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13-12-2012, 09:38 PM | #1 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
मेरे अनुरोध पर उन्होंने ग्रामोफोन में चाबी भरी, टर्न टेबल पर रिकॉर्ड रखा, स्टाइलस में एक नयी सुई डाली और उसे रिकॉर्ड के बाहरी ग्रूव में लगा दिया. और लीजिए गाना बजना शुरू हो गया. एक छोटे कमरे के हिसाब से आवाज़ काफ़ी ऊँची महसूस हो रही थी. इस मशीन का सारा सिस्टम यांत्रिक था और इसे चलाने के लिये बिजली या बैटरी की ज़रूरत नहीं होती. गाने की आवाज़ इतनी जोरदार थी कि आँखे बन्द कर लें तो ऐसा लगे जैसे मुकेश जी साक्षात हमारे सामने खड़े हो कर गा रहें हों. वह गाना तो मुझे अब याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि वो पहला गाना स्वर्गीय मुकेश जी का ही गाया हुआ था. जिस समय की यह घटना है उस समय तक मुकेश जी जीवित थे (मुकेश जी का निधन २७ अगस्त १९७६ को हुआ था).
एक विशेष बात की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ, वह यह कि पुरुषोत्तम जी गाते बहुत अच्छा थे. उनकी आवाज़ बहुत साफ़ और मधुर थी लेकिन बारीक थी. कभी कभी ऐसा लगता जैसे कोई अल्प वय का कोई लड़का गाना गा रहा हो. हम लोग एक दो दिन बाद कहीं नकहीं गोष्ठी करते और थोड़ी देर में संगीत का माहौल बन जाया करता. जैसा मैंने पहले कहा पुरुषोत्तम जी बहुत अच्छा गाते थे और साथ ही हारमोनियम भी उतना ही अच्छा बजाते थे. उनके द्वारा गाये जाने वाले गीतों में अधिकतर तो मशहूर फ़िल्मी गीत ही होते थे, लेकिन कभी कभी वो गज़ल अथवा राजस्थानी लोक गीत भी सुनाया करते थे. एक गीत के बारे में वो बताते थे कि यह किसी फिल्म में आने वाला है लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा हुआ नहीं. बहरहाल, गीत की शुरू की पंक्तियाँ इस प्रकार थी: मेरा दिल टूटा तो ये ताज महल टूटेगा. धरती अम्बर का ये पावन रिश्ता छूटेगा. |
13-12-2012, 09:42 PM | #2 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मास्टर पुरुषोत्तम के माध्यम से राजस्थानी लोक गीतों का परिचय मिला और उनकी मिठास का वास्तविक अनुभव हुआ. राजस्थानी लोक गीतों में वहाँ के जन जीवन की उमंग, तीज त्यौहार, पारिवारिक संबंधों की छेड़ छाड़, विरह-मिलन और मरू भूमि के कण कण में व्याप्त जिजीविषा के दर्शन होते हैं. ये राजस्थानी लोक गीत मुझे सर्वप्रथम मास्टर पुरुषोत्तम की आवाज़ में ही सुनने का सौभाग्य मिला. मेरे विवाह (१९७७) के बाद इन राजस्थानी गीतों को मैंने अपनी धर्मपत्नि को भी गा कर सुनाया तो वह भी इन गीतों से प्रभावित हुये बिना न रही. चूरू तो हम पति-पत्नि दोनों के लिये एक सपनों का शहर बन कर (सोने के मिथीकीय नगर एल डोरेडो – el dorado – की तरह) हमारे अस्तित्व में रच बस गया है.
हाँ, तो मैं बता रहा था कि मास्टर पुरुषोत्तम संगीत में इतने डूब कर गाते थे कि सुनने वालों को अपनी सुध बुध नहीं रहती थी. मुझे अफ़सोस इस बात का है कि उस समय मेरे पास कोई टेप रिकॉर्डर नहीं था अन्यथा उनकी आवाज़ में वो गीत अवश्य रिकॉर्ड करता और रिकॉर्डिंग को उम्रभर सम्हाल कर रखता. मगर ऐसा हो न सका. फिर भी उनके गाये वो गीत अभी भी मेरे ज़ेहन में ज्यों के त्यों सुरक्षित हैं विशेष रूप से उनके द्वारा गाये हुये राजस्थानी गीत जिन्होंने ने मुझे अभिभूत कर दिया था. Last edited by rajnish manga; 13-12-2012 at 09:45 PM. |
14-12-2012, 11:30 PM | #3 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
मैंने उनसे अनुरोध किया कि वो अपने हाथ से मेरी डायरी में चुने हुए कुछ गीत लिख दें ताकि मैं उन गीतों का अभ्यास कर सकूँ और उन्हें ज़बानी याद कर सकूँ. ऐसा ही हुआ. उन्होंने मेरे अनुरोध को सहर्ष स्वीकार किया और कुछ गीत अपनी सुन्दर लिखाई में मेरी डायरी में लिख कर मुझे दिए. थोड़े ही समय में मुझे वे गीत कंठस्थ हो गए और मैं उन्हें यदा कदा गुनगुनाने लगा. मैं चाहता हूँ कि आप भी इन गीतों का रसास्वादन लें. मुझे खेद है कि वो गीत मैं आपको सुना तो नहीं पाऊंगा, लेकिन डायरी के पन्नों का अविकल टाईप किया हुआ रूप प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है आपको अच्छा लगेगा:
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16-12-2012, 05:01 AM | #4 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
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06-01-2013, 10:54 AM | #5 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
फोरम के सबसे शानदार सूत्रों में से एक।
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18-02-2013, 10:52 AM | #6 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
Last edited by rajnish manga; 18-02-2013 at 12:21 PM. |
18-02-2013, 12:29 PM | #7 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
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18-02-2013, 12:34 PM | #8 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
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18-02-2013, 01:17 PM | #9 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
Last edited by Dark Saint Alaick; 09-04-2013 at 12:20 AM. |
08-04-2013, 11:56 PM | #10 |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
चूरू नगर इतिहास के झरोखे से – चूरू नगर का गढ़ यह मशहूर है कि सन 1814 ई. में बीकानेर राज्य के अमरचंद से लड़ते लड़ते चाँदी के गोले तोपों से दागे गए थे. उस समय चूरू के शासक ठाकुर शिवजी सिंह थे. उनका लड़का अभी छोटा था. उसे किसी प्रकार वहां से निकाल कर जोधपुर की शरण में भेज दिया गया. वहा से बड़ा हो कर उसने अपनी जोड़ तोड़ की तथा बाद में चूरू गढ़ पर अधिकार करने के लिए उसने एक योजना तैयार की. बभूत पुरी व संभुवन गुसाईं से कडवासर के कान्हसिंह व हरी सिंह मिले और उन्हें गढ़ का फाटक खोलने के लिए राजी कर लिया. 13 नवम्बर 1817 की रात में गढ़ के फाटक उनके द्वारा खोल दिए गए. मेहता मेघराज, जो बीकानेर की ओर से सैनिक अधिकारी था, 200 सैनिकों के साथ गढ़ से बाहर निकला और 16 नवम्बर 1817 को बाजार के बीचो बीच वीरता पूर्वक लड़ता हुआ काम आया. इस प्रकार ठिकानेदारों की सहायता से उसने चूरू के गढ़ पर अधिकार कर लिया. यह 23 नवम्बर सन 1817 की बात है. सन 1808 ई. के अक्टूबर माह में एल्फिन्स्टन (जो बाद में 1819 से 1827 तक बम्बई के गवर्नर रहे)काबुल जाते हुए कुछ दिन के लिए चुरू रुके थे. उन्होंने अपने यात्रा विवरण में लिखा है – “यहाँ सभी मकान पक्के हैं और इन मकानों तथा उस नगर के परकोटे की चिनाई एक विशेष प्रकार के बहुत ही सफ़ेद चुने से हुयी है जिससे उसके द्वारा निर्मित सभी स्थक अत्यंत स्वच्छ दिखाई पड़ते हैं.” वह लिखता है कि यद्यपि वह (चूरू) नंगे रेतीले टीलों पर बसा हुआ है, तथापि देखने में अत्यंत हमवार है. वह 30 अक्टूबर 1808 के दिन चूरू से बीकानेर के लिए रवाना हुआ. अनेक वर्षों के प्रयत्नों के बाद महाराजा सूरत सिंह का चूरू पर अधिकार हो गया था, अतः उसके हाथ से निकल जाने का उसे बहुत अफ़सोस हुआ. वह व्यग्र हो उठा. चूरू को दोबारा हासिल करने का कोई उपाय न देख कर उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ 9 मार्च 1818 ईस्वी को एक 11 सूत्री समझौता किया. इस प्रकार चूरू की स्वतंत्रता का अपहरण करने के लिए महाराजा ने बीकानेर राज्य की स्वतंत्रता सदा के लिए अंग्रेजों के हाथ गिरवी रख दी. इसके तहत सहायता प्राप्त करने हेतु मेहता अबीर चंद को दिल्ली भेजा गया. वहां से ब्रिगेडियर जॉन एर्नोल्ड को बीकानेर के इलाके में भेजा गया. फतेहाबाद, सिधमुख, ददरेवा, सरसला और झटिया को फतह करती अंग्रेजी फ़ौज चूरू पहुँच गई. पृथ्वी सिंह, जो कि कुछ माह पहले ही गद्दी पर बैठा था, ने एक माह तक टक्कर ली. उसने एर्नोल्ड से सुरक्षा का तसल्ली-नामा लिया और किला खाली कर के बीकानेर दरबार में उपस्थित होने के बजाय वह रामगढ़ चला गया. Last edited by Dark Saint Alaick; 09-04-2013 at 12:22 AM. |
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