31-03-2013, 08:35 PM | #1 |
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मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
31-03-2013, 08:36 PM | #2 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
मेरे पापा
काला कोट ,सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पैंट, काले जूते और टाई, लगा कर मस्त चाल से मेरे पापा कोर्ट की ओर जाते और मै और मेरा छोटा भाई उनके पीछे भागते पापा टाटा पापा टाटा कहते हुए .पापा एक बार पीछे मुड कर मुस्कुराते हुए हाथ हिलाते और फिर चले जाते,हम कुछ देर उन्हें जाते हुए देखते और फिर अपने घर चले जाते.कोने वाला घर था हमारा, बड़ा सा, दो तरफ से खुला,एक तरफ खम्बों वाला बरामदा जिसमे पापा का ऑफिस का दरवाज़ा बाहर की और खुलता ,साथ ही बड़ी सी बैठक के तीन दरवाज़े खुलते जो तभी खोले जाते जब कोई पार्टी वार्टी होती या मेहमान आये होते और दूसरी तरफ का दरवाज़ा हमारे मोहल्ले की गली में खुलता जहाँ साथ ही नीम का पेड़ था जिसमे मोहल्ले वाले हर सावन में झूले डालते और हम सब लोग बारी-बारी झूला झूलते .पापा को हमेशा से ही बड़े, खुले मकानों में रहना पसंद था.पापा शुरू से कुछ अलग से थे औरो से, अपने ज़माने से काफी आगे. मेरे पापा श्री डी वी कंसल, पंजाब के प्रतिष्ठित वणिक परिवार से थे और आठवी कक्षा में ही सोहना (गंधक के गर्म पानी के चश्मे के लिए विख्यात) से आकर दिल्ली के रामजस स्कूल में दाखिल हो गए फिर उन्होंने किरोडीमल से स्नातक ,दिल्ली विश्वविद्यालय से इंग्लिश में स्नातकोत्तर और फिर वकालत की डिग्री ली, मेरे मामा जी भी उन्हें वहीँ से जानते थे और उन्होंने मेरे खूबसूरत व्यक्तित्व वाले और हंसमुख पापा को अपनी छोटी बहिन यानि कि मेरी माँ को पसंद कर लिया। १९५० में मेरी माँ के साथ उनका विवाह संपन्न हुआ मैंने आपको बताया न कि पापा कुछ अलग थे सो पापा ने घोड़ी पर चढ़ने और और बारात के साथ आने से इनकार कर दिया वो अकेले ही आये साधारण कपड़ो में और बारात अलग ,फेरे शुरू हुए तो पंडित जी को भी इशारा कर दिया कि मन्त्र थोड़े छोटे रखें. दरअसल ,आडम्बर और दिखावे से दूर थे पापा, कर्मकांड और पूजा पाठ से दूर। वे कहते थे कि किसी का बुरा न करो किसी का मन न दुखाओ यही सच्ची पूजा है.जब पापा माँ को दुल्हन के रूप में सोहना ला रहे थे कार से, तो वो बार बार माँ का घूंघट पीछे सरका देते माँ आगे खीचती और वो फिर उसे पीछे खींच देते, आखिर माँ ने ही हार मान ली और हल्का सा सर ढक लिया जब वो उतरी तो पूरे मोहल्ले में हल्ला मच गया कि बहु मुँह उघाड़ के आई है .अगले दिन जब दादी मोहल्ले पड़ोस में मिठाई बाँटने गईं तो सबने ताने मारे कि बहु तो उघडे सर आई है और बूढी सास घूघट काढ रही है. दादी ने भी उस दिन के बाद पर्दा छोड़ दिया. फिर माँ और पापा गुडगाँव आ गये। रहने के लिए पापा ने वहां सेशन कोर्ट में वकालत शुरू कर करदी. दादी हमारे साथ ही रहती जब वो संध्या करती और घंटी बजाती तो पापा कहते बहका लिया माँ भगवान् को और दादी हलके से मुस्कुरा देतीं. माँ ने बताया कि वो मुंह दिखाई में मिले पैसो से दो सोने कि अंगूठियाँ ले आयीं .जब उन्होंने पापा को दिखाई तो पापा ने कहा कि मैंने अभी अभी प्रैक्टिस शुरू कि है और तुमने अभी से फ़िज़ूल खर्ची शुरू कर दी. माँ ने उस दिन उनकी बात गांठ बांध ली और सारी उम्र मितव्ययता का पालन किया और हमें भी सिखाई. वो घर का सारा काम खुद करती और इसके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोचित कलात्मक कार्य जैसे सिलाई, कढाई, क्रोशिया, सुंदर स्वेटर हम सब के लिए. पाककला में भी निपुण थी मेरी माँ हर समय किसी न किसी काम में लगी रहती. पापा कहते "काम की पूरी धुन की पक्की - ऐसी है मेरी पनचक्की".
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31-03-2013, 08:37 PM | #3 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
खैर तो १९५० में माँ पापा का विवाह हुआ और १९५१ में मैं उनके जीवन में आगई मेरे आने से सब लोग बहुत खुश थे पापा कि तो में जन्म से ही लाडली बन गयी, कहते हैं कि मैं एक बहुत सुंदर बच्ची थी ,बहुत गोरा रंग ,सुनहरे बाल ,और बड़ी बड़ी शरबती आँखें. मेरे नाना ने मेरा नाम रखा ज्योत्स्ना यानि कि चांदनी और जानते हैं क्यों, क्योंकि मैं अमावस्या को पैदा हुई और वो कहते कि इसके आने से हमारे घर में अमावस को चांदनी आगई पापा मुझे खूब खिलाते जब में थोड़ी बड़ी हुई तो अपने कन्धों पे बिठा के अपने दोस्तों के ले जाते और वो लोग कहते .... ओह वो आगई कार्बन कॉपी हालाँकि तब इसका मतलब मुझे पता नहीं था .उस समय परिवार नियोजन का तो कुछ अता – पता था नहीं लोगों को, तो एक के बाद एक मेरे तीन भाई भी आगये मेरे पीछे पीछे( पापा सब बच्चों को कहते कि तू ही मेरा सबसे प्यारा बच्चा है एक को छोड़ के), पर पापा की लाडली तो मै ही बनी रही. कभी कहते ”तेरे जैसी तो मेरे दस बेटियां और हो जाती तो भी मुझे ख़ुशी होती”, कभी मेरी पोनी टेल सीधी कड़ी कर के कहते की अगर ऐसे बनाये तो ,कभी कहते तू तो मिस इंडिया बनेगी। ये बाते उन दिनों मेरी समझ से बाहर तो थीं पर शायद कई बार सुनी जाने के कारण मन में अंकित हो गयीं थीं, मुझे अब भी याद है कई बार पापा बताते की लड़कियां तो अपने भाई की थाली में बचा खाना खाती हैं या लड़कियों को तो बस इतना ही पढ़ाया जाता है कि वो ससुराल जा कर मायेके में चिठ्ठी लिख दें अपनी राज़ी ख़ुशी की मैं उनकी इन बातों पर तब यकीन नहीं करती थी क्यूंकि मुझे तो खूब अच्छा खाना पीना और खूब अछे स्कूलों में पढने को मिल रहा था।
मुझे याद है जब क्वीन एलिज़ाबेथ भारत आयीं तो हमारे स्कूल वाले हमें दिखाने ले गए थे मुझे तो बस एक झलक ही दिखाई दी थी उन्होंने एक नीली पंखों वाली हैट लगा रखी थी और वो एक खुली कार में नेहरु जी के साथ बैठी थी जो झट से हमारी आँखों के आगे से ओझल हो गयी और हम बच्चे अपने झंडी वाले हाथ देर तक हिलाते रहे थे ,फिर लौट कर आये तो मैं और पापा मिल कर क्वीन एलिजाबेथ के नाम पत्र लिखते रहे जिसमे उन्हें हर – हाइनेस कह कर संबोधित किया गया था लेकिन न वो ख़त कभी पूरा हुआ और न डाक में डाला पर हाँ मुझे पता चल गया की इंग्लिश में राजा और रानी को कैसे संबोधित करते हैं। चिट्ठी से याद आया कि जब भी नानी की चिट्ठी आती तो पापा माँ और हम सब को पढ़ के सुनाते आखिर में हमेशा कहते तुम्हारी माँ भाग गयी दरअसल मेरी नानी का नाम भाग्यवती था पर पापा मजाक मज़ाक में माँ को चिढाने के लिए भाग गयी कह देते. पापा पापा और भी कई बातें बता के हमें हंसाते जैस वो बताते कि जब वो नाना नानी के घर आते तो नाना जी कहते “अरे अरे डी वी जी कब आये ,बैठिये बैठिये ,और कैसे हैं आप” इसके बाद वो किसी काम से बाहर चले जाते और घंटे दो घंटे बाद जब वापिस आते तो नाना जी वही बाते दुबारा दोहराते और नानी की भी नक़ल उतारते ,कहते जब मुझ से पूछते कि बेटा खाना वाना तो खाओगे और अगर मैं हाँ भर देता तो वो मौसी को आवाज़ देकर कहती “ले बेटी संगीता, अंगीठी सुलगा ले ,ये तो हाँ कह रहे हैं”
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31-03-2013, 08:38 PM | #4 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
एक बार दिल्ली में नुमाइश दिखाने ले गए, वहाँ हमने मोटे ताज़े गुलाबी गुलाबी सूअर देखे, भाखड़ा डैम का मॉडल देखा ,बच्चों की बहुत सारी रशियन किताबें खरीदी और मीठा किया हुआ अन्नानास खाया। वहां भी पापा ने सारी चीज़ों को समझाया और सर्च लाइट के बारे में भी बताया . पापा के तो मैं काफी करीब थी हम दोनों साथ साथ रेडियो सुनते ,उहे शेरो शायरी का बहुत शौक था अक्सर ग़ालिब के शेर सुनते और उनका अर्थ बताते। बचपन में ज्यादा कुछ समझ नहीं आता था पर शायद शौक मन में पनपने लगा था.उधर माँ को अच्छी साहित्यिक पुस्तकें पढने का शौक था और बहुत से उपन्यास और पत्रिकाए हमारे घर आती जिन्हें मैं पढ़ती समझ आये या न आये. पापा को बहुत से शे'र याद थे, वे खुद भी शायरी करते ,माँ को भी पढ़ कर सुनाते रात को. उनके पास एक डायरी थी जिसमे उर्दू में लिखा रहता था. उनका लिखा पहला शेर था
“खुम (जाम) इधर टूटा पड़ा है और उधर सागर (शराब वाली सुराही) पे बाल (तरेड), इस से ही कोई समझ ले क्या है मयखाने का हाल" पापा मुझे ग़ालिब, इकबाल, मोमिन, शौक और बहुत से अन्य शायरों की गज़लें सुनाते और उनका मतलब भी समझाते, पापा बहुत से मुहावरों का प्रयोग करते और बहुत से मेवाती गानों के मुखड़े गाते जैसे - या कुर्ती ऐ मेरे बाबा लू दिखायो, हुनी ते मिलेंग्गा तोलू दाम दर्जी के, दाम दर्जी के, तोलू दाम कुर्ती के (ओ दर्जी के बेटे ये कुर्ती तू मेरे पिता को दिखाना ,वो ही तुझे इस कुर्ती के पैसे देंगे )
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31-03-2013, 08:39 PM | #5 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
वो मेजपर बैठ कर उँगलियों से ताल देते और ये गीत सुनाते और भी ऐसे कई मेवात साइड के लोक गीत. पापा के बहुत से दोस्त थे जिन्होंने उनके साथ साथ या आगे पीछे पढाई की थी और अब गुडगाँव में रहते थे सब के घर खूब आना जाना खाना पीना लगा रहता, कोई तक्कलुफ़ बाज़ी नहीं, सारे पुरुषों को चाचा और स्त्रियों को चाची या ताई पुकारा जाता. बच्चे सब मिलजुल कर खेलते शोर मचाते. पापा को जब किसी मुकदमें की फीस मिलती तो पहले मेरे हाथ में देते में फिर माँ को दे देती, मैं पापा से पूछती पापा आप पैसे कहाँ से लाते हो पापा हँसते और कहते की कचहरी में पेड़ लगा है वहां से तोड़ लेता हूँ. जब तब हम लोग अपने गाँव जाते तो माँ सर् ढक कर बस अड्डे से घर तक जाती हम साथ होते और ताऊ जी के बच्चे भी हमें लेने आये होते एक छोटे से जुलुस की शक्ल बन जाती और फिर जब हम बाज़ार जाते तो सब लोग हमें प्यार करते और पापा को बड़े तपाक से मिलते और दुआ सलाम करते, तीन ताऊ जी और उनके बच्चे एक ही मकान के हिस्सों में रहते थे। हम लोग किसी के भी घर खा लेते, बड़े ताऊ जी हमें बहुत सी ऐतिहासिक कहानिया सुनाते. दिल्ली भी आना जाना लगा ही रहता, छुट्टियाँ तो अधिकतर वहीँ बिताते और आगे पीछे भी चले ही जाते थे. एक बार की बात मुझे अछि तरह याद है.
== माँ नानी के यहाँ हम तीनो बच्चों को लेकर गयी हुई थीं, मेरा सबसे छोटा भाई होने वाला था ,पापा उन्हें मिलने आये, बस मैं तो पीछे पड़ गयी पापा के साथ जाऊंगी और पापा भी न जाने क्यों राज़ी हो गए मुझे ले जाने के लिए, गाँव जाने से पहले वो मुझे शहर के एक सिनेमाहाल में लगी फिल्म “दो आँखें बारह हाथ ” दिखाने ले गए। सिनेमाहाल की छत पर रात का नज़ारा था। जैसे ही हॉल में अँधेरा हुआ रात का समां बन गया चाँद सितारे चमकने लगे, उधर फिल्म का गाना चल रहा था "सैंयाँ झूठों का बड़ा सरताज निकला ,मुझे छोड़ चला ........ मुख मोड़ चला ....... बड़ा धोखेबाज़ निकला” मुझे लग रह था कि रात हो गयी है और अब घर जाना चाहिए मुझे कुछ डर भी लग रहा था अँधेरे से। मै पापा के पीछे पड़ गयी पापा घर चलो, पापा इंटरवल में मुझे लेकर बाहर आगये, बाहर आकर मैंने देखा कि खूब धूप वाला दिन था फिर वो मेरे कहने पर भी अंदर नहीं गए बल्कि मुझे खादी की दूकान पर ले गए और वहां पर उन्होंने मुझे बहुत सुंदर सुंदर फ्राक और स्कर्ट के लिए कपडे दिलवाए। उनके रंग और डिज़ाइन अभी तक मेरे ज़हन और आँखों में बसे हैं .फिर पापा मुझे एक अच्छे से रेस्तरां में ले गए जहां पुर उन्होंने दो गिलास कोल्ड कॉफ़ी मंगवाई, अपने लिए बड़ा गिलास और मेरे लिए छोटा, जब कॉफ़ी आई तो मैंने जिद पकड़ी की मैं तो आपके जैसा बड़ा गिलास ही लूंगी ,पापा ने हार कर बड़ा गिलास मंगवाया .कॉफ़ी खूब गाढ़ी थी ऊपर झाग था और उसमे दो स्ट्रा थे .पापा ने कॉफ़ी सिप की मैंने भी की पर मुझे तो वो कडवी लगी और मुझ से नहीं पी गयी मैंने डरते डरते पापा से कहा किमुझे अच्छी नहीं लगी मैं नहीं पीयूंगी ,पापा को गुस्सा तो बहुत आया होगा पर उन्होंने मुझे कुछ कहा नहीं।
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31-03-2013, 08:40 PM | #6 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
हम गाँव आगये. अगले दिन पापा मुझे अपने साथ कोर्ट ले गए, अकेला किसके साथ छोड़ते. पापा अपने दोस्तों के साथ बात चीत कर रहे थे तबतक मैं जाकर सारे पेड़ों का मुआइना कर आई। मुझे ऐसा करते देख उनोहोने पूछा कि मैं क्या कर रही थी तो मैंने कहा पैसों वाला पेड़ ढूढ़ रही थी जिस से पैसे तोड़ के लाते हैं. पापा से पूरी बात सुन कर सब ने खूब जोर से ठहाके लगाये और मैं उन का मुंह देखती रही. हाँ और वो सुंदर कपडे जब दर्जी को सिलने दिए मैं रोज़ उसकी दूकान पर जाकर धरना दे देती जब तक वो सिल नहीं गए. वो हमेशा ही मेरे पसंदीदा बने रहे जब फटे नहीं.
बस ऐसे ही मज़े मज़े में दिन बीत रहे थे, हम अच्छे स्कूल मे भर्ती कराए गए अगर स्कूल का कोई ट्रिप जाता, पापा हमें कहीं जाने के लिए मना नहीं करते. पापा के दो दोस्त जब जज बन कर आये तब हम उनके बंगलो पर जाते, खूब बड़ा बंगलो और काम करने को अर्दली. उन्होंने पापा से भी कहा यार तू भी अप्लाई कर दे, पापा ने भी मज़े मज़े में अप्लाई कर दिया हालाँकि उन्हें कोई आशा नहीं थी न ही कोई सिफारिश लगाईं थी, पर उस ज़माने को देखिये कि बिना सिफारिश के ही उनको सरकारी नौकरी मिल गयी। सरकारी वकील जिसे उस समय पब्लिक प्रोसिक्यूटर कहते थे. पापा की पहली पोस्टिंग हरियाणा में हुई लेकिन वो कुछ ही दिन की थी फिर उनकी पोस्टिंग पंजाब में हो गयी। वहां हम सब गए पापा को एक कोठी मिली थी जो किसी मरहूम दीवान का मरदान खाना था. बड़ी सी कोठी जो एक बड़े से कैम्पस में थी जिसका नाम अमलतास था . उसमे आम,जामुन और अमरुद के पेड़ लगे थे और साथ ही एक जंगल सा भी था.वहां एक स्कूल था जिसका नाम था बेबी मॉडल स्कूल उसमे हम सब बच्चों का दाखिला भी हो गया . पापा बड़े स्मार्ट और रोबीले लगते , जब बंद गले का सफ़ेद सूट पहन वो कोर्ट जाते , उन की डबल चिन और बड़ी बड़ी लाल डोरे वाली आँखें उनके व्यक्तित्व को और भी शानदार बनाते मुझे लगता की पापा अपनी डबल चिन की वजह से रोबीले दीखते हैं इसलिए मैं शीशे के सामने खड़ी हो कर अपना चेहरा गर्दन से सटा कर अपनी डबल चिन बनाने की कोशिश करती. हमें कोठी और अर्दली दोनों मिले पर घर का काम माँ ही करती, मैं भी उनका हाथ बटाती. हम जब आधी छुट्टी में घर आते तो पापा केले को बीच से चीर कर उसमे मसाला और नीम्बू लगा कर हमें देते. बहुत ही मज़ा आता, कभी कभी मैं उन के गले में बाहें डाल कर कहती पापा मैं अब से आपको डैडी कहूँगी पापा भी कहते ठीक है मैं भी तुझे डॉली कहूँगा, पर वो मुझे मिस साहिब कहते और मैं उन्हें पापा ,हाँ माँ को मम्मी कहने लगे, कभी कभी छुट्टी वाले दिन पापा हमारे साथ गुल्ली डंडा भी खेलते, वहां भी पापा के दो बहुत अच्छे दोस्त बन गए, पापा को वहां पर सभी पी पी (पब्लिक प्रासीक्यूटर) कहते थे .वहां पापा के अफसर दोस्तों के साथ हम हर १५ दिन बाद पिकनिक पर जाते, एक अंकल गन लेकर जाते और मुर्गाबियों का शिकार करते, पंजाब में हम बच्चों ने पहली बार ओम्लेट खाया जो हमें अच्छा लगा पापा माँ नहीं खाते थे पर उन्होंने हमें मना नहीं किया.
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31-03-2013, 08:41 PM | #7 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
बड़े ही मज़े के दिन थे हम बच्चों के लिए पर पापा कहते कि शान बान तो झूठी है, वो इस से पहले अपनी वकालत में ज्यादा कमाते थे. मुझे याद है कि पापा के पास बहुत से लोग सिफारिश और रिश्वत का प्रस्ताव लेकर आते पर उन्हों ने कभी स्वीकार नहीं किया. मुझे याद है एक बार एक व्यक्ति ने मुझे पैसे दिए मैं तो बच्ची i थी मैंने वो पैसे ले लिए पापा ने पिटाई तो की और समझाया कि ऐसा नहीं करते, पर मुझे लगता कि पैसे क्यों नहीं लेने चाहिए वो तो काम आते हैं. बहुत सुंदर और शांत और खुली जगह थी वह।
३-४ वर्ष बिताने के बाद पापा की बदली पंजाब के एक दूसरे मशहूर शहर में हो गयी, यह शहर भी हालाँकि पंजाब में था पर वो पुरानी जगह से बिलकुल अलग ही था। रहन सहन ,बोली और शहर एकदम अलग. यहाँ पर भी एक बड़ा सा कोने वाला मकान लिया पहली मंजिल पर, जिसके नीचे गेहूं और कपास के इतने ऊंचे ढेर लगे रहते कि अगर हम ऊपर से कूदते तो चोट नहीं लगती और सचमुच मेरा मन करता कि मैं उन ढेरो पर छलांग लगा कर देखूं. यहाँ मैंने आठवीं क्लास में प्रवेश लिया। स्कूल का नाम था गाँधी आर्य हाई स्कूल. पापा को यहाँ भी सभी पी.पी. साहिब ही कहते और उनकी बड़ी शान थी। उन्हें एक अच्छा दलील देने वाला वकील माना जाता था। माने हुए वकील उनकी दलीलों के आगे हार मान लेते थे. एक दिन एक पुराने अंकल आये हुए थे। हमने रात को उनको बातें करते सुना, रिश्वत के बारे में बाते हो रही थी पापा कह रहे थे 'क्या करे जहाँ भी जाते हैं हमारी साख पहले ही पहुँच जाती है अगर चाहें तो भी ऐसा काम नहीं कर सकते', वहां के लोग कहते कि पी पी साब तो बड़े रजवाड़े घर से लगते हैं. वो हमेशा ही आत्मसम्मान पूर्वक रहे और कभी भी क़ानून से अलग काम नहीं किया. मैं और पापा रोज़ शाम को घूमने जाते सब लोग पापा का सम्मान पूर्वक अभिवादन करते तो मैं भी मन ही मन फूल कर कुप्पा हो जाती. मेरे बाल कटे होने के कारण वहां सब मुझे पटेयाँ वाली कुड़ी (लड़की जिसके बाल कटे हों ) कह कर पुकारते. यहाँ पिछली जगह जैसा खुला और शाही वातावरण तो नहीं था क्यूंकि यह तो एक मंडी थी ,यहां की सड़कें पतली और बाज़ार भी ज्यादा खुले नहीं थे पर यहां पर भी सारे बड़े ऑफिसर पापा के अछे दोस्त थे और हम रोज़ ही कही न कहीं जाते या फिर उनमे से कोई हमारे घर आते हमारे घर अक्सर दावत होती, माँ सारा खाना खुद बनाती ,उस समय कोई मिक्सी वगैरा तो नहीं होती थी या हमारे पास नहीं थी, माँ सिल बट्टे पर ही मसाले पीसती ,चटनियाँ बनाती. मैं उनकी थोड़ी बहुत मदद करती हम घर को सजाते ,कमरों के बाहर एक गोल खम्बों वाला बरामदा और उसके बहार एक खुली ईंटों वाली छत जिसे हम छिडकाव कर के ठंडा करते ,सोफे ,कुर्सियां बाहर डाल दी जाती और बीच में कालीन बिछा देते मैं खाना लगाने और परोसने में सहायता करती, हमने एक आइस्बोक्स भी बनवाया था जिसमे पार्टीशन थे एक खाने में बर्फ और उसके दोनों तरफ पानी और फल वगैरा रख देते थे ठंडा करने के लिए. बड़े अपनी बात चीत करते और बच्चे अपने खेल खेलते.वो भी खूब मज़े के दिन थे .मुझे अब पेंटिंग,कविता पाठ और वाद विवाद और नाटकों में भाग लेने का अवसर मिला और मैंने कई पुरूस्कार जीते। पढने में भी मेरी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होती. मैंने स्वयं भी कई नाटकों को डायरेक्ट किया बलिक हमने स्कूल में होते हुए एस डी कॉलेज में नाटक किया जिसे बहुत प्रशंसा मिली. १९६६ में मैंने उसी कॉलेज में प्री यूनिवर्सिटी मेडिकल ग्रुप में दाखिला ले लिया और एक नयी दुनिया मेरे सामने थी.
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31-03-2013, 08:42 PM | #8 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
अभी मैं उस वातावरण में ढल ही रही थी की पापा का तबादला फिर हरियाणा में हो गया। इस समय पंजाब और हरियाणा अलग हुए और पापा ने हरियाणा काडर चुना और फिर एक दिन हम बोरिया बिस्तर समेट कर नए शहर आ गये। फिर एक नया सिलसिला शुरू हुआ नए स्कूल, कॉलेज, नए लोग नए रिश्ते नया घर। पहले हम एक छोटे घर में आये मॉडल टाउन में लेकिन जल्दी हमने एक पाश कॉलोनी में शिफ्ट कर लिया, पापा तो कोर्ट पैदल ही जाते क्यूंकि वो घर के पास थे मैं साईकिल से कॉलेज जाती, उस समय कारों का इतना प्रचलन नहीं था। पूरे शहर में कोई इक्का दुक्का कार थी या तो किसी रईस या फिर किसी नेता के पास। अधिकतर लोग पैदल जाते या फिर रिक्शा इस्तेमाल करते, खैर पापा को तो पैदल जाना ही पसंद था. पंजाब और हरियाणा दोनों प्रान्तों में हमने बहुत सी फ़िल्में देखी थी .. शायद पास मिलते थे पापा को। उस समय रिक्शा पर पोस्टर लगा कर फिल्मों की घोषणा की जाती ,मनोरंजन,गानों और लड़ाई मार कुटाई से भरपूर .हमें उस समय डायरेक्टर वगैरह का ज्ञान नहीं था हीरो हीरोइन को देख कर ही फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाते .यहाँ पर भी कोई खूबसूरत जगह तो नहीं थी ,बस एक किला रोड थी जहाँ हम बाज़ार जाते शापिंग के लिए या फिर कॉलेज और कोर्ट के दोस्त जो घर आते जाते। मैं कॉलेज की हर गतिविधि में भाग लेती और दिन बहुत व्यस्तता में गुज़रते कोई कमी महसूस नहीं होती।
लेकिन एक बार फिर पापा की बदली हो गयी। इस बार हिसार। अभी मेरी बी एस सी की परीक्षा होनी थी आखिरी वर्ष था. पर हम लोग हिसार चले गए। वहां पर भी हमें ऑफिसर कॉलोनी में एक बड़ी कोठी एलाट हो गयी उसमे बहुत सारी कच्ची जगह थी जहाँ सब्जी और गेहूं भी बोया गया था और आगे लॉन और फूल थे, मैने अपनी परीक्षा बस से आते-जाते हुए दी, हालांकि काफी डिस्टर्ब रही फिर भी हाई सेकंड डिवीज़न आगई, उस समय आजकल की तरह मार्क्स लुटते नहीं थे बहुत ही मुश्किल से मिलते थे मार्क्स. अब ऍम एस सी में एडमिशन लेना था, समीप के दो बड़े शहरों चंडीगढ़ और दिल्ली में तो एडमीशन के लिए बी एस सी( hons,) होना चाहिए था इसलिए कुरुक्षेत्र का रुख किया, इस में मेरी मदद उस समय दिल ही दिल में मुझे चाहने वाले एक युवक ने की जो बाद में मेरे पति भी बने. पहले मेरा एडमिशन जूलॉजी में हो गया जबकि मैं बॉटनी लेना चाहती थी, फिर बाद में बॉटनी में हुआ पर तब तक मैं अपने विषय में रच गयी थी. पापा तो चाहते थे कि मैं हिसार से ही बी एड कर लूं पर चाँद सिंह (मेरे भावी पति) ने कहा कॉलेज मैं लेक्चरर लगना है तो एम् एस सी ही करो. पापा ने कहा कि ऐसा लग रहा है बेटी अभी से पराई हो गयी. वो ठीक थे।
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
यूनिवर्सिटी में मैं चाँद सिंह के और नज़दीक आ गयी और उन्होंने एक दिन मुझे प्रोपोस भी कर दिया था, हालाँकि मैं दुविधा में थी क्यूंकि पापा के एक दोस्त का लड़का भी मुझे पसंद करता था और एक तरह से हमारे और उसके दोनों के परिवारों ने ये सोच लिया था कि कभी न कभी हमारी शादी हो जायेगी पर कब ..... इसका कोई निश्चित नहीं था. खैर किसी तरह हमारी नजदीकियों की भनक उसे लग गयी और उसने अपने कदम वापिस खींच लिए क्यूंकि शायद अभी वो विवाह करने की स्थिति में नहीं. था उस से बड़ी और उस से छोटी एक बहिन की शादी अभी होनी थी. मैंने पापा को अपने नए रिश्ते के बारे में बताया और कहा कि मैं चाँद सिंह से विवाह करना चाहती हूँ. पापा नाराज़ तो नहीं हुए पर उन्होंने कहा ”तुम अभी अपनी पढाई की फ़िक्र करो ,ऐसे तो न जाने कितनी बार तुम्हारा फैसला बदलेगा ,सही वक़्त आने पर देखा जाएगा”, पर उन्हने मुझ पर कोई पाबंदी नहीं लगाईं न ही इनसे मिलने पर कोई रोक. पर तभी पापा का ट्रान्सफर नारनौल हो गया यह एक राजनीती से प्रेरित ट्रान्सफर था, नारनौल को हरयाणा का कालापानी कहा जाता था और सरकार जिस से नाराज़ होती थी उसे ही वहां की पोस्टिंग दी जाती थी.
पापा ने सरकार के दबाव में आकर कोई गलत काम नहीं किया था जिसका खामियाजा उन्हें इस तरह भुगतना पड़ रहा था, पापा जाकर नारनौल देख आये थे, कोठी वगैरह की सब सुविधा थी परन्तु माँ को भी बुरा लग रहा था और वो इतने सालों बार बार सामान बाँध खोल कर थक चुकी थी, पापा के कई मित्रों ने भी उन्हें सलाह दी 'आप तो अपनी खुद की वकालत करो नौकरी से अधिक ही कमा लोगे', पापा भी अन्दर ही अन्दर अपने प्रति सरकार के रवैये से व्यथित थे ही तो बस उन्होंने अधिक विचार न करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया शायद उन्होंने सोचा होगा कि कोई उन्हें रोक लेगा या उनका इस्तीफा नामंजूर हो जायेगा आखिर इतने सालों की बेदाग़ ,इमानदारी से नौकरी की थी, किन्तु मेरे भोले पापा को समझ नहीं आया था कि अब ज़माना बदल चुका था, अब सब अपने निजी स्वार्थ से प्रेरित हो कर काम करते हैं। देश और समाज के लिए नहीं. खैर पापा का इस्तीफ़ा मंज़ूर हो गया और उन्होंने पहले रोहतक में अपनी वकालत ज़माने का फैसला किया. बड़े ही हलचल और अनिश्चय वाले दिन थे, जो लोग पापा के दोस्त होने का दावा करते थे उन्हें भी अपने लिए खतरा महसूस होने लगा कि एक और प्रतियोगी मैदान में आ जायगा, सो अब उन्हें सलाह दी गई जी आप तो चंडीगढ़ हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करो, केस हम भेजेंगे, खैर पापा को भी ठीक ही लगा होगा सो हम जल्दी ही चंडीगढ़ शिफ्ट हो गए। वहां पर भी हमने एक बड़ी कोठी किराये पर ली जिसकी दीवार गवर्नमेंट बायज कालेज की दीवार से मिलती थी. चंडीगढ़ खूबसूरत शहर तो था, आँखों को सुकून देने वाला ,खुला खुला,हरा भरा ,साफ़ सुथरा पर कहीं कोई कमी थी ....... शायद अपनेपन की. हो सकता है धीरे धीरे दूर हो जाती. वो वक़्त बड़ा ही कठिन था सब कुछ ही अधर में था, मुझ से छोटे भाई का स्नातक हो चूका था, उस से छोटा कॉलेज में प्रवेश लेना चाहता था और उस से छोटा मेट्रिक में। मेरी एम् एस सी पूरी चुकी थी और मैं भी घर आ चुकी थी. कॉलेज और यूनिवर्सिटी में तो मेरे भाइयों को प्रवेश लेने में अधिक मुश्किल नहीं हुई पर स्कूल में प्रवेश पाना टेढ़ी खीर थी। बड़ी ही मुश्किल से उसे एक निजी स्कूल में प्रवेश मिला. बाद में पता चला कि वह स्कूल तो बोर्ड से मान्यता प्राप्त ही नहीं था.
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31-03-2013, 08:43 PM | #10 |
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Re: मेरे पापा - आत्मकथा या कहानी
पापा को बार कौंसिल का मेम्बर बनना था जिस के लिए पहले वाले मेंबर्स वोट करते थे, एक काली वोट ४ सफ़ेद वोटों को काट देती थी और फिर रजनीतिक अडंगा डाल कर उन्हें २ बार ब्लैक बाल किया गया पर उन्होंने भी हार नहीं मानी आखिर तीसरी बार में जब उनके वहां कुछ अच्छे दोस्त बन गए तो वो बार के मेम्बर बन पाए .माँ खर्चों में कटौती करने के लिए सारा का सारा काम खुद करती , झाड़ू पोछा ,बर्तन,कपडे प्रेस, खाना बनाना सब कुछ ,थोड़ी बहुत सहायता मैं भी करती. अब मैंने २-३ जगह लेक्चरर की पोस्ट के लिए आवेदन किया, साक्षात्कार भी दिए। अंततः मेरी नियुक्ति पलवल के एक कालिज में हो गयी, मैं तो सोच रही थी के मैं सदा के लिए नियुक्त हो गयी, अति उत्साह में मैंने नियुक्ति पत्र को पढ़ा ही नहीं था ,बाद में देखा की नौकरी अस्थायी थी. खैर मैं और घर वाले सब खुश थे, कभी न कभी पक्की हो जायेगी ये सोच कर.जिंदगी धीरे धीरे रफ़्तार पकड़ने लगी थी. मुझे एक मकान मिल गया था (दरअसल मेरे विभाग के ही प्रोफेसर जो की हॉस्टल वार्डन बन गए थे और शिफ्ट हो गए थे उन्होंने अपना घर मुझे अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे दिया था) और मैं अकेली ही पलवल में रहने लगी, पहले तो मैं अपनी और अपने माता पिता की हिम्मत की दाद दूँगी कि मैंने अकेले रहने की ठानी और उन्होंने ने मानी फिर मैं पलवल के निवासियों को धन्यवाद और शाबाश दूँगी की उन्होंने कभी गलत समय पर मेरा दरवाज़ा नहीं खटकाया और न ही मुझे कोई असुविधा होने दी. मेरे पड़ोस में ही एक और विभागीय प्रोफेसर रहते थे अधिकतर वो लोग ही मुझे नाश्ता करा देते, मैंने तो किचन शुरू नहीं की बस चाय,चावल या फल ही खाती। एक अकेली जान के लिए कौन झंझट मोल ले.
अब एक और समस्या थी मैं अकेली रहती और चाँद सिंह मुझसे मिलने आते तो बदनामी का कारण बनते। छोटा शहर था अतः अफवाहें जल्दी ही गगनचुम्बी हो जाती. हमने एक बार फिर पापा मम्मी से अपनी शादी के बारे में बात की पर वो लोग अभी इसकेलिए तैयार नहीं थे। मुझे लगा कि पापा अपनी तरफ से इनके माता पिता से बात करने में भी हिचकेंगे. इसलिए हमने गर्मी की छुट्टियों में आर्य समाज में शादी करने का फैसला किया, इनके परिवार वाले तो सब आ गए इन्होने मेरे छोटे भाई को यूनिवर्सिटी से बुलवा लिया था पर मैं चाहते हुए भी अपनी मोसेरी बहन को और नाना, नानी को या मौसा मौसी को फ़ोन नहीं कर पायी. डरती थी कहीं वो लोग शादी में रुकावट न डालें. हमने पास के आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली जिसमे इनके कई दोस्त शामिल हुए. फिर मैंने डरते डरते पापा को फ़ोन किया, पापा ने कहा तुरंत चंडीगढ़ आ जाओ। मैं और मेरा भाई घर चले गए. माँ बहुत नाराज़ थी। भाई को भी उन्होंने खूब डांटा, पर पापा ने मुझे प्यार किया और कहा “यू आर अ ब्रेव गर्ल”. इतना ही नहीं उन्होंने माँ को भी मनाया फिर माँ ने मुझे अपने कुछ गहने भी दिए और जल्दी ही घर का माहौल अच्छा और खुशगवार हो गया. अब हम अपनी गृहस्थी ख़ुशी ख़ुशी शुरू कर सकते थे। हम दोनों के माता पिता ने हमें अपना आशीर्वाद प्रदान कर दिया. कई बार मैं सोचती हूँ अगर आज कल के समय में हम विवाह करते तो शायद हम जीवित ही नहीं होते .
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