08-01-2013, 05:26 PM | #1 |
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धर्म, संस्कृति और संस्कार
भारतीय संकृति का आर्थ प्राचीनकाल से चले आ रहे संस्कारों के पालन से है। संकृति शब्द का आधुनिक अर्थ प्राचीनकाल के आचार-सदाचार, मान्यताओं एंव रीति-रितीरिवाजों से भी है। एक अर्थ में मनुष्य की आधिभौतिक, आधिदैविक एंव आध्यात्मिक उन्नति के लिये की गई भारतीय परिवेश की सम्यक चेष्टाये ही संकृति हैं। भारतीय संस्कृति किसी एक वर्ण की न होकर चारों वर्णों की मूलभूत विरासत है। यदि यह कहा जाय कि भारत में रहने वाले प्राचीन ऋषियों द्वारा निर्धारित मान्ताओं के अनुरूप चलना भारतीय संस्कृति है तो कोई दोष नहीं। वेद या अन्य धर्मग्रंन्थों के आचार-विचार में भारतीय संस्कृति का स्वरूप निहित है। भारतीय संस्कृति में सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक,कला-कौशल,ज्ञान-विज्ञान,उपासना अदि समस्त परिवेश आ जाता है। संस्कृति एक प्रकार से संस्कारों का समुच्चय है।सनातन-परम्परा के अनुरूप संस्कृारित की हुई पद्घति ही संस्कृति है। सभ्याता संस्कृति से भिन्न है। संस्कृति के किसी एक भाग को सभ्यता कहका जाता है। क्योंकि सभ्यता काल व परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है जैसे -रामायण-कालीन सभ्यता, महाभारत-कालीन सभ्यता, मुगल-कालीन सभ्यता आदि विदेशी प्रभाव भी सभ्यता पर पड़ता है। किन्तु संस्कृति शाश्वत परम्परा से चलती रहती है। सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसका आत्मा। संस्कृति अनुभवजन्य ज्ञान के और सभ्यता बुद्घिजन्य ज्ञान के आधार पर निर्भर है। सभ्यता से सामाजिा व आर्थिक जीवन प्रभावित होता है जबकि संस्कृति से आध्यात्मिक जीवन। संस्कृति जीवन की राह बता कर व्यक्ति को जीवनपथ पर आगे बढ़ाती है। भारतीय संस्कृति प्रत्येक जाति,प्रत्येक व्यक्ति को स्वधर्मानुसार चलने की स्वतंत्रता देती है। इसी लिए इसका स्वधर्मे निधन श्रेय: सिद्घान्त रहा है। मानव जीवन के कार्य-कलापों को भारतीय संस्कृति ने चार आश्रामों में बांटा है। मनुष्य की आयु 100 वर्ष की मानी गई है थाी। 1. ब्रम्हाचर्याश्रय:- इसमें 25 वर्षों तक विद्याध्ययन का प्रावधान रखा गया हैर। गुरूकुल यो विद्यालय में गुरू के सानिध्य में विद्या ग्रहण की जाती थी। 2. गृहस्थाश्रम:- इसमें 50 वर्षों तक की आयु मानी है। गृहस्थधर्म का पालन करने का इसमें प्रावधान है। परिवार, समाज व देश के प्रति उत्तरदायित्व का भान व्यक्ति को होना चाहिए। 3. वानप्रस्थाश्रम:- इसमें सांसारिक झंझटों से मुक्त होकर धर्मपरायण होकर समाजसेवा व ईश्वराराधना को समय देना इसका उद्देस्यहै। यह 50 वर्ष 75 वर्ष का काल है। 4. संन्यासाश्रम:- इस काल में सासारिक कार्यों व झंझटों से मुक्त होकर मार्ग अपनाना चाहिऐ। 75 वर्ष से 100 वर्ष के बीच का यह समय है।इस अवस्था में धर्म अध्यात्म-चिन्तन पर विशेष बल दिया गया है। संस्कृति और धर्म का परम्परा घनिष्टï सम्बन्ध है। किन्तु वह धर्म पाखण्ड व दकियानूसी विचारों से मुक्त होना चाहिए। धर्म का सामान्य अर्थ कत्र्तव्य से लिया जाता है वैसे धर्म शाब्दिक अर्थ धारण करने से है। महार्षि कणाद ने कहा है:- यतो भ्युदयनि:श्रोयससिद्घि: स धर्म:। जिससे इस लोक में उन्नति और परलोक में कल्याण या मोक्ष की प्राप्ति हो, वह धर्म है। मनु धर्म की परिभाषा तो नही करते दीखते हैं, किन्तु वेद को धर्म का मूल मानते हुए कहते हैं- वेदोखिलोधर्ममूलम्। ( मनुस्मृति 2-6) धर्म की परिभाषा इस प्रकार भी की गई है। वेदविहितत्वम् अर्थात् जो वेद में कहा गया वह धर्म है।धार्यते अनेन इति धर्म:, अर्थात जो धारण करने योग्य है वह धर्म है। सच्चे अर्थों में धर्म सर्वजनहितकारी सत्प्रवृत्तियों का आदर व उनका प्रसार करना सिखाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी हैं 32 प्रकार के धर्मों का उल्लेख किया है। धर्ममय कर्म ही संस्कृति के अंग हो सकते हैं। यद्यपि धर्म तथा संस्कृति में पर्याप्त अंतर है पर धर्म जिन पर आधारित है संस्कृति भी उनसे ही संबंधित रहती है। सभी राष्ट्रों की अपनी-अपनी संस्कृति प्यारी रही है किन्तु उनमें भारत की संस्कृति प्राचीनतम है। उसका मुख्य कारण है आध्यात्यमिकता के प्रति प्रेम, अध्यात्म में आस्था भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! Last edited by bindujain; 08-01-2013 at 05:29 PM. |
08-01-2013, 05:34 PM | #2 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
मानव शरीर को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति माना गया है। पौराणिक कथाओं और हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार चौरासी लाख योनियों से गुजऱने के बाद मनुष्य योनि प्राप्त होती है जो क्रमश:ईश प्राप्ति की ओर बढ़ते कदमों की अंतिम परणिति मानी गई है। मानव शरीर के द्वारा साधना, उपासना आराधना संकल्प और त्याग इत्यादि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा पुराणों में वर्णित है।अन्य धर्मों में भी कमोवेश इसी तरह की जानकारियां मिलती हैं।सवाल ये उठते हैं कि यदि ईश्वर प्रदत्त यह श्रेष्ठतम कृति शारीरिक रूप से सक्ष्म न हो ,अंग भंग हो अथवा पैदाईशी रूप में शरीर के कोई अंग ही न हों या किसी दुर्घटना में किन्ही हिस्स को अलग करना पड़ा हो तो क्या मनुष्य अपने वही स्वाभाविक कार्य कर सकता है जो एक स्वस्थ मनुष्य से अपेक्षित होता है।इअका सीधा सीधा उत्तर हां हो सकता है ।दुनियाँ ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है।यदि मनुष्य में दृढ़ इच्छा शक्ति हो,आत्म विश्वास हो और कार्य के प्रति सच्ची लगन हो तो विकल्लंगता के चरम पर होने के बावज़ूद महान महान कार्यों का निष्पादन किया जा सकता है। स्टीफन? हाकिंग इसका सटीक उदाहरण है।विवेकानंद भी कहते हैं कि इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता।हिम्मत लगन और आत्म विश्वास हो तो असंभव को भी संभव करके दिखाया जा सकता है। उठो और चल पड़ो और जब तक चलते रहो जब तक कि मंजिल न मिल जाये।हाथ पैरों से, शरीर से ,इंद्रियों के शिथिल होने के बाद भी आदमी अंतर्मन से अनंत यात्रा कर सकता है और अपनी मंजिल पा सकता है।तीव्र इच्छा, जिजीविषा और जी तोड़ परिश्रम आपको मंजिल तक पहुँचाकर ही दम लेगा।आयु,शारीरिक अक्षमता और विकलांगता इसमें कहीं बंधनकारी नहीं होगा।वर्षों से अपंग लोगों ने ,जन्म से अंधे लोगों ने न सिर्फ पढ़ाई में सफलता प्राप्त की बल्कि एम. ए. एम .फिल करने के बाद शोध के महान कार्य करके डाक्ट्रेट की उपाधियां भी प्राप्त कीं। बाइस साल की उम्र में एमियो ट्रोफिक लेटरल स्केलरोसिस नामक बीमारी से ग्रस्त होने के बावज़ूद स्टीफन हाकिंग ने जो उपलब्धि हासिल की वह दुनियाँ के इतिहास में अज़ूबा है। इस बीमारी में सारा जिस्म अपंग हो जाता है।केवल दिमाग काम करता रहता है।स्टीफन ने स्वयं कहा है कि मैं भाग्यशाली हूं कि मेरा शरीर बीमार हुआ है मन और दिमाग तक रोग नहीं पहुंचा है। वे एक महान वैग्यानिक हैं और इस क्षेत्र में न्यूटन और आस्टीन के समकक्ष खड़े दिखते हैं। कास्मोलाजिस्ट, मेथामेटिशियन, केम्ब्रिज मेंल्यूकेशियन के प्रोफेसर, अंतरिक्ष और ब्लेक होल से परदा हटाने वाले एक अदभुत और महान वैग्यानिक हैं।वह एकमात्र एक ऐसे वैग्यानिक हैं जिन्होंने अंतरिक्ष में काले गढ्ढों की खोज की है। उन्होंने अंतरिक्ष के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान खड़े किये हैं। उनके द्वारा रचित पुस्तक ए ब्रीफ हिस्टरी आफ टाइम ने तो बिक्री के नये नये रिकार्ड बना डाले। हालाकि उनकी उनकी व्यक्तिगत जिंदगी उतार चढ़ावों से भरी रही फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।उन्होंने कास्मोलोजी विद्या पर स?घन खोज की। ब्रहमांड की खोज उनका प्रमुख विषय रहा है।उन्होंने अपने साथी कीप औ पर्सिकल के साथ ब्लेक होल पर काम किया। ब्लेक होल ऐसा स्थान है जहां से दूसरे ब्रहमांड में पहुँचा जा सकता है। इतिहास गवाह कि ब्लेक होल में कई बड़े जहाज और हवाई जहाज गायब हुये हैं उनका आज तक पता नहीं लगा है।और तो र्औ तो उर उनका मल्वा भी ढूंढे से भी नहीं मिला है। सोचने की बात यह है कि जिस व्यक्ति का मस्तिष्क को छोड़कर सारा शरीर अपंग हो वह इतने जटिल काम कैसे कर सकता है किन्तु स्टीफ्फन ने किये हैं। भारतवर्ष के महाराजकृष्ण जैन भी इसी तरह का उदाहरण है वर्षों तक व्हील चेयर पर रहने के बाद भी उन्होंने विपुल साहित्य लिखा और डाक्ट्रेट की उपाधि हासिल की । उनकी पत्नि अंबाला में कहानी लेखन महाविद्यालय की संचालिका हैं। अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े मढ़े थे परंतु उनकी विद्वता दूर दूर तक जानी जाती थी तेमूर लंग इतिहास में में खूनी योद्धा के रूप में मशहूर हुये।14वीं शताब्दी में उन्होंने युद्ध के मैदान में कई द?शों को जीता। कहते हैं उसे अपने दुश्मनों के सिर काटकर जमा करने का शौक था। उस जमाने जबकि युद्ध बहुबल से लड़ा जाता था, बम और बंदूकों के सहारे नहीं ,ऐसे लंगडे तैमूर लंग की उपल्ब्धि किसी करिश्मेंसे कम नहीं आंकी जा सकती। तेमूर का दायां हिस्सा पूर्णत: खराब था। एबिल बोडीड का मतलब सबल आदमी माना जाता है किं यदि बीस तीस मीटर ही दौडऩा पड़ जाये तो हालत खराब हो जाती है।
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09-01-2013, 04:51 AM | #3 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
अन्य देशों में रामायण
रामायण मूलतः भारतीय ग्रंथ है किन्तु इसकी लोकप्रियता विश्व भर में व्याप्त है। यही कारण है कि अन्य देशों में अलग-नाम से राम कथा पाये जाते हैं जिनमें से कुछ हैं - मलयेशिया का रामायण - हिकायत सेरी राम बर्मा का रामायण - रामवत्थु थाईलैंड का रामायण - रामकियेन इंडोनेशिया का रामायण - रामायण का कावीन कंपूचिया का रामायण - रामकेर्ति लाओस का रामायण - राम जातक फिलिपींस का रामायण - महालादिया लावन इसके अलावा तिब्बत, चीन, खोतानी, मंगोलिया, जापान, श्रीलंका तथा नेपाल में भी रामकथा पर आधारित ग्रन्थ हैं।
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09-01-2013, 09:31 PM | #4 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
वेद – वेद शब्द की निष्पत्ति संस्कृत की “विद्” धातु से हुई है जिससे तात्पर्य है – ‘जानना’। वेद मंत्रों की संहिता के रूप में है। वेद मंत्र किसी की वैयक्तिक रचना नहीं हैं। ऋषियों ने तपस्या या अनुभूति के गहन स्तर पर जिस तत्त्व का साक्षात्कार किया, वही वेदमंत्र हैं। इसलिये इन्हे अपौरुषेय भी कहा जाता है। संहितायें चार हैं –
ऋग्वेद - सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद माना जाता है। इसमें 1028 सूक्त हैं। इसे संसार के पुरातन साहित्य होने का गौरव भी प्राप्त है। यजुर्वेद – यज्ञ के विधानों के मंत्र, सामवेद – मंत्रों का गायन-पद्धति के साथ संकलन, अथर्ववेद – उपर्युक्त तीनों वेदों के मंत्रों के साथ विशिष्ट तान्त्रिक आदि गूढ़ विषयों पर मंत्र। वैदिक मंत्र प्रायः किसी न किसी देवताओं (देव - ज्ञान या प्रकाश को देने वाला) को सम्बोधित किये गये हैं। वेदों में प्रमुख देव इन्द्र, अग्नि, वायु आदि देवता हैं, जिन्हें प्रायः प्राकृतिक शक्तियों के व्यक्तित्व करण के रूप में देख गया है।
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09-01-2013, 09:32 PM | #5 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
“स्वर्ग कामो यजेत्”
अर्थात्, स्वर्ग को चाहने वाला यज्ञ करे।इस प्रकार यज्ञ-याग् आदिक कर्म उत्तम पुण्यों के प्रदाता बतलाए गये हैं जिससे जीवन समृद्ध तथा सुखमय तथा पावन-पुण्य मय होता बतलाया गया है। जीवन में उत्तम पुण्यों को करने पर इन्हीं सुखों के भोग के रूप में स्वर्ग के जीवन की कामना की गयी है। परन्तु स्वर्ग का जीवन केवल तभी तक संभव माना गया जब तक उत्तम पुण्यों का भोग पूरा नहीं हो जाता है, इसके पश्चात पुनः जगत में आगमन की बात की गयी है। तथा इसके विपरीत दुष्कर्मों या पाप के फल के रूप में नर्क की अवधारणा है। दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ – ऋत – ऋत से तात्पर्य है, प्राकृतिक नियम, वैश्विक नियम, नैतिक नियम या सत्य का नियम। जो सत्य या सही है वह जगत की नैतिक व्यवस्था के रूप में है। इस मूलभूत प्रत्यय से ही आगे विश्व के एकत्व की व्याख्या आपादित हुई। अनृत – असत्य या असम्यक् व्यवहार, असत्य वाक् इत्यादि वस्तुतः वैश्विक-नैतिक व्यवस्था के विपरीत या विरूद्ध कोई भी कृत्य अनृत कहा गया है। महत्वपूर्ण नोट - वैदिक धर्म की व्याखा जटिलता को समाहित करती है। यद्यपि यहाँ पर स्वर्ग एवं नर्क की अवधारणा है, तथापि स्वर्ग पद अत्यन्त कम बार ही वेदों में प्रयुक्त दिखाई देता है। ऋग्वेद के अन्तिम भाग में ही यह प्रयुक्त दिखायी देता है। साथ ही नर्क पद ऋग्वेद में प्रयुक्त नहीं है। अथर्ववेद में इसका प्रयोग दिखायी देता है। साथ ही ऋग्वेद के दसवें मण्डल में “नासदीय सूक्त” में सृष्टि के उद्भव का वर्णन आता है। यहाँ कहा गया है कि प्रारम्भ में सृष्टि में कुछ भी नहीं था सत् एवं असत्, अमरत्व एवं, मृत्यु भी नहीं थी। जगत् शून्य के समान था, तब उस समय केवल एक अस्तित्व था जो कि श्वास रहित परन्तु अपने से श्वासित था । यहीं पर उपनिषदिक एक तत्त्व तथा आत्मा की अवधारणा का प्रारम्भिक स्वरूप एवं वर्णन प्राप्त होता है। नासदीय सूक्त को इस वर्णन के परिप्रेक्ष्य से जीवन के प्रथम प्रश्वास का प्रथम लिखित वर्णन भी कहा जा सकता है।
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09-01-2013, 09:33 PM | #6 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
उपनिषत्
उपनिषत् शाब्दिक अर्थ “गुरू के समीप बैठना” अर्थात् किसी(आत्मा, ब्रह्म, संसार आदि) गूढ़ विषय पर चर्चा हेतु गुरू के समीप जाना। प्रमुख उपनिषत् ग्यारह माने गये हैं – ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न, तैत्तरीय, ऐतरेय, वृहदारण्यक, छान्दोग्य तथा श्वेताश्वतर। ‘आत्मन्’ या आत्मा पद भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों(concepts) में से एक है। उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में यह आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता। आत्मा या ब्रह्म के प्रत्यय का उद्भव – उपनिषदों में इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि – जगत का मूल तत्त्व क्या है/कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर में उपनिषदों में ब्रह्म’ से दिया गया है। अर्थात् ब्रह्म ही वह मूलभूत तत्त्व है जिससे यह समस्त जगत का उद्भव हुआ है – “बृहति बृहंति बृह्म” अर्थात् बढ़ा हुआ है, बढ़ता है इसलिये ब्रह्म कहलाता है। यदि समस्त भूत जगत् ब्रह्म की ही सृष्टि है तब तार्किक रूप से हममें भी जो मूल तत्त्व है वह भी ब्रह्म ही होगा। इसीलिये उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा को एक बतलाया गया है। इसी की अनुभूति को आत्मानुभूति या ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है। ‘आत्मा’ शब्द के अभिप्राय – आत्मा शब्द से सर्वप्रथम अभिप्राय ‘श्वास-प्रश्वास’(breathing) तथा ‘मूलभूत-जीवन-तत्त्व’ किया गया प्रतीत होता है। इसका ही आगे बहुआयामी विस्तार हुआ जैसे - यदाप्नोति यदादत्ति यदत्ति यच्चास्य सन्ततो भवम् .... तस्माद् इति आत्मा कीर्त्यते।।(सन्धि विच्छेद कृत) - शांकरभाष्य अर्थात्, जो प्राप्त करता है(देह), जो भोजन करता है, जो कि सतत् (शाश्वत तत्त्व के रूप में) रहता है, इससे वह आत्मा कहलाता है।
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09-01-2013, 09:35 PM | #7 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
उपनिषदों में आत्मा विषयक चर्चा – तैत्तरीय उपनिषत् में आत्मा या चैतन्य के पाँच कोशों की चर्चा की गयी प्रथम अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश। आनन्दमय कोश से ही आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति की गयी है। माण्डूक्य उपनिषत् में चेतना के चार स्तरों का वर्णन प्राप्त होता है –
1. जाग्रत 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुरीय यह तुरीय अवस्था को ही आत्मा के स्वरूप की अवस्था कहा गया है - “शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ स आत्मा स विज्ञेयः”।। माण्डूक्योपनिषत्, 7 छान्दोग्य उपनिषत् इसी सन्दर्भ में इन्द्र एवं विरोचन दोनों प्रजापति के पास जाकर आत्मा(ब्रह्म) के स्वरूप के विषय में प्रश्न करते हैं। यहाँ पर प्रणव या ॐ को इसका प्रतीक या वाचक कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषत् में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद में भी आत्मा के सम्यक् ज्ञान मनन-चिन्तन एवं निधिध्यासन की बात की गयी है तथा इससे ही परमतत्त्व के ज्ञान को भी संभव बतलाया गया है - “आत्मा वा अरे श्रोतव्या मन्तव्या निदिध्यासतव्या.......................”
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11-01-2013, 04:51 PM | #8 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
रामायण की सीख
रामायण के सारे चरित्र अपने धर्म का पालन करते हैं। राम एक आदर्श पुत्र हैं। पिता की आज्ञा उनके लिये सर्वोपरि है। पति के रूप में राम ने सदैव एकपत्नीव्रत का पालन किया। राजा के रूप में प्रजा के हित के लिये स्वयं के हित को हेय समझते हैं। विलक्षण व्यक्तित्व है उनका। वे अत्यन्त वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। सीता का पातिव्रत महान है। सारे वैभव और ऐश्ववर्य को ठुकरा कर वे पति के साथ वन चली गईं। रामायण भातृ-प्रेम का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ बड़े भाई के प्रेम के कारण लक्ष्मण उनके साथ वन चले जाते हैं वहीं भरत अयोध्या की राज गद्दी पर, बड़े भाई का अधिकार होने के कारण, स्वयं न बैठ कर राम की पादुका को प्रतिष्ठित कर देते हैं। कौशल्या एक आदर्श माता हैं। अपने पुत्र राम पर कैकेयी के द्वारा किये गये अन्याय को भुला कर वे कैकेयी के पुत्र भरत पर उतनी ही ममता रखती हैं जितनी कि अपने पुत्र राम पर। हनुमान एक आदर्श भक्त हैं, वे राम की सेवा के लिये अनुचर के समान सदैव तत्पर रहते हैं। शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण को उनकी सेवा के कारण ही प्राणदान प्राप्त होता है। रावण के चरित्र से सीख मिलती है कि अहंकार नाश का कारण होता है। रामायण के चरित्रों से सीख लेकर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
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11-01-2013, 04:54 PM | #9 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
वर्तमान समय में रामायण
वाल्मीकि रामायण - संस्कृत योगवासिष्ठ- संस्कृत अध्यात्म रामायण - संस्कृत आनन्द रामायण - संस्कृत अद्भुत रामायण - संस्कृत रघुवंश- कालिदास भावार्थ रामायण-marathi रामचरितमानस - हिन्दी (अवधी) राधेश्याम रामायण-हिन्दी रामावतारम् या कंबरामायण - तमिल भास्कर रामायण - तेलुगु पउमचरिउ या पद्मचरित (जैनरामायण) - अपभ्रंश विमलसूरि कृत कथा रामायण – असमिया कृत्तिवास रामायण – बांग्ला जगमोहन रामायण – ओड़िया राम बालकिया – गुजराती रामावतार या गोबिन्द रामायण, गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित – पंजाबी रामावतार चरित – कश्मीरी रामचरितम् – मलयालम रंगनाथ रामायण – तेलुगु रघुनाथ रामायणम् – तेलुगु कुमुदेन्दु रामायण – कन्नड तोरवे रामायण – कन्नड रामचन्द्र चरित पुराण - कन्नड बत्तलेश्वर रामायण - कन्नड मन्त्र रामायण- गिरिधर रामायण चम्पू रामायण भास्कर रामायण - तेलुगु भोल्ल रामायण - तेलुगु आर्ष रामायण या आर्प रामायण अनामक जातक - बौद्ध परंपरा दशरथ जातक - बौद्ध परंपरा दशरथ कथानक - बौद्ध परंपरा रामाय़ण - [मैथली] चऩदा झ।
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11-01-2013, 04:55 PM | #10 |
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Re: धर्म,संस्कृति और संस्कार
भारत के बाहर रामायण
नेपाली : भानुभक्तकृत रामायण नेपालभाषा:सिद्धिदास महाजु सुन्दरानन्द रामायण – नेपाली आदर्श राघव – नेपाली कंबोडिया : रामकर तिब्बती रामायण पूर्वी तुर्किस्तान की खोतानीरामायण इंडोनेशिया की ककबिनरामायण जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति),खमैररामायण बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेन
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