15-02-2011, 08:51 AM | #1 |
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पौराणिक कथाएँ
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ईश्वर का दिया कभी 'अल्प' नहीं होता,जो टूट जाये वो 'संकल्प' नहीं होता,हार को लक्ष्य से दूर ही रखना,क्यूंकि जीत का कोई 'विकल्प' नहीं होता. |
15-02-2011, 08:56 AM | #2 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
सुखसागर ग्रन्थ के अनुसारः
(1) ब्रह्मपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं। (2) पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या पचपन हजार हैं। (3) विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं। (4) शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं। (5) श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं। (6) नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं। (7) मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं। (8) अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं। (9) भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं। (10) ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं। (11) लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं। (12) वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं। (13) स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं। (14) वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं। (15) कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं। (16) मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं। (17) गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं। (18) ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।
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15-02-2011, 08:56 AM | #3 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
सुखसागर ग्रन्थ के अनुसारः
(1) ब्रह्मपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं। (2) पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या पचपन हजार हैं। (3) विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं। (4) शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं। (5) श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं। (6) नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं। (7) मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं। (8) अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं। (9) भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं। (10) ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं। (11) लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं। (12) वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं। (13) स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं। (14) वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं। (15) कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं। (16) मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं। (17) गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं। (18) ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।
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15-02-2011, 08:59 AM | #4 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
विराट नगर पर आक्रमण
कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्*देश्य से एक विशाल सेना गठित कर लिया। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, “हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।” उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्*चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्*मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे।
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15-02-2011, 08:59 AM | #5 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
विराट नगर पर आक्रमण
कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्*देश्य से एक विशाल सेना गठित कर लिया। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, “हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।” उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्*चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्*मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे।
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15-02-2011, 09:17 AM | #6 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
अपनी सेना के पैर उखड़ते देखकर राजा सुशर्मा भी भागने लगा किन्तु पाण्डवों ने उसे घेर लिया। बल्लभ (भीमसेन) ने लात घूँसों से मार-मार कर उसकी हड्डी पसली तोड़ डाला। सुशर्मा की खूब मरम्मत करने के बाद बल्लभ ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। भूमि पर गिर कर वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। भीमसेन ने उसकी एक न सुनी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। सुशर्मा के द्वारा दासत्व स्वीकार करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे छोड़ दिया।
इधर दूसरी ओर से कौरवों ने विराट नगर पर हमला बोल दिया। प्रजा राज सभा में आकर रक्षा के लिये गुहार लगाने लगी किन्तु उस समय तो महाराज चारों पाण्डवों के साथ सुशर्मा से युद्ध करने चले गये थे। महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे। प्रजा को रक्षा के लिये गुहार लगाते देख कर सैरन्ध्री (द्रौपदी) से रहा न गया और उन्होंने राजकुमार उत्तर को कौरवों से युद्ध करने के लिये न जाते हुये देखकर खूब फटकारा। सैरन्ध्री की फटकार सुनकर राजकुमार उत्तर ने शेखी बघारते हुये कहा, “मैं युद्ध में जाकर कौरवों को अवश्य हरा देता किन्तु असमर्थ हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई सारथी नहीं है।” उसकी बात सुनकर सैरन्ध्री ने कहा, “राजकुमार! वृहन्नला बहुत निपुण सारथी है और वह कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथी रह चुकी है। तुम उसे अपना सारथी बना कर युद्ध के लिये जाओ।” अन्ततः राजकुमार उत्तर वृहन्नला को सारथी बनाकर युद्ध के लिये निकला। उस दिन पाण्डवों के अज्ञातवास का समय समाप्त हो चुका था तथा उनके प्रकट होने का समय आ चुका था। उर्वशी के शापवश मिली अर्जुन की नपुंसकता भी खत्म हो चुकी थी। अतः मार्ग में अर्जुन ने उस श्मशान के पास, जहाँ पाण्डवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपाये थे, रथ रोका और चुपके से अपने हथियार ले लिये। जब उनका रथ युद्धभूमि में पहुँचा तो कौरवों की विशाल सेना और भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्*वत्थामा, दुर्योधन आदि पराक्रमी योद्धाओं को देखकर राजकुमार उत्तर अत्यन्त घबरा गया और बोला, “वृहन्नला! तुम रथ वापस ले चलो। मैं इन योद्धाओं से मुकाबला नहीं कर सकता।” वृहन्नला ने कहा, “हे राजकुमार! किसी भी क्षत्रियपुत्र के लिये युद्ध में पीठ दिखाने से तो अच्छा है कि वह युद्ध में वीरगति प्राप्त कर ले। उठाओ अपने अस्त्र-शस्त्र और करो युद्ध।” किन्तु राजकुमार उत्तर पर वृहन्नला के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह रथ से कूद कर भागने लगा। इस पर अर्जुन (वृहन्नला) ने लपक कर उसे पकड़ लिया और कहा, “राजकुमार! भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मेरे होते हुये तुम्हारा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आज मैं तुम्हारे समक्ष स्वयं को प्रकट कर रहा हूँ, मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूँ, और कंक युधिष्ठिर, बल्लभ भीमसेन, तन्तिपाल नकुल तथा ग्रान्थिक सहदेव हैं। अब मैं इनसे युद्ध करूँगा, तुम अब इस रथ की बागडोर संभालो।” यह वचन सुनकर राजकुमार उत्तर ने गद्*गद् होकर अर्जुन के पैर पकड़ लिया।
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15-02-2011, 01:08 PM | #7 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
कीचक वध
पाण्डवों को मत्स्य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से भेंट करने आया। जब उसकी द*ृष्टि सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर पड़ी तो वह काम-पीड़ित हो उठा तथा सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक द*ृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुद*ृष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध देंगे। किन्तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुद*ृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, “हे द्रौपदी! तुम उस दुष्ट कीचक को अर्द्धरात्रि में नृत्यशाला मिलने का संदेश दे दो। नृत्यशाला में तुम्हारे स्थान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा।” सैरन्ध्री ने बल्लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रि में नृत्यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्न कीचक जब रात्रि को नृत्यशाला में पहुँचा तो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साड़ी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्हें सैरन्ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, “हे प्रियतमे! मेरा सर्वस्व तुम पर न्यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ रमण करो।” कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खड़े हुये और बोले, “रे पापी! तू सैरन्ध्री नहीं अपनी मृत्यु के समक्ष खड़ा है। ले अब परस्त्री पर कुद*ृष्टि डालने का फल चख।” इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के मार-मार कर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोड़कर उसे पशु की मौत मार डाला। इस प्रकार कीचक का वध कर देने के बाद भीमसेन ने उसके सभी अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे माँस का एक लोंदा बना दिया और द्रौपदी से बोले, “पांचाली! आकर देखो, मैंने इस काम के कीड़े की क्या दुर्गति कर दी है।” उसकी उस दुर्गति को देखकर द्रौपदी को अत्यन्त सन्तोष प्राप्त हुआ। फिर बल्लभ और सैरन्ध्री चुपचाप अपने-अपने स्थानों में जाकर सो गये। प्रातःकाल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्णा, राजा विराट, कीचक के अन्य भाई आदि विलाप करने लगे। जब कीचक के शव को अन्त्येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से से कहा, “इसे मुझ पर कुद*ृष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्य ही मेरे गन्धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है।” द्रौपदी के वचन सुन कर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, “हमारे अत्यन्त बलवान भाई की मृत्यु इसी सैरन्ध्री के कारण हुई है अतः इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये।” इतना कहकर उन्होंने द्रौपदी को जबरदस्ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्लभ, वृहन्नला, तन्तिपाल तथा ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्तु अज्ञातवास के कारण वे स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिये भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्मशान की ओर दौड़ पड़े और रास्ते में कीचड़ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर कीचक के भाइयों पर टूट पड़े। उनमें से कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्त्वना देकर महल में भेज दिया और स्वयं नहा-धोकर दूसरे रास्ते से अपने स्थान में लौट आये। कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भयभीत रहने लगे।
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15-02-2011, 01:12 PM | #8 |
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Re: पौराणिक कथाएँ
यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से प्रश्*न
कुछ दिनों तक काम्यक वन में रहने के पश्*चात् पाण्डव द्वैतवन में चले गये। वहाँ एक बार जब पाँचों भाई भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें प्यास सताने लगी। युधिष्ठिर ने नकुल को आज्ञा दी, “हे नकुल! तुम जल ढूँढकर ले आओ। नकुल जल की तलाश में एक जलाशय के पास चले आये किन्तु जैसे ही जल लेने के लिये उद्यत हुये कि सरोवर किनारे वृक्ष पर बैठा एक बगुला बोला, “हे नकुल! यदि तुम मेरे प्रश्*नों के उत्तर दिये बिना इस सरोवर का जल पियोगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। नकुल ने उस बगुले की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और सरोवर से जल लेकर पी लिया। जल पीते ही वे भूमि पर गिर पड़े। नकुल के आने में विलंब होते देख युधिष्ठिर ने क्रम से अन्य तीनों भाइयों को भेजा और उन सभी का नकुल जैसा ही हाल हुआ। अन्ततः युधिष्ठर स्वयं जलाशय के पास पहुँचे। उन्होंने देखा कि वहाँ पर उनके सभी भाई मृतावस्था में पड़े हुये हैं। वे अभी इस द*ृश्य को देखकर आश्*चर्यचकित ही थे कि वृक्ष पर बैठे बगुले की आवाज आई, “हे युधिष्ठिर! मैं यक्ष हूँ। मैंने तुम्हारे भाइयों से कहा था कि मेरे प्रश्*नों का उत्तर देने के पश्*चात् ही जल लेना, किन्तु वे न माने और उनका यह परिणाम हुआ। अब तुम भी यदि मेरे प्रश्*नों का उत्तर दिये बिना जल लोगे तो तुम्हारा भी यही हाल होगा।” बगुलारूपी यक्ष की बात सुनकर युधिष्ठ बोले, “हे यक्ष! मैं आपके अधिकार की वस्तु को कदापि नहीं लेना चाहता। आप अब अपना प्रश्*न पूछिये।” यक्ष ने पूछा, “सूर्य को कौन उदित करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे अस्त कौन करता है और वह किसमें प्रतिष्ठित है? युधिष्ठिर ने उत्तर में कहा, “हे यक्ष! सूर्य को ब्रह्म उदित करता है। देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।” यक्ष ने पुनः पूछा, “मनुष्य श्रोत्रिय कैसे होता है? महत् पद किसके द्वारा प्राप्त करता है? किसके द्वारा वह द्वितीयवान् (ब्रह्मरूप) होता है और किससे बुद्धिमान होता है?” युधिष्ठिर का उत्तर था, “श्रुति के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है। स्मृति से वह महत् प्राप्त करता है। तप के द्वारा वह द्वितीयवान् होता है और गुरुजनों की सेवा से वह बुद्धिमान होता है।” यक्ष का अगला प्रश्*न था, “ब्राह्मणों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों जैसा धर्म क्या है? मानुषी भाव क्या है और असत्पुरुषों का सा आचरण क्या है?” इन प्रश्*नों के उत्तर में युधिष्ठिर बोले, “वेदों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों में देवत्व है। उनका तप ही सत्पुरुषों जैसा धर्म है। मृत्यु मानुषी भाव है और परनिन्दा असत्पुरुषों का सा आचरण है।” यक्ष ने फिर पूछा, “कौन एक वस्तु यज्ञीय साम है? कौन एक वस्तु यज्ञीय यजुः है? कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है और किस एक का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता?” युधिष्ठिर बोले, “प्राण एक वस्तु यज्ञीय साम है। मन एक वस्तु यज्ञीय यजुः है। एक मात्र ऋक् ही यज्ञ का वरण करती है और एक मात्र ऋक् का ही यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता।” इस प्रकार यक्ष ने युधिष्ठिर से और भी अनेक प्रश्*न किये और युधिष्ठिर ने उस सभी प्रश्*नों के उचित उत्तर दिया। इससे प्रसन्न होकर यक्ष बोला, “हे युधिष्ठिर! तुम धर्म के सभी मर्मों के ज्ञाता हो। मैं तुम्हारे उत्तरों से सन्तुष्ट हूँ अतः मैं तुम्हारे एक भाई को जीवनदान देता हूँ। बोलो तुम्हारे किस भाई को मैं जीवित करू?” युधिष्ठिर ने कहा, “आप नकुल को जीवित कर दीजिये।” इस पर यक्ष बोला, “युधिष्ठिर! तुमने महाबली भीम या त्रिलोक विजयी अर्जुन का जीवनदान न माँगकर नकुल को ही जीवित करने के लिये क्यों कहा?” युधिष्ठिर ने यक्ष के इस प्रश्*न का उत्तर इस प्रकार दिया, “हे यक्ष! धर्मात्मा पाण्डु की दो रानियाँ थीं – कुन्ती और माद्री। मेरी, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थीं तथा नकुल और सहदेव की माद्री। इसलिये जहाँ माता कुन्ती का एक पुत्र मैं जीवित हूँ वहीं माता माद्री का भी एक पुत्र नकुल को ही जीवित रहना चाहिये। इसीलिये मैंने नकुल का जीवनदान माँगा है।” युधिष्ठिर के वचन सुनकर यक्ष ने प्रसन्न होते हुये कहा, “हे वत्स! मैं तुम्हारे विचारों से मैं अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ हूँ इसलिये मैं तुम्हारे सभी भाइयों को जीवित करता हूँ। वास्तव में मैं तुम्हारा पिता धर्म हूँ और तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया था।” धर्म के इतना कहते ही सब पाण्डव ऐसे उठ खड़े हुये जैसे कि गहरी नींद से जागे हों। युधिष्ठिर ने अपने पिता धर्म के चरणस्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया। फिर धर्म ने कहा, “वत्स मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ इसलिये तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।” युधिष्ठिर बोले, “हे तात्! हमारा बारह वर्षों का वनवास पूर्ण हो रहा है और अब हम एक वर्ष के अज्ञातवास में जाने वाले हैं। अतः आप यह वर दीजिये कि उस अज्ञातवास में कोई भी हमें न पहचान सके। साथ ही मुझे यह वर दीजिये कि मेरी वृति सदा आप अर्थात् धर्म में ही लगी रहे।” धर्म युधिष्ठिर को उनके माँगे हुये दोनों वर देकर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।
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