My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 31-03-2013, 08:44 PM   #11
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 99
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी

दोनों ही परिवार अपनी अपनी जिंदगी की जद्दो जहद में लगे थे. अब हमने भी एक बड़ा सा मकान किराये पर ले लिया था जिसके तीन तरफ बरामदे थे आगे बड़ा सा बाग़ जिसमे अमरुद के पेड़ लगे थे और पीछे भी सेहन था जिसकी दीवार के साथ सहजन के पेड़ लगे थे और यकीन कीजिये किराया था महज़ ९० रूपए. पापा माँ,सास ससुर सब हमें मिलने आते. जल्दी ही हमारी गुडिया ने हमारी जिंदगी में कदम रखा, पापा उसको देखते ही बोले “ज्योति ये तो बिलकुल तू है” हमारी गुडिया बहुत ही प्यारी थी। जैसे गुडिया ही हो जिसकी नीली नीली आँखें खुलती और बंद होती और जो हंसती और रोती थी. इस बीच मेरे से छोटे भाई की भी नियुक्ति प्रवक्ता के रूप में हो गयी, दूसरा भाई भी एक स्पिनिंग मिल्स में लग गया और सबसे छोटे भाई की भी सरकारी जॉब लग गयी थी, पापा ने सबको अपने पैसे अपने पास ही रखने को कहा और सबके विवाह भी उनकी पसंद की हुई लड़कियों से करवा दी, सबसे छोटे भाई ने एक ईसाई लड़की पसंद की थी और वो पी जी आई में स्टाफ नर्स लगी हुई थी, लेकिन पापा ने सब को खुले मन से स्वीकार किया सब बच्चों की शादी उनके विचारों के अनुरूप बिना दहेज़ के और बिलकुल बिना आडम्बर के हुई, सिर्फ दोस्तों और करीबी रिश्तेदारों के लिए छोटी सी पार्टी. सब लोग अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त थे, छुट्टियों में सब इक्कठे होते ,मुझ से छोटा भाई राजकीय महाविद्यालय में प्रवक्ता था उस से छोटा लुधियाना और सबसे छोटा वहीँ चंडीगढ़ उनके साथ ही रहता. पापा का भी काम अब ठीक ठाक ही चल रहा था, वे अब शेयर्स में भी हाथ आजमाने लगे थे, मैंने कई बार एच सी एस की परीक्षा दी, वहीँ रह कर इम्तिहान दिए, पापा, माँ और भाइयों ने कभी उस समय मुझे घर का काम नहीं करने दिया, मुझे जहाँ मैं बैठी होती वही ला कर खाना दिया जाता। अधिकतर पापा ही मेरे बर्तन उठा कर ले जाते,भाई बच्चों को बहला लेते और मैं जितना चाहे पढ़ सकती थी मेरे अंक लिखित परीक्षा में तो अच्छे आते पर फिर भी मेरा चयन नहीं हो पाया, खैर मुझे इस से कोई अधिक फर्क पड़ने वाला नहीं था क्यूंकि मैं तो पहले से ही एक अच्छी नौकरी पर थी,

पापा घर के बहुत से कामों में माँ की मदद करते,जैसे सब्जी तोडना। हमारी कोठी में एक किचन गार्डन भी था, सब्जी कटना,अगर हम कहते सब्जी अच्छी बनी है तो वो कहते ये इस बात पर निर्भर करता है कि सब्जी कटी कैसी है. अभी हम अपनी गुडिया को पूरा प्यार भी न दे पाए थे कि एक और नए मेहमान की आहट सुनाई दी, लेकिन ये मेहमान खुशियों की बजाये दुःख लेकर आया, उसे फिट्स (मिर्गी के दौरे) पड़ते हैं और उसका अपने अंगों पर कोई वश नहीं होता, हमें अपनी नन्ही सी गुडिया को माँ पापा के साथ छोड़ना पड़ा क्यूंकि मुझे तो नए बच्चे के साथ अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ते. इस समय मैं नौकरी नहीं कर रही थी बस कभी एम्स या फिर किसी अन्य हॉस्पिटल जाती– शायद कहीं कोई इलाज हो. हमारी जिंदगी बिकुल बदल गई थी, सामजिक रूप से भी हम अलग थलग हो गए थे.पर अपने जन्म के ११ माह बाद उसने अंतिम सांस ली और (मुझे यह कहने में संकोच हो रहा है कि बच्चे की मृत्यु ने) हमें और अपने आपको कई कष्टों से मुक्त कर दिया. अब हम अपनी बेटी वापिस लाने गए तो माँ पापा उदास हो गए क्यूंकि सबसे छोटे भाई के बाद गुडिया ही घर का पहला बच्चा था। इधर मेरी नियुक्ति भी फरीदाबाद एक महिला महाविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में स्थायी तौर पर हो गयी थी और मुझे पलवल से फरीदाबाद बस से रोज़ आना जाना पड़ता था इसलिए हमने सोचा की बेटी को चंडीगढ़ ही रहने देते हैं उसकी भी ठीक से देखभाल हो जायेगी ,हमें भी पीछे से उसकी फ़िक्र नहीं रहेगी और माँ पापा भी खुश रहेंगे.हालांकि कभी कभी उसे बिना खालीपन महसूस होता पर हम अक्सर उससे मिलने चंडीगढ़ जाते, कॉलेज की नौकरी में उस समय काफी छुट्टियाँ होती थी और उसकी भी सो कभी वह आ जाती.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 31-03-2013, 08:44 PM   #12
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 99
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी


ऐसे ही हंसी ख़ुशी और व्यस्तताओं में दिन बीत रहे थे। इस बीच एक और गुडिया का जन्म हमारे यहाँ हो चुका था। वो भी उतनी ही प्यारी थी जितनी की बड़ी गुडिया. मेरी सास मेरे पास रहने आ गयी थी जिस से उसको संभालने मुझे दिक्कत न हो और मेरे पीछे से उसकी देखभाल अच्छी तरह हो. इसी बीच मुझे एम् फिल करने के लिए टीचर्स' फ़ेलोशिप मिल गई और मेरा तबादला पंजाब यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञानं विभाग में हो गया, अब मैं चंडीगढ़ आ गयी, घर एक बार फिर गुलज़ार हो गया था ,मेरे मित्र घर आते ग़ज़ल गानों चुटकुलों और शेरो शायरी की महफ़िल जमती,चाय पकोड़े बनते सब लोग खूब मज़े करते ,दोनों बच्चे वहीँ स्कूल जाते ,मुझे लैब में काफी काम करना पड़ता घर में भी माँ के साथ काम करवाती, पर फिर भी बहुत अच्छा समय बीत रहा था, हाँ चाँद सिंह जी पलवल में अकेले थे और मिलने के लिए आते रहते।

डेढ़ साल में मेरी एम् फिल विथ डिस्टिंक्शन पूरी हो गयी,अब दोनों बच्चे वहीँ रह गए उनकी पढाई अच्छी चल रही थी, पापा माँ को बच्चों से बहुत लगाव हो गया था.हमें भी नौकरी करने की सुविधा थी. पापा बच्चों क साथ खेलते, उन्हें कहानियाँ सुनाते। सच में उन्हें कहानी सुनाने की कला बहुत अच्छे से आती थी ..... आवाज़ के उतार चढ़ाव ,तरह तरह के जानवरों और पक्षियों की आवाज़ निकाल कर कहानी को जीवंत कर देते, मैंने कई बार सोचा कि उनकी आवाज़ को कहानी सनाते हुए रिकॉर्ड करूंगी पर ऐसा हो नहीं पाया. बब्बू (बड़ी गुडिया) और पापा के संवाद कुछ ऐसे होते, पापा बोलते “ओ लड़की” तब फट से जवाब आता “हाँ लड़के”. पापा कहते "मैं तुझे उठा कर ले जाऊँगा” जवाब आता “जैसे रावण सीता को ले गया था“. पापा निरुत्तर हो जाते. बड़ी गुडिया को उन्होंने समझा दिया था कि पलवल में मक्खी और मच्छर बहुत हैं जो गंदे होते हैं और काटते भी हैं. एक और बात जो उन्होंने उसे सिखाई थी वो थी सोलह दूनी आठ और जब वो लोगों के सामने उस से पूछते गुडिया सोलह दूनी कितने होते हैं तो फटाक से जवाब देती आठ. पापा उन्हें लेकर लाइब्रेरी जाते, उन्हें सुंदर किताबें दिलवाते ,माँ और मेरे भाई उन्हें पढ़ाते.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 31-03-2013, 08:45 PM   #13
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 99
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी

मैं वापिस पलवल आ गयी और अपनी नौकरी संभाल ली. बच्चे तो दोनों वहीँ चंडीगढ़ में ही रह गए. मैं रोज़ पलवल से फरीदाबाद आती जाती .पंजाब में आतंक का साया पड़ चुका था, जब मैं एम् फिल कर रही थी .. ऑपरेशन ब्लू स्टार तो तभी हो गया था और कई दिन तक कर्फ्यू लगा रहा, हमारे घर के बाहर हमेशा आर्मी के जवान मौजूद रहते. एक सहमा सा माहौल था .पर जिंदगी तो हस्बे मामूल चलती ही रहती थी. एक दिन अचानक मेरे सबसे छोटे भाई ने फैसला कर लिया कि वह अलग मकान लेकर रहेंगे, पापा ने कुछ कहा तो नहीं पर अन्दर ही अन्दर वो कुछ दुःख मान गए, उन्होंने सपने में ये बात नहीं सोची थी क्यूंकि कोई टकराव जैसी चीज़ ऊपर से तो दिखाई नहीं दे रही थी. खैर जैसे उन्होंने पहले सब स्वीकार किया था वैसे ही इस बात को भी माना, वे किसी कोभी अपने साथ ज़बरदस्ती बांधना नहीं चाहते थे, पापा माँ एक दुसरे के साथ ताश खेलते, कभी कभी मुझसे मिलने छोटे भाई का परिवार वहां आजाता जब सब इक्कट्ठे होते तो खूब मज़ा आता, गुडिया कहती क्या हम सब लोग हमेशा इसी तरह एक साथ नहीं रह सकते.

आतंक वाद बढ़ता ही जा रहा था ,रोज़ बसों से उतार उतार कर और मोने (जो सिख समुदाय के नहीं थे) लोगों को अलग कर उन्हें गोली से उड़ा दिया जाता, उधर मकान मालिक भी कोठी खाली करवाने के लिए अब ओछे हथकंडे अपनाने लगा था, पापा माँ बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते कि बच्चों को कोई आंच न आजाये. गुडिया ६वें में और छोटी गुडिया के .जी में आगई थी, पापा ने कहा कि अब हम बच्चों को अपने पास ले जाएँ क्यूंकि वहां हमेशा खतरा बना रहता है और साथ ही मकान मालिक कोठी खाली करने के लिए कह रहा है. हम बच्चों को अपने पास ले आये और फरीदाबाद के स्कूल में प्रविष्ट करवा दिया ,अब हम चारों को पलवल से फरीदाबाद आना जाना पड़ता पर सब का समय अलग अलग था ,हमने फरीदाबाद में घर बनाना शुरू कर दिया था, पापा के लिए भी हम यहाँ मकान ढूढ़ रहे थे , पापा ने बच्चों को यहाँ भेज तो दिया था पर उनका मन बिलकुल भी नहीं लग रहा था, आखिरी बार जब बच्चे छुट्टियों में वहां गए तो पापा ने कहा तुम लोग वापिस यहाँ आ जाओ, उनके पीछे पीछे ताश लेकर घूमते, जब उनके वापिस पलवल आने का समय आया तो उन्होंने बहुत रोका , पर स्कूल खुलने वाले थे बच्चों को तो आना ही था.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 31-03-2013, 08:46 PM   #14
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 99
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी


पापा ने भी हमारा बनता हआ मकान देखा था जब अभी उसकी दीवारें उठी थी पर छत नहीं पड़ी थी. हमने उनकी पसंद का मकान ढूँढने की काफी कोशिश की पर अभी कोई बात नहीं बनी. अप्रैल १९८८ ने एक दिन सुबह अभी हम सो कर भी नहीं उठे थे कि मेरी मौसी का लड़का पलवल आया, मैं दरवाज़ा खोल कर हैरान सी खड़ी थी कि उसने कहा "आप सबको अभी चंडीगढ़ जाना पड़ेगा". मुझे कुछ समझ नहीं आया कि वह कह क्या रहा है, अभी दस दिन पहले ही तो मैं चंडीगढ़ से आयी हूँ और छह दिन पहले दोनों बच्चे वहां से आये हैं,फिर ऐसा क्या हो गया। मन आशंकाओं से घिर गया। तभी उसने मेरे कन्धों को पकड़ कहा कि मौसा जी यानि कि मेरे पापा नहीं रहे, मुझे अपने कानो पर यकीन नहीं हुआ, पापा को क्या हो सकता है , उन्होंने तो कभी सर दर्द की भी शिकायत नहीं की, कभी अपना बदन किसी से नहीं दबवाया, कभी अपने लिए डॉक्टर के पास नहीं गए अस्पताल और दवाइयों से हमेशा दूर ही रहे, फिर अचानक ऐसा क्या हो गया ....

धीरे धीरे बात अन्दर गयी कि पापा को दिल का दौरा पड़ा था और अस्पताल जाने से पहले ही अंतिम सांस ले ली थी. मैंने किसी तरह अपने आप को संयत किया और जाने की तयारी की, भाई और उसके परिवार को भी साथ लेना था वो हमसे ३० किलोमीटर दूर रहते थे, उस समय न तो फ़ोन थे हमारे घर और न ही कार वगैरह, हमने जल्दी से एक जीप का इंतज़ाम किया भाई भाभी और उनके बच्चों को साथ लिया और चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए ,सफ़र काटे नहीं कट रहा था, बच्चे तो बच्चे थे उन्हें इस बात की समझ नहीं थी उनकी बात चीत हँसना खेलना जारी था. लेकिन मैं तो माँ के बारे में सोच सोच के परेशान थी, उनका पता नहीं क्या हाल होगा, किसी तरह हम सूरज ढलने से पहले शवदाह गृह पंहुच ही गए, मेरे पापा एक सफ़ेद चादर में लिपटे फर्श पर ही लेटे थे, मैं उनकी तरफ बढ़ी, मुझे लगा कि उनकी पलकें काँपी, उनके होंठों पर एक मधुर मुस्कान खेली, मुझे लगा कि पापा आँखे खोलेंगे और बोलेंगे 'तू आ गयी बेटी', पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, वे वैसे के वैसे ही निश्चल लेटे रहे, शांत, मधुर मुस्कान अपने होठों पर चिपकाए, मैंने उन्हें बहुत हिलाया ... बहुत बार बुलाया ... बहुत आंसू बहाए पर वो नहीं उठे और लोग आकर उन्हें ले गए। मैं मन ही मन उनके पीछे पीछे दौड़ रही थी ... पापा टाटा -टाटा पापा कहते कहते पर उन्होंने पीछे मुड कर नहीं देखा.....
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 31-03-2013, 10:59 PM   #15
rajnish manga
Super Moderator
 
rajnish manga's Avatar
 
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241
rajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond repute
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी

Quote:
Originally Posted by jai_bhardwaj View Post
...... मैं मन ही मन उनके पीछे पीछे दौड़ रही थी ... पापा टाटा -टाटा पापा कहते कहते पर उन्होंने पीछे मुड कर नहीं देखा.....


जय जी, यह आत्म-कथ्य (यदि यह कहानी है तो भी इसमें आत्म-कथ्य की ईमानदारी दिखयी देती है) ह्रदय को द्रवित कर गया. मैं कह सकता हूँ कि बहुत दिनों बाद इतनी प्रभावशाली रचना पढ़ने को मिली. यहाँ कोई बनावट नहीं है, आम आदमी के सामान्य जीवन की सामान्य घटनाएं इतनी कुशलता से कथ्य में पिरोई गई हैं कि सारा आलेख सामान्य से कहीं ऊपर प्रतिष्ठित हो गया है. पिता का उदात्त चरित्र पूरे कथ्य में जीवंत हो कर उभरा है. अज्ञात लेखक को बधाई और आपको इस सुन्दर रचना को खोज निकालने और फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

Last edited by rajnish manga; 31-03-2013 at 11:02 PM.
rajnish manga is offline   Reply With Quote
Old 31-03-2013, 11:48 PM   #16
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 99
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी

Quote:
Originally Posted by rajnish manga View Post


जय जी, यह आत्म-कथ्य (यदि यह कहानी है तो भी इसमें आत्म-कथ्य की ईमानदारी दिखयी देती है) ह्रदय को द्रवित कर गया. मैं कह सकता हूँ कि बहुत दिनों बाद इतनी प्रभावशाली रचना पढ़ने को मिली. यहाँ कोई बनावट नहीं है, आम आदमी के सामान्य जीवन की सामान्य घटनाएं इतनी कुशलता से कथ्य में पिरोई गई हैं कि सारा आलेख सामान्य से कहीं ऊपर प्रतिष्ठित हो गया है. पिता का उदात्त चरित्र पूरे कथ्य में जीवंत हो कर उभरा है. अज्ञात लेखक को बधाई और आपको इस सुन्दर रचना को खोज निकालने और फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

आपने बिलकुल सच कहा है रजनीश जी। यही वे तथ्य थे जिनके कारण मैं इस कथा को पढ़ कर मंच पर प्रविष्ट करने के लिए विवश हो गया था। कथा की उचित समालोचना के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन है बन्धु।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 12:55 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.