21-03-2015, 09:57 PM | #1 |
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समर्पण
उथल-पुथल तब हो कि समय में जब तुम जीवन घोलो। तुम कहते हो बलि से पहले अपना हृदय टटोलो, युग कहता है क्रान्ति-प्राण! पहिले बन्धन तो खोलो। तेरी अँगुली हिली, हिल पड़ा भावोन्मत्त जमाना अमर शान्ति ने अमर क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना। तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता, राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता, झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में, करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में। उस-सा उज्ज्वल, उस-सा गुणमय, लाज बचाने वाला है कपास-सा परम-मुक्ति का तेरा ताना-बाना। अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया, उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया, तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर। तुझे मनाने कोटि-कोटि कंठों ने क्या-क्या गाया जो तुझको पा सका-- गरीबों के जी में ही पाया। है तेरा विश्वास गरीबों का धन, अमर कहानी-- तो है तेरा श्वास, क्रान्ति की प्रलय लहर मस्तानी। कंठ भले हों कोटि-कोटि, तेरा स्वर उनमें गूँजा हथकड़ियों को पहन राष्ट्र ने पढ़ी क्रान्ति की पूजा। बहिनों के हाथों जगमग है प्रलय-दीप की थाली; और हमारे हाथों है-- माँ के गौरव की लाली।
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