19-06-2015, 04:23 PM | #1 |
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वरदान की काट
ईश्वरीय आदेश की अवहेलना करने का सवाल ही नहीं उठता था। नहीं तो मन्दिर जाकर ज़ोर- ज़ोर से घण्टा हिलाने और विशेष दर्शन टिकट का डिमांड करने से क्या फायदा? फिर भी हमने विरोध करते हुए कहा- 'भगवन्, आपको तो पता है- मैं कहानी, नाटक, कविता तो क्या, रेडियो ड्रामा लिखना भी अपनी तौहीन समझता हूँ। बस यही थोड़ा बहुत आपकी खिलाफत में लिख लेता हूँ।' ईश्वर ने क्रुद्ध स्वर में कहा- 'कितने झूठे हो तुम। मेरे खिलाफ लिखकर मुझसे ही कहते हो- मेरी खिलाफत कर रहे हो!' हमने कहा- 'भगवन्, ऐसा न कहिए। खिलाफत न करता होता तो रोज़ाना आपके मन्दिर में आपका दर्शन करने क्यों आता? आपके मन्दिर में तो मैं आपकी दया-कृपा से सीधा चला आता हूँ। दक्षिण के मन्दिरों में तो बहुत जुगाड़ करके पीछे के रास्ते से अन्दर जाना पड़ता है, जिधर से भक्त लोग दर्शन करके बाहर निकलते हैं।' ईश्वर का क्रोध कुछ शान्त हुआ। बोले- 'ठीक है। अब मेरे खिलाफ हिन्दी और अँग्रेज़ी में कुछ न लिखना।' हमने कहा- 'ठीक है। नहीं लिखता। तथास्तु।' मनुष्यों को वरदान देने वाले ईश्वर स्वयं वरदान लेकर अन्तर्ध्यान हो गए तो हमारी नींद टूट गई। हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ईश्वर को दिए वरदान की काट ढूँढ़ने में लग गए। ईश्वर को हिन्दी और अँग्रेज़ी में न लिखने का वरदान दिया था। इसलिए हमने निर्णय लिया कि अब हम तमिल भाषा में लिखेंगे और इससे ईश्वर को भी कोई आपत्ति नहीं होगी।
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