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Old 12-07-2013, 02:44 PM   #121
VARSHNEY.009
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कुछ नई परिभाषाएँ
राजकिशोर








साहित्यकार : पुराने जमाने का लेखक, जो अब भी किसी-किसी शहर में पाया जाता है; ऐसा लेखक, जिसका सम्मान उसकी उम्र के कारण किया जाता है; वह लेखक, जिसकी पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हों; सम्मान, पुरस्कार आदि देने के लिए सबसे सुरक्षित नाम।
लेखक : जो कभी-कभी लिखता है; जो साहित्यिक गोष्ठियों में आता-जाता है; जिसका नाम समय-समय पर जारी होने वाले वक्तव्यों में अनिवार्य रूप से शामिल रहता है; जो किसी लेखक संघ का सदस्य है।
आलोचक : जो कविता, कहानी, उपन्यास आदि नहीं लिख सकता, फिर भी लेखक कहलाना चाहता है; जो किसी भी पुस्तक में दोष निकाल सकता है; जिसकी भाषा लेखकों की भी समझ में न आए; जिससे लेखक मन ही मन घृणा करता है, पर जिसे प्रसन्न रखने की पूरी कोशिश करता है; जो समकालीन रचनाएँ नहीं पढ़ता; विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का प्रोफेसर।
गुट : लेखकों का गिरोह; एक-दूसरे की तारीफ करने के लिए स्थापित किया गया वह समूह, जिसकी अध्यक्षता कोई बुजुर्ग लेखक करता है; जिसके एक सदस्य पर हमला होते ही पूरा समूह टूट पड़ता हो, साहित्य में संप्रदायवाद।
पत्रिका : अपनी भड़ास निकालने के लिए प्रकाशित की गई पंजिका; जिसकी रचनाएँ कहीं और न छपती हों, ऐसे लेखक द्वारा निकाला गया नियमित पत्र; एक नशा, जो जल्दी नहीं छूटता; घर फूँक तमाशा देखने की साहित्यिक शैली।
अनियतकालीन : वह पत्रिका, जिसके प्रकाशन में एक प्रकार की नियमितता हो; ऐसी पत्रिका जो पर्याप्त विज्ञापन जुट जाने पर ही निकाली जाती है।
पारिश्रमिक : जिसे देने का वादा किया जाए; वह न्यूनतम राशि, जिससे लेखक की स्टेशनरी का खर्च निकल आए; कोलकाता के एक सांस्कृतिक संस्थान द्वारा दिए गए अनुदान का लघुतम अंश; वह राशि, जिसके कारण सरकारी पत्रिकाओं में रचनाओं की कमी नहीं होती।
प्रकाशक : वह व्यक्ति, जो पुस्तकें छापने और बेचने का ऐसा धन्धा करता है जिसके लिए सिर्फ साक्षर होना काफी है; लेखन से ज्यादा लाभप्रद कार्य; लेखकों का ‘मेरा दोस्त मेरा दुश्मन’, वह व्यापारी जिसे बड़े लेखक अपने घर बुलाते हैं और जो छोटे लेखकों को अपने दफ्तर में बुलाता है; गरीब लेखक और गरीब पाठक के बीच की वह कड़ी, जो लगातार संपन्न होता जाता है।
पुस्तक : दोनों तरफ जिल्द से बँधे हुए काले-सफेद पन्ने, जिनकी संख्या तय करती है कि कौन कितना बड़ा लेखक है; जिसे छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे देना अनिवार्य न हो; जिसका पहला और आखिरी पाठक उसका प्रूफरीडर हो।
पाठक : विलुप्त हो रहे जीवों में अग्रणी; जो किताबें खरीद कर पढ़ना नहीं चाहता; जिसकी तलाश में लेखक मारे-मारे फिरते हैं; जो कभी-कभी पुस्तक मेले में प्रकट होता है; जिसके नाम पर, जिसके लिए नहीं, साहित्य लिखा जाता है।
पाठिका : जो हर लेखक का सपना है, पर किसी-किसी को ही नसीब होती है; जिसका एक पत्र पचास पाठकों के पत्रों पर भारी पड़ता है; जो अक्सर कस्बों में पाई जाती है; और महानगरों से जुड़ना चाहती है; वह युवती, जो लेखक बनना चाहती है, जिसके नाम पर कई खिलंदड़े पाठक लेखकों की नींद हराम कर देते हैं।
फ्लैप : एक से दो पृष्ठ की वह सामग्री, जिसमें लेखक को अपनी प्रशंसा खुद करने की अपरिमित छूट होती है; पुस्तक के बारे में प्रकाशक द्वारा लिखवाई गई वह सामग्री, जिसका अर्थ उस पुस्तक का लेखक भी नहीं समझता, जिसे पढ़ कर गागर में सागर है या सागर में गागर, यह तय करना मुश्किल हो जाए।
विशेषांक : वह भारी-भरकम अंक, जिसके संपादन का कष्ट संपादक स्वयं नहीं उठाना चाहता।
वार्षिक शुल्क : उन लोगों से वसूल की जाने वाली वह रकम, जिन्हें पत्रिका मुफ्त भेजना संपादक को अपने हित में नहीं लगता।
पहला संस्करण : अकसर अंतिम संस्करण।
पुस्तक समीक्षा : जिसे लिखने के लिए किसी प्रकार की विशेषज्ञता जरूरी न हो; ऐसी समीक्षा जो पुस्तक पढ़े बिना की जा सकती हो; फ्लैप की सामग्री का सरल भाषा में अनुवाद।
लेखिका : लेखक बनने की इच्छा रखने वाली स्त्री; संपादकों के इर्द-गिर्द पाई जाने वाली स्त्री, आलोचकों द्वारा बनाया गया मिथक, जो कभी-कभी यथार्थ में बदल जाता है।
राष्ट्रीय संगोष्ठी : वह संगोष्ठी, जिसमें दिल्ली, भोपाल और लखनऊ के लेखक भाग लेते हैं।
प्रगतिशील : जो जनवादी नहीं है।
जनवादी : जो प्रगतिशील नहीं है।
जन संस्कृतिवादी : जो न प्रगतिशील है और न जनवादी।
कलावादी : एक साहित्यिक गाली; गैर-मार्क्सवादी लेखक; अंतर्वस्तु से अधिक शिल्प पर ध्यान देने वाला कवि। स्त्री सौन्दर्य पर रीझने वाला और अपने को ऐसा बताने वाला (भी) कवि।
दलित साहित्य : आत्मकथा का एक विशेष प्रकार; वह साहित्य जो दलितों द्वारा गैर-दलितों के लिए लिखा जाता है।
नारीवाद : पुरुषों का ध्यान आकर्षित करने के लिए स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला विशेष प्रकार का लेखन; जाति प्रथा का नया संस्करण, जिसमें सिर्फ दो जातियों - पुरुष और स्त्री - का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है; वह पुरुष विरोधी कार्रवाई, जो परिवार के बाहर की जाती है।
रॉयल्टी : प्रकाशक द्वारा प्रसिद्ध लेखकों को दी जाने वाली वार्षिक राशि; वह राशि जो अपेक्षा से हमेशा कम होती है; वह राशि, जिसकी नए लेखकों को कामना भी नहीं करनी चाहिए; वह शब्द, जो अधिकतर प्रकाशकों की डिक्शनरी में नहीं पाया जाता।
लोकार्पण : दिल्ली के लेखकों की आत्मरति का एक नमूना; विज्ञापन का खर्च किए बगैर पुस्तक का विज्ञापन करने की प्रकाशकीय विधि; पीने-पिलाने के जुगाड़ की भूमिका।
पुरस्कार : जो दिया नहीं, लिया जाता है; जो एक बार मिलता है तो मिलता ही जाता है; वृद्ध लेखकों को मिलने वाली एकमुश्त पेंशन; जिन्हें नहीं मिलती, वे घोषणा करते रहते हैं कि मैं पुरस्कार नहीं लेता; जिसके बारे में सबको पता होता है कि इस बार वह किसे मिलने जा रहा है।
महत्तर सदस्यता : दिल्ली के वयोवृद्ध लेखकों को साहित्य अकादेमी द्वारा दिया जाने वाला अन्तिम सम्मान; वह सम्मान जिसे पाने के बाद लिखना जरूरी नहीं रह जाता; जिसे पाए बिना अनेक लेखक गुजर जाते हैं।
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कुछ और भत्ते
राजकिशोर








औरत जब खुश होती है तो कहती है, धत्त। नेता जब अपने को चुनाव की देहरी पर पाता है तो वह कहता है, भत्त। कहते हैं, भत्त से ही भत्ता शब्द बना है। चुनाव में हार से बचने के लिए नेता भत्ता बाँटने लगता है। कुछ दलों ने भत्ते का अर्थ भात लगाया है। वे चुनाव के पहले दो रुपया या एक रुपया किलो चावल देने का आश्वासन देने लगते हैं। चावल भात का ही असिद्ध रूप है। सिद्ध हो जाने पर यानी पक जाने पर वह भात बन जाता है। कई बार चावल पूरी तरह पक नहीं पाता। तब वह अपच पैदा करता है और नेता चुनाव हार जाता है। इसके ताजा और मार्मिक संस्मरण सुनने हों तो जयललिता से मिलना चाहिए। वे आजकल काफी फुरसत में हैं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को इस तरह की फुरसत बिलकुल पसंद नहीं है। उनके मुख्य सभासद अमर सिंह फुरसत के राजा हैं। जो-जो काम फुरसत में किए जाते हैं, उन्हें ही करने में अमर सिंह अपने को व्यस्त रखते हैं। लेकिन मुलायम सिंह को यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। वे जानते हैं कि उनके इर्द-गिर्द सिंहों और सिंहनियों की भीड़ तभी तक कायम रहेगी जब तक वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के नेता बने रहेंगे। सो उन्होंने अगले चुनाव की तैयारी अभी से शुरू कर दी है।
इस दिशा में उनकी पहली कोशिश यह है कि उनके राज्य में दो-चार सभासदों को नहीं, उन सभी को भत्ता मिलना चाहिए जो बीए, एमए होने के बाद भी फुरसत के शिकार हैं। यह फुरसत अमर सिंह वाली फुरसत नहीं है, जिसमें सत फुर्र से उड़ जाता है। यह वह फुरसत है, जिसमें सत के अभाव में आदमी की आत्मा फुर्र-फुर्र करती रहती है, पर उड़ नहीं पाती। इनमें से सात लाख तीन सौ बावन आत्माओं के परों पर एक-एक हजार रुपए का चेक रख कर मानवीय नेताजी ने देश में बेकारी भत्ता आंदोलन की शुरुआत कर दी। लोहिया का नारा था, काम दो, नहीं तो बेकारी भत्ता दो। मुलायम सिंह का नारा है, काम मत दो, सिर्फ बेकारी भत्ता दो। बेरोजगारी की समस्या का कितना सुंदर समाधान है! मुलायम सिंह के रास्ते पर अन्य सरकारें भी चलने लगें, तो देश में बेरोजगारी रह कर भी नहीं रह जाएगी।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से निवेदन है कि उन्हें बेरोजगारों की तरह समाज के दूसरे वर्गों का भी ध्यान रखना चाहिए। आखिर वोट देने वे भी जाते हैं। या भविष्य में उनसे भी काम पड़ेगा। इसलिए मुलायम सिंह को कुछ और वर्गों के लिए भी भत्ते की घोषणा करनी चाहिए। तभी बेकारी भत्ता कोई आकस्मिक या अवसरवादी फैसला नहीं, बल्कि एक समग्र भत्ता नीति का आवश्यक अंग जान पड़ेगा। ये भत्ते और क्या हो सकते हैं? कुछ की कल्पना यहाँ की जाती है।
गाँव में रहने का भत्ता : यह भत्ता उत्तर प्रदेश के लिए बहुत ही माकूल है। राज्य के उद्योगीकरण की दिशा में मुलायम-अमर के भगीरथ प्रयत्नों के बावजूद उत्तर प्रदेश अब भी कृषिप्रधान राज्य है। ज्यादातर लोग गाँवों में ही रहते हैं, जहाँ एकमात्र अभाव बिजली का ही नहीं है। होशियार लोग शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। जो गाँव में बचे रह जाते हैं, उन्हें जिंदा रहने के लिए तरह-तरह की होशियारी करनी पड़ती है। इनके जीवन को सुकर बनाने के लिए उन्हें गाँव में रहने का भत्ता जरूर मिलना चाहिए।
अशिक्षित होने का भत्ता : शिक्षित होना सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके बावजूद अन्य जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण राज्य सरकार सभी के लिए शिक्षा का प्रबन्ध नहीं कर पाई। इसका उचित दंड यही है कि वह उन सभी को भत्ता दे, जो नहीं चाहते हुए भी अशिक्षित हैं। जिन्होंने अपनी मर्जी से अशिक्षित होने का विकल्प चुना है, उनकी बात अलग है। सरकार चाहे तो उन पर अशिक्षा-कर लगा सकती है।
चुनाव में हारने का भत्ता : लोकतंत्र का सुख सभी को उपलब्ध होना चाहिए। उन्हें तो यह सुख मिलता ही है जो चुनाव जीत जाते हैं, उन्हें भी मिलना चाहिए जो चुनाव हार जाते हैं। यह भत्ता इसलिए भी जरूरी है कि जो आज चुनाव जीत रहा है, वह कल चुनाव हार भी सकता है। ऐसे हारे हुए व्यक्तित्व भी चुनाव मैदान में बने रहें, तभी हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र जीवंत है।
खास बात यह है कि यह भत्ता अभी से शुरू हो गया, तो हो सकता है अगले चुनाव के बाद इसका सबसे ज्यादा लाभ समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को ही मिले।
दल-बदल भत्ता : पिछले कई चुनावों से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में दल-बदलुओं की निर्णायक भूमिका रही है। इनके बगैर कोई भी मुख्यमंत्री सरकार नहीं बना पाया है या बना पाया है, तो चला नहीं पाया है। लेकिन कई बार दल-बदल करने वालों को विधानसभा की सदस्यता से हाथ धोना पड़ता है। इसलिए लोकतंत्र के हित में यह आवश्यक है कि हर दल-बदलू को तब तक एक सम्माननीय भत्ता मिले, जब तक वह मंत्री नहीं बन जाता। इसमें यह शर्त भी रखी जा सकती है कि पाँच वर्ष के एक टर्म में किसी भी विधायक को यह भत्ता एक बार के दल-बदल के लिए ही मिलेगा।
अपुरस्कृत भत्ता : उत्तर प्रदेश की सरकार हर साल लेखकों को इतने अधिक पुरस्कार देती है कि किसी के छूट जाने की आशंका नहीं रह जाती। फिर भी लेखकों की तादाद इतनी ज्यादा है कि कुछ न कुछ रह ही जाते हैं। ऐसे सभी लेखकों को तब तक अपुरस्कृत भत्ता दिया जाना चाहिए जब तक उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार से कोई पुरस्कार न मिल जाए। एक और भत्ते की सिफारिश करने का मन करता है...न लिखने का भत्ता, पर डर इस बात का है कि इस भत्ते के लोभ में कहीं ऐसा न हो कि हिन्दी का सारा लेखन ही ठप हो जाए।
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एंकर के लिए इंटरव्यू
राजकिशोर








टीवी कुमारी ने जब इंटरव्यू कक्ष में प्रवेश किया, तो वहाँ की रोशनी थोड़ी-सी और बढ़ गई। उसे देखते ही लगता था कि वह निकली तो थी किसी फिल्म की शूटिंग के लिए, पर पता नहीं क्या सोच कर वह इस टीवी चैनल में आ गई। शायद ईश्वर ने उसे भेजा ही था टीवी पर एंकरिंग करने के लिए। यह भी हो सकता है कि ईश्वर ने उसे किसी और काम के लिए भेजा हो, पर उसने तय कर लिया हो कि उसे एंकरिंग ही करनी है और अपने को इस योग्य बनाने में उसने अपनी सारी प्रतिभा झोंक दी हो। नतीजा सामने था। परीक्षण के लिए उस टीवी चैनल के तीन अधिकारी उपस्थित थे- बाएँ, दाएँ और मध्य में।
पहला सवाल मध्य ने किया - तो आप एंकर बनना चाहती हैं! कुमारी ने जवाब दिया - यस, सर। बाएँ ने पूछा - लेकिन क्यों? टीवी में और काम भी तो होते हैं। कुमारी - सर, एंकरिंग में ग्लैमर है, पैसा है और अपने को साबित करने का मौका भी। मुझे एंकरिंग करना बहुत पसंद है। अब दाएँ की बारी थी - आपने पत्रकारिता की पढ़ाई कहाँ से की है? कुमारी ने बताया - सर, विवेकानंद स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से। दायाँ - विवेकानंद के बारे में आप कुछ बता सकती हैं? कुमारी - वे आरएसएस के बहुत बड़े नेता थे। दायाँ, बायाँ और मध्य तीनों एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकराए। बायाँ - उनकी मेन टीचिंग क्या थी? कुमारी के चेहरे पर हलकी-सी छाया पड़ी, पर उसने जल्द ही अपने को उबार लिया - सर... सर... वे पगड़ी पहनते थे। उनका चेहरा गोल-सा था। पर्सनालिटी बहुत ही रोबीली थी। सभी उनकी इज्जत करते थे। मध्य से नहीं रहा गया। उसने पूछा - अगर आपको स्वामी विवेकानन्द से इंटरव्यू करना पड़े, तो आप पहला सवाल क्या पूछेंगी? टीवी कुमारी कुछ देर तक सोचती रही। फिर उसने कहा - सर, मेरे पास दो सवाल हैं। इनमें से जो भी आप लोग पसंद करेंगे, वहीं मैं उनसे पूछँगी। नंबर एक, बाबरी मस्जिद गिराने के बाद आपका अगला कार्यक्रम क्या है? राम मंदिर के कंस्ट्रक्शन में इतनी देर क्यों हो रही है? नंबर दो, पहले आपके जीवन से ही शुरू करते हैं। अच्छा यह बताइए कि आपने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया? क्या आपके जीवन में कभी कोई लड़की नहीं आई? इंटरव्यू लेने वाले खुल कर हँसने लगे। टीवी कुमारी ने इसे अपनी सफलता समझा।
मध्य ने बात आगे बढ़ाई - तो आप मानती हैं कि प्रत्येक पुरुष की जिंदगी में किसी लड़की का आना जरूरी है? बायाँ और दायाँ थोड़ा चौकन्ने हो गए। टीवी कुमारी मुसकराई। उसने कहा - सर, मेरे मानने-न मानने से क्या होता है? यह तो एक फैक्ट है। मध्य - तब तो इसका उलटा भी सही होगा। इन अदर वर्ड्स, प्रत्येक लड़की की जिंदगी में किसी लड़के का आना भी जरूरी है। कुमारी थोड़ा सावधान हुई। आगे पानी गहरा था। उसने कहा - इस बारे में मैं क्या कह सकती हूँ? अपनी-अपनी च्वाइस है। बायाँ - आपकी अपनी च्वाइस क्या रही है? टीवी कुमारी ने अपने को असमंजस में पाया। अभी तक उसकी शादी नहीं हुई थी। सच का सामना करने में कठिनाई थी। उसने कहा - सर, यह मेरा प्राइवेट मामला है। इस बारे में मैं कुछ कहना नहीं चाहती। दायाँ बहुत देर से चुप था। उसने जानना चाहा - लेकिन टीवी इंडस्ट्री में तो कोई भी मामला किसी का प्राइवेट मामला नहीं होता। फिर तो यहाँ आपको बहुत मुश्किल होगी! कुमारी - जब मैं टेंथ में पढ़ती थी, तभी से यह कहावत मुझे याद है - लिव इन रोम एज रोमंस डू। इसलिए मुझे कहीं परेशानी नहीं होती। मध्य - क्या आपको पता है कि टीवी की दुनिया में क्या होता है? कुमारी - कुछ-कुछ पता है। लेकिन मैं हर चीज को एक चैलेंज की तरह लेती हूँ। बायाँ - बाप रे, फिर तो आप लड़ाकू किस्म की लड़की होंगी। कुमारी - चाहे जो कह लीजिए। वैसे मुझे लड़ने के मुकाबले एडजस्टमेंट करना ज्यादा पसंद है। मैं जानती हूँ कि मेरे चाहने से तो दुनिया बदलेगी नहीं। बदलना तो मुझे ही होगा। मध्य - यहाँ आप किस लेवेल तक समझौता करने को तैयार हैं? कुमारी कुछ बोलना चाहती थी, पर अचानक चुप हो गई। कुछ क्षणों के बाद उसने सिर थोड़ा-सा झुका लिया।
मध्य ने टीवी कुमारी को आश्वस्त करना चाहा - आप शरमाइए मत। हमारे यहाँ वह सब नहीं होता जिसके लिए दूसरे चैनल बदनाम हैं। यहाँ का माहौल बहुत डीसेंट हैं। आपके कंसेंट के बिना कोई आपको छू भी नहीं सकता। सेक्सुअल हैरसमेंट के कारण हमने अभी-अभी दो एडिटरों को निकाला है। टीवी कुमारी ने अब अपना सिर थोड़ा-सा उठाया। होंठों पर हलकी-सी मुस्कराहट भी आ गई थी, जो बता रही थी कि उसे विषयवस्तु से नहीं, अभिव्यक्ति की शैली से समस्या थी। उधर मध्य जारी था - यह और बात है कि हम किसी पर रिस्ट्रिक्शन भी नहीं लगाते। फ्री मिक्ंिसग के बिना टीवी चैनल चल ही नहीं सकते। समझौते से हमारा मतलब यह था कि आपको एंकर बने रहने के लिए फिजिकल फिटनेस पर बहुत ध्यान देना होगा। अपना वेट मेनटेन करना होगा। आप समझ सकती हैं, यह शो बिजनेस है। यहाँ अपीयरेंस का बहुत महत्व है। टीवी कुमारी - यह सब तो मैं अभी ही करती हूँ। आगे भी करती रहूँगी। इसमें कोई मुश्किल नहीं होगी। दायाँ - देर तक रुकना पड़ सकता है। नाइट ड्यूटी लग सकती है। स्टाफ के साथ बाहर ट्रैवल करना पड़ सकता है। यह सब तो आप जानती ही होंगी। कुमारी - जी, मुझे पता है। मध्य - तो ठीक है, आप जाइएगा नहीं। बाहर ही इंतजार कीजिए। तब तक हम कुछ और इंटरव्यू ले लेते हैं।
टीवी कुमारी कमरे से निकल रही थी, तो उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसके बाहर जाने के बाद परीक्षकों में से एक ने कहा - तैयार चीज है! इस पर ज्यादा काम नहीं करना होगा!
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जो गिरफ्तार नहीं हुए
राजकिशोर








बच्चू बाबू ने मेरे घर में प्रवेश किया तो वे बहुत उत्साह में थे। आज वे बीड़ी नहीं, सिगरेट पी रहे थे। होंठों की रंगत देख कर ऐसे लगता था कि उनका पान-पर्व अभी-अभी सम्पन्न हुआ है। दो व्यसनों की यह निकटता बता रही थी कि बच्चू बाबू के लिए आज का दिन विशेष महत्व रखता है। दूसरों की खुशी से मुझे भी खुशी होती है, इसलिए मैंने अपनी पूरी हँसमुखता के साथ उनका स्वागत किया। सभी महान आत्माएँ एक ही तरह से सोचती हैं, इस उक्ति पर मेरा विश्वास एक बार फिर दृढ़ हुआ, जब मैंने गौर किया कि वे कुर्सी पर इस तरह बैठ गए जैसे यह उन्हीं के लिए बनाई गई थी।
बच्चू बाबू का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनका परिचय देने के लिए किसी को भी शब्दों के अभाव का सामना नहीं करना पड़ेगा। उनका समग्र परिचय हिंदी के एक छोटे-से, पर शक्तिशाली शब्द से दिया जा सकता है 'बच्चू बाबू गुंडा थे।' वे स्थानीय गुंडा थे और वैश्वीकरण के दौर में भी अपनी स्थानीयता पर टिके रहे। कुछ लोगों का कहना है कि वैश्वीकरण और स्थानीयता दोनों आवश्यक हैं या वैश्वीकरण का मुकाबला स्थानीयता से ही किया जा सकता है। इन प्रतिपादनों का ठीक-ठीक अर्थ क्या है, यह मैं बड़े-बड़े विद्वानों के लेख और किताबें पढ़ कर भी नहीं समझ पाया हूँ। क्या इसका मतलब यह है कि मोबाइल फोन का तार कान में लगा कर छठ मनाया जाए और ईमेल से करवा चौथ की शुभकामनाएँ भेजी जाएँ? या, विदेशी पूँजी का हमला तेज हो रहा हो, तो दुर्गा पूजा और भी भव्य तरीके से मनाई जाए? पता नहीं। इतना जरूर है कि बच्चू बाबू ने बिहार राज्य के बाहर एक ही बार कदम रखा था, जब वे कांग्रेसी लोगों के साथ थे और संजय गांधी ने नागपुर में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा सम्मेलन बुलाया था, जिसे समय के चलन को देखते हुए 'राष्ट्रीय' की संज्ञा दी गई थी। सम्मेलन से लौटते हुए कार्यकर्ताओं ने विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर जो लूट-पाट मचाई, उसकी खबर अखबारों में छपने पर कुछ लोगों को शक होने लगा था कि कहीं वह सम्मेलन अराष्ट्रीय तो नहीं था।
केंद्र में एक बार फिर मनमोहन सिंह की सरकार बन गई थी। कुछ दलों को इस बार सरकार में शामिल नहीं किया गया था। इससे जहाँ तक बच्चू बाबू का सवाल है, वे बहुत ही खुश थे। यहाँ 'गद्गद' शब्द का प्रयोग ज्यादा प्रासंगिक होता, पर यह समय पर नहीं सूझा। बच्चू बाबू ने मुझसे अपनी निजी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, 'अभी तक मुझे थोड़ा सँभल कर काम करना पड़ता था, पर अब मुझे लगता है कि मैं सरकार का अंग हूँ। अब आप किसी भी थाने में चले जाइए, मेरे खिलाफ एफआईआर नहीं लिखवा पाएँगे। उलटे उसी दिन नहीं तो अगले दिन दोपहर तक मुझे खबर मिल जाएगी कि मेरे खिलाफ एफआईआर लिखवाने कौन गया था।' संजय गांधी और उनकी माँ इंदिरा गांधी को प्रगति का पर्याय माना जाता था। अब मेरा दृढ़ विश्वास हो गया कि उनके नेतृत्व में देश सचमुच प्रगति ही कर रहा था।
चाय आने के पहले ही बच्चू बाबू ने अपना सवाल दाग दिया। उन्होंने कहा, 'माननीय रेल मंत्री लालू प्रसाद जी बड़े गर्व से यह दावा कर रहे हैं कि माननीय आडवाणी जी को गिरफ्तार करने का फैसला उनका अपना था। जो अन्य नेता इस गिरफ्तारी का श्रेय लेना चाहते हैं, वे असत्य बोल रहे हैं। माननीय शरद यादव ने तो गिरफ्तारी को रोकने तक की कोशिश की थी। आपकी क्या राय है?'
मैं जानता था कि इस सन्दर्भ में मेरी राय का कोई महत्व नहीं है। यह शिष्ट प्रश्न मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि वक्ता द्वारा अपनी राय प्रकट करने की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए पूछा जा रहा है। इसलिए मैंने एक बेचारा-सा उत्तर दे दिया, 'जल्दी क्या है? लालू प्रसाद जो पुस्तक लिख रहे हैं, उसमें वे सारा रहस्य खोल देंगे। तब इस पर विचार किया जाएगा।'
बच्चू बाबू ने अपना परिचित ठहाका मारा - 'इस तरह का वादा तो बहुत-से नेता कर चुके हैं। पर बाद में न कोई किताब लिखता है और न रहस्य प्रकट करता है। माननीय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1989-90 में पता नहीं कितनी जन सभाओं में कहा था कि मेरे पास राजीव गांधी के उस खाते का नंबर है जिसमें उन्होंने बोफोर्स का पैसा रख छोड़ा है। उन्होंने कहा था कि मैं उचित समय पर यह नंबर सार्वजनिक कर दूँगा। पर वह समय सोलह साल के बाद भी नहीं आ पाया है। माननीय मुलायम सिंह जी भी इस तरह के वादे करते रहते हैं। माननीय अमर सिंह के पास भी काफी भेद हैं। माननीय नटवर सिंह का भी कहना है कि उनके पास ऐसे सीक्रेट हैं कि सोनिया गांधी और कांग्रेस दोनों दहल जाएँगे। लेकिन वे भी शायद समय आने पर ही खोलेंगे। पता नहीं, वह समय कब आएगा? आएगा भी या नहीं, कौन कह सकता है? यह भी हो सकता है कि जो यह हिम्मत करे, उसका हाल माननीय जसवंत सिंह जैसा हो जाए। जसवंत सिंह की इज्जत शायद इसी में थी कि वे ये रहस्य अपनी छाती में ही छिपा कर रखते।'
मैंने विषय बदलने की महत्त्वाकांक्षा के साथ कहा, 'खैर, यह तो आप मानेंगे ही कि माननीय आडवाणी जी को गिरफ्तार करना कम साहस की बात नहीं थी। बिहार को हमेशा इस पर गर्व रहेगा कि माननीय लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व में उसने उस विषाक्त रथ यात्रा को रोका।'
बच्चू बाबू ने फिर ठहाका लगाया, 'सर, गुजरात के उस सांसद को बिहार में गिरेंफ्तार करना कौन भारी काम था? माननीय लालू प्रसाद जी में नैतिक साहस होता तो वे (अपनी तरफ इशारा करते हुए) बच्चू प्रसाद को गिरफ्तार करके दिखाते! आपको पता है, बिहार में सीनियर और जूनियर, दोनों मिलाकर, बच्चू प्रसादों की कुल संख्या कितनी है? इन सबको जेल में बंद कर दिया जाता, तो बिहार एक बहुत बड़ी समस्या से मुक्त हो जाता। पर गिरफ्तार किया तो किसे? आडवाणी को, जो अपना ज्यादा समय बिहार के बाहर बिताते हैं। इससे बिहार की स्थिति में क्या फर्क पड़ा?'
मैंने पूछा, 'यह आप कह रहे हैं?'
बच्चू बाबू पहले गंभीर हुए, फिर मुस्कराए, 'मैंने कल ही 'लगे रहो मुन्नाभाई' देखी है।'
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जेसिका लाल की बहनें
राजकिशोर








एक पच्चीस-छब्बीस साल की देहाती युवती को पुलिस मुख्यालय में, और वह भी पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के ठीक सामने, पाकर बाहर बैठा चौकीदार हैरत में पड़ गया। वह जब से सर्विस कर रहा है, ऐसा कभी नहीं हुआ था। 'अरे, अरे, तुम यहाँ कैसे? तुम्हें अन्दर किसने घुसने दिया?' युवती पहले से ही गुस्से में थी। उसने कहा, 'तुम्हे इससे क्या मतलब? गार्ड हो, गार्ड की तरह रहो। मुझे कमिश्नर साहब से मिलना है। बहुत जरूरी काम है।' 'क्या काम है?' 'तुम जान कर क्या करोगे? तुम्हारे बस की बात नहीं है। मुझे अन्दर जाने दो।' 'ऐसे कैसे जा सकती हो? टाइम लिया है?' 'टाइम माँगती, तो क्या मिल जाता?' यह कह कर वह भीतर जाने की कोशिश करने लगी। गार्ड ने उसकी बाँह पकड़कर रोका। दोनों में छीना-छपटी होने लगी। युवती ने शोर-मचाना शुरू कर दिया। शोर अन्दर पहुँचा। 'क्या बात है? क्या बात है?' कहते हुए परेशान-से कमिश्नर साहब बाहर निकल आये। गार्ड ने पूरी वफादारी के साथ सारा किस्सा बताया। कमिश्नर ने कहा, इसे छोड़ दो, फिर युवती से कहा, बेटी, भीतर चलो।
अपने छोटे-से, सजे-सजाए किले में लौटने के बाद पुलिस कमिश्नर ने पहले युवती के लिए पानी मँगाया, फिर पूछा, 'अब बताओ, बात क्या है?' युवती फफक-फफक कर रोने लगी। शांत हुई तो कहने लगी, 'अंकल, मेरा नाम कविता है। मैं त्रिलोकपुरी से आई हूँ। गुंडों ने मेरी छोटी बहन के साथ बलात्कार किया। उसके बाद उसकी जान ले ली। लाश नहर किनारे फेंक दी।' कमिश्नर ने धीरता के साथ कहा, 'तो यहाँ क्यों आई हो? जाकर लोकल थाने में रिपोर्ट करो। जो करेंगे, वही लोग करेंगे।' 'उन्हीें की तो शिकायत करने आई हूँ। यह कोई कल की बात थोड़े है। तीन साल हो गए। चार में से दो गुंडे गिरफ्तार हुए। हफ्ते भर पुलिस की जेल में रहे। एक पर मुकदमा चला। लेकिन वह सबूत की कमी की वजह से छूट गया। अब वह मुझे तंग करता है। धमकाता है कि तुम्हारे साथ भी वही होगा, जो तुम्हारी बहन के साथ हुआ था।' 'तो इसकी भी रिपोर्ट थाने में ही होगी। वहीं जाओ।' 'कमिश्नर साहब, मैं अपने लिए नहीं आई हूँ। मेरा जो होगा, सो होगा। बहुत हुआ तो इलाका ही छोड़ दूँगी। मैं अपनी बहन के लिए न्याय माँगने आई हूँ। आप दिल्ली के सबसे बड़े अफसर हैं। आप चाहें, तो सब कुछ हो सकता है।' कमिश्नर साहब ने अफसोस-भरा चेहरा बनाया, 'नहीं बेटी, अब कुछ नहीं हो सकता। अदालत ने सबूत के अभाव में बरी कर दिया है, तो कौन क्या कर सकता है?'
कविता मुसीबत की मारी हुई थी। उसने धीरज नहीं खोया। बोली, 'अंकल, मैं अनपढ़ नहीं हूँ। मैंने इग्नू से बीए किया है। कल ही मैंने पेपर में पढ़ा कि जेसिका लाल का हत्यारा भी सबूत के अभाव में छूट गया था। इस पर हल्ला-गुल्ला मचा तो पुलिस ने फिर से मुकदमा दायर किया है। अब सारा केस फिर से खुलेगा। हो सकता है, मनु शर्मा को इस बार सजा मिल ही जाए। यह सब पढ़ कर मैंने सोचा कि अगर जेसिका की हत्या का मुकदमा दोबारा खुल सकता है, तो मेरी बहन का मुकदमा क्यों नहीं खुल सकता? जेसिका का तो सिर्फ मर्डर किया गया था। मेरी बहन के साथ तो बलात्कार भी हुआ था। अंकल, आप चाहें तो हमारा मुकदमा भी दोबारा खुल सकता है।'
अब सारा मामला पुलिस कमिश्नर की समझ में आ गया। तो यह लड़की जेसिका लाल से बराबरी करना चाहती है! वे जरा गुस्से में आ गए। बोले, 'लेकिन जेसिका मर्डर केस में तो कोर्ट के ऑर्डर हैं। हमें कुछ कार्रवाई करनी ही थी। नहीं तो अदालत की तौहीन हो जाती...तुम्हारा मामला पूरी तरह से खत्म हो चुका है। तुम निश्ंिचत होकर घर जाओ। रोने-कलपने से तुम्हारी बहन वापस थोड़ी ही आ जाएगी?' युवती ने हिम्मत करके पूछा, 'तो क्या दोबारा मुकदमा चलाने पर जेसिका लाल की जिंदगी वापस आ जाएगी?' 'मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता। इस मामले में सबूतों को जान-बूझ कर नष्ट किया गया है। कुछ चीजों की इन्क्वायरी भी नहीं हुई है। इन सब चीजों की दोबारा जाँच की जा सकती है। कुछ नई बात सामने आई तो मुकदमा भी फिर से चलाया जा सकता है। तुम्हारा मामला अलग है।'
अब तक युवती निराश-सी होने लगी थी। फिर भी उससे बोले बगैर नहीं रहा गया, 'अंकल, आप जाँच तो कराइए। हमारे मामले में भी कुछ नई बातें सामने आ सकती हैं। जिस बदमाश ने रेप किया था, वह अब सरेआम कहता फिरता है कि हाँ, मैंने रेप किया था। मर्डर भी किया था। अब यही सब उसकी बहन के साथ भी करूँगा। देखें, कोई क्या कर लेता है? दस-बारह लोगों ने उसके मुँह से यह बात सुनी है। उनमें से कुछ गवाही देने के लिए भी तैयार हैं। आखिर सभी की माँ-बहनें हैं।' 'बेटी, तुम समझ नहीं रही हो। अदालत में जाकर वे मुकर गए तो? हमारी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी।' युवती ने कहना चाहा कि गवाह तो जेसिका लाल कांड में भी मुकर गए थे, पर अब तक वह पूरी तरह से निराश हो चुकी थी। उसकी आँखों से आँसू फिर बहने लगे थे।
जब वह अपना मासूम चेहरा लिए पुलिस कमिश्नर के केबिन से निकली और पुलिस मुख्यालय के बाहर आई, तो देखा, सैकड़ों मर्द-औरतें नारा लगा रहे थे : दिल्ली पुलिस दलाल है। रिश्वत खाकर मालामाल है। जेसिका लाल के हत्यारे को फाँसी दो। फाँसी दो, भाई फाँसी दो। उसे लगा कि उसके चारों तरफ दुनिया घूम रही है। अपने को गिरने से बचाने के लिए वह वहीं बैठ गई।
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चौराहे पर लड़की
राजकिशोर








संसद मार्ग के चौराहे पर बारह साल की एक लड़की लगातार बारी-बारी से रो और सिसक रही थी। वह कई वर्षों से यहीं पर थी। उसके बाल रूखे और अस्तव्यस्त हो रहे थे। गोरे गालों का रंग बदल गया था। वे काले-काले लग रहे थे। उन पर आँसुओं की धार की लकीरें बन गई थीं। आसपास के लोगों ने उसकी तकलीफ देखकर उसके लिए एक छोटी-सी कुर्सी का इंतजाम कर दिया था। कभी-कभी कोई दयालु खाने के लिए लड़की के हाथ में कुछ रख देता। लड़की बार-बार कहती थी कि मैं घर जाना चाहती हूँ। पर यह कैसे संभव था? सड़क के कई तरफ तैनात गुंडे यह नहीं चाहते थे कि वह वहाँ से हटे। वह जैसी भी थी, जिस हालत में थी, उसका उपयोग था।
मनमोहन सिंह को उस सड़क से गुजरते देख लड़की कसमसाने लगी। उसने जोर से धाड़ मारी - अंकल! दयालु प्रधानमंत्री रुक गए। नजदीक आए। पूछा - क्या बात है, बेटी? तुम कौन हो? लड़की से कुछ बोला नहीं गया। वह अंकल को सिर्फ देखती रही। उसके होठ काँप रहे थे। पर शब्द नहीं निकल पा रहे थे। सिंह अंकल ने उसके रूखे गाल थपथपाए। पूछा - तुम्हारा नाम क्या है? लड़की ने कहा - मेरा नाम महिला विधेयक है। मैं कई वर्षों से यहाँ सड़ रही हूँ। मेरी उम्र फकत बारह साल है, पर अभी से बूढ़ी लगने लगी हूँ। आप संसद में बिल पास करा कर मुझे मुक्त कराइए ना!
मनमोहन सिंह - यह क्या इतना आसान है, बेटी? हम तो चाहते हैं, यह बिल कल ही पास हो जाए। हमारी महान नेता सोनिया जी भी इसे लेकर बहुत फिक्रमंद हैं। लेकिन किया क्या जाए। कांग्रेस के बहुत-से एमपी इसके खिलाफ हैं। वे ऊपर-ऊपर से कह देते हैं, सोनिया जी का हर फैसला हमें मंजूर है, पर भीतर से विपक्षी सांसदों से मिल कर षड्यंत्र करते हैं कि बिल पास न हो। कुछ दिन और धीरज रखो, कुछ न कुछ कर लेंगे।
अंकल चल दिए, बेटी बिलखती रही। कई दिनों के बाद लालू प्रसाद वहाँ से गुजरे। उनके पीछे-पीछे चलने वालों में एक अकाउंटेंट भी था जो हिसाब लगा रहा था कि आज भारतीय रेल का शुद्ध लाभ किस बिन्दु पर पहुँच गया। लालू प्रसाद को रोकना नहीं पड़ा, एक धूल-धूसरित बालिका को देखकर वे खुद लपक पड़े। पहले उसके बगल में खड़े होकर फोटू खिंचवाया, फिर लड़की से पूछा - बिहार की लगती हो? कौन जिला तुम्हारा?
लड़की ने बताया कि वह किसी खास जिले या राज्य की नहीं है। इस पर लालू प्रसाद ने कमेंट किया - रूटलेस हो? इधर काफी लोग अपना रूट खो रहा है। लड़की ने कहा - रूट तो मेरा बहुत मजबूत है। लेकिन सिर्फ महिलाओं के बीच। वे बराबर चीखती-चिल्लाती रहती हैं कि इस बिल को तुरन्त पास कराओ, पर कोई सुन नहीं रहा है। सब हाँ-हाँ करते हैं। ना कोई नहीं करता। पर बात भी आगे नहीं बढ़ती। पता नहीं अड़चन कहाँ है!
लालू प्रसाद के चेहरे पर कोई तनाव नहीं आया। बल्कि एक मानीखेज मुसकान उभरी। बोले - तुम नाहक सत्याग्रह कर रही हो। जब तक लालू कैबिनेट में नंबर एक नहीं बनता, तब तक नेता लोग अपना ललाट खुजलाते रहेंगे। यह सवर्ण राजनीति का दाद है। दिलीप कुमारवाला दाग नहीं, चमड़ीवाला दाग, जो खुजलाता रहता है, पर जाता नहीं है। इसे ठीक करने में बड़े-बड़े डॉगडर फेल हो जाते हैं। इसे तो कोई जमीन से जुड़ा आदमी ही ठीक कर सकता है। देखा नहीं, बिहार में हमने एक लेडी को इतने साल मुख्यमंत्री बना कर रखा। और किसी नेता ने यह हिम्मत की है? थोड़ा दिन और इंतजार करो। मेरी तरह। तुम्हारा और मेरा, दोनों का काम एक साथ होगा।
लड़की क्या कहती! वह जन नेता को खरामा-खरामा जाते देखती रही।
अखबारों में छपी तस्वीरों से आडवाणी को पता चला कि मनमोहन और लालू प्रसाद यहाँ से गुजर चुके हैं तो वे भी गांधीनगर का अपना दौरा बीच में ही छोड़कर वहाँ पहुँच गए। वे मोड़ तक इस तरह आए जैसे उन्हें इस मुसीबतजदा लड़की के बारे में कुछ पता न हो। मोड़ पर अपनी चाल धीमी कर उन्होंने बाईं तरफ नजर दौड़ाई तो उनकी आँखों में चौंकने का भाव झलका। वे पहले से अधिक गंभीर होकर उस लड़की की तरफ बढ़ चले। उससे प्रारंभिक सवाल-जवाब शुरू हुआ था कि गले में केसरिया दुपट्टा बाँधे स्वयंसेवक पता नहीं किधर से अचानक प्रकट हो गए और नारे लगाने लगे - बहनों का उद्धार करेंगे, हम भारत से प्यार करेंगे। एक तिहाई अस्थान दो, संसद में सम्मान दो। महिला बिल को पास करो, और नहीं उपहास करो।
आडवाणी ने उन्हें रोका, तो वे रुक गए। फिर लौह-पुरुष उनमें से एक का भोंपू अपने हाथ में लेकर भाषण देने लगे - हम महिला विधेयक का सम्पूर्ण समर्थन करते हैं। हमने कोशिश भी की थी कि यह जल्दी से जल्दी पास हो जाए। लेकिन कांग्रेस ने अन्त तक यह स्पष्ट नहीं किया कि इस बिल पर उसका रुख क्या है। आज भी वह दुविधा में है। मुझे शक है कि उसका इटालियन नेतृत्व भारतीय महिलाओं का दर्द समझता भी है या नहीं। (उस लड़की की ओर देखकर) लेकिन बहन, घबराओ नहीं, इस बार कुछ न कुछ होकर रहेगा। लेकिन पहले कांग्रेस बिल को पेश तो करे। फिर हमारे हाईकमान की बैठक होगी और हम उचित समय पर उचित निर्णय लेंगे। बिल का स्वरूप देखे बिना हम इस मामले में अपने को कमिट नहीं कर सकते। लेकिन मैं यह हमेशा के लिए स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हम आरक्षण के बढ़ते हुए दायरे का विरोध करते हैं, पर महिला आरक्षण का भरपूर समर्थन करते हैं। मैं मानता हूँ कि इक्कीसवीं सदी महिलाओं की है। भाजपा के नेतृत्व को इसके लिए अपने को अभी से तैयार करना चाहिए। (इस पर एक अखबार ने अगले दिन लिखा कि ऐसा कहकर आडवाणी जी ने अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के पुनर्निवाचित अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर वार किया है। उनका संकेत यह था कि श्री सिंह मूलतः मर्दवादी हैं। यह खबर छपने के बाद राजनाथ सिंह ने स्पष्टीकरण दिया कि वे लिंगनिरपेक्ष हैं। और उनकी नजर में महिलाओं और पुरुषों, दोनों के लिए समान स्थान है।)
आडवाणी की भीड़ के विदा हो जाने के बाद लड़की एकदम खामोश हो गई। वह आसमान की ओर देखने लगी। पीटीआई के एक संवाददाता के अनुसार, अब भी वह आसमान की ओर ही ताकती रहती है।
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चीन से कौन डरता है
राजकिशोर








'चीन से कौन डरता है? कम से कम भारत तो नहीं।' अड्डे पर आते ही यह घोषणा कर सुंदरलाल अपनी पसंदीदा सीट पर बैठ गए और चाय आने का इंतजार करने लगे।
रामसराय को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने तुरंत टोका, 'क्या इसलिए कि भारत सरकार ने यह कह दिया है कि भारत की जमीन से चीन-विरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जाएगी?'
सुंदरलाल - यह तो भारत की भलमनसाहत है। वह नहीं चाहता कि चीन और भारत के संबंध बिगड़े।
सपना - तो क्या भारत में किसी भी अन्य देश के विरुद्ध गतिविधि करने के लिए भारत सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है?
अनवर - विदेश मंत्रालय का आशय कुछ और था। उसका कहना है कि हम इस तरह की गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
रामसहाय - तो क्या विदेश मंत्रालय ने उन देशों की सूची प्रकाशित कर दी है जिनके खिलाफ भारत में गतिविधियाँ की जा सकती हैं?
सुंदरलाल - आप भी गजब करते हैं! क्या कोई भी देश ऐसी सूची प्रकाशित करता है?
सपना - तो फिर इस संदर्भ में चीन का नाम अलग से लेने की क्या जरूरत थी? यह तो तिब्बत में दमन की कार्रवाइयों का विरोध करनेवालों को धमकाना हुआ।
अनवर - भारत में अगर तिब्बतियों के मानव अधिकारों के समर्थन में आंदोलन होता है, तो वह चीन-विरोधी गतिविधि कैसे हो गई?
सपना - लेकिन भारत में अमेरिका-विरोधी गतिविधियों पर तो कोई रोक नहीं है। स्वयं सरकार के सहयोगी वामपंथी दल निरंतर अमेरिका की आलोचना करते रहते हैं।
सुंदरलाल - अमेरिका की बात और है। वह साम्राज्यवादी देश है।
सपना - क्या भारत सरकार ने इस बात को मान लिया है? या वह वामपंथियों से डरती है?
सुंदरलाल - भारत सरकार किसी से नहीं डरती। यहाँ तक कि वह भारत की जनता से भी नहीं डरती।
रामसहाय - अगर अमेरिका साम्राज्यवादी देश है, तो चीन भी तो साम्राज्यवादी देश है। उसने हमारी बहुत सारी जमीन हड़पी हुई है। हमारी संसद का सर्वसम्मत प्रस्ताव है कि जब तक हम चीन के कब्जे से एक-एक इंच जमीन छुड़ा नहीं लेंगे, चैन से नहीं बैठेंगे। इसके बावजूद चीन अब भी अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोंकता रहता है। उसने तिब्बत पर हमला कर उसे चीन में मिला लिया। अरसे से वह तिब्बती लोगों के मानव अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है।
सपना - सावधान, आप चीन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं। सीपीएम ने इस मामले की नजाकत सभी भारतीयों को बता दी है।
अनवर - फिर तो गुजरात में जो कुछ हुआ, वह भारत का आंतरिक मामला है। दुनिया भर के लोगों को गुजरात में मुसलमानों के कत्ले-आम पर टिप्पणी करने का क्या हक है?
अभी तक चुपचाच बैठे कपूर साहब को हँसी आ गई। वे बोले - मेरे एक दोस्त का कहना है कि घरेलू हिंसा विरोधी कानून संवैधानिक नहीं है, क्योंकि यह पति-पत्नी के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप है। पुलिस को क्या मतलब कि श्री शर्मा श्रीमती शर्मा के साथ क्या करते हैं।
रामसहाय - बिलकुल ठीक। इस तर्क से तो रंगभेद भी अमेरिका का आंतरिक मामला है। उसके बारे में अमेरिका के बाहर इतना क्यों लिखा जाता है?
सुंदरलाल - आप लोग बात को कुछ ज्यादा ही खींच रहे हैं। भारत सरकार ने बयान तो दे दिया है कि इस मामले में शामिल सभी पक्ष बातचीत से और अहिंसक तरीके अपनाते हुए समाधान निकाल लें।
अनवर - यह सलाह चोट खाते हुए तिब्बतियों को है या चोट करनेवाली चीन सरकार को?
सुंदरलाल - दोनों को। भारत को हिंसा का रास्ता पसंद नहीं। नक्सलवादियों, मजदूरों और किसानों की बात हो, तो बात अलग है।
रामसहाय - सचमुच भारत तिब्बत के मामले में बहुत संजीदा दिखाई दे रहा है! उसी तरह जैसे वह म्यांमार में जन विद्रोह के मामले में बहुत संजीदा था! दुनिया में कहीं भी अन्याय हो, यह उसे पसंद नहीं।
सपना - लेकिन अमेरिका? उसने भी तो तिब्बत के आंदोलनकारियों का पक्ष नहीं लिया। क्या वह भी चीन से नहीं डरता?
अनवर - नहीं, वह चीन से क्यों डरेगा? वह तो बार-बार कहता है कि चीन में मानव अधिकारों का सम्मान होना चाहिए।
कपूर - चीन में, पर तिब्बत में नहीं। वहाँ मानव अधिकारों का हनन हो सकता है।
सुंदरलाल - तिब्बत भी तो चीन का ही हिस्सा है।
सपना - लेकिन यह बात तो तिब्बती लोगों से पूछनी चाहिए कि वे चीन का हिस्सा हैं कि नहीं? कोई किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना हिस्सा कैसे बता सकता है?
सपना - जैसे इराक के लोगों से पूछे बिना अमेरिका उनका उद्धार करने पहुँच गया!
सुंदरलाल - तो क्या आप चाहती हैं कि अमेरिका अपनी फौज ले कर ल्हासा पहुँच जाए?
सपना - यह तो तब होगा जब अमेरिका चीन से डरने लगेगा। अभी ऐसी कोई बात नहीं है।
अनवर - यानी अमेरिका भी चीन से नहीं डरता!
'कुल मिला कर साबित यह हुआ कि चीन से अगर कोई नहीं डरता, तो वे तिब्बत के लोग हैं!' यह युवा पत्रकार सुजाता की आवाज थी, जो हमारे अड्डे पर अनवर के साथ पहली बार आई थी।
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चाँदी का जूता
राजकिशोर








बलात्कार के हरजाने पर श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी और सुश्री मायावती के बीच जो कर्कश विवाद हुआ, वह चाहे कितना ही दुर्भाग्यपूर्ण हो, पर एक वास्तविक मुद्दे को सामने लाता है। कैसे? यह स्पष्ट करने के लिए मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाना चाहता हूँ। संभव है, यह एक लतीफा ही हो, पर है बहुत मानीखेज। एक अमीर आदमी ने किसी व्यक्ति पर जूता चला दिया था। उस पर अदालत में मुकदमा चला। जज ने जूता फेंकने वाले पर सौ रुपए का जुर्माना किया। इस पर उस अमीर आदमी ने अदालत में दो सौ रुपए जमा कर दिए और शिकायतकर्ता को वहीं खड़े-खड़े एक जूता और रसीद किया। फर्ज कीजिए कि जज ने अगर उसे हफ्ते भर जेल की सजा सुनाई होती, तब भी क्या उस धनी व्यक्ति ने शिकायतकर्ता को एक और जूता लगाया होता और अदालत से प्रार्थना की होती कि अब आप मुझे दो हफ्ते की जेल दे दीजिए?
हमारे देश में बलात्कार, सामूहिक हत्या, दुर्घटना आदि के बाद सरकार द्वारा रुपया बाँटने की जो नई परंपरा शुरू हुई है, वह गरीब या दुर्घटनाग्रस्त लोगों में पैसे बाँट कर अपना अपराधबोध कम करने और पीड़ितों के कष्ट को कम करने का तावीज बन कर रह गया है। दिल्ली में सिखों की सामूहिक हत्या के बाद भी पीड़ित परिवारवालों के लिए कुछ सुविधाओं की घोषणा की गई थी। लेकिन इससे उनके मन की आग शांत नहीं हुई है। हर साल उनकी ओर से जुलूस-धरने का आयोजन होता है कि हमें न्याय दो। पैसा देना न्याय नहीं है। यह आँसू पोंछना भी नहीं है। यह किसी की जुबान को खामोश करने के लिए उसे चाँदी के जूते से मारना है।
पैसा लेना भी न्याय नहीं है। इंडियन पीनल कोड की बहुत-सी धाराओं में लिखा हुआ है कि इस अपराध के लिए कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। यहाँ तक कि बलात्कार, हत्या करने की चेष्टा, राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन, पूजा स्थल पर किए गए अपराध, मानहानि, अश्लील कार्य और गाने तथा ऐसे दर्जनों अपराधों के लिए भी कैद के अलावा या उसके साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। यह कानून सन 1860 में बनाया गया था। इस पर सामंती न्याय प्रणाली की मनहूस छाया है। सामंती दौर में राजा जिससे कुपित हो जाता था, उसकी सारी संपत्ति जब्त कर लेता था, ताकि वह दर-दर का भिखारी हो जाए। ब्रिटिश भारत में और स्वतंत्र भारत में दंडित व्यक्ति से धन छीनने पर यह सामंती आग्रह बना रहा। अरे भाई, किसी ने अपराध किया है तो उसे सजा दो, उसके पैसे क्यों छीन रहे हो? राजाओं और सामंतों का पैसे के लिए लालच समझ में आता है। लूटपाट करने के लिए वे कहाँ से कहाँ पहुँच जाते थे। उपनिवेशवादियों ने भी ऐसा ही किया। पर स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत अपराधी से पैसे क्यों वसूल करता है?
जुर्माना लेने के पीछे जो भावना है, वही भावना आर्थिक हरजाना देने के पीछे है। किसी कारवाले ने धक्का दे कर मुझे गिरा दिया और फिर मेरी मुट्ठी में पाँच सौ रुपए रख कर चल दिया। क्या इसे ही इन्साफ कहते हैं? ज्यादा संभावना यह है कि अदालत भी कारवाले की यही सजा देगी। यह कुछ ऐसी ही बात है कि एक भाई किसी लड़की के साथ बलात्कार करे और दूसरा भाई उसकी मुट्ठी में कुछ नोट रखने के लिए वहाँ पहुँच जाए। यह शर्म की बात है कि अनुसूचित जातियों से संबंधित एक कानून में अनेक अपराधों के लिए सरकार द्वारा पैसा देने का प्रावधान है। यह गरीबी का अपमान है। कोई भी स्वाभिमानी आदमी ऐसे रुपए को छूना भी पसंद नहीं करेगा। जो रुपया दुनिया में अधिकांश अपराधों का जन्मदाता है, उसे ही अपराध-मुक्ति का औजार कैसे बनाया जा सकता है? हरजाना देने का मुद्दा तब बनता है जब अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष की कमाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने के आद उसकी पत्नी, बच्चों तथा अन्य प्रभावित परिवारियों को आर्थिक सुरक्षा देना न्याय व्यवस्था तथा राज्य व्यवस्था दोनों का कर्तव्य है। दूसरी ओर, बलात्कार की वेदना और उससे जुड़े कलंक का कोई हरजाना नहीं हो सकता।
पुस्तकालय में किताब देर से लौटाना, देर से दफ्तर आना, गलत जगह गाड़ी पार्क कर देना - ऐसी छोटी-मोटी गड़बड़ियों के लिए जुर्माना ठीक है। इसका लक्ष्य होता है ऐसी चीजों को निरुत्साहित करना। लेकिन जिस हरकत से किसी को या सभी को नुकसान पहुँचता है या नुकसान पहुँच सकता है, उसके लिए तो कारावास ही उचित दंड है। दिल्ली में कानून द्वारा निर्धारित स्पीड से ज्यादा तेज गाड़ी चलाने की सजा पाँच सौ रुपए या ऐसा ही कुछ है। यह न्याय व्यवस्था सड़क पर चलनेवालों का अपमान है। जिस कृत्य से एक की या कइयों की जान जा सकती है, उसके लिए तो कुछ दिनों के लिए जेल की मेहमानी ही उचित पुरस्कार है। जब बलात्कार या ऐसे किसी अपराध अथवा दुर्घटना के लिए सरकार पीड़ितों में पैसा बाँटती है, तो वह दरअसल अपने पर ही जुर्माना ठोंकती है। कायदे से सरकार को अपने को दण्ड़ित करना चाहिए यानी जिस सरकारी कर्मचारी की गफलत से ऐसा हुआ है, उसके खिलाफ मुकदमा चलाना चाहिए। यह एक मुश्किल काम है, क्योंकि हर सरकार अपने कर्मचारियों का बचाव करने की कोशिश करती है। इससे आसान है जानता के खजाने से थोड़ी रकम निकाल कर पीड़ित को दे देना। यह रकम अगर मंत्रियों और अफसरों की जेब से वसूल की जाती, तब भी कोई बात थी।
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चाटुकारिता के बदले
राजकिशोर








कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय में राहुल गांधी पार्टी के काम-काज में मशगूल थे। बाईं ओर की दीवार पर तरह-तरह के रंगे-बिरंगे चार्ट लग हुए थे। एक चार्ट में लोक सभा के चुनाव क्षेत्रों का नक्शा था। दूसरे चार्ट में पिछले दो चुनावों में कांग्रेस पार्टी के हारने-जीतने का ब्यौरा था। तीसरे चार्ट पर कुछ नारे लिखे हुए थे, जैसे झोंपड़ियों में जाएँगे, भारत नया बनाएँगे; दलित जगेगा देश जगेगा, बेशक इसमें वक्त लगेगा; काम करेंगे, नाम करेंगे, चाटुकार आराम करेंगे आदि-आदि। सामने तीन लैपटॉप खुले हुए थे। राहुल गांधी कभी इस लैपटॉप पर, कभी उस लैपटॉप पर काम करने लगते। मेज पर दो मोबाइल फोन रखे हुए थे। तीसरा उनकी जेब में था। हर चार-पाँच मिनट पर कोई न कोई मोबाइल बज उठता। काम करते-करते राहुल गांधी मोबाइल पर बात भी करते जाते थे। वे सुनते ज्यादा थे, बोलने के नाम पर हाँ, हूँ, क्यों, कैसे, कब, अच्छा कहते जाते थे। चेहरे पर मुसकराहट कभी आती, कभी चली जाती।
तभी इंटरकॉम बज उठा। उधर से आवाज आई - सर, एक नौजवान आपसे मिलना चाहता है। राहुल गांधी - कह दो, इस समय मैं किसी से नहीं मिल सकता। उधर से - सर, मैं कई बार कह चुका हूँ। पर मानता ही नहीं है। राहुल गाँधी - नो वे। इस वक्त बहुत बिजी हूँ। उधर से - सर, इसे दो मिनट टाइम दे दें। नहीं तो यह यहीं पर सत्याग्रह पर बैठ जाएगा। प्रेसवाले इधर-उधर घूमते ही रहते हैं...राहुल गांधी - ओके, ओके, भेज दो। पर दो मिनट से ज्यादा नहीं।
दरवाजा खटखटा कर नौजवान ने कमरे में प्रवेश किया। देखने से ही छँटा हुआ गुंडा लग रहा था। झक्क सफेद खादी का कुरता-पाजामा। गले में सोने की चेन। कलाई पर महँगी घड़ी। चप्पलें ऐसी मानो अभी-अभी कारखाने से आई हों। नौजवान ने पहले राहुल गांधी को सैल्यूट जैसा किया और मेज पर फूलों का गुलदस्ता रख दिया। राहुल गांधी सिर उठा कर एकटक देखे जा रहे थे।
नौजवान कुछ बोल नहीं रहा था। उसकी नजर राहुल के सौम्य चेहरे पर टँगी हुई थी, जैसे वह आह्लाद के आधिक्य से चित्र-खचित हो गया हो। इसके पहले उसने किसी बड़े नेता को इतनी नजदीकी से नहीं देखा था। एक मिनट इसी में बीत गया।
राहुल ने मुसकरा कर पूछा - टिकट चाहिए? कहाँ के हो?
नौजवान - अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपके दर्शन पाने के बाद मेरी हर इच्छा पूरी हो गई।
राहुल - चापलूसी कहाँ से सीखी? क्या तुम्हारा परिवार पुराना कांग्रेसी है?
नौजवान - सर, हम लोग तीन पुश्तों से कांग्रेसी है। मेरे दादा ने साल्ट मार्च में हिस्सा लिया था।
राहुल - साल्ट मार्च? यह कब की बात है?
नौजवान - सर, द फेमस दांडी मार्च...
राहुल - ओह। अब तुम जा सकते हो। दो मिनट हो गए।
नौजवान - थैंक्यू सर। लेकिन असली बात तो रह ही गई।
राहुल - तीस सेकेंड में बोलो और चलते बनो। मैं बहुत बिजी हूँ।
नौजवान - सर, मैं अपने क्षेत्र की तरफ से आपको बधाई देने आया हूँ
कि...
राहुल - किस बात की बधाई?
नौजवान - कि आपने चापलूसी कल्चर के खिलाफ आह्वान कर एक क्रांतिकारी काम किया है। यह तो महात्मा गांधी भी नहीं कर सके।
राहुल - तो तुम्हें यह बात पसंद आई?
नौजवान - बहुत, बहुत ज्यादा पसंद आई। मैं तो शुरू से ही आपकी रिस्पेक्ट करता आया हूँ। लोक सभा में आपका भाषण सुनने के बाद तो मैं आपका मुरीद हो गया। सर, आपका भाषण सबसे डिफरेंट रहा। मैंने तो उसका वीडियो बनवा कर रख लिया है।
राहुल - हूँ...
नौजवान - सर, आप एकदम नई लाइन पर जा रहे हैं। दलितों की झोंपड़ियों में जाना, वहाँ खाना खाना, रात भर सोना...कांग्रेस में नई जान फूँक दी है आपने।
राहुल गांधी असमंजस में पड़ जाते हैं। कभी दीवार पर लगे चार्टों को देखते हैं कभी सामने पड़े लैपटॉप पर।
नौजवान - सर, चापलूसी खत्म करने की आपकी बात तो एकदम निराली है। आज तक किसी भी दल के नेता ने इतनी ओरिजिनल बात नहीं कही है। देश से चापलूसी का कल्चर खत्म हो जाए, तो हम देखते-देखते अमेरिका और जापान से कंपीट कर सकते हैं।
राहुल - तुम्हारा मतलब है, आम जनता को मेरा यह मेसेज अपील कर
रहा है?
नौजवान - अपील? सर, एव्रीबॉडी इज हैप्पी। चापलूसी के चलते ही हमारा देश आगे नहीं बढ़ पा रहा है। जैसे खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है, वैसे ही चापलूस लोग योग्य आदमियों को पीछे धकेल देते हैं। ऐसे में तरक्की कैसे होगी?
राहुल - अच्छा, ठीक है। अब तुम...
नौजवान - नो सर, इस मामले में आपको लीड लेना ही होगा। आप ही कांग्रेस से चापलूसी का कल्चर खत्म कर सकते हैं। देश का यूथ आपके साथ है। आप सिर्फ नेतृत्व दीजिए। काम करने के लिए हम लोग हैं न।
राहुल - यू आर राइट। यूथ को एक्टिव किए बिना कुछ नहीं होगा।
नौजवान - सर...
राहुल - ओके, योर टाइम इज ओवर।
नौजवान राहुल के पाँवों की धूल लेने के लिए गुंजाइश खोजता है। पर राहुल जहाँ बैठे हैं, उसे देखते हुए यह मुश्किल लगता है। सो वह प्रणाम-सा करते हुए दरवाजे की ओर मुड़ता है।
राहुल - बाइ द वे, तुम अपना सीवी सेक्रेटरी के पास छोड़ते जाना। देखता
हूँ...
नौजवान पहले से अधिक आत्म-विभोर हो जाता है। कार्यालय के बाहर उसके दोस्त-यार उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। नौजवान अपनी दो उँगलियों की वी की शक्ल में उन्हें प्रदर्शित करता है। सभी एक बड़ी गाड़ी में बैठते हैं। नौजवान ड्राइवर को आदेश देता है - होटल अशोका।
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गांधी बनाम गांधी
राजकिशोर








गांधी को गांधी ही संशोधित कर सकता है - यही लिखा हुआ था हर तख्ती में, जिन्हें हवा में लहराते हुए खादी पहने प्रदर्शनकारी आगे बढ़ रहे थे। उनमें से प्रत्येक के चेहरे पर बौद्धिक तेज चमक रहा था, जैसे हर आधुनिक व्यक्ति के चेहरे से लालच टपकता रहता है। उन सभी में निष्ठा की ताकत साफ दिखाई दे रही थी, जैसे पतिव्रता स्त्री का शील उसके अंग-अंग में समाया रहता है। वे सभी भीतर से सख्त थे, पर ऊपर से मुलायम लग रहे थे, जो व्यापारी वर्ग की विशेषता है। उनमें एक आंतरिक लय थी, जो लेखकों और कलाकारों में होती है। वे अपने लक्ष्य के प्रति बेहद गंभीर थे, जैसे पूँजीवाद होता है या साम्यवाद हुआ करता था।
आप अगर अब भी अनुमान नहीं लगा पाए हैं, तो मैं बता ही दूँ कि वे कांग्रेसजन थे और कांग्रेस के संविधान को बदलने के लिए जुलूस की शक्ल में जनपथ की ओर बढ़े जा रहे थे। आजकल गांधी में मेरी दिलचस्पी बहुत बढ़ गई है। सो मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा। जो नौजवान सबसे पीछे बार-बार पसीना पोंछते हुए, लेकिन उत्साह के साथ नारे लगते हुए जा रहा था, उसे मैंने बहुत ही विनयपूर्वक रोका। वह इस तरह रुक गया जैसे कोई बड़ा लेखक किसी सामान्य पाठक की कोई जिज्ञासा शांत करने के लिए एक क्षण के लिए उसके पास ठहर जाता है। मैंने उसकी ओर प्रशंसा से देखते हुए कहा, 'आपका नारा बहुत अच्छा है। गांधी जी लकीर के फकीर नहीं थे। वे अपनी लकीर के भी फकीर नहीं थे। जब भी जरूरत होती थी, अपने को संशोधित कर लेते थे।...' इस विषय पर मैं थोड़ा और बोल कर अपनी भड़ास निकालना चाहता था, पर उसके चेहरे पर अधीरता के गहरे होते चिह्नों को देख कर, जिनका तात्पर्य यह था कि 'तुमने मुझे सुनने के लिए रोका था या अपने को सुनाने के लिए?' मैंने जल्दी से कहा, 'इस जुलूस में जो लोग शामिल हैं, उनकी माँग क्या है?'
'हम कांग्रेस का संविधान बदलना चाहते हैं।'
'कांग्रेस का संविधान? क्या इस नाम की कोई चीज अभी तक बची हुई है? हम तो यही समझते हैं कि जो सोनिया गांधी कह दें, वही कांग्रेस का संविधान है।' मैंने अपने चेहरे पर आश्चर्य का भाव लाते हुए पूछा।
'बुजुर्गवार, आप ठीक समझते हैं। लेकिन यह बात टिकट बाँटने, मंत्री तय करने, कांग्रेस की कार्यसमिति गठित करने आदि पर लागू होती है। कांग्रेस की सदस्यता की शर्तों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। हम ये शर्तें बदलना चाहते हैं।' युवा बुद्धिजीवी ने इस तरह गर्व से कहा, जैसे उसके माथे पर कोई कलगी उग आई हो और वह दूसरों को दिखाई नहीं दे रही हो।
'लेकिन कांग्रेस की सदस्यता के नियम तो गांधी जी ने बनाए थे। उनमें आप किस तरह का परिवर्तन करना चाहते हैं? इसकी जरूरत क्या है? क्या गांधी जी अब प्रासंगिक नहीं रहे? विद्वान लोग तो कहते हैं कि उनकी प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। इनमें आपके प्रधानमंत्री भी हैं।'
'माफ कीजिए, आप सीनियर सिटिजन नहीं होते, तो मैं आपकी यह गज भर की जुबान खींच कर आपकी हथेली पर रख देता । क्या मनमोहन सिंह की सरकार सिर्फ हमारी सरकार है? आपकी सरकार नहीं है? देश भर की सरकार नहीं है?'
'वामपंथी तो ऐसा नहीं मानते। लेकिन चलिए, आपकी बात मान लेता हूँ। आखिर मुझे इसी देश में रहना है।'
कांग्रेस के युवा नेता के मुँह पर रुपए भर की मुसकान आ गई। उसकी छाती फूल आई, जैसे सेना में भर्ती के परीक्षण के दौरान जवानों की छाती फूल जाती है। इस बीच जुलूस आगे निकल गया था। हम पिछड़ गए थे। लपक कर हमें अंतराल को पाटना पड़ा।
'हाँ, तो आप बता रहे थे कि आप लोग कांग्रेस की सदस्यता के नियम बदलना चाहते हैं। जैसे?'
'जैसे यह कि कांग्रेस सदस्य के लिए खादी पहनना अनिवार्य होगा। जब यह नियम बनाया गया था, तब ठीक था। लेकिन आज इसकी क्या जरूरत है? खादी चोर-उचक्कों की वर्दी बन गई है। आज के जमाने में यह भी कोई पहनने की चीज है? इसकी वजह से हमारे नेता और मंत्री कार्टून नजर आते हैं। कांग्रेस के मेंबर हैं तो क्या, हमें शरीफ लोगों की तरह कपड़े तो पहनने दीजिए।'
'और?'
'और? और यह कि कांग्रेस का सदस्य शराब नहीं पी सकता। यह तो बाबा आदम के जमाने की बात हुई। वैसे मेरा खयाल है कि बाबा आदम भी यह शौक फरमाते होंगे। एक पत्रकार का कहना है कि माँ के दूध और ओआरएस के बाद धरती पर शराब ही सबसे मूल्यवान रसायन है। इससे हम कांग्रेसी क्यों वंचित रहें?'
'वाजिब है। क्या आप लोग नए नियम जोड़ना भी चाहते हैं?'
'जरूर। हम चाहते हैं कि कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य के लिए 'गांधी' सरनेम लगाना अनिवार्य हो। इससे देश में गांधियों की कमी नहीं रह जाएगी। दूसरे, जो कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए अप्लाई करता है, उसके पास कुछ न्यूनतम संपत्ति होना आवश्यक है। जो अपना घर नहीं भर सकता, वह दूसरों का घर क्या भरेगा? तीसरे, कांग्रेस का कोई भी सदस्य सांगठनिक पदों के लिए चुनाव की माँग नहीं करेगा। प्रत्येक स्तर पर नामांकन की प्रणाली अपनाई जाएगी। इससे पार्टी की आंतरिक एकता बनी रहेगी। इसी तरह की और भी बातें हैं।'
'लेकिन गांधी जी के बनाए हुए नियमों को बदलना...'
'सीधी-सी बात है, गांधी ही गांधी को संशोधित कर सकता है। महात्मा गांधी के बनाए हुए नियमों को राहुल गांधी संशोधित करेंगे।'
संवाद की सारी गुंजाइश खत्म हो गई थी। जनपथ भी नजदीक आ गया था। मैंने जुलूस में शामिल देशभक्तों को प्रणाम किया और घर वापस जाने के लिए बस स्टॉप खोजने लगा।
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