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Old 09-02-2013, 09:48 AM   #21
anjaan
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

कर्फ्यू लगने के साथ-ही-साथ एकबारगी बहुत सारी चीजें अपने आप ही हो गईं। मसलन शहर का एक हिस्सा पाकिस्तान बन गया और उसमें रहने वाले पाकिस्तानी। यह हिस्सा जानसनगंज से अटाला और खुल्दाबाद से मुट्ठीगंज के बीच फैला हुआ था। हर साल दो-एक बार ऐसी नौबत जरूर आती थी जब शहर के बाकी हिस्सों के लोग इस हिस्से के लोगों को पाकिस्तानी करार देते थे। पिछले कई सालों से जब कभी शहर में कर्फ्यू लगता तो उसका मतलब सिर्फ इस इलाके में कर्फ्यू से होता। इसके परे जो शहर था वह इन हादसों से एकदम बेखबर अपने में मस्त डूबा रहता। जंक्शन से सिविल लाइंस की तरफ उतरने वालों को यह एहसास भी नहीं हो सकता था कि चौक की तरफ कितना खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ है। कटरा, कीडगंज या सिविल लाइंस के बाजारों में जिंदगी अपनी चहल-पहल से भरपूर रहती और मुट्ठीगंज में लोग दिन के उन चंद घंटों का इंतजार करते जब कर्फ्यू में छूट होती और वे भेड़ों की तरह भड़भड़ाकर सड़कों पर निकलकर नर्क से मुक्ति का अनुभव करते।

इस बार भी यही हुआ। शहर के पाकिस्तानी हिस्से में कर्फ्यू लग गया। कुछ सड़कें ऐसी थीं कि जो हिंदू और मुस्लिम आबादी के बीच से होकर गुजरती थीं। उनके मुस्लिम आबादी वाले हिस्से में कर्फ्यू लग गया और वहाँ जिंदगी पूरी तरह से थम गई जबकि हिंदू आबादी वाले हिस्सों में जिंदगी की रफ्तार कुछ धीमी पड़ गई।
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Old 09-02-2013, 09:49 AM   #22
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

सईदा के लिए यह पहला कर्फ्यू था। पिछले जून में जब कर्फ्यू लगा था तो वह गाँव गई हुई थी। जिस समय कर्फ्यू लगा वह चौक में घंटाघर के पास एक होमियोपैथिक डॉक्टर की दुकान में अपनी दूसरी लड़की को दवा दिलाने गई थी। उसकी बड़ी लड़की घर पर दादी के पास रह गई थी। सईदा पहले ही दिन से अपनी सास की चिरौरी कर रही थी वह उसके साथ-साथ डॉक्टर की दुकान तक चली चले। लेकिन एक बीड़ी का धंधा ऐसा था कि उसमें दो-तीन घंटे की बरबादी से दूसरे जून की रोटी खतरे में पड़ जाती थी और शायद इसलिए भी कि उसके ताबड़तोड़ दो-दो लड़कियाँ हो गई थीं और उसकी सास को उसकी लड़कियों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी, वह आज तक टालमटोल करती रही। उसकी सलाह पर सईदा लड़की को घरेलू दवाएँ देती रही, लेकिन आज जब सबेरे से वह पूरी तरह से पस्त दिखाई देने लगी तब उसने अपनी पड़ोसन सैफुन्निसा को बमुश्किल तमाम इस बात के लिए तैयार किया कि वह उसके साथ-साथ घंटा घर तक चले। बदले में उसने सैफुन्निसा के साथ चूड़ी की दुकान तक चलने का वादा किया जहाँ से सैफुन्निसा चूड़ी खरीदने के लिए काफी दिनों से सोच रही थी।

दवा लेकर वे अभी दुकान के बाहर निकली ही थीं कि कर्फ्यू लग गया।
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Old 09-02-2013, 09:49 AM   #23
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

दरअसल कर्फ्यू लगने की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई लेकिन सैफुन्निसा के अनुभव ने उसे बता दिया कि कर्फ्यू लग गया है। पूरे चौक में अजीब अफरा-तफरी थी। दुकानों के शटर इतनी तेजी से गिर रहे थे कि उनकी सम्मिलित आवाज पूरे माहौल में खौफ का जबरदस्त एहसास तारी कर रही थी। जिस तरह बच्चे कतार में ईंटें खड़ी करके उन्हें एक सिरे से ढकेलते है तो लहरों की तरह ईंटें एक के ऊपर एक गिरती चली जाती हैं, उसी तरह भीड़ के रेले नख्खास की तरफ से घंटा घर की तरफ चले आ रहे थे।
‘‘या खुदा... रहम कर’’ सैफुन्निसा के मुँह से अस्फुट स्वर निकला और उसने झपटकर सईदा की कलाई थाम ली। जब तक अवाक मुँह बाए सईदा कुछ समझती तब तक वह उसे घसीटती हुई बजाजा पर लगभग पच्चीस-तीस गज आगे निकल गई।
‘‘का हुआ बहन?”
‘‘करफू...करफू... या खुदा किसी तरह घर पहुँच जाएँ।’’
एक-एक कदम आगे बढ़ना मुश्किल था। विपरीत दिशा से लहरों की तरह जन-समुदाय फटा पड़ रहा था। दुकानदार बदहवास-से अपना सामान समेट रहे थे। साइकिलें, रिक्शे, इक्के और गाड़ियाँ एक-दूसरे को धकेल कर आगे बढ़ने के चक्कर में इस कदर रेलपेल मचाए हुए थे कि आम दिनों के लिए पर्याप्त चौड़ी सड़क भी किसी पतली गली की तरह हो गई थी।
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Old 09-02-2013, 09:49 AM   #24
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

सैफुन्निसा सईदा को घसीटते हुए किसी तरह फलमंडी तक पहुँच पाई। फलमंडी के मुहाने पर रोज रेला लगाने वाले ठेले नदारद थे। ठेले वाले उन्हें लेकर बड़ी जल्दी में गलियों या घंटाघर की तरफ भागे थे, यह पहली नजर में देखने से ही स्पष्ट हो जाता था क्योंकि चारों तरफ आम, सेब और संतरे बिखरे पड़े थे जिन्हें बदहवास लोग कुचलते हुए भाग रहे थे। सैफुन्निसा की समझ में कुछ नहीं आया तो वह सईदा को लेकर फलमंडी में ही घुस गई और उसे पार करती हुई वह सीधी मीरगंज की भूलभुलैया में भटक गई।
मीरगंज का जिस्म का व्यापार पूरी तरह ठंडा पड़ा था। रंडियों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए थे और रोज झुंड के झुंड मटरगश्ती करने वाले ग्राहकों का कहीं पता नहीं था। दो-दो, चार-चार घरों के बाद ऊपरी मंजिल की खिड़की से झाँकती हुई कोई रंडी, एक आम दृश्य था। इन रंडियों की आँखों में बेचारगी और गुस्सा स्पष्ट दिखाई पड़ता था क्योंकि इन्हें पिछले कई दंगों का अनुभव था। हर बार कर्फ्यू लगने पर धीरे-धीरे वे फाके के करीब पहुँचती जाती थीं और ज्यादातर कोठों पर तो चार-छह दिन बाद से ही माँड़ पीने की नौबत आ जाती थी।
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Old 09-02-2013, 09:49 AM   #25
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

सैफुन्निसा यहाँ के माहौल से पहले भी परिचित हो चुकी थी। दो बार वह अपने शौहर के साथ खरीददारी करने के लिए इन गलियों के पास की दुकानों पर गई थी, और बाहर से झाँककर जितनी दूर देखा जा सकता था उतनी दूर तक इनका जायजा उसने लिया था। सईदा के लिए आज पहला मौका था जब वह इन गलियों को देख रही थी, इसलिए उसे अपराधबोध, सनसनी और शर्म की मिली-जुली अनुभूति हो रही थी। बिना सैफुन्निसा के बताए भी वह जान गई थी कि वह कहाँ आ गई है। सैफुन्निसा उसकी कलाई पकड़े खींचती चली जा रही थी। सन्नाटे और खौफ की वजह से गलियाँ उसे अजीब तरह की रहस्यमयता से भरपूर लग रही थीं। उन्हीं की तरह घबराए हुए इक्का-दुक्का लोग पास से गुजरते हुए इस रंग को ज्यादा गहरा बनाते जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से इन गलियों की भूलभुलैया में भटकते हुए वे गुड़ मंडी के पास वापस जी.टी. रोड पर निकलीं।
उस समय तक जी.टी. रोड काफी हद तक खाली हो गई थी। पुलिस की एक जीप बड़ी तेजी से उनके पास से गुजरी। उसमें बैठा हुआ एक अफसर उत्तेजित स्वर में कर्फ्यू लगाए जाने की घोषणा कर रहा था और लोगों से फौरन अपने-अपने घरों में लौट जाने की अपील कर रहा था।
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Old 09-02-2013, 09:50 AM   #26
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

कर्फ्यू का ऐलान सईदा के लिए एक खौफनाक अनुभव था। अपने बच्चे को छाती से चिपकाए हुए वह पूरी तरह सैफुन्निसा की मर्जी पर खिंची चली जा रही थी। सैफुन्निसा उससे अनुभवी और बहादुर थी इसलिए उसके ऊपर अपने को छोड़कर वह सुरक्षित अनुभव कर रही थी। दरअसल सईदा को इस शहर में आकर रहते हुए सिर्फ चार साल हुए थे और अभी भी इस शहर में वह अपने को पूरी तरह अजनबी महसूस करती थी। उसका घर पुरामुफ्ती के पास था और शादी के चार साल बाद भी उसका मन वहीं के लिए हुड़कता था। उसका शौहर अपने पूरे परिवार के साथ बीड़ी बनाता था और शादी के बाद शुरू के कुछ महीनों को छोड़कर जब वह उसके साथ सिनेमा-बाजार वगैरह जाया करता था, उसे अक्सर सौदा-सुलुफ लेने जाने के लिए साथी की जरूरत पड़ती थी और ऐसे समय सैफुन्निसा ही उसके काम आती थी। सैफुन्निसा का पति जीप फैक्टरी में चपरासी था, इसलिए उसे हर महीने बँधी-बँधाई रकम मिलती थी। वह बीड़ी बनाने का काम करती जरूर थी लेकिन शौकिया, सिर्फ अतिरिक्त आय के लिए। सईदा की स्थिति दूसरी थी। बीड़ी उसके परिवार का एकमात्र जरियामाश थी। उसका पूरा परिवार औसतन रोज चौदह घंटा खटता था तब कहीं जाकर दो जून की रोटी का इंतजाम हो पाता था। शादी के दो-चार महीनों में ही उसने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि उसके और उसके शौहर के लिए सिनेमा देखने या बाजार घूमने से ज्यादा जरूरी था कि घर के दूसरे सदस्यों के साथ अँधेरी सीलन-भरी तंग कोठरी में कमर झुकाए बीड़ी के बंडल बाँधते रहें और बच्चों का कम से कम पेट भर सकने का संतोष लिए रात में सो सकें।
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Old 09-02-2013, 09:50 AM   #27
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

हालाँकि शहर की टेढ़ी-मेढ़ी अपरिचित गलियों में सैफुन्निसा का हाथ थामे गुजरते हुए सईदा को लग रहा था कि यह सफर कभी खत्म नही होगा लेकिन अंत में उसे अपनी गली मिल ही गई। उसकी गली भी वीरान थी, फिर भी इस गली में पहुँचते ही उसे एक किस्म की सुरक्षा का अनुभव होने लगा।

गली के मकान बुरी तरह बंद थे। दरवाजे-खिड़कियाँ सभी पूरी तरह भिंचे हुए थे। ऐसा खौफनाक सन्नाटा और इतना डरावना एकांत सईदा ने आज तक अपनी गली में महसूस नहीं किया था। उसे लगा कि वीरान गली में वह अपना घर भूल जाएगी। उनके गली में पहुँचने के बाद दो-एक खिड़कियाँ हल्के से खड़कीं। ऐसा लगा जैसे किसी ने झाँककर एकदम से खिड़की के पल्ले बंद कर दिए। खिड़कियों के इस तरह खुलने, बंद होने से सईदा का दिल और जोर-जोर से धड़कने लगता। सैफुन्निसा का घर पहले पड़ता था। उससे कुछ और आगे सईदा का घर था।

सैफुन्निसा के हाथ छुड़ाकर अपने घर के अंदर घुसने के बाद उसके और अपने घर के बीच तीस-चालीस घरों के फासले को पार करने में सईदा को कई युग लग गए। अपनी बेटियों को सीने से चिपकाए जब वह अपने घर के सामने नाली डाँकते हुए दरवाजे पर पहुँची तो खौफ उसके सर पर खड़ा था। उसने हल्के से दरवाजे पर दस्तक देनी चाही लेकिन दरवाजे पर हाथ रखते ही उसने पाया कि वह बुरी तरह से दरवाजा पीट रही थी।
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Old 09-02-2013, 09:50 AM   #28
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सबसे पहले अंदर से उसकी सास के खाँसने की आवाज आई। फिर कोई मर्दाने कदमों की आहट आकर दरवाजे पर ठिठक गई। आहट से उसने पहचाना, यह उसका शौहर था। अचानक उसका मन करने लगा कि वह रोने लगे। घर के पास पहुँचते ही कोई अपरिचित-सी भावना थी जो उसे रोने के लिए मजबूर कर रही थी। जैसे ही उसके शौहर ने दरवाजा खोला वह सचमुच रोने लगी। पहले धीरे-धीरे फिर हुड़क-हुड़क। सईदा की सास ने आगे बढ़कर उसकी बेटी को गोद में ले लिया। बेटी सुबह से ज्यादा पस्त नजर आ रही थी। उसके माथे पर हाथ फेरते-फेरते सास भी रोने लगी। पहली बार सईदा को अपनी सास से ममता महसूस हुई और वह और जोर-जोर से रोने लगी।

‘‘... कुछ नहीं हुआ... सब ठीक हो जाएगा... अल्लाह सब ठीक करेगा।’’

सास के कहने पर सईदा को लगा कि सचमुच कुछ नहीं हुआ और सचमुच सब ठीक हो जाएगा। वैसे भी क्या हुआ था उसे कुछ नहीं मालूम था। वह तो भाग-दौड़ और सन्नाटे के खौफ से गुजरती हुई यहाँ तक आ गई थी। रास्ते में सैफुन्निसा के मुँह से उसे सिर्फ इतना पता चला कि कर्फ्यू नाम की कोई चीज लग गई है जिसमें घर से बाहर निकलने की मनाही है। अगले कुछ दिनों में यह बात उसे ज्यादा अच्छी तरह समझ में आ सकी कि घर से बाहर न निकलने का क्या मतलब होता है।
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Old 09-02-2013, 09:51 AM   #29
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कर्फ्यू शुरुआती दौर में तो हर जगह लगा लेकिन जल्दी ही उन हिस्सों से उसका असर कम होने लगा जो पाकिस्तानी नहीं थे। इन हिस्सों में हिंदू रहते थे और हिंदू होने के नाते जाहिर था कि देश से सच्चा प्रेम करने वाले वही थे। इसलिए शुरू में तो लोग जरूर कुछ घंटों के लिए अंदर कैद हुए लेकिन जल्दी ही वे घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ खोल-खोलकर बाहर झाँकने लगे। बच्चों ने माँ-बाप की आँखें बचाईं और चबूतरों पर आकर बैठ गए। बीच-बीच में माँ-बाप कान पकड़कर चीखते-चिल्लाते बच्चों को घर के अंदर पटक देते लेकिन फिर बच्चे छूटकर अंदर से बाहर भाग जाते।

बीच-बीच में दो-दो, चार-चार की तादाद में पुलिस वाले आते और बच्चों को हड़काते हुए चबूतरों पर डंडे पटकते चले जाते। बच्चों की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि वे गलियों में गुल्ली-डंडा से लेकर क्रिकेट तक के तमाम खेल खेलने लगे। कुछ औरतें भी बाहर दरवाजों पर निकलकर बतियाने लगीं। उनकी चिंता का मुख्य विषय था कि बच्चे खेलते हुए गली से बाहर सड़कों पर न चले जाएँ और दफ्तरों, दुकानों या कारखानों में गए उनके मर्द सही-सलामत घर लौट आएँ। ज्यादातर परिवारों के कमाने वाले अभी तक नहीं लौटे थे। कुछ के बच्चे भी स्कूलों में फँस गए थे।
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Old 09-02-2013, 09:51 AM   #30
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Default Re: शहर में कर्फ्यू

जैसे-जैसे देर होती जा रही थी कि औरतों की घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। गली काफी घने मकानों की बस्ती थी लेकिन बस्ती के बीच में एक छोटा-सा जमीन का टुकड़ा खाली पड़ा था। इसे किसी ने बरसों पहले खरीद लिया था। लेकिन अभी तक उस पर कोई निर्माण नहीं किया गया था। बरसों से यह मुहल्ले भर का कूड़ाखाना बना हुआ था और बरसों से मुहल्ले की औरतें सामूहिक संकट या खुशी के क्षणों में वहाँ एकत्र होकर बतियाती चली आ रही थीं। धीरे-धीरे कई औरतें वहीं इकट्ठी हो गईं। जिनके मर्द और बच्चे वापस आ गए थे उन्होंने अपने सभी लोगों को घरों के अंदर कर लिया और खिड़कियों, छज्जों से सारी कार्यवाही देखने लगीं और जिनके परिवार का कोई सदस्य बाहर रह गया था उन्होंने बाहर खुली जगह पर अपने को इकट्ठा कर लिया और बतियाने लगीं। उनकी आवाजों में उत्तेजना और दुःख भरा था।

धीरे-धीरे अँधेरा गली में पसरने लगा था और बाहर लगता था कि कर्फ्यू पूरी सख्ती के साथ लग गया था इसलिए बाहर से गली में आमद बहुत कम हो गई। इक्का-दुक्का मर्दों के अलावा चार-पाँच बच्चे ही अंदर आ पाए थे। इन मर्दों और बच्चों के साथ कुछ औरतें घरों के अंदर चली गईं। आने वाले अपने साथ अफवाहों का पुलिंदा लेकर आए थे। उनके पास तरह-तरह की खबरें थीं। मसलन दसियों हिंदुओं के शव नालियों में पड़े हुए थे या पुलिस ने लाशें कई ट्रकों में लादकर जमुना में बहा दी थीं।
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