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Old 09-06-2012, 07:05 PM   #21
neelam
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वह जहाँ बैठें वहीं चिंता संयुक्त बैठे रह जावें और हाथ पर चिबुक धरके बैठें । जब टहलुवे मन्त्री बहुत कहें कि हे प्रभा! यह स्नान सन्ध्या का समय हुआ है अब उठो तब उठकर स्नानादिक करें अर्थात् जो कुछ खाने पीने बोलने, चलने और पहिरने की क्रिया थी सो सब उन्हें विरस हो गई । तब लक्ष्मण और शत्रुघ्न भी रामजी को संशययुक्त देखके विरस प्रकार हो गये और राजा दशरथ यह वार्ता सुनके रामजी के पास आये तो क्या देखा कि रामजी महाकृश हो गये हैं । राजा ने इस चिन्ता से आतुर हो कि हाय हाय इनकी यह क्या दशा हुई रामजी को गोद में बैठाया और कोमल सुन्दर शब्दों से पूछने लगे कि हे पुत्र! तुमको क्या दुःख प्राप्त हुआ है जिससे तुम शोकवान् हुए हो?रामजी ने कहा कि हे पिता! हमको तो कोई दुःख नहीं । ऐसा कहकर चुप हो रहे । जब इसी प्रकार कुछ दिन बीते तो राजा और सब स्त्रियाँ बड़ी शोकवान् हुईं । राजा राजमन्त्रियों से मिलकर विचार करने लगे कि पुत्र का किसी ठौर विवाह करना चाहिये और यह भी विचार किया कि क्या कारण है जो मेरे पुत्र शोकवान् रहते हैं । तब उन्होंने वशिष्ठजी से पूछा कि हे मुनीश्वर! मेरे पुत्र शोकातुर क्यों रहते हैं? वशिष्ठजी ने कहा हे राजन् जैसे पृथ्वी , जल, तेज, वायु और आकाश महाभूत अल्पकार्य में विकारवान् नहीं होते जब जगत उत्पन्न और प्रलय होता है तब विकारवान् होते हैं वैसे ही महापुरुष भी अल्पकार्य से विकारवान् नहीं होते । हे राजन्! तुम शोक मत करो । रामजी किसी अर्थ के निमित्त शोकवान् हुए होंगे; पीछे इनको सुख मिलेगा ।
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Old 09-06-2012, 07:06 PM   #22
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इतना कह वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज! ऐसे ही वशिष्ठजी और राजा दशरथ विचार करते थे कि उसी काल में विश्वामित्र ने अपने यज्ञ के अर्थ राजा दशरथ के गृह पर आकर द्वारपाल से कहा कि राजा दशरथ से कहो कि गाधि के पुत्र विश्वामित्र बाहर खड़ेहैं । द्वारपाल ने आकर राजा से कहा कि हे स्वामिन्! एक बड़े तपस्वी द्वार पर खड़े हैं और उन्होंने कहा है कि राजा दशरथ के पास जाके कहो कि विश्वामित्र आये हैं ।हे भारद्वाज! जब इस प्रकार द्वारपाल ने आकर कहा तब राजा, जो मण्डलेश्वरों सहित बैठा था और बड़ा तेजवान् था सुवर्ण के सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और पैदल चला । राजा के एक ओर वशिष्ठजी और दूसरी ओर वामदेवजी और सुभट की नाईं मण्डलेश्वर स्तुति करते चले और जहाँ से विश्वामित्र दृष्टि आये वहाँ से ही प्रणाम करने लगे । पृथ्वी पर जहाँ राजा का शीश लगता था वहाँ पृथ्वी हीरे और मोती से सुन्दर हो जाती थी । इसी प्रकार शीश नवाते राजा चले । विश्वामित्रजी काँधे पर बड़ी बड़ी जटा धारण किये और अग्नि के समान प्रकाशमान परम शान्तस्वरूप हाथ में बाँस की तन्द्री लिये हुए थे । उनके चरणकमलों पर राजा इस भाँति गिरा जैसे सूर्यपदा शिवजी के चरणार विन्द में गिरे थे । और कहा हे प्रभो! मेरे बड़े भाग्य हैं जो आपका दर्शन हुआ ।
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Old 09-06-2012, 07:06 PM   #23
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आज मुझे ऐसा आनन्द हुआ जो आदि अन्त और मध्यसे रहित अविनाशी है । हे भगवान! आज मेरे भाग्य उदय हुए और मैं भी धर्मात्माओं में गिना जाऊँगा, क्योंकि आप मेरे कुशल निमित्त आये हैं । हे भगवान्! आपने बड़ी कृपा की जो दर्शन दिया । आप सबसे उत्कृष्ट दृष्टि आते हैं, क्योंकि आप में दो गुण हैं --एक तो यह कि आप क्षत्रिय हैं पर ब्राह्मण का स्वभाव आप में है और दूसरे यह कि शुभ गुणों से परिपूर्ण हैं । हे मुनीश्वर! ऐसी किसी की सामर्थ्य नहीं कि क्षत्रिय से ब्राह्मण हो । आपके दर्शन से मुझे अति लाभ हुआ । फिर वशिष्ठजी विश्वामित्रजी को कण्ठ लगाके मिले और मण्डलेश्वरों बहुत प्रणाम किये । तदनन्तर राजा दशरथ विश्वामित्रजी को भीतर ले गये और सुन्दर सिंहासन पर बैठाकर विधि पूर्वक पूजा की और अर्ध्यपादार्चन करके प्रदक्षिणा की ।
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Old 09-06-2012, 07:06 PM   #24
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फिर वशिष्ठजी ने भी विश्वामित्रजी का पूजन किया और विश्वामित्रजीने उनका पूजन किया इसी प्रकार अन्योन्य पूजन कर यथायोग्य अपने अपने स्थानों पर बैठे तब राजा दशरथ बोले, हे भगवान्! हमारे बड़े भाग्य हुए जो आपका दर्शन हुआ । जैसे किसी को अमृत प्राप्त हो वा किसी का मरा हुआ बान्धव विमान पर चढ़के आकाश से आवे और उसके मिलने से आनन्द हो वैसा आनन्द मुझे हुआ हे मुनीश्वर! जिस अर्थ के लिये आप आये हैं वह कृपा करके कहिये और अपना वह अर्थ पूर्ण हुआ जानिये । ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो मुझको देना कठिन है, मेरे यहाँ सब कुछ विद्यमान है ।
इति श्री योगवाशिष्टेवैराग्यप्रकरणे विश्वामित्रागमनवर्णनं नाम तृतीयस्सर्गः ॥३॥
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Old 09-06-2012, 07:06 PM   #25
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दशरथ विषाद


वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जब इस प्रकार राजा ने कहा तो मुनियों में शार्दूल विश्वामित्रजी ऐसे प्रसन्न हुए जैसे चन्द्रमा को देखकर क्षीरसागर उमड़ता है । उनके रोम खड़े हो आये और कहने लगे, हे राजशार्दूल! तुम धन्य हो! ऐसे तुम क्यों न कहो । तुम्हारे में दो गुण हैं-एक तो यह कि तुम रघुवंशी हो और दूसरे यह कि वशिष्ठजी जैसे तुम्हारे गुरु हैं जिनकी आज्ञा में चलते हो । अब जो कुछ मेरा प्रयोजन है वह प्रकट करता हूँ । मैंने दशगात्र यज्ञ का आरम्भ किया है, जब यज्ञ करने लगता हूँ तब खर और दूषण निशाचर आकर विध्वंस कर जाते हैं और माँस हाड़ और रुधिर डाल जाते हैं जिससे वह स्थान यज्ञ करने योग्य नहीं रहता और जब मैं और जगह जाता हूँ तो वहाँ भी वे उसी प्रकार अपवित्र कर जाते हैं इसलिये उनके नाश करने के लिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ ।
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Old 09-06-2012, 07:07 PM   #26
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कदाचित् यह कहिये कि तुम भी तो समर्थ हो, तो हे राजन्! मैंने जिस यज्ञ का आरम्भ किया है उसका अंग क्षमा है । जो मैं उनको शाप दूँ तो वह भस्म हो जावें पर शाप क्रोध बिना नहीं होता । जो मैं क्रोध करूँ तो यज्ञ निष्फल होता है और जो चुपकर रहूँ तो राक्षस अपवित्र वस्तु डाल जाते हैं । इससे अब मैं आपकी शरण में आया हूँ । हे राजन्! अपने पुत्र रामजी को मेरे साथ भेज दो, वह राक्षसों को मारें और मेरा यज्ञ सफल हो । यह चिन्ता तुम न करना कि मेरा पुत्र अभी बालक है । यह तो इन्द्र के समान शूरवीर है । जैसे सिंह के सम्मुख मृग का बच्चा नहीं ठहर सकता वैसे ही इसके सम्मुख राक्षस न ठहर सकेंगे । इसको मेरे साथ भेजने से तुम्हारा यश और धर्म दोनों रहेंगे और मेरा कार्य होगा इसमें सन्देह नहीं ।
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Old 09-06-2012, 07:07 PM   #27
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

हे राजन! ऐसा कार्य त्रिलोकी में कोई नहीं जो रामजी न कर सकें इसलिये मैं तुम्हारे पुत्र को लिये जाता हूँ यह मेरे हाथ से रक्षित रहेगा और कोई विघ्न न होने दूँगा । जैसे तुम्हारे पुत्र हैं मैं और वशिष्ठजी जानते हैं । और ज्ञानवान् भी जो त्रिकाल दर्शी हैं जानेंगे और किसी की सामर्थ्य नहीं जो इनको जानें । हे राजन् जो समय पर कार्य होता है वह थोड़े ही परिश्रम से सिद्ध होता है और समय बिना बहुत परिश्रम करने से भी नहीं होता । खर और दूषण प्रबल दैत्य हैं, मेरे यज्ञ को खण्डित करते हैं । जब रामजी जावेंगे तब वह भाग जावेंगे इनके आगे खड़े न रह सकेंगे । जैसे सूर्य के तेज से तारागण का प्रकाश क्षीण हो जाता है वैसे ही रामजी के दर्शन से वे स्थित न रहेंगे । इतना कहकलर वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज! जब विश्वामित्रजीने ऐसा कहा तब राजा दशरथ चुप होकर गिर पड़े और एक मुहूर्त्त पर्यन्त पड़े रहे ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्य प्रकरणे दशरथ विषादो नाम चतुर्थस्सर्गः ॥४॥
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Old 09-06-2012, 07:07 PM   #28
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दशरथाक्तिवर्णन


वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज! एक मुहूर्त उपरान्त राजा उठे और अधैर्य होकर बोले हे मुनीश्वर! आपने क्या कहा? रामजी तो अभी कुमार हैं । अभी तो उन्होंने शस्त्र और अस्त्रविद्या नहीं सीखी, बल्कि फूलों की शय्या पर शयन करने वाले; अन्तःपुर में स्त्रियों के पास बैठनेवाले और बालकों के साथ खेलनेवाले हैं । उन्होंने कभी भी रणभूमि नहीं देखी और न भृकुटी चढ़ाके कभी युद्ध ही किया । वह दैत्यों से क्या युद्ध करेंगे? कभी पत्थर और कमल का भी युद्ध हुआ है? हे मुनीश्वर! मैं तो बहुत वर्षों का हुआ हूँ । इस वृद्धावस्था में मेरे घर मेंरे चार पुत्र हुए हैं; उन चारों में रामजी अभी सोलह वर्ष के हुए हैं और मेरे प्राण हैं । उनके बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता, जो तुम उनको ले जावोगे तो मेरे प्राण निकल जावेंगे ।
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Old 09-06-2012, 07:07 PM   #29
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हे मुनीश्वर! केवल मुझे ही उनका इतना स्नेह नहीं किंतु लक्ष्मण शत्रुघ्न,भरत और माताओं के भी प्राण हैं । जो तुम उनको ले जावोगे तो सब ही मर जावेंगे जो तुम हमको रामजी के वियोग से मारने आये हो तो ले जावो । हे मुनीश्वर मेरे चित्त में तो रामजी पूर्ण हो रहे हैं उनको मैं आपके साथ कैसे दूँ? मैं तो उनको देखकर प्रसन्न होता हूँ ।रामजी के वियोग से मेरे प्राण कैसे बचेंगे? हे मुनीश्वर! ऐसी प्रीति मुझे स्त्री, धन और पदार्थों की नहीं जैसी रामजी की है । मैं आपके वचन सुनकर अति शोकवान् हुआ हूँ । मेरे बड़े अभाग्य उदय हुए जो आप इस निमित्त आये । मैं रामजी को कदापि नहीं दे सकता । जो आप कहिये तो मैं एक अक्षौहिणी सेना, जो अति शूरवीर और शस्त्र अस्त्रविद्या से सम्पन्न हैं साथ लेकर चलूँ और उनको मारूँ पर जो कुबेर का भाई और विश्रवा का पुत्र रावण हो तो उससे मैं युद्ध नहीं कर सकता ।
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Old 09-06-2012, 08:08 PM   #30
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पहिले मैं बड़ा पराक्रमी था; ऐसा कोई त्रिलोकी में न था जो मेरे सामने आता, पर अब वृद्धावस्था प्राप्त होकर देह जर्जर हो गई है । हे मुनीश्वर! मेरे बड़े अभाग्य हैं जो आप आये । मैं तो रावण से काँपता हूँ और केवल मैं ही नहीं वरन् इन्द्र आदि देवता भी उससे काँपते और भय पाते हैं । किसकी सामर्थ्य है जो उससे युद्ध करे । इस काल में वह बड़ा शूरवीर है । जो मेरी ही उसके साथ युद्ध करने की सामर्थ्य नहीं तो राजकुमार रामजी की क्या सामर्थ्य है? जिन रामजी को तुम लेने आये हो वह तो रोगी पड़े हैं । उनको ऐसी चिन्ता लगी है जिससे महाकृश हो गये हैं और अन्तःपुर में अकेले बैठे रहते हैं ।
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