चलने की बेहूदी आवाज़ आयी हो . "
" ओ s s s हाँ s s s . " गुलशन ने हंसकर जवाब दिया -- " यही तो इन लॉज - टाइप मकानों में खराबी है . किसी की रसोई के ऊपर किसी की लैट्रिन होती है , तो किसी की लैट्रिन के ऊपर किसी की रसोई . सच गेसू ! रसोई में बैठकर कभी कुछ खाते - पीते समय यदि फ्लश की आवाज़ आ जाती है , तो मुझे अनुभव होता है - - - ऊपरी मंजिल के कोई साहब मेरे सिर पर बैठ कर जैसे हल्के हो रहे हैं . तन - बदन में एक आग सी लग जाती है उस वक्त . "
गेसू चुटकी लेती हुई बोली -- " लेकिन इसमें तुम्हें क्यों नाराजगी ? आखिर तुम्हारी लैट्रिन भी तो किसी के बेड - रूम के ऊपर ही होगी ! "
" मजाक करती हो ! "
" अच्छा - - - अब चलती हूँ . " गेसू ने हँसकर उठते हुए कहा -- " दोस्त परसों मेरा बर्थ - डे है . ज़रूर आना . "
" कौन सा जन्म - दिन है मैडम का ? "
" बुद्धू ! स्त्रियों से उनकी आयु और साधुओं से उनकी जाति नहीं पूछनी चाहिए - - - शिष्टाचार के विरुद्ध बात है . "
" अरे मैनें तो यूं ही उम्र जानने की उत्सुकता वश पूछ लिया था . "
" तो सुनो ! स्त्री की उम्र उतनी ही समझो , जितने की वो नज़र आये . " उसने हँसकर सीख दी और बोली -- " आना जरूर . मैं इन्तज़ार करूंगी . "
" आऊँगा तो - - - मगर तुम फिर अपनी बीमार सहेली के यहाँ न चली जाना . "
" अरे नहीं - - - वो तो मात्र संयोग था . अच्छा फिर मिलेंगे . बर्थ - डे - पार्टी में . "
इतना कह कर गेसू चली गयी . साथ ही वो मादक महक भी कमरे के वातावरण से लुप्त हो गयी - - - जो पदमिनी श्रेणी की स्त्रियों के बदन से ही निकलती है .


[10]
Dr. Rakesh Srivastava is offline   Reply With Quote
Old 05-02-2012, 09:56 PM   #13
Dr. Rakesh Srivastava
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 8 )

आज प्रोफ़ेसर साहब की कोठी ब्यूटी -पार्लर से सजकर आयी किसी नई नवेली दुल्हन की तरह बेहद खूबसूरत लग रही थी . उसके बनाव - श्रृंगार अगल - बगल के बंगलों को बगलें झाँकने के लिए मजबूर कर रहे थे . साँवली शाम को - - - कोठी पर लटकी चाइनीज़ विद्दयुत बल्ब की लड़ियाँ - - - जुगनुओं की तरह जगमगा रहीं थीं . जिस तरह सड़क पर कोई हसीना दिख जाने पर - - - लोग उसे देखने के लिए दिल के हाथों मजबूर हो जाते है , ठीक उसी तरह - - - राह चलन्तू मुसाफिरों की निगाहें , इस हसीन कोठी को कम से कम एक नज़र देखने के लिए बरबस उठ जा रही थीं . कोठी अपनी सजावट से लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जी - तोड़ कोशिश कर रही थी , जिस तरह लड़कियां अपने चटकीले मेक अप और चुगलखोर भड़कीली पोशाकों से लड़कों को आकर्षित करने का करती हैं .
हॉल में काफी भीड़ एकत्र हो चुकी थी . प्रोफ़ेसर साहब बाहर दरवाजे पर हर आने - जाने वाले की अगवानी कर रहे थे .
सभी मेहमान बारी - बारी से गेसू को जन्म - दिन की बधाई और तोहफे दे रहे थे . अजीब तरीका है - - - लोग जन्म - दिन पर - - - ज़िन्दगी का न लौटने वाला एक बेश कीमती साल कम होने पर खुशियाँ मनाते हैं - - - तोहफे देते हैं और दीर्घायु होने की कामना करते हैं . आश्चर्य है - - - लोग जीवन को बढ़ाना चाहते हैं , उसे सुधारना नहीं .
गेसू का शरीर उपहार ले - लेकर बधाइयाँ स्वीकार कर रहा था - - - किन्तु उसका मन कहीं और था . उसे तो गुलशन का बेसब्री से इंतज़ार था . गुलशन ! जो अभी तक नहीं आया था , गेसू के ख़याल से - - - अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था . उसके दिल की हालत कुछ वैसी ही थी , जैसे रमजान - माह की विदाई पर ईद के चाँद की प्रतीक्षा में खुदा के किसी नेक बन्दे की होती है .
गेसू की आँखें बार - बार दरवाजे की ओर उठ जाती थीं - - - और निराशा समेट कर दूसरी तरफ फिर जाती थीं . दिल की गहराइयों से की गयी प्रतीक्षा का अर्थ आज उसने अनुभव किया था . सचमुच प्रतीक्षा की घड़ियाँ बहुत लम्बी होती हैं . इन घड़ियों में - - - दुनिया की कीमती से कीमती घड़ियों की गति भी मन्द पड़ जाती है .
और तभी !
अचानक गेसू की मुस्कराकर चमक उठी आँखों की रौशनी में खुशियों के कबूतर ऊंची उड़ान भरने लगे . मन में बज उठी मृदंग से उसका पूरा बदन उत्साह से फड़कने लगा और दिल की ख़ुशी बेकाबू होकर चेहरे पर छलक आयी . इंतज़ार की ज़ालिम घड़ियाँ ख़त्म हुईं . गुलशन जो आ गया .
उसके हाथ में औरत के बाद दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज थी -- फूल . वह अरब की कमसिन राज कुमारियों के रेशमी गाल - सी चिकनी पंखुड़ियों वाले फूलों का गुच्छा हाथ में लिए था . इन फूलों में फ़्रांस की ख़ुश्बू , स्वीडन की शोखी और इटली का सौन्दर्य था .
गुलशन और गेसू एक दूसरे की और बढ़े .
" जन्म - दिन मुबारक हो . " कहकर गुलशन ने गुलदस्ता गेसू के पतली अँगुलियों और मुलायम गदेली वाले बुद्धिजीवी हाथों में थमा दिया .
गेसू ने फूलों को अपने फूल की पंखुड़ियों जैसे होठों से चूमकर गुलाबी गालों से सहलाया और दिल से बोली -- " शुक्रिया . "
" फूल अच्छे लगे ? "
" हाँ . जो व्यक्ति अच्छा लगता है , उसकी हर चीज अच्छी लगती है . लेकिन यह तो बताओ ! तुम्हें इतनी देर कैसे हो गयी ? "
" बस की वजह से . आजकल की सिटी बसें भी तो नखरीली लड़कियों से कुछ कम थोड़े ही हैं . क्या मजाल - - - जो कभी वक्त पर आ जायें . देर से बस मिली - - - देर से आया . " गुलशन ने मुस्कराकर बताया .
गेसू हँसकर बोली -- " बस देर से आई - - - या किसी यार - दोस्त के यहाँ जम गए थे ! सच - सच बोलो !! मुझे तुम जैसे गैर शादी शुदा शरीफों की बदमाशियाँ अच्छी तरह मालूम हैं . जिस किसी शादी शुदा दोस्त की बीबी अच्छी और बातूनी दिखती है - - - उसी के यहाँ किसी न किसी बहाने घुसे रहकर मन की गुदगुदी तलाशा करते हैं . लगता है - - - तुम्हें भी वहीँ कहीं देर लगी है . बोलो ठीक पकड़ा न ! "
" अरे नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं . " गुलशन ने उसके हसीन आरोप को हँसकर टाला .
और इससे पहले - - - कि गेसू शराफत की और अधिक बखिया उधेड़े - - - कोठी के बाहर एक कार आकर रुकी . कार से एक मोटी बेडौल औरत के साथ हनीमून से लौट रही नारी सा तृप्त सौन्दर्य समेटे एक लड़की इठलाकर उतरी . बेहद खूबसूरत लड़की . माँ तो ज़िन्दगी के असाधारण तजुर्बे लेकर साधारण बन चुकी थी - - - मगर बेटी अभी हूर थी . लगता था - - - कार की तरह उसके शरीर का हर अंग जैसे खराद की मशीन पर ढल - तराश कर आया हो . उसके उत्तेजक बदन का हर कोण उसकी कार की तरह स्पष्ट और नपा तुला था . मगर उसकी माँ ! उसके ढीले मोटे कूल्हे !! ऐसा लगता था - - - जैसे उसने अपनी साड़ी के अन्दर काशी के दो कद्दू लटका रखे हों . उसके कूल्हे देखकर आदमी ये सोचने पर मजबूर हो सकता था कि फैशन डिजायनरों को शीघ्र ही चोली की तरह कूल्हे कसने के लिए भी एक आकर्षक झोली का आविष्कार करना चाहिये . और अगर आदमी की ये सोच सच साबित हो जाय तो फिर वो दिन कतई दूर नहीं होगा , जब रेडियो में ये गीत बजता सुनाई दे कि ' झोली के पीछे क्या है , झोली के पीछे - - - . "
माँ - बेटी हॉल में दाखिल हुईं . लड़की की तरफ सभी ने नज़रें उठाईं . बल्कि यूं कहें - - - कि देखने को मजबूर हो गये . दरअसल - - - वो चीज़ ही कुछ ऐसी थी .
लड़की का नाम ग़ज़ल था . नाम के ही अनुरूप उसकी हर अदा गज़लमय थी . उसकी उम्र जैसे अपनी ही देह से फटकर बाहर निकली पड़ रही थी . छलकते जाम सी उसकी जवानी अमेरिकी सरकार के भरे तैयार पिस्तौल की तरह बेहद खतरनाक थी और हर किसी को निशाना बनाने को आतुर थी . वह यौवन का ऐसा उठता - उमड़ता सैलाब थी , जो ठंढी नसों में भी आग फूंक दे . जवानी की आंधी के पहले झोंके ने उसे अभी छुआ भर था , फिर भी छातियों पर ऐसे सुडौल उभार थे की चुनौतियों चुनौतियाँ फेंक रहे थे . उसकी नागिन सी बलखाती लटें रह - रह कर उसके जोबन को डस - डस कर और भी नशीला बना रहीं थीं . खुलते रंग पर बन्द होती आँखें और भूखी आँखों में चंचल जंगली तितलियों के रंग थे . चेहरा ऐसा था - - - जिसे देखकर कोई भूली हुई थ्योरी याद आ जाये . वक्ष खूब भारी और कमर शास्त्रानुसार बेहद पतली थी . हमारे शास्त्रों में भी तो स्त्री की कमर पतली और ऊपरी हिस्सा भारी होना अच्छा माना गया है . कुल मिलाकर - - - इस लड़की की जवानी में कोई कोर कसर नहीं थी . इस कलयुगी जमाने के हिसाब से उसे पूरी तरह एक भद्र महिला की संज्ञा दी जा सकती थी - -- - क्योंकि वह काफी कुछ चालू किस्म की औरत दिखती थी .
अब तक - -- - लगभग सभी मेहमान आ चुके थे . मेहमानों में हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख और क्रिश्चियन - - - हर तरह के लोग थे . इनमें साड़ियाँ , सलवारें , पैन्ट , जीन्स और नेफ्थलीन की बू छोड़ती अचकनें - - -- पुराने मगर बड़े प्यार से प्रेस किये - - - फर्श पर मुफ्त झाड़ू लगाते बॉल बॉटम - - - खूब रगड़ कर शेव किये चेहरे - - - क्रीम , पावडर और लिपस्टिक की सुगन्ध - - - मैले पाइप और सिगारों के धुवें - - - चौड़े डॉग कॉलर , तनी हुई सूखी गर्दनें , भड़कीली टाइयाँ और चुस्त चोलियाँ - - - शम्पू किये लहराते बाल , आकर्षक गड्ढे पड़े गुदाज़ गाल , काली रंगी तराशी भवें , सकारण तिरछी आँखें और अकारण खुली हुई बत्तीसियाँ भी थीं .
जैसा कि हमेशा होता है - - - जो औरतें जितनी बदसूरत थीं - - - उनकी पोशाक और मेक अप उतने ही भड़कीले थे . अधिकाँश स्त्रियाँ कम से कम कपड़े पहन कर - - - या यूं कहें कि अधिक से अधिक कपड़े उतार कर - - - अपने आधुनिक होने का डंका पीट रहीं थीं . वाह रे जमाने ! कोई मजबूरी के मारे नंगा है तो कोई फैशन के मारे . लड़कियों की चुगलखोर चुस्त नोकीली पोशाकें देखकर लगता था , जैसे हर लड़की एक - दूसरे से मुकाबले पर अमादा है -- ज्यादा निर्लज्जता , ज्यादा निर्बन्धता और ज्यादा फूहड़ मजाकों के आदान - प्रदान में .
कचर - कचर बतियाती काली औरतों के चेहरों पर पावडर ऐसा लग रहा था , जैसे जामुन पर नमक - - - और उनके लाल लिपस्टिक से सने होठ कुछ ऐसा दृश्य उपस्थित कर रहे थे - - - मानो कोयले में आग लग गयी हो .
गेसू ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच केक काट दिया .
थोड़ी ही देर में खाना आ गया . बड़े लोगों का छोटा सा खाना . सभी खाने पर पिल पड़े . भूखे देश भारत महान के इन नागरिकों के सामने विकट समस्या ये थी - - - कि क्या खायें , क्या न खायें ! रसगुल्ला , आइसक्रीम , चाउमिन , चिकन तंदूरी , वेज - नान वेज , कोल्ड ड्रिंक , कॉफ़ी , दही बुंदिया - - - बहुत कुछ - - - और सभी कुछ था . दही बुंदिया के दही में छोटी - छोटी बुंदिया कुछ इस तरह छितरी पड़ी थीं , जैसे विशाल भारत की छोटी - छोटी राजनैतिक पार्टियाँ .
खाते समय सबके हाथ उन व्यस्त क्लर्कों की तरह तेजी से सक्रिय थे , जिनके सिर पर बॉस खड़ा हो . प्रोफ़ेसर परिवार के स्नेह और स्वादिष्ट व्यंजनों की बाढ़ में सभी मेहमान डुबकियाँ खाते रहे .
ये लोग खा रहे थे . बेयरे परोस रहे थे . बेचारे बेयरे . सुबह से इंतजाम करते , थके बेयरे . बेयरों का भूख व थकान से बुरा हाल था . उनका मन बैठने को कर रहा था - - - मगर मेहमान पसरे थे . उनका दिल खाने को कर रहा था - - - मगर वो परोस रहे थे . जबकि मेहमान थोड़ा खा रहे थे और खूब बहा रहे थे - - - और दूसरे मेहमानों से आँखें चार होते ही बेहयाई से आँखों - आँखों में ये सन्देश उड़ेल रहे थे की मुफ्त का चन्दन , घिस मेरे लल्लन .
पार्टी में नौकरों ने खाया या नहीं - - - इसकी चिन्ता अक्सर बड़े आदमी भला कब करते हैं ! बड़ों के इस आचरण की प्रतिक्रिया स्वरूप यदा - कदा छोटों में अलग - अलग तरीकों से प्रतिशोध की भावना भी प्रकट हो उठती है . इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पार्टी में मौजूद घनी मूछों व खुंखार चेहरे वाला एक वरिष्ट बेयरा भी था , जो मेहमानों के आगे केक वाली प्लेट पारी - पारी पेश करता था - - - और फिर भवें सिकोड़ कर कुछ इस तरह गज़बनाक निगाहों से देखता - - - की अधिकाँश मेहमानों कि हिम्मत ही न होती , केक उठाने की .
लेकिन पता नहीं क्यों - - - पायल पर तो जैसे वो कुछ ख़ास ही मेहरबान हो गया था . घूम फिर कर जब पांचवीं बार उसने घूर कर उसकी तरफ केक की प्लेट पेश की तो उस बेचारी को कुढ़कर उसे झिड़कना पड़ा - - - कि क्या मैं ही एक अकेली बची हूँ पूरी पार्टी में . जाओ - - - जाकर औरों को पूछो .
धीरे - धीरे मेहमान जबड़ों की चाल क्रमशः मन्द होकर रुक गयी . जेब से निकले रुमालों ने मुंह को पोंछ लिया . इस तरह खाने का सिलसिला ख़त्म हो गया .
अब नृत्य का कार्यक्रम था . ग़ज़ल का नृत्य . जिसके लिए वो ख़ास तौर पर आमंत्रित थी . गेसू ने उद्घोषणा की . लोगों ने तालियाँ बजायीं - - - और ग़ज़ल थिरकने लगी .
नाचते वक्त ग़ज़ल का स्वस्थ भरा शरीर फड़क रहा था - - - और अधिकाँश लोग उसे यूँ ललचा कर देख रहे थे , जैसे आदमी बाग़ में उस ऊंचे वृक्ष को देखता है - - - जिसकी पहुँच से दूर डालियाँ आकर्षक फलों से लदी हों . मीठे रसीले मनपसन्द फलों से .
ग़ज़ल ने नाचते - नाचते अपनी अदाओं को ताश के पत्तों की तरह एक - एक करके फेंकना शुरू किया और पार्टी में शामिल मर्दाने चेहरे दिल के हाथों बाजी हारने को मजबूर हो गये . वो सभी उसके महकते रूप और दहकते यौवन का नज़ारा करने लगे .
मादक धुन के सहारे ग़ज़ल नाच रही थी . नाचते समय उसके धुंधले - धुंधले से नक्श नज़र आ रहे थे . ऐसे नक्श ! जो अच्छे - भले आदमी को बेचैन कर देते हैं -- क्योंकि वो पूरे नज़र नहीं आते .
और तभी - - - नाचते - नाचते ग़ज़ल ने अपनी बांकी बाँह उठाई - - - और वो दृश्य सबको चार सौ चालीस वोल्ट का झटका दे गया - - - क्योंकि देसी चोली के नीचे से उसकी विलायती अंगिया ने बड़ी नजाकत के साथ भरपूर आँख जो मारी थी .
पार्टी चलती रही - - - और ये हसीन रात - - - किसी हसीना के हुस्न की तरह अपने जलवे बिखेर कर धीमे - - - बहुत धीमे - धीमे ढलती रही .
अब ग़ज़ल नृत्य ख़त्म करके गाना गाने लगी थी . और क्योंकि वह अपने दिल में सभ्य हिन्दुस्तानी होने का भरम पाले थी , इसीलिए अंग्रेजी में गा रही थी . लेकिन वो अच्छा गा रही थी . उसका अंग - अंग गा रहा था .
ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन के नज़दीक आ रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन की आँखों में झाँक रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू अपनी नाभि के नीचे एक मादक सी सुरसुरी अनुभव कर रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन की बांहों में बाँहें फंसाकर उसकी अँगुलियों से आयु विशेष का कोई रोचक खेल - खेल रही थी - - - उससे सटी जा रही थी , उसमें समा जाना चाह रही थी .
ग़ज़ल गा रही थी --
" आई लव यू डियरली
एण्ड वेरी क्लीयरली
एण्ड आई होप
यू लव मी डिअरली
एण्ड वेरी क्लीयरली
बिकॉज़ आई लव यू
आई लव यू - - - "
गाना ख़त्म होते ही लोगों की तालियों की जोरदार गड़गड़ाहट शुरू हो गयी - - - ग़ज़ल के इस गीत की प्रशंसा में .
जैसे किसी बादशाह के दरबार में आदाब बजाया जाता है - - - उसी तरह झुककर , चारों ओर घूमकर , ग़ज़ल ने सबको फर्शी सलाम किया . और उसके इस झुकने पर - - - कई लोग तो तनकर उछल से गये . उनका कलेजा मुंह को आ गया . मानों उन्होंनें खुशकिस्मती से कोई ख़ास चीज़ देख ली हो .
ग़ज़ल अपनी माँ के पास आकर बैठ गयी - - - और गेसू गुलशन के साथ .
सिवाय दुआ - सलाम के - - - पायल ने अब तक इस पार्टी में गुलशन से कोई बात न की थी . वो प्रग्यापराधी की भाँति गुलशन से नज़रें चुरा रही थी . और एक गुलशन था - - - कि रह - रह कर पायल को अपनी नज़रों में उतारे जा रहा था . जबकि गेसू बार - बार गुलशन का ध्यान भंग किये दे रही .
अंततः पार्टी ख़त्म हो गयी . मेहमान साझा सरकार की तरह चर - खाकर बिखर गये . अपने - अपने घर चल दिए .
गेसू गुलशन को छोड़ने के लिए बाहर आ गयी तो सड़क पर थोड़ी दूर उसके साथ मौन चलती रही . गुलशन ने उसकी ओर निहारा तो पाया कि वो सपनों के समन्दर में गोताखोरी कर रही है .
" एय ! " गुलशन ने उसे संबोधित किया .
" क्या ? " वह चौंक कर बोली .
" क्या सोच रही थी ? "
" सोच रही थी - - - काश वो गीत मैं गाती - - - जो ग़ज़ल ने अभी गाया था . "
" तब क्या होता ? "
" मेरे दिल की बात पुनः तुम तक और भी खूबसूरत तरीके से पहुँच जाती . " गेसू ने आह भरकर चलते - चलते कहा .
" - - - - - - ." गुलशन मौन रहा .


[11]
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Old 05-02-2012, 09:58 PM   #14
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

यह तो उसे पहले ही पता चल चुका था की गेसू उसमें दिलचस्पी ले रही है -- गंभीर दिलचस्पी . ऐसी दिलचस्पी , जो प्रायः हर जवान लड़की - - - किसी न किसी लड़के में - - - कभी न कभी लेती ही है .
गेसू ने मौन तोड़ा -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! तुम्हें शायद अन्दाज़ा नहीं - - - कि मैं तुम्हें कितना अधिक चाहती हूँ . "
" मैं भी तुम्हें एक सीमा तक पसन्द करने लगा हूँ गेसू . " गुलशन ने धीरे से कहा .
" सच ? " गेसू के होंठ कंपकंपाने लगे . उसकी आवाज़ भरभरा उठी . विजय के फाख्ते ऊंची उड़ान भरने के लिये उसकी आँखों में फड़फड़ाने लगे लगे - - - और उसे लगा जैसे वह सातवें आसमान में उड़ रही है .
" हाँ ! मैं तुम्हें चाहने और पसन्द तो करने लगा हूँ - - - लेकिन मात्र एक दोस्त की तरह .प्यार तो मेरा पायल के लिये आरक्षित है . मुझे दुःख है मेरी दोस्त - - - कि मैं एक प्रेमी के रूप में तुम्हारी चाहत का उत्तर नहीं दे सकता . हाँ - - - एक दोस्त के रूप में मेरी हमदर्दी और लगाव तुम्हारे लिये हमेशा हाज़िर रहेंगे ." गुलशन ने सारे पर्दे सरका दिये .
उसकी पूरी बात सुनकर पायल की आँखों में अँधेरा सा छाने लगा . उम्मीदें , सोच , सपने , ऊपरी पायदान पर पहुँच कर अचानक धम्म से नीचे आ गिरे . दो घड़ी पहले - - - उसके दिमाग में उपजे ख़ुशी के बुलबुले फूट गये और विजय के फाख्ते घायल होकर तड़पने लगे . लेकिन फिर भी - - - वो अपने को संयत करके बोली -- " चलो - - - फिलहाल यही सोच कर सब्र किये लेती हूँ कि बेहद अपने से लगने वाले किसी अजनबी ने कम से कम दोस्ती का दम तो भरा . आगे के लिये उम्मीद कि किरण अभी जिंदा तो है . गुलशन ! चाहे तुम मुझे कभी चाहो या न चाहो - - - लेकिन मेरे मन में तुम्हारे प्रति वो चाहत सदा बनी रहेगी , जिसे दुनिया प्यार का नाम देती है . मेरे दिल में आगे भी तुम्हारे लिये उतनी ही इज्जत रहेगी , जितनी कि अब से पहले थी . "
दयाद्र गुलशन आह भरकर कहने लगा -- " वास्तव में ये भी हमारी ज़िन्दगी का अजीब संयोग है - - - कि तुम मुझ पर जान छिड़कती हो - - - लेकिन मैं तुम्हें प्यार देने में असमर्थ हूँ - - - जबकि मैं पायल से प्यार की विनती करता हूँ - - - मगर वो मुझे अपने योग्य ही नहीं पाती और चंचल को पसन्द करती है . "
" दोस्त यही तो सारे दुखों व असंतोष का मूल है कि व्यक्ति के पास जो उपलब्ध होता है , वो उस ईश्वरीय कृपा का आनन्द न लेकर - - - जो नहीं है , उसके पीछे भागता रहता है ."
गुलशन बोला -- " अच्छा जाओ - - - अब तुम लौट जाओ . वर्ना तुम अगर यूं ही मेरे साथ चलती रही - - - तो कहीं ऐसा न हो कि हम काफी दूर निकल जायें . "

[12]
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Old 05-02-2012, 10:03 PM   #15
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 9 )

देवी - देवताओं से हम आरामतलब भारतीयों को और कोई लाभ हो न हो - - - मगर एक निश्चित और बंधा - बंधाया फायदा तो है ही . वो है मनचाहा सदा प्रतीक्षित सार्वजनिक अवकाश
. क्योंकि हिन्दुस्तान में देवी - देवताओं की भीड़ बहुत अधिक है -- लगभग चार व्यक्तियों के पीछे एक -- अर्थात तैंतिस करोड़ . फलस्वरूप कार्यालयों में छुट्टियाँ भी खूब होती हैं . कभी किसी का जन्म
दिवस - - - तो कभी किसी का निर्वाण - दिवस . कभी - कभी तो लगता है कि इसी स्वार्थ परता के चलते निरन्तर शिक्षित व आधुनिक होते जाने के बावजूद इस कलियुग में भी हमारी आस्था इन
लाभदायी देवी - देवताओं में जस की तस बनी हुई है .
ऐसे ही किसी तथाकथित शुभ - दिवस के उपलक्ष में - - - आज चंचल की छुट्टी थी .
गेसू ने सबको टटोल और सहमत कर एक रोज़ पहले ही पिकनिक मनाने का फैसला कर लिया था . क्योंकि ज़िन्दगी को एक ही तरह जीते - ढोते व्यक्ति ऊब जाता है और नव स्फूर्ति अर्जित करने की गरज से कुछ बदलाव की अपेक्षा व प्रयास करता है .
गुलशन व चंचल बाहर ड्राइंग - रूम में बैठ कर समय बिताने के लिए बातचीत कर रहे थे . उन्हें गेसू और पायल के तैयार होकर आने की प्रतीक्षा थी . जबकि वे दोनों दूसरे कमरे में ड्रेसिंग - टेबल के सामने बैठ कर वो कोशिश कर रहीं थीं - - - जो कि आदिकाल से हर उम्र में हर स्त्री की हुआ करती है . वे अपने रूप में निखार लाने का प्रयत्न कर रहीं थीं -- यानि कि मेक अप कर रहीं थीं .
रेशमी बालों में कंघी फेरते - फेरते अचानक पायल का ध्यान गेसू के वस्त्रों पर गया . उसने झिड़का -- " ये क्या ! आज फिर तुमने मर्दाने कपड़े पहन लिए -- जींस और टॉप . कितनी बार कह चुकी हूँ - - - मर्दाने कपड़े और मर्दाने काम , केवल मर्दों को शोभा देते हैं , औरतों को नहीं . "
गेसू पायल की तरफ आँखें तरेर कर बोली -- " तो क्या - - - मैं वो काम नहीं कर सकती - - - जो मर्द कर सकते है ? "
" अच्छा - - - तो क्या तुम मर्दों वाले काम खुद ही कर लेती हो ? " पायल ने मुस्कराते हुए आँख मार कर चुटकी ली .
गेसू शरमा कर बोली -- " धत्त शैतान . तू बड़ी वो है . "
पायल बेहयाई से हंसने लगी . ठीक वैसे ही - - - जैसे कि बन्द कमरों की आज़ादी में स्वभावतः खुली चुहलबाजियों के बीच लड़कियां हंसती हैं .
थोड़ी ही देर में - - - दोनों ने अन्तिम बार - - - आईने में उतर आये अपने सौन्दर्य को निहारा और सन्तोष की सांस ली .
" हाय मर जाऊँ . तेरा सजना सफल हुआ . आज तो राहगीरों पर बिजलियाँ गिरा देगा , तुम्हारा यह कड़कता रूप . " पायल के निखरे हुए रूप पर नज़र डालकर गेसू बोली और मस्ती में आकर उसने अकस्मात उसे एक पुरुष की भाँति अपनी बाहों में कसकर भींच लिया .
उसकी बांहों में कसमसाती हुई पायल बोली -- " हाय अब बस भी करो . बस - - - उफ़ - - - उई - - - आह . अब छोड़ो भी . क्या एक - एक नस तोड़ कर ही दम लोगी ज़ालिम ! "
" न बाबा ना . ये काम मैं न करूंगी . अगर मैनें ही तेरी एक - एक नस तोड़ दी , तो बेचारे चंचल भैया के लिए क्या काम बचेगा ! और फिर टूटी नसों वाली लड़की भला किसी लड़के को कहीं सोहाती है ! ! " गेसू ने उसे छोड़ते हुए हँसकर कहा .
पायल को भी एक हसीं बदला सूझा . वह बोली -- " एक बात बताऊँ गेसू ! चंचल ने मुझे बताई थी . "
" बोलो . "
" ऐसे नहीं . कान में बताने लायक है . "
उत्सुकतावश गेसू पायल के मुँह के निकट अपना कान लगाकर बोली -- " बताओ . "
पायल पहले तो उसके कान के पास अपना मुँह ले गयी - - - और फिर - - - उसने एक ही झटके से गेसू के गाल को चूमकर तेजी से काट खाया .
गेसू उछल कर परे हट गयी और एक तीखी सिसकारी लेकर बोली -- " उई माँ . यही बताया था भैया ने ? मेरे गाल खा जाने का इरादा था क्या ? "
" सेव खाने के लिए ही होते हैं जॉनी . " पायल मज़ा लेते हुए चूड़ियों की तरह खनक कर खिलखिलायी .
दर्द से अभी तक बिलबिला रही गेसू ने कुढ़कर पलट वार किया -- " अच्छा एक बात सच - सच बताओ ! चंचल वाली ये जो बात अभी तुमने मुझे बतायी - - - वो भैया ने तुम्हें एक ही बार बतायी थी , या कि अक्सर बताते रहते हैं ? "
और बाहर !
ड्राइंग - रूम में प्रतीक्षारत गुलशन ने ऊब कर चंचल से कहा -- " बड़ी देर लगा दी . पता नहीं क्या कर रहीं हैं दोनों ! "
चंचल ज्ञानियों सी मुस्कान बिखेर कर बोला -- " औरतों को कुछ कामों में बहुत समय लगता है , उनमें से एक मेक अप भी है . वही कर रही होंगी . इनका बस चले तो ये रंग - पोत कर अपने चेहरे को ऐसा बना डालें , जैसा कि वास्तव में वो है ही नहीं . "
दोनों ठठाकर हंस पड़े .
तभी गेसू और पायल ने ड्राइंग - रूम में प्रवेश किया . उन्हें हँसता हुआ पाकर पायल ने पूछा -- " किस बात पर हँसी का खजाना खोला जा रहा है . "
" स्त्रियों के क्रिया कलापों पर . " गुलशन ने जवाब दिया .
दोनों फिर हंस दिए . पायल और गेसू मूर्खों की तरह उनका मुँह ताकने लगीं .
उनका गाढ़ा मेक अप देख कर गुलशन ने व्यंग्य किया -- " मेरी समझ में एक बात नहीं आती - - - कि औरतें बाहर जाते वक्त ही इतना बनाव श्रृंगार क्यों करती हैं ! घर में रहती हैं - - - तो मैले - कुचैले वस्त्रों में - - - मगर ज्यों ही बाहर चलने को हुईं - - - कि रानी साहिबा की कीमती ड्रेस निकल आयी . जूड़े में फूल उग आये . गहनों से अंग - प्रत्यंग दमकने लगा . इत्र - लेवेंडर से एक फर्लांग चारों तरफ का रास्ता - बाज़ार गहरी सांस खींचने पर मजबूर हो उठा . घर में बालों से जूँ बेशक झड़ते रहें , कपड़ों से सड़ांध और शरीर से पसीने की बदबू भले ही निकलती रहे - - - मगर क्या मजाल कि उन्हें ज़रा भी ख़याल हो . पति - पिता , देवर - भाई ,जैसे उनकी अच्छी सूरत और भली सीरत के कद्र दान ही नहीं हैं . अगर उनकी खूबसूरती कि कहीं कद्रदानी है , तो बस बाहर बाजार में . राहगीरों और मनचलों की नज़रों में . और फिर - - - अगर कोई लफंगा बोली बोल दे , तो लड़ने जाए मय्या - भय्या . नहीं तो - - - . "
" अच्छा - अच्छा - - - अब भाषण बन्द करो . चलना नहीं है क्या ? " गेसू ने चिढ़ कर उसकी बात काटी .
गुलशन ने डरने का प्रदर्शन करते हुए मुस्करा कर कहा -- " जो हुकुम सरकार का . "
सभी चल दिए .
सांझ शैशवावस्था में थी . मौसम भी गुलाबी ठंढा था . दूर - दूर चहुँ ओर सन्नाटों का शोर पसरा हुआ था और धूल भरे रास्तों पर नाग की तरह फन पटकती फुफकारती तेज हवाएं चल रहीं थीं - - - जिनमें किसी के लिए नशीला आकर्षण था , तो किसी के लिए गहरी ऊब .
अंततः करीब घंटे भर को लाँघती कार - यात्रा के पश्चात वो चारों पूर्व निर्धारित स्थल के मोहाने पर आ पहुंचे और सुरक्षित जगह तलाश कर कार खड़ी कर दी .
करीब सौ गज का फासला क़दमों से नापकर वो चारों पिकनिक - स्थल तक पहुँच गए . पिकनिक - स्थल क्या था , प्रकृति का साम्राज्य था .
सबसे पहले वो फूलों के मामले में अमीर एक पार्क के भीतर दाखिल हुए . मगर गेट के भीतर कदम रखते ही उन चारों का माथा भन्ना गया . प्रथम ग्रासे , मक्षिका पाते . क्योंकि किसी फूहड़ औरत ने बड़ी उच्छृंखल आज़ादी के साथ , गेट के पास , सांझ के समय , रात की आह और दिन की वाह का कूड़ा फेंक रखा था . कूड़े पर निगाह पड़ते ही - - - चारों ने एक - दूसरे की तरफ देखा . सभी के चेहरों पर भेद भरी मुस्कान तैर गयी . मगर फिर गेसू और पायल ने नारी सुलभ शर्म से अपना मुंह फेर लिया और तेज कदमों से आगे बढ़ गयीं .
गुलशन मुस्कराकर चंचल से बोला -- " भारत से नेकी ख़त्म हो सकती है , मित्रता ख़त्म हो सकती है , वफ़ा ख़त्म हो सकती है , लेकिन गन्दगी कभी ख़त्म नहीं हो सकती . यहाँ के लोग अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं - - - किन्तु कर्तव्यों के प्रति उदासीन . "
चंचल ने हंसकर तुरुप जड़ा -- " मुझे तो लगता है - - - किसी उत्साही औरत ने अपनी आह और वाह में बरकत बनाये रखने के वास्ते यहाँ पर कोई टोटका रख छोड़ा है ."
दोनों हँसते हुए तेज क़दमों से गेसू और पायल से जा मिले .
थोड़ा आगे बढ़कर चारों ने अपने - अपने हाथों में गिरफ्तार सामान को मखमल सरीखी घास पर रखकर आज़ाद कर दिया . पायल ने डोलची से एक चादर निकाल कर ज़मीन पर बिछा दिया . सभी ने बैठकर अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया .
तभी एक खूबसूरत औरत अपने भागते हुए चंचल बच्चे को पकड़ने के लिये उधर से दौड़ी . चंचल उसके संगमरमर से तराशे ताजमहली बदन को देखने लगा जबकि कोई भी लड़की ये बिल्कुल सहन नहीं कर सकती कि उसके रहते उसका प्रेमी किसी दूसरी स्त्री पर ध्यान दे . अतः इसी भावना से प्रेरित होकर पायल ने चंचल को टोका -- " क्या बात है ! वो काँटा औरत चुभ गयी क्या दिल में ? देखती हूँ , बड़ी तल्लीनता से देख रहे हो उसे . "
ध्यान भंग होने पर चंचल ने सफाई दी -- " तो क्या बुरा कर रहा हूँ ! सौन्दर्य को देखने की लालसा तो सभी में होती है . "
" मगर उससे फायदा क्या ? "
" मानसिक शान्ति मिलना क्या कम फायदा है . "
" चलो हटो ! बातों के तो दरोगा हो !! बहाने खूब गढ़ लेते हो . अरे देखना ही है , तो मुझे देखो - - - मेरे कपड़ों को देखो . " पायल ने स्वयं धारण किये हुए काले सलवार कुर्ते की ओर इशारा करके कहा -- " अच्छा ये बताओ - - - इन नए वस्त्रों में मैं कैसी लग रही हूँ ? "
" बिल्कुल बुरी . ऐसे मातमी रंग मुझे कतई पसन्द नहीं . " चंचल ने मजाकिया जवाब दिया .
पायल भी चिढ़कर शरारती स्वर में बोली -- " तब वो देखो - - - अपनी पसंद . " उसने दूर खड़ी एक काली लड़की की ओर इशारा किया , जो सफ़ेद कपड़े पहने हुए थी .
चंचल ने उसे देखते ही - - - तेजी से मुंह फेरकर कहा -- " उंह - - - अरे बाप रे बाप . वो तो तुम्हारी तस्वीर की निगेटिव मालूम पड़ रही है . "
चंचल के इस जवाब से गेसू गुलशन ठहाका मार कर हंस पड़े . पायल भी हंसी -- सप्त सुरों में लिपटी हुई लयदार मादक हंसी .
हंसी शान्त होने पर गेसू और पायल प्लेटों में नाश्ता निकालने लगीं . चंचल भी परोसने में उन्हें सहयोग देने लगा . इस बीच गुलशन को अपने बगल में मखमली घास के बीच जमीन का एक नंगा टुकड़ा दिखा . विचारों में खोये गुलशन की उँगलियों ने एक कंकड़ उठाकर गंजी जमीन पर कुछ खुरचना शुरू कर दिया .
अचानक चंचल का ध्यान ज़मीन पर उकेरी उस लिखावट पर गया - - - जो गुलशन के दिमाग की ताज़ी कारस्तानी थी .
लिखा था ----
लड़का + लड़की = ?
लड़का - लड़की = ?
लड़का x लड़की = ?
लड़का / लड़की = ?
" ये क्या पहेली लिखी है तुमने ? " चंचल ने हंसकर पूंछा . चंचल के प्रश्न पूछने पर - - - गेसू और पायल भी पढ़कर हंस पड़ीं .
गुलशन बोला -- " तुम्हीं लोग बूझो तो जानें ! "
किसी का दिमाग काम नहीं किया . सभी निरुत्तर रहे .
चंचल ने कहा -- " तुम्ही बताओ , इसका अर्थ ! "
गुलशन ने चारों पंक्तियों के सामने से प्रश्न - चिन्ह मिटाकर कुछ और लिख दिया .
अब वाक्य यूं थे ----
लड़का + लड़की = ज़न्नत
लड़का - लड़की = शायर
लड़का x लड़की = बच्चा
लड़का / लड़की = तलाक
पूरे वाक्यों को पढ़कर - - - सभी फिर हँसे - - - सिवाय गुलशन के .
चंचल ने मज़ाक करते हुए कहा -- " लगता है - - - तभी तुम शायर बन गए हो ! "
" तभी मतलब ? "
" लड़का माइनस लड़की की वजह से . किसी बेवफा लड़की ने झटका दिया है क्या तुम्हें ? "
" कैसे कह सकते हो ? "
" तुम्हारे हिसाब से . शायर जो हो . "
" अरे भाई - -- - मैं कहाँ शायर ! सच तो ये है कि दिल पर जब ठेस लगती है , तो आह निकल पड़ती है . हाँ - - - अगर इसी का नाम शायरी है , तब तो तुम मुझे शायर कह सकते हो . " उसने पायल की तरफ देख कर कहा . "
उसकी बातें सुनकर पायल की नज़रों का चोर बगलें झाँकने लगा और उसका दिल पसीज गया . संभावनाओं की आहट सी उसके मन में उठी और उसका तन - बदन सिहर उठा . उसे लगा - - - कहीं गुलशन की आह बद दुआ बनकर उसके भविष्य को न डस ले .

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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

चंचल ने कुरेदा -- " सच - सच बताओ यार ! क्या तुम्हें कोई लड़की नहीं मिली ? "
" मिलतीं तो बहुत हैं . जैसे - - - . "
" जैसे ? "
" जैसे , " गुलशन गंभीर मुस्कान बिखेर कर कहने लगा -- " स्कूल में मिलती हैं कच्ची उम्र की बच्चियां - - - जिन पर ध्यान देना खतरे से खाली नहीं है . कॉलेज में मिलतीं हैं - - - लेकिन जिस दिन से रोमान्स शुरू होता है , उसके दूसरे रोज से अधिकतर परिवारदार लड़कियां शादी की फरमाइश शुरू करके सारा मज़ा किरकिरा कर देती हैं . गली - मोहल्ले में भी मिलती हैं - - - मगर उसके भय्या - अम्मा दूरबीन लगाए देखते रहते हैं कि कहीं मीलों तक कोई लड़का उनकी लड़की की ताक में तो नहीं है . शादीशुदा औरतें भी मिलती हैं , जो आमतौर पर अपने थैले व साड़ी बाँधने के लापरवाह अन्दाज़ और खतरनाक लाल सिन्दूर , छके - थके शरीर तथा निगाहों के परम सन्तोष से पहचानी जा सकतीं हैं - - - जैसे उन्होंने अपने चेहरे पर ' हाउस - फुल ' का बोर्ड लगा रखा हो . वहां ज्यादा देर ठहरने से भी क्या फायदा ! मगर वो , जो अकेली हैं - - - और गैर शादीशुदा हैं , वो - - - . "
" क्या ? "
" वो शायर बनाकर छोड़ती हैं . " गुलशन ने पायल की तरफ तिरछी निगाह उछाल कर कहा .
पायल सकपका कर रह गयी . गेसू पायल की तरफ देखकर मुस्करा दी - - - और ना समझ चंचल भोंदुओं की तरह हँस दिया .
पार्क के बीचोबीच एक शहीद स्वतंत्रता - सेनानी की आदमकद मूर्ति आँखों में आस लिए स्थापित थी , जिसने अपना अनमोल आज दे दिया था - - - हमारे सुनहरे कल के लिए . मूर्ति के ऊपर साया करता हुआ अतीत का गवाह एक बूढ़े पीपल का पेड़ था , जिस पर चिड़ियों ने अपनी कचहरी लगा रखी थी . पंक्षियों की चीं - चूँ ने मौसम को और भी खुशगवार बना रखा था .
सामने ही एक मंदिर था .
गुलशन ने प्रस्ताव रखा -- " क्यों न हम लोग मंदिर में दर्शन को चलें ! "
" हाँ - हाँ - - - क्यों नहीं ! " चंचल ने समर्थन किया .
मगर पायल पिछड़ी -- " मैं तो नहीं जाऊंगी मंदिर - मस्जिद . "
चंचल ने टोका -- " क्यों ? "
" क्योंकि न तो मुझे धर्म के ढकोसलों पर भरोसा है और न ही धर्म परस्त लोग पसन्द हैं . "
" मगर क्यों ? हम भी तो जानें . "
" क्योंकि सभी धर्म और उनके कट्टर अनुयायी औरत को पेशाब खाना समझते हैं . पेशाब खाना ! जो स्वास्थ्य और सुविधा के लिए जरूरी तो है - - - मगर गन्दी चीज है . "
उसके कटु विचारों से मर्माहत चंचल झुंझला पड़ा और उसे डाँटते हुए बोला -- " अच्छा अपना दर्शन अपने पास रखो और सीधे से चली चलो - - - वरना दूंगा एक चपत . " फिर थोड़ा समझाते हुए कहा -- " पायल ! जरा सोचो - - - कि मनुष्य यदि एक अदृश्य शक्ति को अपना प्रणेता मानकर अगर संयमित रहता है - - - तो इस भ्रम के बने रहने में बुराई क्या ? "
मजबूर होकर पायल बेमन से सबके साथ हो ली .
थोड़ी देर बाद - - - मंदिर से बाहर निकलने पर पायल न जाने कैसे अपनी ही शामत को न्योता देकर गुलशन से पूछ बैठी -- " कहो -- - - तुमने क्या माँगा ? क्या कहा उससे ? "
" किससे ? "
" अपने भगवान से . उस पत्थर से . "
गुलशन पायल के चेहरे पर निरीह दृष्टि डालकर शायराना अंदाज़ में बोला -- " बुत बन गए जब आप , तो पत्थर से क्या कहें ! "
गुलशन के इस उत्तर से पायल सिटपिटा गयी . गेसू चौंक पड़ी और अन्जान चंचल मूर्खों कि तरह उन्हें ताकने लगा .
और तभी !
गुलशन के पाँव में चलते - चलते ठोकर लगी . वह अपना सन्तुलन खोकर गिर पड़ा . पाँव में हलकी सी मोच आ गयी . चलने में कुछ असुविधा अनुभव करने लगा . गुलशन बोला -- " अब तो मैं कहीं दूर जाऊंगा नहीं . तुम लोगों को जाना है तो जाओ . "
" मैं भी नहीं जाऊंगी . कुछ थकान सी हो रही है . " गेसू ने कहा .
चंचल ने पायल से पूछा - " तब तुम्हें चलना है या नहीं ? "
" कहाँ ? "
" सुना है- - - यहाँ से लगभग आधा मील की दूरी पर बहुत सुन्दर झरना है . "
" तब चलूंगी . " पायल ने हामी भरी .
चंचल गुलशन व गेसू को सम्बोधित करके बोला -- " हम लोग करीब घन्टे भर में वापस लौट आयेंगे . यहीं आस - पास मिलना . "
दोनों चले गये .
गुलशन ने गेसू से पूछा -- " तुम क्यों नहीं गयी ? "
" तुम जो नहीं गये . " गेसू ने मुस्कराकर कहा -- " तुम्हें क्या मंदिर के बाहर पायल की बाबत भगवान से मन्नतें मांगनें के लिये यहाँ अकेले छोड़ने की बेवकूफ़ी करती ! "
उसकी बात का जवाब न देकर गुलशन ने स्वयं एक प्रश्न पूछ लिया -- " अच्छा ये बताओ ! तुमने मन्दिर में भगवान से क्या प्रार्थना की ? "
गेसू ने चंचलता से मुस्करा कर कहा -- " बताऊँ ? "
" पूछ तो रहा हूँ . "
" मैनें कहा - - - हे दया निधान ! तुम्हारी दया से अमीर कलाकन्द और गरीब शकरकन्द खाते हैं . तुमने क्लर्क को रोटी और अफसर को डबलरोटी दी . तुमने भेड़ों को पैदायिशी ऊनी ओवरकोट दिया और मनुष्य को नंगा पैदा किया . तुमने आदमी को दाढ़ी और औरत को साड़ी दी . तुम आशिक को माशूक देते हो , माशूक को बच्चा देते हो और बच्चे को कच्छा देते हो . तुम्हारी दया से कोई मिल चलाता है और कोई चरखा चलाता है . अब हमारा भी चक्कर चला दो ना . "
" कैसा चक्कर ? किससे ? " हंसकर गुलशन ने पूछा .
गेसू ने इठलाकर जवाब दिया -- " इश्क का . तुमसे . "
अचानक गुलशन गंभीर होकर बोला -- " गेसू ! तुम्हारी बातों और व्यवहार से साफ़ झलकने लगा है कि तुम मेरे प्यार में गहरे डूबने लगी हो . और ये बात मुझ बदनसीब के लिए गर्व कि होती , मगर - - - पर याद रखो गेसू ! जो लोग इश्क को फूल समझते हैं - - - वो अक्ल के दुश्मन है . जिनमें से एक मैं भी था . ये मेरा भोग हुआ यथार्थ है कि इश्क एक टीस है , दर्द है , जलन है , तड़प है , यन्त्रणा है , कसक है , शूल है - - - लेकिन ये फूल किसी भी दशा में नहीं है . इसीलिये कहता हूँ कि कम से कम तुम समय रहते इश्क की बांहों में गिरफ्तार होने से बचो . काश ये बात - - - जो मैं तुमसे अब कह रहा हूँ , मुझे पहले पता होती , तो आज मेरा हाल यूँ बेहाल न हुआ होता . "
इतना कहते - कहते गुलशन की तबीयत कुछ बेचैन सी हो गयी - - - और ऐसे समय बदनाम सिगरेट बहुत काम आती है . उसने एक सिगरेट होठों से लगाकर सुलगा ली और एक लम्बा कश खींच कर गेसू की तरफ देखा . देखा कि वह कुछ सोच रही है .
गुलशन ने धुआं छोड़कर पूछा -- " क्या सोच रही हो ? "
" सोच रही हूँ - - - मुझसे तो मुई सिगरेट का भाग्य ही अच्छा है , जो बार - बार तुम्हारे होठों से लगती है . "
" चाहो तो तुम भी होठों से लगाकर देखो . " गुलशन ने मुस्कराकर कहा .
गेसू ने बच्चों सी मासूम मुस्कान बिखेरते हुए पूछा -- " किसे - - - तुम्हें या सिगरेट को ? "
" फिलहाल मैं सिगरेट की बात कर रहा हूँ शैतान . "
इस बीच सांझ ढल चुकी थी . मौसम की धीमी करवट के साथ उजाले पर सुरमई धुंधलके ने कब्ज़ा जमा लिया था . चाँद बादलों का घूंघट सरकाकर जमीं का नज़ारा कर रहा था .
दोनों पार्क के निकट स्थित एक झील के किनारे बैठ गए . झील के शान्त निर्मल जल में चांदी सा चमचमाता चाँद तैर रहा था . जैसा कि लोग प्रायः करते हैं - - - गेसू ने बेवजह एक कंकड़ उठाकर झील में उतराते चाँद पर बेदर्दी से दे मारा . सीधे शान्त पानी में कंकड़ गिरते ही - - - चोट से बचने के लिए , चंचल चाँद सिमट - सिकुड़कर न जाने कहाँ छुप गया - - - और थोड़ी ही देर में , खतरा टल गया जानकार फिर से ऊपर झाँक - झाँक कर शरारती बच्चे कि भाँति निशानेबाज़ को मुंह चिढ़ाने लगा .
झील के किनारे लगे मरकरी लैम्पों की तेज़ रौशनी में , पानी में तैर रही मछलियाँ साफ़ नज़र आ रही थीं . राहु की महादशा से गुज़र रहे गुलशन ने रोटी के कुछ टुकड़े पानी में फेंकने शुरू कर दिए . बार - बार पानी में गिर रहे रोटी के टुकड़ों ने मछलियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया , और मछलियाँ उनके इर्द - गिर्द जमा हो गयीं - - - जैसे चुम्बक के इर्द - गिर्द लौह - कण खिंचे आते हैं .
गेसू बोली -- " दोस्त गुलशन ! देखो - - - मछलियाँ किस तरह तेजी से रोटी की तरफ खिंची चली आ रही हैं . जैसे रोटी चुम्बक हो . "
गुलशन दार्शनिक अंदाज़ में बोला -- " ये तो प्रकृति का नियम है गेसू . मछली ही क्या - - - प्रत्येक जीव ' रोटी ' की तरफ भागता है . सच पूछो तो रोटी दुनिया में सबसे बड़ा चुम्बक है . "
" लेकिन मेरी रोटी तो तुम हो जी . जी करता है - - - तुम्हें समूचा निगल जाऊं . बस - - - हुज़ूर की हाँ की जरूरत है . "
दोनों हंस पड़े . लेकिन फिर - - - गेसू गंभीर हो गयी
वह बोली -- " गुलशन ! दोस्त - - - क्या सचमुच हम - तुम नहीं मिल सकते ? "
" गेसू ! आसमान बहुत ऊंचा है - - - और मैं धरती पर चल रहा हूँ . धरती और आसमान का मिलन कभी नहीं हो सकता . कभी भी नहीं . "
" लेकिन जरा ध्यान से दूर तक देखो , तो धरती और आसमान साफ़ मिलते नज़र आयेंगे . "
" ये तो मात्र आँखों का भ्रम है गेसू . ये संभव नहीं ."
गेसू निरुत्तर हो गयी . गुलशन विचारों में उलझ गया .
गेसू ने पूछा - " क्या सोचने लगे दोस्त ? "
" एक उलझी हुई बात याद आ गयी थी . उसी के बारे में सोच रहा था . "
" क्या ? "
" यही - - - कि कभी - कभी तुम मुझे बेहद अजीब सी लगती हो . जैसे - - - जब मेरी - तुम्हारी पहली मुलाक़ात हुई थी , तो चलते समय मैंने तुमसे एक प्रश्न पूछा था . उस वक्त तुमने जवाब बहुत उलझा हुआ और घुमाकर दिया था . "
गेसू जानबूझकर अन्जान बनते हुए बोली -- " क्या पूछा था . याद नहीं . कुछ याद दिलाओ . "
" मैंने तुमसे पूछा था - - - क्या तुम कुँवारी हो , मगर - - - . "
" मगर अब तुम पहले मेरे एक प्रश्न का ईमानदार उत्तर दो . "
" पूछो . "
" क्या तुम ब्रम्हचारी हो ? " गेसू अति ज्ञानी की तरह मुस्करायी .
गुलशन अपने ही सवाल की गिरफ्त में आकर सिटपिटा गया और गले की हड्डी उगल कर जान बचाने की नीयत से बोला -- " खैर - - - छोड़ो भी इन पेचीदा बातों को . क्या जरूरत है कि हम एक - दूसरे के सामने बेवजह बेनकाब हों ! "
" जरूरत है . दोस्त ! दोस्त - दोस्त एक - दूसरे के सामने जितना ही बेपर्दा होंगे - - - दोस्ती उतनी ही गहरी होगी . बताओ ! जवाब दो !१ "
" उंह ! अब छोडो भी . कोई और बात करो . " गुलशन ने पुनः बचना चाहा .
गेसू हंस दी - - - और उसे पुनः झेंपना पड़ा .
सामने झील के गहरे खामोश जल में एक खूबसूरत नाव तैर रही थी - - - और उस पर उसका नाम लिखा था -- ' जन्नत ' . जन्नत के ऊपर एक बोर्ड लटक रहा था ' किराए के लिए खाली ' का . यानि की जन्नत किराये पर उपलब्ध थी .
दोनों उस किराये की जन्नत के मालिक से उसका किराया पूछने चल पड़े .
और उधर !
पायल और चंचल जब थोड़ी दूर चल चुके तो झरने का रास्ता उनकी समझ से बाहर हो गया . तभी एक ग्रामीण बूढ़ा व्यक्ति दिखा . कुटिलता से लबालब उसकी चौकन्नी कंजी आँखों में जवानी की शेष शैतानी साफ़ छलक रही थी .
चंचल ने उससे पूछा -- " दादा ! झरने का रास्ता कौन सा है ? "
देहाती बूढ़े ने बड़ी ढिठाई से कहा -- " बताने का क्या दोगे बच्चा ? "
" बताने का भी लोगे ? "
" क्यों न लूँ ? आजकल जब तुम शहर वाले पानी का भी मोल लेते हो , तो पानी के झरने का रास्ता बताने का क्यों न हो ? "
" पर दादा - - - हम तो परदेसी ठहरे . बता भी दो . "
" अच्छा - - - परदेसी हो तो बताये देता हूँ . सुनो ! जिस तरफ से चाँद निकलता है , उधर बढ़ो . फिर ढलान उतर कर ध्रुव तारा निकलने की दिशा में घूम जाओ . इसके बाद नाक की सीध में चले जाओ . फिर दाहिने मुड़ो , फिर बायें जाओ . फिर बायें मुड़ो , फिर दायें जाओ . राम - राम जपते जाओ . राम जी चाहेंगे , तो पहुँच ही जाओगे . "
चंचल झुंझलाकर बोला -- " वाह ! क्या रास्ता बताया है दद्दू !! कुछ पल्ले ही नहीं पड़ा . "
" मुफ्त में रास्ता ऐसे ही बताया जाता है पुत्तर . अच्छा राम - राम . राम जी चाहेंगे , तो फिर भेंट होगी . " देहाती खींसे निपोर कर बोला और सर्र से आगे सरक लिया . वह कभी न कभी शहरी दुलत्ती झेल चुका आक्रोशित बन्दा लगता था .
पायल भौचक्की होकर उसे देखती रह गयी और चंचल अपना माथा पीटकर बोला -- " हे भगवान ! ये कौन सी बयार बहाई है तूने , जो हमारे देश के देहाती भी अब शहरी सरीखे होते जा रहे हैं . "
पायल ने दूर जाते उस बूढ़े को कुढ़ी हुई तेज आवाज़ देकर ललकारा -- " अरे बुढ़ऊ ! अपना नाम तो बताते जाओ ? बताने का दूँगी . "
" अलोका s s s . "
" हाय ! तुझे पैदा होने से किसी ने न रोका !! " पायल ने तेज आवाज़ में तुकबंदी भिड़ाई .

[14]
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

पायल और चंचल - - - दोनों हंस पड़े . अब दोनों ने अपने आप ही झरना ढूँढने की ठानी और आगे बढ़ने लगे .
रास्ते में फूलों से खिलखिलाती जंगली झाड़ी की फुनगी पर हवा से फुदकते एक खूबसूरत फूल को तोड़कर चंचल ने उसे काँटों की दुनिया से दूर ले जाकर पायल के रेशमी बालों में सजा दिया - - - उसकी ठोढ़ी उठाकर उसके और भी निखर आये सौन्दर्य को गौर से देखा और फिर एक चुटकी काटकर उसके गुलाबी गालों को लाल कर दिया .
घायल गालों के दर्द से तिलमिलायी पायल किटकिटायी -- " ठहर बदमाश . "
चंचल भाग लिया . पायल उसका पीछा करते - करते असफल होकर अचानक एक कंकड़ उठाकर बोली -- " रुक जाओ , वरना मार दूँगी . "
चंचल पर कोई असर नहीं पड़ा . वो लगातार भागता रहा . "
पायल ने पुनः प्रेम - पगी धमकी दी -- " मैं सच कहती हूँ , मार दूँगी . मेरा निशाना कभी नहीं चूकता . "
उसका इतना कहना था की चंचल जस का तस रुक गया और दिल पर हाथ रखकर आशिकाना अंदाज़ में आह भरकर बोला -- " हाँ जानी ! ये तो हम भी मानते हैं . "
" जाओ हम तुमसे नहीं बोलते . " उसने रूठने का अभिनय किया .
" चलो अब छोडो गुस्सा . तुम पर फबता भी नहीं . उल्टे दूनी सुन्दर दिखती हो . " इतना कहकर चंचल अधिकार पूर्वक पायल का हाथ पकड़कर आगे बढ़ने लगा .
पायल भी गुस्से का हाथ छोड़ खुलकर हंस पड़ी . जैसे हीरे - मोती की डिब्बी सी खुल गयी .
झरना सामने झलकने लगा . झर - झर झरते झरने की तेज आवाज़ सन्नाटे में कुछ भय ही पैदा कर रही थी . गिरते पानी से उठता झाग ऐसा लग रहा था , जैसे पानी को मिर्गी का दौरा पड़ गया हो और उसके मुंह से झाग निकल रहा हो .
दोनों झरने के पास पहुँच , पानी में पाँव लटका कर बैठ गए - - - और झाग से दूधिया हुए पानी को देखने लगे .
हलकी - हलकी हवा चल रही थी और इस मंद हवा में पायल का दुपट्टा यूँ काँप रहा था , जैसे पेठे की मिठाई पर लगा चाँदी का वरक . अचानक नम हवा का एक तेज झोंका आया और पायल के महकते रेशमी बालों को उसके सलोने चेहरे पर गिरा गया .
बेपरवाह पायल ने काफी देर तक उन्हें चेहरे से नहीं हटाया , तो चंचल ने कहा -- " ये क्या ! ऊपर का चाँद निकल आया और तुम नीचे के चाँद को मुझसे छिपा रही हो . " उसकी आँखों में चुहल के परिन्दे चहकने लगे थे .
मुस्कराती पायल ने बालों का गुच्छा सा बनाकर उसे काँधे के पीछे फेंक दिया और बोली -- " चंचल ! अब हमें जल्दी ही शादी कर लेनी चाहिए . "
चंचल चुस्की लेकर बोला -- " क्यों ! बहुत मन कर रहा है क्या - - - शादी का !! या मुझ पर से भरोसा उठने लगा है ? "
" नहीं - - - ये बात नहीं . तुम्हें तो हर वक्त ठिठोली सूझती रहती है . सच्चाई ये है - - - कि हमारे देश में प्यार को यदि अधिक दिनों तक शादी नसीब न हो , तो प्यार बदनाम हो जाता है . और मैं अपने प्यार को बदनाम होते नहीं देख सकती . "
" तब ठीक है . मैं पिता जी से शादी की तारीख के बारे में मौका देखकर बात करूंगा . भगवान ने चाहा तो बात जल्द ही बन जायेगी . तुम भी भगवान से प्रार्थना करो . मगर तुम्हें तो ईश्वर पर भरोसा ही नहीं . " इतना टुकड़ा जड़कर चंचल हंसने लगा .
पायल झुंझला पड़ी -- " तुम तो बात का बतंगड़ बनाते हो . "
चंचल खामोश हो गया और उसकी ओर टकटकी लगाकर कुछ सोचने लगा .
पायल ने कुछ देर बाद टोका -- " क्या सोचने लगे ? "
चंचल मुस्करा कर बोला -- " अपनी शादी के बाद की परिस्थितियों पर सोच रहा था . सोच रहा था कि जब हम लोग शादी कर लेंगे , तो कुछ साल बाद , सारा दिन ऑफिस की नौकरी बजाने के बाद - - -जब मैं थका - हारा घर लौटा करूंगा , तो मेरी आँखों में तुम्हारा खिले गुलाब सा निखरा चेहरा हुआ करेगा और साँसों में महकती हुई मुस्कराहट . मीठे सपने संजोये - - - दरवाजे का परदा हटाकर अन्दर दाखिल हुआ करूंगा तो आँगन में पहुँचते ही तुम्हारी सुरीली आवाज़ की गुनगुनाहट के बजाय आधा दर्ज़न अनचाहे बच्चों की कान फोड़ देने वाली चिल्ल पों मुझे बौखला देगी - - - फिर मुझे तुम दिखोगी - - - नंगे पाँव - - - कोहनियों तक आटे में सने हाँथ - - - बाल बिखरे हुए , जिनमे लगी आटे की सफेदी तुम्हारे आने वाले कल का नक्शा सामने ला खड़ा करेगी - - - और तुम गला फाड़ - फाड़ कर दहाड़ रही होगी - - - मन्टू के बच्चे - - - अरे एक रोटी की लोई लेकर भाग गया -- चिड़िया बनाने के वास्ते . तेरा सत्यानाश हो . अरे ओ नीतू की बच्ची - - - बेवकूफ - - - सारी पकी - पकाई दाल ही बिखेर दी . अभी तुम्हारा बाप क्या मेरे कलेजे से रोटी खायेगा ? अरे सारा दूध कौन पी गया ? अब उनको कौन से दूध की चाय पिलाऊंगी ? अरे ओ पप्पू - - - क्या तेरी मौत आई है मेरे हाथों ? कल ही तो तुम्हारे बाप ने अपने ऑफिस के क्लर्क की पेन्सिल चुराकर दी थी - -- - और तूने आज चबा - चबा कर भुरकुस बना दी . अरे कुल नासों ! भगवान करे तुम्हें ढाई घडी का हैजा हो . तुम्हारी माँ न मरे , बाप जिये . और - - - ."
" बस - - बस - - बस ." पायल उसकी बात काटकर बेतहाशा हंसने लगी .
चंचल भी हँसते - हँसते बोला --" चलो - - - अब लौट चलें . "
दोनों वापस लौट पड़े और थोड़ी ही देर में पार्क में बैठे गेसू और गुलशन के पास पहुँच गये .
कुछ देर गप शप के बाद पायल बोली -- " अब हमें घर लौट चलना चाहिये . हम लोग अधिक रात तक यहाँ बैठेंगे , तो पुलिस हमें आवारा ठहरा कर भीतर कर देगी ."
गुलशन ने भी समर्थन किया --" पायल ठीक कह रही है . अब हमें भोजन आदि करते हुए घर चलना चाहिये . "
सभी उठ खड़े हुए . कर में सवार हो वो होटल तलाशते घर की ओर बढ़ चले . होटल के नाम पर चंचल की दबी भूख कुलाचें मारने लगी थी - - - और वो बड़ी बारीकी से अनुभव कर रहा था की गरीब और अमीर का फर्क कितना नगण्य है , कि चन्द घन्टों की भूख दोनों को सामान बना देती है .
काफी देर व दूरी पर एक होटल प्रकट हुआ . वो भी एकदम नालायक किस्म का था . मजबूरी का नाम महात्मा गांधी - - - सब उसी में हो लिए .
होटल क्या था - - - दिल्ली कि जुबान में उसे ढाबा और पंजाबी बोली में रोटी की दुकान कह सकते थे . होटल में बैठे - बैठे समन्दर सा लम्बा और पहाड़ सा भारी वक्त गुज़र गया , तब कहीं बनियान व कच्छा पहने एक भोंदू सा बेयरा मेहरबान हुआ .
उसने भूख से ऐंठते चंचल से पूछा -- " हुक्म साब ! "
चंचल ने पूछा -- " क्या - क्या चीजें मिल सकती हैं ? "
" जो आप मांगें साब . "
" छोले - भठूरे हैं ? "
" नहीं साब ."
" डोसा है ? "
" नहीं साब . "
" आलू - पराठा तो होगा ? "
" वो भी नहीं है साब . "
" तब क्या है ? "
" जो आप मांगें साब . " बेयरा ने रटा - रटाया वाक्य दोहराया .
चंचल झुंझलाकर बोला -- " अच्छा जाओ - - - मेनू लेकर आओ . "
" होश में बात करो साब . मीनू मेरी बीबी है . मैं उसके बारे में ऐसी - वैसी बात नहीं सुन सकता . और फिर - - - ये होटल है , चकला नहीं साब . " बेयरा गुस्से में शोले की तरह भड़कता हुआ बोला .
सभी इस छोटे से होटल के बेयरे की नादानी पर हंस दिए . वो समझ गए की बेयरा मेनू को मीनू समझा था और मेनू का अर्थ नहीं समझता .
बेयरा सामान्य होकर पुनः बोला -- " बताइये साब ! क्या लाऊँ ? "
" भेजा . " झुंझलाए चंचल को लगा - - - बेयरा उसका भेजा चाट रहा है .
मगर बेयरा चौंके बिना बोला -- " ये शुद्ध शाकाहारी वैष्णव होटल है साब . यहाँ ऐसी - वैसी चीज़ , मांस - मछली नहीं मिलती . "
एक बार पुनः सबकी हंसी छूट गयी .
चंचल ने बेयरे की बौनी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा -- " अच्छा भइये - - - अपनी मर्जी से जो लाना हो ले आओ . "
बेयरा चला गया और थोड़ी देर में साधारण से भी निचले दर्जे का खाना ले आया . सभी भूखे पेट में जबरन खाना ठूंसने लगे .
बगल की मेज पर पसरे कब्र में पैर लटकाये दो बूढ़े खाने के इन्तजार में धीरे - धीरे खांस रहे थे . कव्वालों के जंगी मुकाबले की तरह , जब एक खांसना बन्द कर देता , तो दूसरा शुरू हो जाता . ऐसा मालूम होता था - - - दोनों में कोई मौन समझौता हो चुका है -- पारी - पारी खाँसने का .
सब्जी में मिर्च अधिक होने के कारण सभी सी - सी कर रहे थे . गुलशन को तो क्रोध ही आ रहा था .
तभी वही बेयरा नज़दीक आकर बोला - " कुछ और साब ? "
" हाँ - - - एक प्लेट केकड़ा और एक प्लेट मोहब्बत . " गुलशन ने गुस्से में फरमाइश की .
" हें - - हें - - हें ! क्यों मज़ाक करते हैं साब !! " बेयरा खींसें निपोर कर चला गया .
गेसू ने गुलशन से उत्सुकता वश पूछा -- " एक बात समझ में नहीं आयी - - - कि केकड़े के साथ मोहब्बत का क्या सम्बन्ध ? "
" है - - - बहुत गहरा सम्बन्ध है . " वह पायल की ओर देखकर बोला -- " मोहब्बत भी उतनी ही बदसूरत होती है , जितना केकड़ा . मोहब्बत भी उतनी ही लज़ीज़ होती है , जितना कि छिले - भुने केकड़े का गोश्त . और कभी - कभी मोहब्बत भी उतनी ही जहरीली होती है , जैसे कोई - कोई केकड़ा . "
उसकी बातें सुनकर पायल ने आँखें चुरा लीं , गेसू मुस्करा दी , जबकि चंचल हंस पड़ा .
खाना निपटाकर सभी काउन्टर पर आ गये .
चंचल ने रुपया देते हुए होटल मालिक से कहा -- " तुम्हारे खाने में मिर्चे बहुत अधिक थीं . न जाने तुम लोग खाने में इतनी मिर्चें क्यों झोंकते हो ! "
" क्योंकि इतनी तीक्ष्णता खाने के स्वाद को बढ़ा देती है . " होटल मालिक बोला -- " साहब ! आम भारतीयों की जहाँ और सब इन्द्रियाँ मर चुकी हैं , वहीँ चखने कि शक्ति अभी तक बनी हुई है . बल्कि निरन्तर भूखा रहने से और भी अधिक तीक्ष्ण हो गयी है . इसीलिये तीक्ष्ण मिर्चों की अधिकता रहती है , हमारे खाने में . "
" ओह - - - अब समझा . तो ये बात है . आदमी काबिल लगते हो . "
" मगर टुटपुंजिया होटल चलाता हूँ - - - पर एक बात बताओ साहब . कुल मिलाकर खाना कैसा रहा ? "
" वाह - - - क्या बात थी . यदि सब्जी उतनी ही गर्म होती , जितना कि पानी था - - - यदि रोटी उतनी ही मुलायम होती , जितना कि पापड़ था - - - यदि चावल उतना ही पुराना होता , जितना कि दाल में घी था - - - तब तो भोजन बहुत अच्छा होता . " व्यंग्य के बाद गुस्से में चंचल ने रौब झाड़ा -- " तुम्हें शर्म नहीं आती , ऐसे होटल का मालिक होने पर ? "
" नहीं साहब ! क्योंकि मैं खाना दूसरे बढ़िया होटल में खाता हूँ . " वह चंचल को चिढ़ाने कि नीयत से बड़ी ढिठाई से बोला .
और खिसियाए चंचल ने अब होटल से भाग निकलने में ही भलाई समझी .
सभी कार में बैठकर घर की ओर चल दिये .


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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 10 )

शराब डायन की तरह एक बार जिसके गले पड़ जाये , उसे आसानी से नहीं छोड़ती .
गुलशन के घर के उदास कमरे में गेसू और गुलशन बैठे थे . गेसू के लाख मना करने के बावजूद भी वह पी रहा था .
उसकी इस लत से आजिज आकर गेसू बोली -- " दोस्त ! देखती हूँ - - - आजकल तुम बहुत अधिक पीने लगे हो . नुकसान करेगी . आदत नहीं छूटती , तो कम से कम सोडा मिलाकर तो पी सकते हो . शुद्ध व्हिस्की तुम्हारे दिल - जिगर को नुकसान पहुँचायेगी . "
" हुंह - - - अब दिल - जिगर की जरूरत भी क्या ! वैसे सोडा इसलिये नहीं मिलाता क्योंकि इसकी असली ख़ुश्बू मारी जाती है , मिलावट से . "
" ख़ुश्बू ! " गेसू चौंक कर बोली -- " अजीब होते हैं पियक्कड़ . तुम्हें ख़ुश्बू मिलती है शराब में ! मुझे तो बदबू आती है . मरे हुए जीव की सी बदबू . "
" उफ़ - - - क्यों नशा हिरन करती हो मेरा ! '
" ठीक ही तो कहती हूँ . मरे जीव की बदबू ही तो आती है इससे . शराब की बदबू और मरे हुए जीव की बदबू में कौन सा ज्यादा फर्क है ! दोनों तरह की बदबू चीजों के सड़ने से ही तो पैदा होती हैं . इसीलिये इन दोनों में समानता भी स्वाभाविक है . " इतना कहकर वो पलंग से उठी और कमरे में अव्यवस्थित पड़ी चीजों को ठीक - ठाक करते हुए बोली -- " कमरा ठीक से सजा तक नहीं . जैसे - तैसे सब चीजें रख छोड़ी हैं . तुम्हें मालूम होना चाहिए - - - चीजों के रख रखाव मात्र को सरसरी नज़र से निहार कर ही सयाना आगन्तुक घर के स्वामी की अभिरुचियों और मनोदशा को पूरा पढ़ लेता है . अब आगे से मुझे तुम्हारा घर सजा - संवरा मिलना चाहिए - - - समझे ! "
गुलशन आह भरकर बोला -- " कोई सजाने वाली हो , तब न . "
गेसू पुनः पलंग पर बैठकर बोली -- " तभी तो कहती हूँ दोस्त - - - शादी कर लो . घर भी संवर जाएगा और धीरे - धीरे गृहस्थी में खोकर , गम और शराब दोनों ही छूट जायेंगे . कुछ सोचा इस बारे में ? कुछ उम्मीद है शादी की - - - या नहीं ? "
" नहीं - - - कुछ भी नहीं . " गुलशन ने उस पूर्णता से जवाब दिया , जहां धरती और आकाश - - - दोनों समाप्त हो जाते हैं . उम्मीद के पँछी पिंजरा तोड़कर फुर्र हो जाते हैं . आने वाली आशायें खूंखार चमगादड़ों की तरह घर के कोने में उलटी लटक कर फड़फड़ाने लगती हैं - - - और निगाहों में दूर - दूर तक रेगिस्तान तैरने लगते हैं .
गेसू उसकी बचकानी जिद की हंसी उड़ाकर बोली -- " तुम भी अज़ब किस्म के प्रेमी हो , जो महाराणा प्रताप सरीखा हठ योग धारण किये हो कि जब तक पायल को नहीं पाओगे , नहीं सुधरोगे . मुझे तो लगता है कि ग्रामोफोन के रेकार्ड कि सुई की तरह एक ही जगह अटक कर तुम बार - बार एक ही बेसुरी आवाज़ निकाल रहे हो और मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी पायल पर अटकी सुई को थोड़ा सा आगे बढ़ाकर तुम्हें फिर से सुर प्रदान कर दूं . दोस्त ! सच कहती हूँ - - - शादी न करके तुम अधर्मी हुए जा रहे हो . मेरी मानों तो अब ये अधर्म की राह छोड़ो . जवानी का धर्म निभाओ .जालिम ! तुम पर जवानी भी तो ऐसी टूटी है कि - - - . जानते हो ! तुम शादी न करके सिर्फ अपने शारीरिक अरमानों का गला ही नहीं घोट रहे हो , बल्कि अपनी अगली पीढ़ियों का भी अग्रिम खून कर रहे हो . "
" नहीं भई - - - मैं अपने बच्चों का पेशगी खून नहीं कर रहा . वो तो पैदा हो ही रहे हैं . " गुलशन भी मजाक में बोला .
गेसू उसका मजाक न समझ कर चौंकी -- " क्या मतलब ! तुम्हारी तो शादी ही नहीं हुई - - - फिर बच्चे - - - बताओ कौन कहाँ हैं तुम्हारे बच्चे ? "
" अब छोड़ो भी ये बात . वैसे भी मैं उनका नाम लेकर पतिव्रताओं को संकट में नहीं डालना चाहता . " गुलशन ने हंसकर जवाब दिया .
गेसू उसकी बात पर हंसकर अचानक गंभीर हो गयी और बोली -- " दोस्त ! ज़िन्दगी की गंभीर बातें यदि यूं ही मजाक में टालते रहे , तो ज़िन्दगी खुद एक मज़ाक बनकर रह जायेगी . मजाक छोड़ो और किसी अच्छी सी लड़की से शादी कर लो . "
" तब पायल को राजी करो . "
" पायल - - - पायल - - - पायल ! तुम भूत से चिपके हुए हो . " गेसू एकाएक गरमाकर लगभग चीख ही पड़ी और फिर अपनी ही गर्मी की आंच में थोडा नरमाकर समझाने लगी -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! अगर भूत कडुआ है , तो उसे मुंह में आये थूक की तरह थूक देना ही बेहतर होता है . "
" लेकिन भूत की बुनियाद पर ही तो भविष्य का स्वप्नीला मज़बूत महल खड़ा किया जाता है . "
" ओफ्फोह - - - अब तुम्हें कौन समझाये कि गरीबी सपने देखने का हक़ छीन लेती है . गुलशन ! मैं चाहती हूँ , पहले तुम पर्याप्त अमीर बनो , फिर सपने देखो . " गेसू ने सलाह दी -- " दोस्त ! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम मेरे पिता जी से कुछ हजार रूपये कर्ज लेकर अपना कोई व्यवसाय शुरू करो ? "
" कर्ज़ से व्यवसाय ! न बाबा ना . कर्ज़ का एक रुपया भी हिमालय से भारी होता है . हजारों का बोझ मैं कैसे उठा पाऊँगा ! मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा ये बोझ . "
" तब फिर तुम मुझसे शादी कर लो . पिताजी की संपत्ति में मेरे हिस्से की रकम से तुम अपना व्यवसाय शुरू कर सफल हो सकते हो . "
" ऐसा नहीं हो सकता . "
" क्यों ? "
" क्योंकि किसी की यादें -- - - मेरी साँसें बन चुकी हैं . पायल की याद चन्दन की सुगंध की तरह मेरे मस्तिष्क में हमेशा छाई रहती हैं . और अगर मैं तुमसे शादी कर भी लूं . तो तुम्हारे प्रति पूरी ईमानदारी नहीं बरत पाऊँगा . ऐसा मुझे विश्वास है . उस हालत में मेरी बाहों में तुम रहोगी और दिमाग में पायल और सिर्फ पायल ही घूमती रहेगी . गेसू ! मैं नहीं चाहता की तुम मेरी कटी - फटी ज़िन्दगी में एक पैबंद की भूमिका अदा करो और मैं नाटक का एक मजबूर कलाकार बनकर रह जाऊँ . मेरी हमदर्द ! मुझे मालूम है कि शादी के बाद मैं तुम्हें सच्चा प्रेम नहीं दे सकूँगा - - - क्योंकि मेरे विचार में प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है . बाद में किया गया प्रेम तो खुद को भूलने का , भरमाने का समझौता मात्र है . "
" एक बात पूछूँ दोस्त ! क्या प्रथम प्रेम नासमझी नहीं हो सकती ? "
" गेसू ! कुछ नासमझियां मजबूरियाँ भी तो बनकर रह जाती हैं . इसीलिए कहता हूँ - - - मेरा ख़याल छोड़ दो - - - क्योंकि मेरा मन वो वीरान गुलशन है , जिसके वृक्षों की शाखाओं पर मनहूस उल्लू बसेरा करते है . मेरे पास तुम्हें क्या मिलेगा ! तुम बेकार ही मुझसे दिल लगाकर खुद को परेशान कर रही हो . मेरा दिल टूट चुका है . "
" मैं टूटे हुए दिल को प्यार का मरहम लगाकर जोड़ दूँगी . तुम्हारी जिंदगी में फिर से बहार ला दूँगी . "
" नहीं - - - ये संभव नहीं होगा . टूटे हुए कांच को जोड़ने पर भी दरार रह जाती है - - - फिर दिल तो दिल है . मुझे भूल जाओ गेसू - - - बिसार दो . मेरे जीवन में बहार लाने का तुम्हारा सपना पूरा न हो सकेगा . मैं कभी भी फूल - फल नहीं सकता . मेरी ज़िन्दगी पतझड़ के उस बबूल की तरह है , जिसका जिस्म काँटों से छिदा है और शाखें नंगी हैं . "
" बारिश गिरे तो सूने बबूल पर भी नई कोपलें आ जाती हैं दोस्त . मेरे प्यार की रिमझिम फुहारें तुम्हारे जीवन से पतझड़ को दूर भगाकर बहारों को फिर से न सजा दें , तो कहना . मेरे प्यार और उसके जादुई असर पर यकीन करके तो देखो . "
" मैंने कब कहा कि यकीन नहीं ! भरोसा है - - - मुझे तुम्हारी दोस्ती पर . गेसू ! मैं तुम्हें एक अच्छे दोस्त के रूप में तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा . मुझे मालूम है - - - कि दोस्त अच्छे वही होते हैं , जो बुरे वक्त में पैदा होते हैं . लेकिन पायल - - - . "
" फिर पायल . " गेसू ने उसे लगभग डांट ही दिया -- " आज कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली है क्या ! हज़ार बार कह चुकी हूँ , उसकी आकांक्षा छोड़ दो . उसकी नज़र में तुम उसके लायक ही नहीं . "
" क्यों नहीं ! जब तुम्हारे योग्य हूँ , तो उसके लायक क्यों नहीं ? "
" मेरे घोंघा बसन्त ! बल - हठ ठानने से हर चीज तो प्राप्त नहीं होती . अगर मैं भी पायल की जगह होती और उसी की सी परिस्थितियों में होती तो अधिक संभावना इस बात की ही होती कि मैं भी इस भौतिक वादी युग में तुम्हारे प्रति पायल जैसा ही व्यवहार प्रकट करती . दोस्त ! मैं लड़की हूँ - - - इसलिए अच्छी तरह जानती हूँ कि कार , कोठी और वजनी बैंक - पास - बुक हर कॉलेज कढ़ी महत्वाकांक्षी लड़की का ख़्वाब होता है . कोई आश्चर्य नहीं कि ये सपना पायल भी देखती है . और फिलहाल तुम उसके इन ख़्वाबों में सच्चाई का चटकीला रंग भरने की योग्यता नहीं रखते . गुलशन ! अधिकाँश लड़कियां एक नाज़ुक लता के सामान होती हैं - - - जो सदैव संपन्न , बलिष्ठ और समीप के पेड़ का सहारा ढूंढकर उसी से लिपटती हैं - - - ऊपर चढ़ने के लिए . और ये सब गुण - - - ये विशेषताएं पायल ने तुममें नहीं , बल्कि चंचल में देखी हैं . लेकिन तुम्हें ये सब बातें इसलिए नहीं समझ आतीं क्योंकि तुम्हारे प्रेम की न आँखें हैं , न विवेक , न बुद्धि . "
" मगर फिर तुम क्यों मुझसे शादी करना चाहती हो ? "
" तुम भी न - - - नशे में एकदम घोंचू जैसे सवाल कर रहे हो . अब पूछ ही लिया है - - - तो सुनो ! मैं तुमसे इसलिए शादी करना चाहती हूँ - - - क्योंकि पहली बात तो ये है कि मैं तुम्हें पसन्द करती हूँ - - - और दूसरी बात ये है कि तुम्हारे साथ गाँठ जोड़कर मेरे भविष्य को कोई खतरा नहीं - - - क्योंकि मेरा तो एक उच्च आर्थिक स्तर पहले से ही स्थापित है और मैं अपने सहयोग से तुम्हें भी उसी स्तर तक पहुंचा सकती हूँ . मगर ये बात तुम्हारे और पायल के जोड़े पर लागू नहीं हो सकती . "
" ओह ! " उसकी दर्पण सी बातों में अपना चेहरा देखकर गुलशन काफी परेशान सा दिखने लगा .
गुलशन के मनोभावों को ताड़कर गेसू ने कहा -- " दोस्त ! जब परेशानी बढ़ जाए , तो आदमी को विचारों को मोड़ देकर खुली हवा में घूमना चाहिये . आओ चलो ! बाहर कहीं घूम - टहल आयें . "
" मन नहीं है . "
" आखिर यहाँ बैठे - बैठे करोगे भी क्या ? "
" सुबह को दोपहर , दोपहर को शाम और शाम को रात बनाऊंगा . "
गेसू उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए बोली -- " नक्शा मत मारो . अब चलो भी . मैं जो कह रही हूँ . "
गुलशन मुस्कराकर राजी हो गया . दोनों नदी किनारे सैर करने निकल पड़े .
मौसम मसूरी बन गया था . हवायें तेज और बर्फ की तरह ठंढी हो चली थीं . लगता था कि बर्फ गिरकर रहेगी .
दोनों नदी किनारे बैठकर जल - प्रवाह निहारते रहे . लगता था , कुछ सोच रहे हों .

[16]
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Old 05-02-2012, 10:13 PM   #19
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थोड़ी देर में !
गुलशन ने गेसू से पूछा -- " क्या सोच रही हो ? "
" सोच रही हूँ , नदी भी हमें कुछ शिक्षा देती है . "
" क्या ? "
" इसका बहता हुआ नीर हमें ये सिखाता है - - - कि जीवन गतिशील होकर जिया जाता है . मगर एक तुम हो कि पायल में अटक कर रुक गए हो . " इतना कहकर उसने पूछा -- " पर तुम भी तो कुछ सोच रहे थे ? "
" हाँ - - - मैं भी नदी के विषय में ही सोच रहा था . सोच रहा था कि नदी के दोनों पाट लगातार कितने समीप रहकर भी कभी नहीं मिल सकते . जैसे कि - - - . "
" जैसे कि तुम और पायल . यही कहना चाहते हो न ? " वह उसकी बात काटने के बाद झुंझलाकर बोली .
गुलशन ने भोलेपन से स्वीकारा -- " हाँ . "
उसकी इस अदा पर गेसू की हंसी निकल पड़ी . वह बोली -- " दीवाने हो गए हो तुम . "
" मैं दीवाना सही - - - मगर एक बात बताओ , " उसने मुस्कराकर चुहल भरी भरपूर निगाह गेसू पर डाली और कहा -- " आज तुम इतनी खूबसूरत क्यों लग रही हो ? "
" कितनी ? "
" इतनी - - - कि मौसम खिल उठें . हवायें महक उठें . "
और आज - - - पहली बार गुलशन के मुंह से अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर अचानक गेसू के गुलाबी गालों पर शर्म की लाली ने एक मादक अंगडाई ली और आँखों में शराब उतर आयी . गेसू को लगा कि वो मारे खुशी के बेहोश हो जायेगी . और फिर छः बरस से लेकर साठ बरस तक की कौन सी ऐसी स्त्री है , जो अपने रूप की प्रशंसा सुनकर पुलकित न हो जाय .
इस बीच - - - दबे पाँव हल्की - हल्की बर्फ पड़ने लगी और सर्दी बहुत बढ़ गयी . सर्दी से मुकाबले की तैयारी के इरादे से गुलशन ने एक सिगरेट सुलगा ली .
गेसू हथेलियाँ रगड़कर गर्मी लाने का प्रयास करते हुए बोली -- " सर्दी बहुत हो गयी है . "
गुलशन ने जवाब दिया - " बर्फ़बारी में सर्दी नहीं होगी तो और क्या होगा ! "
" बर्फ़बारी में और भी तो बहुत कुछ हो सकता है . " वह भेदपूर्ण मुस्कान के साथ ' बहुत कुछ ' शब्द पर जोर देकर बोली .
गुलशन ने पूछा -- " जैसे ? "
" जैसे डबल न्यूमोनिया . बुद्धू - - - जिसमें दोनों तरफ की पसलियाँ धौंकनी बन जाती हैं . " वह रहस्यमय कहकहा बिखेर कर बोली . उसका ठहाका ऐसा तेज दगा - - - मानो बेशुमार परिन्दे उड़ गए हों - - - मगर होठों के कोर पर रहस्य का एक ढीठ नन्हा जुगनू टस से मस न हुआ .
गुलशन ने नासमझ सा स्वांग रचकर टोका -- " तुम कहकहे बहुत खर्च करती हो . "
" कहकहे इसीलिए होते ही हैं . "
" नहीं - - - इन्हें संभालकर रखना चाहिये . उस वक्त के लिये - - - जब ज़िन्दगी दुखों से भर जाती है . जब सब अपने तीन दूना पांच पढ़ाकर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं . उम्मीद की सारी किरने दामन छुड़ाकर फरार हो जाती हैं और ना उम्मीदी की गहरी धुंध में सभी रास्ते गुम हो जाते हैं . "
" उस वक्त मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगी . "
"ये तुम्हारी खुशफहमी है . उस वक्त व्यक्ति ज़रूर ज़िन्दा रहता है . जैसे मैं . "
गुलशन की बात वातावरण को गंभीर बना गयी .
थोड़ी देर बाद !
गेसू बोली -- " आज तुम्हें साफ़ - साफ़ जवाब देना ही होगा कि तुम पायल की मृग तृष्णा में ही भटकते रहोगे या मुझसे शादी करोगे ? "
" गेसू ! बाँधे बज़ार नहीं लगतीं . वैसे भी - - - मुझसे शादी करके तुम्हें मिलेगा ही क्या ? मैं तो कहता हूँ , तुम्हारी चहकती खुशी भी जाती रहेगी . मैं तुम्हें कुछ न दे पाऊंगा . कुछ भी नहीं . "
" दोस्त ! व्यक्ति सदैव कुछ पाने से ही खुश नहीं होता . कभी - कभी कुछ या सब कुछ देने पर भी उसे आत्म संतोष और ख़ुशी प्राप्त होती है . "
" जैसे ? "
" जैसे दिल . "
" ओह - - - ज़रा ये तो बताओ - - - दिल देकर कितनी ख़ुशी मिलती है ? "
" कहा ना - - - बहुत अधिक . "
" जितना की मुझे मिली ? " गुलशन ने आह भरकर पूछा .
गेसू झुंझलाकर बोली -- " ओफ्फोह - - - क्यों वातावरण खराब करने पर तुले हो ! पायल के दीवाने - - - आँख खोलकर तो देखो , दुनिया कितनी खूबसूरत है . कितनी रंगीन और मस्ती भरी है . "
" लेकिन मुझे तो ऐसा कभी नहीं अनुभव हुआ . "
" तो आओ - - - आज मैं अनुभव कराऊँ . " गेसू आवेश में आकर तेजी से बोली और उसने गुलशन को अपनी तरफ घसीटकर , अपनी बाहों में भींचकर , गुदाज़ छाती से लगा लिया और पुनः बोली -- " लो - - - अनुभव करो . कुछ हुआ अनुभव ? "
अचानक में हुए गेसू के इस मादक हमले से हड़बड़ाकर गुलशन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया . उसकी तो मति ही मारी गयी . विवेक शून्य हो गया . कुछ घड़ी बाद थोड़ा सँभालने पर - - - एक बार तो उसके मन में ख़याल आया कि वो गेसू को जवाब दे दे . उसे जहाँ - तहाँ चूम ले . मन भी मचला - - - फिर भी उसने ऐसा नहीं किया . क्योंकि मुई शराफत बिलार बनकर रास्ता जो काट गई . उसने अपने को जल्दी से गेसू की गिरफ्त से छुड़ा लिया और लम्बी सांस लेकर आश्चर्य से बोला -- " बाप रे बाप . "
" क्या बाप रे बाप ? "
" गेसू ! तुम इतनी सेक्सी क्यों हो ? "
" वो औरत ही क्या - - - जो सेक्सी न हो ! सच्चाई अनुभव करा रही हूँ तो सेक्सी कहते हो !! सेक्स सुखद दाम्पत्य की धुरी है , इस बात को गाँठ बाँध लो . यह भी सच है कि सेक्सी औरतों का वैवाहिक जीवन अपेक्षाकृत अधिक सफल व सुखी रहता है . इसलिए मात्र मेरे बारे में ऐसा सोचना तुम्हारी अज्ञानता या भ्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं . सच तो ये है कि मैं तुमसे थोड़ी सी बेतकल्लुफ भर हूँ . ऐ मेरे नासमझ दोस्त ! तुम्हें नहीं मालूम - - - औरतों में मर्दों की अपेक्षा कई गुना सेक्स की चाहत मौजूद रहती है . यदि उनके पास आर्थिक पराधीनता , लाज शरम का आवरण और चुगलखोर शारीरिक संरचना न होते , तो आज दुनिया का कुछ दूसरा ही रूप होता - - - और तुम मर्द दुम दबाये उनसे बचते फिरते . "
हक्का - बक्का गुलशन चुप रहा . वह तो बस दीदे फाड़े टुकुर - टुकुर गेसू की ओर एकटक निहार रहा था . गेसू उसे वक्त से आगे की लड़की नज़र आ रही थी .
उसकी ये दशा देखकर गेसू ने मुस्कराकर पूछा -- " यूँ टकटकी लगाये मुझे क्या देख रहे हो ! कुछ समझ रहे हो , जो मैं कह रही हूँ ? "
" हाँ - - - समझ भी रहा हूँ और हल्का सा नमूना भुगत भी चूका हूँ . " वह रुआंसा होने का अभिनय करके बोला .
उसके मुख के भाव देखकर गेसू हंस पड़ी . गुलशन भी उसकी हंसी में शामिल हो गया .
गेसू बोली -- " चलो - - - घर लौट चलें . "
" हाँ चलो . बहुत देर हो चुकी है . अब तुम्हें शीघ्र घर पहुंचना चाहिये - - - वरना तुम्हारे पिताजी निश्चित ही परेशान होंगे - - - क्योंकि एक लड़की का पिता होना , काँटों का मुकुट पहनने जैसा होता है . हर पल अनेकों आशंकाये , बहुतेरे कुविचार मन को मथे रहते हैं . खासकर तब - - - जब उसकी लड़की जवान होने के साथ - साथ गज़ब की खूबसूरत भी हो . " गुलशन ये कहते - कहते हँस दिया .
गेसू को समझ न आया कि वह मुस्कराये या शर्माये . सो उसने बीच का रास्ता अपनाया .
और फिर - - - दोनों अपने - अपने घर लौट आये .
और घर पहुँच कर - - - प्रसन्न मन गुलशन आज के दिन और गेसू के आगोश में बीते उन मादक पलों के बारे में विचार कर रहा था . गेसू के साथ उसका आज का दिन , उसके ख़याल में बहुत अच्छा गुज़रा था - - - और वो भी ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि आम तौर पर नारी एक ईश्वरीय उपहार है , जिसे स्वर्ग से वंचित धरती के पुरुषों के पास ईश्वर ने उसकी क्षति पूर्ती हेतु दुनिया में भेजा है .

[17]
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( 11 )


सेठ करोड़ी मल !
पायल की इज्जत का असफल सौदागर !!
आज इसी सेठ के एक ख़ास कमरे में कुछ ख़ास बातों के लिए ख़ास - ख़ास लोग एकत्र हुए थे .
इससे पहले की बात चीत शुरू होती - - - सेठ का ख़ास डॉक्टर उसके स्वास्थ्य - परीक्षण के लिए आ गया - - - क्योंकि सेठ की तबीयत पिछले कुछ रोज़ से ढीली - ढाली चल रही थी .
अब चूंकि डॉक्टर गलत समय पर आ ही धमका था - - - और उसे पहले निपटाना भी ज़रूरी था - - - अतः अखबार पढ़ते - पढ़ते ही सेठ ने कहा -- " चलो - - - शुरू हो जाओ डॉक्टर . "
कुछ देर तक सेठ का स्वास्थ्य - परीक्षण करने के बाद डॉक्टर बोला -- " सेठ ! तुम तो एकदम चकाचक हो - - - फिर मुझे बेकार बुलाया . तुमको कोई मर्ज़ नहीं है . "
" कमाल करते हो डॉक्टर . अगर मुझे कोई मर्ज़ नहीं है तो फिर ये डिलीवरी मार्का दर्द , रेगिस्तान मार्का टेम्प्रेचर , थ्री - डी मार्का आँखों का वर्क , ये - - - ये सब आखिर क्या - क्यूँ है मुझे ? जब रोग पकड़ने की तमीज नहीं , तो क्या ख़ाक डॉक्टरी पढ़ी है तुमने ! " सेठ ने व्यंग्य करते हुए धिक्कारा .
डॉक्टर भी चिढ़कर बोला -- " क्या समझ रखा है तुमने मुझे ! पांच अलग - अलग मुल्कों से डॉक्टरी पढ़ी है मैंने . "
" इससे क्या फर्क पड़ता है ! मैनें पचास जगहों की अलग - अलग लड़कियों का भोग लगाया है . "
" क्यों ? "
" क्योंकि वैध राज धरती धकेल कहा करते थे कि जो पुरुष कुल जमा इक्यावन अलग - अलग लड़कियों से रस प्राप्त करता है - - - उसे बुढ़ापा कभी नहीं आता . "
" फिर ये बुढ़ापा तुम पर क्यों मंडरा रहा है ? "
" क्योंकि इक्यावनवीं नहीं मिली . "
" तब दवा की क्या ज़रुरत ! इक्यावनवीं ढूंढो . " डॉक्टर ने हंसकर कहा .
सेठ भी हंसकर बोला -- " हाँ - - - यही करना होगा . "
डॉक्टर ने पूछा -- " सेठ ! एक बात बताओ !! तुम जैसे कुछ मर्दों में औरतों के मामले में नित नयेपन की इच्छा क्यों होती है ? "
सेठ अखबार रखते हुए बोला -- " बस यूं समझो प्यारे ! औरत और अखबार मुझे एक से लगते हैं . सोचो - - - सुबह जब नया अखबार आता है , तो कैसी बेचैनी होती है . उसका इन्तज़ार होता है . फिर सरसरी नज़र से उसे पढ़ा जाता है . एक बार - - - दो बार - - - तीन बार - - - . लगता है - - - कहीं कोई कोना छूट न जाये . किसी ख़ास चीज़ को कितनी लगन से कई बार पढ़ते - दोहराते हैं . और फिर जब पूरा - - - चप्पा - चप्पा पढ़ लिया जाता है , तो ख़त्म हो जाता है . दिलचस्पी समाप्त हो जाती है . अब क्या करें ! दूसरे दिन फिर नया अखबार तो चाहिये ही . नहीं समझे ? "
" समझ गया . "
" क्या समझे ? "
" यही - - - कि सचमुच तुम्हें इक्यावनवीं की सख्त ज़रुरत है . जल्दी ढूंढो . लेकिन सेठ ! मैं तो लम्बी उम्र के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि औरतें वो अनन्त खांईं हैं , जिनमें आदतन बार - बार झाँकने वाले कभी न कभी उनकी गहराई में गिरकर ऐसे गुम हो जाते हैं कि उनका पता - ठिकाना खोजना असंभव हो जाता है . इसलिए वो खुशनसीब हैं जिन्हें ख़ुदा नई - नई औरतों के चस्के से बचाये - - - वरना कभी न कभी ढोल की तरह गले मढ़कर कोई न कोई अबला ज़िन्दगी का तबला बजा डालती है . "
इतना कहकर डॉक्टर हँसता हुआ चला गया .
और सेठ ने अपने पालतू गुण्डों की ओर आँखें तरेर कर शहंशाही जिद की -- " क्यों बे ! लल्लू - कल्लू !! कुछ सुना तुमने ? डॉक्टर कहता है इक्यावनवीं ढूंढो . जाओ - - - लेकर आओ . "
" मगर किसे बॉस ? लल्लू ने पूँछा .
" पायल को . वो इसी शहर में कहीं है . "
" कैसे जाना बॉस ? "
" अपना पुराना मुच्छड़ चौकीदार एक दिन आकर बता रहा था . अबे वही - - - जिसे चोरी करने पर मैंने ठोंक - पीट कर काम से हटा दिया था . "
" कुछ पता तो बताया होगा उसने बॉस ! "
" नहीं . साला पूरा सही पता बताने के वास्ते मुझसे बड़ी ढिठाई से लम्बी रकम मांगनें की जुर्रत कर रहा था . उस वक्त मैं भी पिनक में था . सो मैंने गुस्से में उसके पिछवाड़े जहां पर लात मारी - - - ससुरा वहीँ से थैंक यू की आवाज़ छोड़ता हुआ भाग निकला . "
" तब तो उसे ढूँढने में काफी मुश्किल होगी बॉस . "
" अबे तो क्या तुम लोगों को आसान काम के लिये पाल - पोस कर सांड बनाया है मैंने . जाओ ! दो दिन में ढूंढ कर उसे मेरे पहलू में हाज़िर करो . और कान खोलकर सुन लो - - - न ला सके , तो तुम बेकारों को मारकर अपने फ़ार्म के वास्ते तुम लोगों की खाद बनवा दूँगा . "
कल्लू ने समझाया -- " बॉस ! अपने सिर पर सवार बैताल को काबू करो - - - वरना कहीं लेने के देने न पड़ जायें . मेरी मानो तो भूखी मछली की तरह केवल आटा ही न देखो , काँटा भी देखो - - - क्योंकि वो कॉलेज - कढ़ी छोकरी है . चान्स वो लेती होगी , डान्स वो करती होगी . स्वीमिंग - टैंक में वो नहाती होगी , किसी की याद में आँसू वो बहाती होगी . डेटिंग वो करती होगी , वेटिंग वो करती होगी . बोतल वो फोड़ती होगी , दिल वो तोड़ती होगी . मुर्गा वो छीलती होगी , मछली वो लीलती होगी . लौंडिया खतरनाक भी साबित हो सकती है . और फिर - - - हम और कोई राजी लड़की भी तो खरीद सकते हैं ! क्या ज़रुरत है , चालबाजी से उसे यहाँ तक लाने की !! "
सेठ बोला -- " अबे बांगडू - - - तुझे नहीं मालूम , ज़िन्दगी एक जुआ है . जीतने के लिये जुए की बाजियों में तरह - तरह की चाल चलना बहुत जरूरी है . "
" ज़िन्दगी एक जुआ है - - - ये माना बॉस ! पर हम जुए को शराफत और ईमानदारी के साथ भी तो खेल सकते हैं . क्या ज़रुरत है की जुआ बेईमानी से ही भरा हो ! "
" हाँ बॉस ! " लल्लू ने कल्लू का समर्थन किया -- " दुनिया में बिकाऊ माल की कुछ कमी तो है नहीं - - - फिर क्या ज़रुरत है कि एक भले मानस की इज्जत का मोती चुगा जाय . "
" अबे चो s s s प . सालों ! किराये के टट्टुओं के मुँह में जुबान शोभा नहीं देती . काट के रख दूँगा . " सेठ तैश में आकर बोला -- " हरामखोरों ! तुम्हें क्या मालूम - - - वो कीमत पहले ही ले उड़ी है . वो साली मेरा दस हज़ार रुपया लेकर भागी थी जबकि दस उसका भडुवा अंकल पहले से डकार चुका था . एक बार हत्थे चढ़ जाय तो कोका पंडित की पूरी किताब रटा दूँगा उसे . "
कल्लू बोला -- " मगर बॉस आप तो बताते थे कि वो लोमड़ी से ज्यादा चालाक और मछली से अधिक चिकनी है . फिर हम लोग उसे आप तक कैसे लायें ? ज़रा खुलकर बतायें . "
" मछली पकड़ी है कभी ! तरीका ये है कि मोती और चालाक मछली फांसने के लिए जाल हमेशा गहरे जल में डालना पड़ता है . चालाक मछली आसानी से कभी सतह पर नहीं मिलती . "
" मैं अब भी आपका मतलब नहीं समझा बॉस . थोड़ा और खोलकर समझायें . "
" उफ़ - - - फूटी मेरी किस्मत . पता नहीं कहाँ - कहाँ के फार्मी अंडे इकट्ठे करके से रहा हूँ मैं . कोई नतीजा निकलता नहीं दिखता . अबे ढक्कन ! और कितना खोलूँ !! अब क्या खोल - खोल कर पूरा नंगा ही देख लेने पर समझोगे तुम मुझे ? अबे तेरी जात का अभिमन्यु तो पेट के भीतर ही चक्र व्यूह भेदन जैसा टेढ़ा काम सीख गया था - - - और तू हंडिया फोड़ कर बाहर निकल आने के बावजूद इतनी सीधी सी बात नहीं समझ पा रहा . अबे खाली खोपड़ी के - - - वो जहाँ कहीं भी हो , उसे अगवा कर लो . और सुनो ! अगर दो दिनों में , तुम दोनों ने ये काम न किया - - - तो तुम लोगों का काम तमाम कर दिया जायेगा ."
" मगर हम उसे पहचानेंगे कैसे ? " “ थोड़ी ही देर में उसकी फोटो तुम्हें मिल जायेगी . उसी के सहारे पहचानना . वर्ना तुम निठल्लों की मौत तुम्हें पहचान लेगी . समझे ! " सेठ ने कुटिल मुस्कान बिखेर कर कहा और पलट कर दूसरे कमरे में चला गया .


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