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Old 07-03-2013, 11:48 PM   #1
jai_bhardwaj
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Default कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

अंतरजाल से प्राप्त एक और कहानी प्रस्तुत है।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
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Old 07-03-2013, 11:50 PM   #2
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

उस दिन उत्कर्ष ग्रुप हाउसिंग सोसायटी की हवा में खासी गर्मी और उत्तेजना थी। सुबह से ही वसुधा निगम के घर के आस-पास जमावड़ा लगा था। गुस्से में तमतमाई वसुधा निगम ने आज न तो रोज की तरह सलीके से चौड़े बार्डर वाली साड़ी पहनी थी, न ही माथे पर बड़ी-सी गोल बिंदी लगाई हुई थी। आज का उनका लिबास घटित होने वाली घटना के अनुरूप ही था। बदरंग, मुचड़े हुए सूट में दूर से ही उन्हें लगातार बोलते सुना जा सकता था। एक बड़े नाटक के लिए मंच,अभिनेता और दर्शक जुड़ते जा रहे थे।


घटना मंच पर सबसे पहले क्षेत्र का थाना प्रभारी अपने दल-बल समेत मुस्तैदी से आता दिखाई दिया। दो जीपों में सवार कई पुलिसवालों को देखकर उत्कर्ष निवासियों को यकीन हो गया कि अब घटना घटकर ही रहेगी। यह जमावड़ा दो लाईनों में वसुधा के घर के नीचे खड़ा हो गया। थाना प्रभारी गंभीर मुद्रा में डंडाधरियों द्वारा बनाई संकरी-सी गली में अफसराना अंदाज़ में गश्त लगाने लगा। कई लोग वितृष्णा से उसे घूर रहे थे पर सोसायटी के अध्यक्ष राणा साहब और सुरक्षा सचिव रविकुमार उसकी ओर लपके। यों भी दोनों को समय-समय पर उत्कर्ष की सुरक्षा की खातिर उससे मिलना-जुलना पड़ता ही था। कंधे झुकाकर अपनी विनम्र शैली में कर्मठ कार्यकर्त्ता रविकुमार ने कहा-‘‘ देखिए सर अचानक ये क्या हो गया? कोर्ट-कचहरी के चक्कर बड़े बुरे होते हैं। आपस की लड़ाई तो सुलझाई जा सकती है पर ये ... । ''. ‘‘अचानक कहां जी, हमने तो पहले ही चेता दिया था आप लोगों को कि बुड्ढे को मनाकर केस रफा-दफा करवाओ’’ थाना प्रभारी, रविकुमार की बात काटते हुए बोला। ‘‘ वो जो है कि आपके चेताने पर हम दो दफे उससे विनती कर आए पर बूढ़ा तो टस से मस होने को तैयार नहीं। न उसे माफी चाहिए, न पैसा और न ही कुछ और बस इंसाफ की रट लगा रहा है।’’ मिस्टर राणा ने जवाब दिया। ‘‘अब हो तो रही है न उसकी मनचाही। कबर में लेटा पड़ा है पर इंसाफ चाहिए। अच्छी-भली मैडम की आफत कर दी घर बैठे।’’


थाना प्रभारी की बातों को ध्यान से सुनने वाले रविकुमार का सारा ध्यान ‘अच्छी-भली मैडम’ पर टिक गया। यों वसुधा बुरी औरत नहीं थी । रसूख वाली सुघड़ सम्पन्न महिला थी फिर अपना काम करवाने के एवज में थाना प्रभारी का पूरा ध्यान भी उसने रखा था। उसके दिए बीस हजार तो कबके खर्च हो गए थे पर रुपयों का असर बेअसर नहीं हुआ था यह रविकुमार ने समझ लिया था। ‘अच्छी-भली मैडम’ वाला भाव वसुधा के लिए आज सभी के मन में था। भूतल पर रहने वाले उस बूढ़े को छोड़कर किसी से उसका कोई खास बैर-विरोध नहीं था। उत्कर्ष के बसने के दिनों से ही वह यहां रह रही थी । बच्चे विदेश में पढ़ रहे थे, पति दिल्ली से बाहर कहीं बड़े सरकारी अफसर थे । घर संभालने के साथ-साथ वसुधा खाली समय में उत्कर्ष के कामों में भी सहयोग देती थी। फिर कमलवादी राणा साहब और कर्मठ कार्यकर्त्ता रविकुमार की पार्टी समर्थक होने के नाते उत्कर्ष की एक्जीक्यूटिव में उसे सम्मानपूर्वक जगह दी गई थी। और कुछ दिन से तो‘अच्छी-भली मैडम’ वाली उसकी छवि को सहानुभूति की लहर ने और अधिक चमका दिया था। और तो और हमेशा राणा साहब के प्रतिपक्ष में खड़ी विरोधी राजनीतिक दल की हाथवादी मैडम भी इस बार उसके घर अपना दुख प्रकट करने अवश्य पहुंचीं थीं।


देखते-देखते निर्धारित समय आ पहुंचा जिसका भान विकास प्राधिकरण की टीम--हथौड़े-फावड़े और तसले लिए वसुधा के घर के अवैध निर्माण वाले हिस्से को ढहाने आ पहुंचे छः-सात मजदूरों से हुआ। मलबा उठाने वाली गाड़ी की तेज गड़गड़ाहट ने घरों के भीतर घटना के घटित होने का इंतजार कर रहे बाकी बचे हुए लोगों को भी सचेत कर दिया। कुछ लोग वसुधा के घर के सामने वाले पार्क में इक्कट्ठे हो गए तो कुछ अपनी छतों पर चढ़ गए। बहुत से लोग अति नैतिकता से ग्रसित होकर अपनी खिड़कियों के पर्दे हटाकर भरपूर तमाशा देखने लगे। मंच पर सभी किरदार अपनी प्रस्तुति के लिए तैयार खड़े थे, तमाशबीन सूत्रधर के लंबे वक्तव्य और पात्रों के संवादों से अधिक हथौड़ों की दनदनाती गति का दृश्य देखने ,उसकी ध्वनि सुनने को लालायित थे। विकास प्राधिकरण के स्थानीय जूनियर इंजीनियर और अफसर जिनकी स्वीकृति से कभी वसुधा के घर का विकास संभव हुआ था आज विनाश के भागीदार और नेतृत्वकर्त्ता की भूमिका में थे।
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Old 07-03-2013, 11:52 PM   #3
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

एक निस्पृह भाव से मजदूर हथौड़े चलाने लगे। कुछ समय बीता मलबा नीचे गिरने लगा और साथ ही लोगों की उत्कंठा का पारा भी। ‘‘आखिर कोर्ट के आदेश थे भई, कौन हुकुमउदूली कर सकता है?’’--जैसे जुमले हवा में तैरने लगे। वसुधा अब मलबे की मालकिन थी। वहां जुटे अफसरों को वह बार बार अपने साथ हुए अन्याय के प्रमाण दे रही थी ‘‘ देखिए सर क्या यहां सिर्फ अकेली ऐसी मैं ही हूं जिसने एक एक्स्ट्रा कमरा और बाल्कनी निकाली है? वो देखिए सुखचैन कौर का घर,वो शर्माजी का ,लिडविन का फिर मल्होत्रा और खुराना के घर तो चारों ओर से जमीन घेर रहे हैं। जब इन सभी के घर आज की तारीख में सुरक्षित खड़े हैं तो मेरा घर ही क्यों?’’


‘‘अजी मैडम आपके भाग में ये औंधी खोपड़ी का बुढ्ढा लिखा था इसीका किया कराया है सबकुछ। नहीं तो हमने तो आपको मकान अपनी मर्जी का बनवाने की मंजूरी दे ही दी थी।’’विकास प्राधिकरण का स्थानीय जूनियर इंजीनियर अपनी भलमनसाहत दिखाते हुए बोला। आखिर बीस हजार में उसका हिस्सा भी शामिल था। वसुधा के पड़ोसी गिरिराज और सुशीला उसकी बात सुनकर एक-दूसरे की ओर आंखें फाड़कर देखने लगे जैसे सवाल कर रहे हों ‘‘हमें भी तो कुछ ऐसी ही मंजूरी इन लोगों ने दिलाई है भारी-भरकम ‘फीस’ ऐंठकर। पर वो कौन सी लिखित मंजूरी है? सब कुछ जबानी ही तो है। कहीं किसी दिन हमारे साथ भी...’’


वसुधा के घर का काम पूरा हुआ। मजदूरों ने अवैध हिस्से को पूरी तौर पर ढहाया तो नहीं पर उसकी शक्ल इस कदर बिगाड़ दी कि अब उसे पुरानी शक्ल सूरत में लौटाना लाज़मी लगने लगा। पुलिस अफसर ने चलते-चलते वसुधा से कहा ‘‘ मैडम मलबा उठवा देना नहीं तो चालान कट जाएगा और हां, मकान को जल्दी सुधरवा लो जी आप। कोर्ट में फोटो भेजनी होगी कि मकान पुरानी, सुथरी हालत में आ गया है ... निर्देशानुसार।’’ सबके चले जाने के बाद भी वसुधा अपनी जगह से हिली नहीं। जो लोग उसे शर्मिंदा होते देखना चाह रहे थे उन्हें मुंह की खानी पड़ रही थी। इस घटना ने कुछ लोगों की ईमानदारी को चमका दिया था। दरअसल जो लेाग अभी तक किसी पशोपेश, कंजूसी, अतिव्यस्तता के चलते किसी प्रकार का कोई अवैध निर्माण नहीं कर सके थे, जिन्हें लगातार मकान के बारे में सोचने की राय दी जाती थी जिसे वे शर्मिंदगी के एहसास तले सुनकर एक फीकी हंसी हंस दिया करते थे आज वे लोग शर्म की जंजीरें तोड़ खुलकर हंसना चाह रहे थे। पर समाज की रीति-नीतियों ने बांध रखा था। ‘‘ठीक ही हुआ न! कोई छेड़छाड़ नहीं की अपने घर के साथ । हमारे पास कहां है इतना पैसा कि पहले मकान बनवाओ फिर तुड़वाओ और फिर बनवाओ।’’ झिझक के खोल से बाहर निकलकर कुछ लोग वसुधा के पति की ऊपरी कमाई को निशाना बना रहे थे ‘‘अजी मुफ्त का पैसा था। नहीं तो एक आदमी की कमाई में ऐसे ठाठ-बाट कहीं देखने को मिलते हैं क्या? कभी गौर किया है आपने दिवाली पर कितने लोग गिफ्ट दे जाते हैं, हम तो दो जने कमाते हैं फिर भी हमें तो आज तक नहीं मिले इतने गिफ्ट्स। याद है जिस साल इसकी सास गुजरी थी तब भी इसने लोगों के गिफ्ट्स से अपना घर भर लिया था। च..च.. च़. . .’’ आज ऐसी बातों से लोग अपने मन का गुबार निकाल रहे थे।


इससे पहले कि वसुधा के कान में इस तरह की और बातें पहुंचतीं और उसकी उत्तेजना को बढ़ातीं, राणा साहब और रविकुमार उसे सोसायटी के आफिस की ओर ले गए। गार्ड से चाय मंगाकर राणा साहब ने सहानुभूति जताते हुए दार्शनिक अंदाज में वसुधा को समझाने की कोशिश की ‘‘बेट्टा यही जीवन है। कभी हंसना है तो कभी रोना। ये उतार-चढ़ाव ही जीवन का नियम है। दुख क्या हमें कम है? ’’ इस सिद्धं।त की लंबी अनुभववादी व्याख्या करने का मन बना चुके राणा साहब को गहरा झटका वसुधा की दृढ़ता से भेदती चली जाने वाली आंखों से लगा। मानो वे आंखें कह रही थीं ‘‘ ये हथौड़े तुम्हारे घर पर चले होते न तब देखती कितनी तत्त्व मीमांसा कर पाते।’’अंदर तक हिल गए राणा साहब की स्थिति भांपकर रविकुमार ने बातों का सिरा पकड़ा ‘‘ आप तो जानते हो कि हम कितनी बार उस बुढ्ढे को समझाने गए थे। ऐसी मनहूसियत फैली पड़ी है उसके घर में । जहां देखो दवाईयां या डॉक्टर के लिखे पर्चे। बरसों से घर में सपफेदी नहीं हुई। कोई हो तो कराए न। औरत गुजर गई। बेटी-दामाद पास में हैं नहीं। अकेला रहता है, जिंदगी का ठिकाना नहीं । न सही रिश्तेदार कम से कम पड़ोसियों से तो बनाकर रखो पर नहीं साहब उसे तो इंसाफ चाहिए । दुखी न होओ जी आप। हम तो आपके ही साथ हैं।’’ काफी देर से ऐसी बातों को सुनकर उकता चुकी वसुधा यह कहकर उठी-‘‘ दुखी नहीं हूं गुस्से में हूं मैं। मैं ऐसी अकेली नहीं फिर क्यों मेरे ही साथ होना था यह सब?’’ बहरहाल उस दिन के घटनाक्रम का जिम्मेदार उस बुढ्ढे को मानकर सबने सर्वसम्मति से उसके सामाजिक बहिष्कार का निर्णय ले डाला। उस बूढ़े का बहिष्कार जो न कहीं आता-जाता था , न किसी से बोलता-बतियाता और कितने तो जानते तक नहीं थे कि वो दिखता कैसा है।
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Old 07-03-2013, 11:53 PM   #4
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

घटना के अगले दिन से ही लोगों ने वसुधा के स्वभाव में विचित्र अंतर महसूस किया। शर्मिंदा तो वो पहले ही नहीं थी लेकिन अवैध निर्माण के मलबे को उसने नहीं उठवाया। भले ही उसे परेशानी हो रही थी पर वो चाह रही थी कि सभी इस परेशानी से गुजरें। रोज की तरह सुबह की सैर भी कर रही थी। राह चलते लोग जैसे ही उससे सहानुभूति व्यक्त करते तो बुलंद स्वर में कहती ‘‘ पूरे शहर का नक्शा देख लो, विकास प्राधिकरण के सभी मकान कभी के कोठियों में बदल गए हैं। मूल ढांचा कहां रहा अब। ग्राउंड फ्लोर पर कमरे ही नहीं जमीन से पिलर उठाकर ऊपर की तीन मंजिलों पर कमरे ,बाल्कनी, मंदिर, गैस्ट रूम, बड़े बाथरूम,स्टोर और न जाने किन-किन सहूलियतों को लोगों ने जुटा लिया है। जैसे-जैसे परिवार बढ़ते गए फ्लैट छोटे पड़ते गए। जमीन खरीदने की हैसियत किसी की थी नहीं, क्या करते? इतना पैसा तो था ही न कि अपने मकान में फेर-बदल करा लें। पर अब अगर शुरुआत हो ही रही है इसे रोकने की तो ये कदम समानता और सख्ती से उठाया जाना चाहिए। मैं तो चाहती हूं कि पूरे शहर में ये कार्यवाही होनी चाहिए।’’कमलवादी राणा साहब और हाथवादी मैडम दोनों ने ही भांप लिया था कि अब ये औरत चुप नहीं बैठेगी कुछ करेगी जरूर। यूं भी खतरा सूंघने में दोनों माहिर थे, दूसरे दोनों ही समानता बोध से जागृत वसुधा के निशाने पर थे। दोनों ने अपने तीन कमरों को हाल ही में चार आलीशान कमरों में बदला था।


अचानक एक दिन उत्कर्ष के आफिस के बाहर काफी लोग चिंतित खड़े दिखाई दिए। टॉप फ्लोर वाले पाहवा साहब, ग्राउंड की मिसेज भंडारी, दूसरी मंजिल पर रहने वाले वकील साहब और पहली मंजिल वाला मनोज। इनके अलावा कई लोग अंदर भी जमा थे। एक अजीब सी मुर्दनी उनके चेहरों पर चस्पां थी। कहीं-कहीं ये मुर्दनी मायूसी और रोष की शक्ल में उबल रही थी, ‘‘लो अब तो जी शुरुआत हो गयी है। यहां इन बिन बुलाए झमेलों से कोई नहीं बचेगा। आज हम हैं तो कल आपका नंबर लगेगा। अच्छा सिला मिला है पड़ोसी होने का। तुरंत बुलाओ राणा साहब और सारी टीम को। यहां कुर्सियों की भी कमी है। अरे कुछ कुर्सियां तो लगवाओ।’’


‘‘क्या, क्या, क्या पाहवा साहब ऐसी मुसीबत में आपको कुर्सियों की पड़ी है? अजी पैरों तले जमीन खिसक रही है कि नहीं।’’ शब्दों को तीन बार तेजी से तिहराने वाले शर्मा जी बदहवास से बोले। लोगों ने उत्कर्ष की कार्यकारी परिषद् के पंद्रह लोगों में से नौ-दस को आते देखा। परेशानी से तंग आए लोगों के जख्मों पर सहानुभूति का फाया रखकर वोट बटोरने में माहिर हाथवादी मैडम भी तेज कदमों से आफिस की ओर लपकी चली आ रही थी। भारी भरकम शरीर के होने के वावजूद आज विपक्षियों को नीचा दिखाने का सुनहरी मौका मिलते ही उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। आफिस के अंदर न जाकर बाहर से ही अपनी तेज और फटी आवाज में उन्होंने राणा साहब को आड़े हाथों लिया ‘‘ अरे ये ही तो लाया था न उसे एक्जी़क्यूटिव में ... कैसे-कैसे लोग भर रक्खे हैं यहां पर ...पीठ में छुरा भोंकने वाले। देखा न आप सबने।’’


‘‘ मेरा नरम निवेदन है कि शांति रखो मैडम , हमने थोड़े ही कहा था उसे कि केस कर दे यहां के लेागों पर। और हम तो खुद केस के शिकंजे में फंसे पड़े हैं। हमारे जैसे एक सौ पच्चीस लोग और हैं। प्रोब्लम सबकी साझी है। एक-दूसरे से लड़ने से काम नहीं चलेगा। मिलकर सोल्यूशन ढूंढो। फिर ये तो समाज का काम है ओैर मैं तो इसीलिए बैट्ठा हूं।’’ राणा साहब ने बिना किसी दबाव में आए साफ शब्दों में कहा । उनके साझी प्रॉब्लम को जोर देकर बोलने का तुरंत असर भीड़ पर हुआ। सभी राणा साहब की ओर मुखातिब हुए। मामला गंभीर था। विकास प्राधिकरण के एन्फोर्समेंट विभाग से उत्कर्ष के एक सौ पच्चीस घरों के बाहर नोटिस चिपकाए गए थे। इनमें घरों के नंबर के साथ किए गए अवैध कब्जे का विवरण था और सभी को एक निश्चित तारीख ,समय पर विकास प्राधिकरण बुलवाया गया था। नोटिस के अंत में राहत के दो शब्दों के साथ स्पष्ट शब्दों में तगड़ी- सी धमकी भी थी। उसमें अवैध कब्जे को वैध बनाए जाने के प्रावधान की संक्षिप्त टिप्पणी सहित निश्चित समय के बाद ऐसे घरों को तोड़ने की धमकी शामिल थी। राणा साहब ने सबको सूचित किया कि वसुधा ने ही उत्कर्ष में बने अवैध कब्जे वाले मकानों की एक सूची तैयार करके केस दायर किया है । इस सबके पीछे सिर्फ एक ही मकसद है कि मेरा घर टूटा है तो इस तरह के सबके घर तोड़े जाएं।


आज उत्कर्ष गु्रप हाउसिंग सोसायटी के मनहूसियत से भरे माहौल में सभी वसुधा निगम को कोस रहे थे। यह दिन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि वसुधा निगम पर केस करने वाला वह बूढ़ा आदमी आज तमाम दोषों से बरी हो गया था। हाथवादी मैडम के घर अवैध कब्जे के बावजूद कोई नोटिस नहीं आया था । इससे जुड़े अपार संतोष या लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति दिखाते हुए वह कहे चली जा रहीं थीं ‘‘ कभी भला नहीं हो सकता ऐसी औरत का जो सबको फंसाकर चैन से घर बैठी है। अरे जब मकान बनवा रही थी तो क्या हमने कोई विरोध किया था इसका । पहले बुजुर्ग आदमी पर इल्जाम लगा रही थी और अब देखो हम सबके पीछे पड़ गई।’’ हाथवादी मैडम ने बुढ्ढे को बुजुर्ग कहकर सार्वजनिक रूप से उसे क्लीन चिट दिलवा डाली थी। वह भी उस बूढे़ को जो इस प्रकरण में पहले भी निर्लिप्त था और आज भी निर्लिप्त था। कमलवादी राणा साहब को बात तो सही लग रही थी पर एक कांटा उनके मन को भेदता जा रहा था कि आखिर हाथवादी मैडम ने किस तरह अपने घर का नोटिस दबवाया होगा । अपने घर आए नोटिस से ज्यादा दुख उन्हें हाथवादी मैडम के घर नेाटिस न आने का था। उन्हें यह एहसास होने लगा जैसे इतने साल पार्टी सेवा करके उन्होंने घास ही खोदी और कंकड़ बटोरे और इन मैडम की पौ बारह रही। आज लोगों ने इसकी ताकत और मेरी कमजोरी का अनुमान भी लगा ही लिया होगा-यह पीड़ा उन्हें कष्ट पहुंचा रही थी। फिर भी खुद को संभालकर भीड़ पर अपना रुतबा बनाए रखते हुए वे बोले -‘‘साथ्थियों,मैडम ठीक कह रही हैं आज। ये औरत वसुधा बहुत सयानी है। हमारी बद्दुआएं सर्वनाश करेंगी इसका। आज समझ पा रहा हूं मैं उस बूढ़े आदमी की तकलीफ। वो बेचारा अकेला कुछ कर नहीं सकता था इसका फायदा उठाकर इसीने उसे सताया। कैसे भलेपन का मुखौटा लगाए फिरती थी अब कहीं की नहीं रही।’’ मैडम पर कोई भंडास न निकाल पाए राणा साहब का सारा गुस्सा वसुधा पर निकल रहा था। ‘‘ च च च छोड़ो, छोड़ो, छोड़ो अब सोचो कि बचने का रास्ता क्या होगा। भला कैसे हमारे घर तोड़ देंगे ? क्यों? क्यों? क्यों?’’ शर्मा जी ने अपने विशिष्ट अंदाज में टिप्पणी करके लोगों का ध्यान खींचा। कमाल की बात थी कि आज उनके तिहराने पर न ही किसी को खीज उठी न ही हंसी आई। लोगों ने शायद पहली बार उन्हें संजीदगी से लिया। तमाम तरह की बातों के बाद आम राय यही बनी कि मैडम और राणा जी पार्टी स्तर पर इसके बचाव का रास्ता निकालें। एम .पी., निगम पार्षद, प्रदेश अध्यक्ष जिसकी पहुंच से काम हो सके करवाया जाए। आनन-फानन में एक टीम बनाई गई जिसमें राणा साहब , मैडम, कर्मठ कार्यकर्त्ता रविकुमार और उत्कर्ष के वो लोग शामिल थे जिनकी पहुंच ऊपर तक थी। सभा विसर्जन से पहले सारे माहौल को अपनी ओर आकर्षित करने की मुद्रा में रहने वाली मैडम चुपचाप न जा सकीं ‘‘ साथियो, आज मैं यहां अपने भाई ;अध्यक्ष, राणा साहब से हाथ मिलाने खड़ी हुई हूं। हर बार की तरह आप ये न समझें कि ये हाथ और कमल की कोई सैद्धांतिक लड़ाई है। जब आसपास आग लगी हो तो हथेली पर कमल खिलाना ही पड़ता है। इस प्रयास से यदि हम बच सकें तो क्या बुराई है?’’ मातमी माहौल को नयी शक्ति से संचालित करने वाली मैडम ने आखिर तालियां पिटवाकर ही दम लिया।
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अब तो उत्कर्ष के लोगों की चर्चा का विषय नोटिस केंद्रित हो गया था। जहां से गुजरो एक ही बात। यहां तक कि बच्चे भी खेलते हुए दोस्तों से अपनी चिंता जाहिर करते ‘‘विकास वाले मेरा कमरा ले जाएंगे या विकास वाले मेरे खिलौने ले जाएंगें। मेरा कम्प्यूटर ले जांएंगे’’ इधर शाम होते ही अक्सर वीरान रहने वाला उत्कर्ष का आफिस अब गूंजने लगा। सैंकड़ों लोग और सैंकड़ों तरह की चर्चाएं। तकरीबन सप्ताह भर बाद पचास और घरों पर भी नोटिस चिपकाए गए। रोज-रोज समस्या का समाधान खोजने वाले सभी लोग एक साथ विकास प्राधिकरण भी गए जहां उन्हें कोई राहत नहीं मिली। इतने सारे लोगों को परेशानी में घिरा देखकर विकास प्राधिकरण अधिकारियो की बांछे खिल गईं। पहले अवैध कब्जे की मलाई वे खा चुके थे अब ईश्वर की कृपा से उसी कब्जे को वैध कराने की मोटी मलाई की कल्पना से उनकी लार टपकने लगी। अति चतुराई बरतते हुए उन्होंने अवैध कब्जे को तुरंत तुड़वा डालने का आदेश जारी किया। अपनी बात को विश्वसनीय रंगत देने के लिए पिछले सालों में ऐसे वाकयों की नजीरें भी उन्होंने पेश कीं। धमकी से लाचार और पस्त हुए लोग जब याचक की स्थिति में पहुंच गए तब अधिकारियों ने अपना दांव खेला ‘‘ देखिए मामला कोर्ट में है इसलिए हमारे हाथ बंधे हैं। सबको राहत मिलना तो जरा मुश्किल बात है पर हां जिन लोगों ने कब्जे अपनी जगह में ही किए हैं,उनके लिए कुछ सोचा जा सकता है। पर दिक्कत ये है कि इतने कम समय में इतना बड़ा काम करवाना है तो ...।’’राणा साहब ने अधूरी बात का अभिप्राय तुरंत समझते हुए बात पूरी कर दी ‘‘ खर्चे की चिंता नहीं है आप तो जी बस काम करा दो वो भी एकदम पक्का।’’ अधिकारियों का मंतव्य पूरा हो गया तो उन्होंने आनन-फानन में फोन मिलाए और उत्कर्ष के लोगों को एक-आध फोन नम्बर दिए जिनके जरिए अवैध रूप से अवैध हिस्से को पूरी तरह वैध करवाया जा सकता था।


राहत की कुछ सांसे बटोर कर उत्कर्ष की टीम अभी लौटी ही थी कि एक नयी मुसीबत उठ खड़ी हुई । आफिस के बाहर शोर मचा हुआ था- ‘‘ कोई किसी का नहीं है भैया,यहां । सब चालबाजियां हैं। वकील करने के लिए सबसे जो सौ-सौ रुपये लेकर दस हजार रुपये लिए हैं न इन लोगों का दिखावा है,और कुछ नहीं । मैं कहती हूं वापस ले लो सब। कुछ होने वाला नहीं इनसे। मैडम को नेाटिस आया नहीं, न आएगा और राणा जी का कमरा तो हद के भीतर बना है तो उनका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। फिर हम जैसों को कौन बचाएगा?’’ मिसेज भंडारी जोर-जोर से चिल्ला रही थीं । विकास प्राधिकरण अधिकारी वाली सूचना उन्हें पहले ही मिल चुकी थी इसीलिए टीम की अगवानी करने वे सबसे पहले पहुंच गई थीं और अब तक गुटबाजी करने में उन्हें अच्छी-खासी सफलता मिल चुकी थी। अपने जैसे और लोगों को नये सिरे से संगठित करने की यह उनकी जोरदार पहल थी। खतरे की शुरुआत से लेकर अब तक उत्कर्ष में कई बार, कई तरह के समीकरण बने, बदले थे। आज फिर एक नया समीकरण बना। राणा जी कई दिनों बाद उम्मीद की चंद घड़िया बटोर ही पाए थे कि यह कांड घटित हो गया। उस पर मुसीबत ये कि अब कर्मठ कार्यकर्त्ता रविकुमार भी मुंह फुलाए थे। रविकुमार का यह कर्मठ विशेषण कब्जे के संदर्भ में भी फिट बैठा। अपने घर से बाहर की घेरेबंदी, फुटपाथ पर की गई कब्जेदारी में भी उनकी यही कर्मठता दिखाई देती थी। विकास प्राधिकरण के अधिकारियों द्वारा उन्हें किसी भी तरह की कोई राहत न मिलने से, साथ मिलकर संघर्ष करने की कर्मठ भावना से उनका विश्वास डगमगाने लगा। फिर अब राणा साहब के सहयोग की उम्मीद भी कम थी। अवैध को वैध कराने का राज जान चुके राणा साहब बेहतर स्थिति में थे इसलिए आज पहली बार रविकुमार के मन में राणा साहब के प्रति कोई आदर भाव नहीं जाग रहा था। राणा जी की जगह आज एक चालाक और कांइयां बुढ्ढे को उनकी आंखों ने अपने सामने पाया।


उत्कर्ष में अब नये सिरे से कोशिशें जारी थीं। कमलवादी राणा साहब अपने जैसों की जान बचाने की कार्यवाही में जुटे थे और मन मारकर भी हाथवादी मैडम की राय पर काम कर रहे थे। अवैध कब्जे वाला बहुसंख्यक वर्ग कमल की नयी उपशाखा के कर्मठ कार्यकत्र्ता रविकुमार के साथ मिलकर अपनी लड़ाई लड़ रहा था। मैडम के रसूख का फायदा उठाने की कवायद यहां भी जारी थी। मैडम की तो चांदी ही चांदी थी। समस्या का समाधान उनके पास हो न हो लोगों के मन में यह भाव बना रहे यही उनके लिए काफी था, दूसरे अब अगले साल सोसायटी के अध्यक्ष पद की कुर्सी की एकमात्र दावेदार होना उन्हें रोमांचित कर रहा था। उत्कर्ष के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वर्ग मैडम के नेतृत्व में कभी पार्षद, कभी प्रदेश अध्यक्ष ,कभी विकास प्राध्किरण मंत्रालय के चक्कर काटने लगे। समस्या से जुड़े सरकारी महकमों की पेट-पूजा का इंतजाम भी चल रहा था जिसे रिश्वत न कहकर सभ्य भाषा में ‘फीस’ कहा जाने लगा। लेकिन कभी साथ मिलकर चलने वाले उत्कर्ष निवासी आज एक-दूसरे के प्रति नफरत से भरकर चुपचाप नयी साजिशों को अंजाम दे रहे थे। इस झंझट से पूरी तरह बचे हुए लोगों के भी दो धड़े हो गए । एक जो जग का मुजरा देख रहे थे और दूसरे सूचना के अधिकार के तहत छद्म नामों से यह सूचना निकलवाना चाह रहे थे कि ‘‘ अवैध कब्जा होने के बावजूद फलां आदमी को अब तक नोटिस क्यों नहीं पहुंचा?’’


उत्कर्ष के हर मोड़ पर आए दिन खुसुर-पुसुर करने वाले गुटों की संख्या बढ़ने लगी। रोज ही खबर मिलती कि आज फलां गुट ने इस मामले को दबवाने का तीर मारा है। बात परवान भी न चढ़ती कि अगले ही दिन नया तीरंदाज पैदा हो जाता। इस उठापटक में अचानक एक दिन आत्मविश्वासी और धाकड़ मैडम ने मिस्टर राणा से उत्कर्ष की आपात्कालीन बैठक बुलवाने की गुजारिश की। ‘‘अब ये क्या नयी चाल है मैडम की? हमेशा बस खुराफात ही सूझती है उनको।’’अविश्वास से भरा, बुरा- सा मुंह बनाकर राणा साहब ने रविकुमार से कहा। चूंकि रविकुमार मैडम का ये पैगाम लेकर आया था इसलिए राणा साहब पर आए तमाम गुस्से को धैर्य से पीकर उनसे अनुरोध करने लगा ,‘‘ अरे एक दफा उनकी सुन लेने में हर्ज ही क्या है राणा साहब ...और फिर मैडम इतनी बुरी भी नहीं।’’
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Old 07-03-2013, 11:56 PM   #6
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

‘‘ठीक कहा बिल्कुल। ये बात तुम नहीं कहोगे तो और कौन कहेगा? तुमने तो सब ...’’
‘‘राणा साहब अब क्या फायदा है गड़े मुर्दे उखाड़ने का? जब कश्ती डूब रही है और हम सब सवार हैं तो मदद सबको करनी होगी एक-दूसरे की।’’ रविकुमार को आंखें तरेरकर देखते हुए अनिच्छा से स्वीकार की मुद्रा में राणा साहब ने कंधे उचका दिए, जैसे कह रहे हों बुला लो मीटिंग मुझे क्या?’’


मीटिंग से पहले राणा साहब ने जो-जो कयास लगाए थे , मीटिंग के दौरान उन पर खाक पड़ गई। इस बार मैडम बड़ी दूर की कौड़ी लाईं थी। आठ-दस लोगों की उपस्थिति में मैडम ने बड़ी ही चतुराई से अपनी बात रखी। ‘‘देख भई राणा,ये तो मानना पड़ेगा कि हमारे लोगों पर मुसीबत आई है। एक तरफ घरों में तोड़-फोड़ की चिंता फिर मामला सुल्टवाने में रुपये-पैसे की चिंता। वकील के कागजों का खर्चा ही दस हजार है फीस तो अलग होगी और ये खर्चा तो बढ़ता जाएगा। उस पर विकास प्राधिकरण का लेन-देन अलग। उनकी बात तो हर हाल में रखनी होगी ,चाहे अवैध् कब्जे पक्के कराने हों या नोटिस दबवाने हों।’’
‘‘ ये तो मैं भी जानता हूं मैडम, पर आगे क्या?’’


‘‘आगे की बात ये कि अब पैसा इक्ट्ठा करना होगा लोगों से।घूस तो देनी तय है और फिर वसुधा को भी साथ मिलाना पड़ेगा।’’


‘‘वो क्यों?’’


‘‘ इसलिए कि वो केस वापस ले ले।’’ तीन-चार लोगों को पहले से तैयार करके लाए रविकुमार ने मैडम के इस प्रस्ताव पर हामी भरवाकर कहा ‘‘उनका नुकसान भी हम मिलजुलकर उठा लेंगे।’’ थूककर चाटने वाली बात सुनकर राणा साहब बोले ‘‘पर इतना पैसा आएगा कहां से?’’ बात का सिरा संभालते हुए रविकुमार ने तुरंत कहा ‘‘अजी सब देंगे। बात केवल नोटिस वाले घरों की ही तो नहीं है। देर-सवेर सभी को मकान बढ़वाने हैं और सुविधा चाहिए तो मोल भी चुकाना होगा।’’


‘‘चलो मान लें लोग तैयार भी हो गए तब भी तो पैसा पूरा नहीं पड़ेगा न?’’ राणा साहब का तीर कमान से छूटा।


मैडम तैयार ही थी तपाक से बोलीं ‘‘ हमने सब सोच रखा है। अब तक बहुत की समाज सेवा। अब फ्री-पफंड में काम नहीं होगा। इतनी बड़ी सोसायटी में काम करने वाले धोबी, कबाड़ी, बिजली वाले और सभी को यहां घुसने के लिए कमीशन देना होगा। जो ज्यादा रकम चुकाएगा वही एंट्री पाएगा।’’ अर्से से इन चीजों को रोकने वाले राणा साहब समझ गए कि अब विरोध व्यर्थ है। मैडम ने समाधन की आड़ में दो-दो काज निबटवा लिए। आदर्श के आसन से गिरते ही उन्हें भी इस कमीशन में मैडम के साथ अपने कमीशन की चिंता सताने लगी। वे हिसाब जोड़ ही रहे थे कि पैसा इक्ट्ठा करने का जोरदार रास्ता सुझाती मैडम की आवाज उनके कानों में पड़ी,‘‘और फिर इतनी लंबी- चौड़ी बाउंड्री वॉल किस दिन काम आएगी? कई प्रापर्टी डीलर, पार्लर वाले, ट्यूशन वाले इस पर नजर गड़ाए हैं। हमें तो बस बोर्ड लटकाने की परमीशन देनी है और दोनों गेटों पर लगने वाले विज्ञापनों के तो दस-दस हजार अभी से ही खरे हैं।’’


इतने वर्षों से उत्कर्ष ग्रुप हाउसिंग सोसायटी की परेशानियां भीतर से सुलझायी जाती थीं अब बाहर वालों के लिए रास्ते खोलने का पक्का इंतजाम किया जा रहा था। कमीशन की आड़ में क्या-क्या खेल होने वाले थे-इसका थोड़ा-बहुत अनुमान सबको था। फूल वाली बेलों से सजी बाउंड्री वाल भी तरह-तरह के व्यावसायिक विज्ञापन बोर्डा से पटकर उत्कर्ष की सुंदरता को खत्म कर देने के लिए पराए हाथों को सौंपी जाने वाली थी। इन सबके मूल में यही मंत्र था पैसा जमा हो चाहे जैसे। लगभग तय था कि गलत काम को गलत तरीके से ही साधना होगा। राणा साहब और मीटिंग में शामिल एक-दो लोग आनाकानी के बावजूद विकल्पहीनता की स्थिति में मैडम की राय पर सहमति दर्ज कराते हुए बोले--‘‘ तो बुला लो जी सोसायटी की जी.बी.एम.। फिर कामवालों को, विज्ञापन वालों को भी बुलाकर तरीके से कमीशन तय करो। हां पर एक जरूरी बात कि इस सबसे पहले वसुधा जी को बुलाना मत भूलना।’’


मीटिंग खत्म हो गयी सोसायटी का दफ्तर कुछ बिखरा-बिखरा सा लग रहा था। जगह-जगह बिखरे काग़ज़ों, खाली कुर्सियों, टूटे-मुचडे़ चाय के प्लास्टिक के खाली कपों और कुछ मक्खियों के सिवाय अब वहाँ कोई नहीं था, जो बची-बिखरी चाय की चीनी पर दावत उड़ा रहीं थीं और कुछ अभी अभी उड़कर निकली थीं, उत्कर्ष के प्रांगण में।
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Old 08-03-2013, 12:17 PM   #7
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

.... तो बस बोर्ड लटकाने की परमीशन देनी है और दोनों गेटों पर लगने वाले विज्ञापनों के तो दस-दस हजार अभी से ही खरे हैं।’’


..... जगह-जगह बिखरे काग़ज़ों, खाली कुर्सियों, टूटे-मुचडे़ चाय के प्लास्टिक के खाली कपों और कुछ मक्खियों के सिवाय अब वहाँ कोई नहीं था ..... उत्कर्ष के प्रांगण में।[/QUOTE]



एक सार्थक कहानी को प्रस्तुत करने के लिए आपका धन्यवाद, जय जी. हाउसिंग सोसायिटियों
में व्याप्त राजनीति और करता-धरता लोगों के हथकंडों पर भी अच्छा कटाक्ष है.
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Old 14-03-2013, 10:00 PM   #8
ndhebar
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

Umda kahani hai.....
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घर से निकले थे लौट कर आने को
मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए
बिगड़ैल
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Old 16-03-2013, 08:19 AM   #9
The Hell Lover
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

वास्तविकता से जुड़ी हुई अच्छी कहानी हैं। अन्त में एक प्रश्न छोड जाती हैं।
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Old 16-03-2013, 08:36 AM   #10
khalid
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Default Re: कहानी "मुखौटे" -- प्रज्ञा

अच्छी कहानी हैँ जय भैया
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