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Old 13-07-2013, 01:03 PM   #1
VARSHNEY.009
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Default कथा संस्कृति

बढ़ई की जोरू
किसी नगर में वीरवर नाम का एक बढ़ई रहता था। उसकी घरवाली का नाम कामिनी था। वह बहुत चलता-पुर्जा और बदनाम थी। जब सबकी जबान पर एक ही बात हो तो भला बढ़ई के कान में इसकी भनक क्यों न पड़ती। बढ़ई ने सोचा, मुझे पहले इस बात की जाँच करनी चाहिए। पुरुष होने के नाते बढ़ई यह तो जानता ही था कि स्त्रियाँ स्वभाव से बदचलन होती हैं। जैसे आग का शीतल होना या चन्द्रमा का गर्म होना या दुष्टों का परोपकारी होना असम्भव है उसी तरह स्त्री का सती होना भी असम्भव है। फिर उसकी जोरू को तो सारी दुनिया कुलटा कह रही थी।
ताड़नेवाले तो पत्थर की नजर रखते ही हैं। वे उसे भी जान लेते हैं जो न वेद में लिखी हो न शास्त्र में। कोई लाख परदे में कोई अच्छा-बुरा काम करे, वह लोगों से छिपा नहीं रह पाता है।
ऐसा सोचकर उसने अपनी जोरू से कहा, ‘‘प्यारी, मैं कल सुबह ही किसी दूसरे गाँव जाने वाला हूँ। मुझे वहाँ पूरा दिन लग जाएगा। तुम इसी समय मेरे खाने के लिए कुछ सामान बनाकर रख दो।’’
उसकी जोरू को और क्या चाहिए था! उसकी तो मन की मुराद पूरी हो गयी। सारा काम-धाम छोड़कर पकवान बनाने में जुट गयी।
दूसरे दिन सोकर उठते ही बढ़ई घर से बाहर निकला। अब पति का डर तो था नहीं। उसकी जोरू सारे दिन सजती-सँवरती रही। किसी तरह शाम हुई। अब वह पहुँची अपने यार के घर और बोली, ‘‘मेरा मुँहजला खसम आज किसी दूसरे गाँव को गया हुआ है। लोगों की आँख लगते ही चुपचाप मेरे यहाँ आ जाना।’’
उधर बढ़ई ने जैसे-तैसे दिन काटा और शाम का झुटपुटा होते ही चुपचाप पीछे की खिड़की से घर में घुसा और चारपाई के नीचे छिप गया। उसकी जोरू का यार देवदत्त आकर उस चारपाई पर बैठ गया। बढ़ई को अपना गुस्सा रोकते न बनता था। उसके मन में आता वह अभी चारपाई के नीचे से निकले और उसकी जान ले ले। पर उसने अक्ल से काम लिया। सोचा, जब ये दोनों सो जाएँगे उसी समय इनका गला दबा दूँगा। पहले यह तो देख लूँ कि यह इसके साथ करती क्या है। दोनों की बातें भी तो सुनूँ। क्या करना है, क्या नहीं, इसका फैसला बाद में करूँगा।
अभी बढ़ई इस उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि इसी समय उसकी जोरू भी आकर अपने यार के पास बैठ गयी। चारपाई पर बैठते समय उसका पैर बढ़ई के शरीर को छू गया। उसे ताड़ते देर न लगी कि चारपाई के नीचे कोई दुबका हुआ है। अब यह बात तो उसकी समझ में आ ही गयी कि हो न हो यह उसका पति ही है, जो उसको परखने की कोशिश कर रहा है। उसने सोचा, अब मैं भी इसे दिखा ही दूँ कि मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।
अभी वह कोई जुगत सोच ही रही थी कि उसके यार ने उसे अपनी बाँहों में भरने के लिए अपने हाथ बढ़ाये। उसे अपनी ओर हाथ बढ़ाते देखकर बढ़ई की जोरू बोली, ‘‘देखो, मुझे हाथ लगाया तो तुम्हारी खैर नहीं है। तुम नहीं जानते मैं कितनी सती-साध्वी स्त्री हूँ। यदि तुमने कुछ भी ऐसा-वैसा किया तो मैं तुम्हें शाप देकर भस्म कर दूँगी।’’
देवदत्त को तो कुछ मालूम नहीं था। उसने कहा, ‘‘ऐसा था तो तूने मुझे बुलाया क्यों?’’
बढ़ई की जोरू ने कहा, ‘‘कारण जानना ही चाहते हो तो सुनो। आज सुबह मैं चण्डी देवी के दर्शन करने गयी थी। मेरे वहाँ पहुँचते ही एकाएक आकाशवाणी हुई, ‘बेटी, तू मेरी सच्ची भक्त है इसलिए कहते हुए दुख तो होता है पर इस बात को छिपा जाना और भी दुखद है। जी कड़ा करके सुन। दुर्भाग्य से आज से छह महीने के भीतर तू विधवा हो जाएगी।’
आकाशवाणी सुनकर मैंने पूछा, ‘माँ भगवती, आप यदि यह जानती हैं कि मेरे ऊपर कौन-सी विपदा आनेवाली है तो यह भी जानती ही होंगी कि इससे बचने का उपाय क्या है। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे मेरे पति सौ वर्ष तक जीवित रहें।’
देवी माँ ने कहा, ‘उपाय तो तेरे वश का है, पर क्या तू उसे कर भी पाएगी?’
मैंने कहा, ‘माँ आप बताएँ तो सही। अपने पति के लिए तो मैं अपने प्राण भी दे सकती हूँ। आप बिना किसी आशंका के मुझे वह उपाय बता भर दें।’
मेरी प्रार्थना सुनकर देवी ने कहा, ‘यदि तू किसी पर-पुरुष के साथ शयन करके उसका आलिंगन करे तो तेरे पति की अकाल मृत्यु का प्रवेश उस पुरुष में हो जाएगा। इससे तुम्हारा पति तो सौ साल तक जीवित रहेगा, पर उसकी आयु घट जाएगी। मैंने आपको इसीलिए बुलाया है। आप मेरे साथ जो चाहे सो करें, पर एक बात जान लें कि देवी के मुँह से निकली बात अकारथ नहीं जाएगी।’
बढ़ई की बहू की बात सुनकर उसका यार मन ही मन उसकी चतुराई पर मुस्कराने लगा और जिस काम के लिए आया था उस काम पर जुट गया।
वह मूर्ख बढ़ई तो अपनी जोरू की बातें सुनकर पुलकित हो गया। उसके आनन्द का कोई ठिकाना न था। वह चारपाई के नीचे से निकलकर बाहर आ गया और बोला, ‘‘धन्य है! मेरी पतिव्रता पत्नी, तू धन्य है। मैंने नाहक चुगलखोरों के कहने में आकर तेरे ऊपर सन्देह किया। मैं तो तुम्हें परखने के लिए ही दूसरे गाँव जाने का बहाना बनाकर निकला था। अब मेरा मन साफ हो गया। आओ, मेरे हृदय से लग जाओ। तुम पतिव्रता नारियों की सिरमौर हो। पर-पुरुष के साथ रहकर भी तुमने इतने संयम से काम लिया। तुमने मेरी अकाल मृत्यु को दूर करने और मुझे दीर्घायु बनाने के लिए जो कुछ किया उसे मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ।’’ यह कहकर उसने अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया।
उसने अपनी जोरू को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया और देवदत्त से बोला, ‘‘महानुभाव, यह मेरे पिछले जन्म का पुण्य है जो आप ने यहाँ आने का कष्ट किया। आपकी कृपा से ही मुझे सौ वर्ष की आयु मिली है इसलिए आप भी मेरे गले लग जाएँ और कन्धे पर चढ़ जाएँ।’’
देवदत्त आना-कानी करता रहा पर उसने उसकी एक न सुनी। हारकर उसे भी उसके कन्धे पर सवार होना ही पड़ा। अब वह खुशी से नाचते हुए कहने लगा, ‘‘आप लोगों ने मेरा इतना बड़ा उपकार किया है, आप दोनों धन्य हैं।’’
वह उन दोनों को लेकर अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ जाता और सभी को यह कहानी सुनाता और उन दोनों की तारीफ के पुल बाँधने लगता।
कहानी पूरी करके रक्ताक्ष बोला, ‘‘मैं इसीलिए कह रहा था कि अपनी आँखों से किसी को पाप करते देखकर भी मूर्ख आदमी झूठे बहानों से ही सन्तुष्ट हो जाता है।’’
अब वह मन्त्रियों की ओर मुड़ा और बोला, ‘‘आप लोगों ने तो अपनी ही जड़ खोद डाली है। अब हमें तबाह होने से कौन रोक सकता है? सयानों ने कुछ गलत तो कहा नहीं है कि जो मित्र बनकर भी भलाई की जगह बुराई की सलाह देते हैं उन्हें समझदार लोग अपना दुश्मन समझते हैं। कौन नहीं जानता कि जिस मन्त्री को यह मालूम ही नहीं कि किस देश में और किस मौके पर क्या करना चाहिए, उसे मन्त्री बनानेवाला राजा उसी तरह मिट जाता है जैसे सूरज के निकलने पर अँधेरा मिट जाता है।’’
पर वहाँ कौन था जो रक्ताक्ष की बात पर कान देता। अब वे उल्लू स्थिरजीवी को उठाकर अपने दुर्ग में ले जाने लगे। जब वे स्थिरजीवी को इस तरह ले जा रहे थे तो उसने कहा, ‘‘मैं अब किसी काम का तो रहा नहीं। मेरे लिए आप लोग इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं? मुझे तो आप लोग थोड़ी-सी आग दे दें, मैं उसी में जल मरूँ। इसी में मेरा कल्याण है।’’
उसकी बात सुनकर राजनीति कुशल रक्ताक्ष बोला, ‘‘जनाब, आप काफी घुटे हुए हैं और बातें गढ़ने में तो आपका कोई जवाब नहीं। आप अगले जन्म में उल्लू योनि में पैदा हों तो भी आप को कौओं से ही लगाव रहेगा। कहते हैं जाति का मोह आसानी से नहीं छूटता। चुहिया को ब्याहने के लिए सूर्य, मेघ, पवन और पर्वत सभी तैयार थे, फिर भी उसने अपने पति के रूप में यदि चुना तो एक चूहे को चुना।’’
मन्त्रियों में से किसी को इस चुहिया के बारे में कुछ मालूम न था। उनके आग्रह करने पर रक्ताक्ष ने जो कहानी सुनायी वह इस प्रकार थी।
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Old 13-07-2013, 01:04 PM   #2
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Default Re: कथा संस्कृति

नीति
600-700 ई.पू. लिखी गयी ‘पंचतन्त्र की कथाएँ, सम्भव है, आर्यों की लौकिक नीतिकथाएँ रही हों। आर्यों ने नियमन के लिए व्यक्ति को कभी सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा, मात्र संकेत ही किये हैं। और ये नीति कथाएँ इस दृष्टि से रोचक भी हैं और कहानियाँ भी।’
एक
एक गाँव में द्रोण नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भीख माँगकर उसकी जीविका चलती थी। उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। उसकी दाढ़ी और नाखून बढ़े रहते थे। एक बार किसी यजमान ने उस पर दया करके उसे बैलों की एक जोड़ी दे दी। लोगों से घी-तेल-अनाज माँगकर वह उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा। दोनों बैल खूब मोटे-ताजे हो गये।
एक चोर ने उन बैलों को देखा, तो उसका जी ललचा गया। उसने निश्चय किया कि वह बैलों को चुरा लेगा। जब वह यह निश्चय कर अपने गाँव से चला, तो रास्ते में उसे लम्बे-लम्बे दाँतों, लाल-आँखों, सूखे बालोंवाला एक भयंकर आदमी मिल गया।
‘‘तुम कौन हो?’’ चोर ने डरते-डरते पूछा।
‘‘मैं ब्रह्मराक्षस हूँ,’’ भयंकर आकृति वाले ने उत्तर दिया और पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’
चोर ने उत्तर दिया, ‘‘मैं क्रूरकर्मा चोर हूँ। पासवाले ब्राह्मण के घर से बैलों की जोड़ी चुराने जा रहा हूँ।’’
राक्षस बोला, ‘‘प्यारे भाई, मैं तीन दिन में एक बार भोजन करता हूँ। आज मैं उस ब्राह्मण को खाना चाहता हूँ। हम दोनों एक मार्ग के यात्री हैं। चलो, साथ-साथ चलें।’’
वे दोनों ब्राह्मण के घर गये और छुपकर बैठ गये। वे मौके का इन्तजार करने लगे। जब ब्राह्मण सो गया, राक्षस उसे खाने के लिए आगे बढ़ा। चोर ने उसे टोक दिया, ‘‘मित्र, यह बात न्यायानुकूल नहीं है। पहले मैं बैल चुरा लूँ, तब तुम अपना काम करना।’’
राक्षस बोला, ‘‘बैलों को चुराते हुए खटका हुआ, तो ब्राह्मण जरूर जाग जाएगा। फिर मैं भूखा रह जाऊँगा।’’
चोर बोला, ‘‘जब तुम उसे खाने जाओगे, तो कहीं कोई अड़चन आ गयी, तो मैं बैल नहीं चुरा पाऊँगा।’’
दोनों में कहा-सुनी हो गयी। शोर सुनकर ब्राह्मण जाग गया। उसे जागा हुए देखकर चोर बोला, ‘‘ब्राह्मण, यह राक्षस तेरी जान लेने लगा था। मैंने तुझे बचा लिया।’’
राक्षस बोला, ‘‘ब्राह्मण, यह चोर तेरे बैल चुराने आया था। मैंने तुझे लुटने से बचा लिया।’’
इस बातचीत से ब्राह्मण सतर्क हो गया। उसने अपने इष्ट देव को याद किया। राक्षस फौरन भाग गया। फिर डण्डे की मदद से ब्राह्मण ने चोर को भी मार भगाया।
-अनीति

Last edited by VARSHNEY.009; 13-07-2013 at 01:32 PM.
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Old 13-07-2013, 01:33 PM   #3
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Default Re: कथा संस्कृति

दो
एक झील के किनारे भरुण्ड नामक पक्षी रहते थे। उनका पेट तो अन्य पक्षियों की तरह एक ही था, पर सिर दो थे।
एक बार की बात है, इनमें से एक पक्षी कहीं घूम रहा था। उसके एक सिर को एक मीठा फल मिल गया। दूसरा सिर बोला, ‘‘आधा फल मुझे दे दो।’’ पहले सिर ने इनकार कर दिया। दूसरे सिर को गुस्सा आ गया। उसने कहीं से जहरीला फल खा लिया। पक्षी का पेट तो एक ही था, इसलिए जल्दी ही वह मर गया।
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Old 13-07-2013, 01:33 PM   #4
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Default Re: कथा संस्कृति

तीन
एक राज्य में बड़ा पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था। अपनी वीरता के लिए वह दिग्दिगन्त में प्रख्यात था। दूर-दूर तक के राजा उसका मान करते थे। समुद्र तट तक उसका राज्य फैला था।
राजा नन्द का मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान और शास्त्र-पारंगत था, पर उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था। एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रूठ गयी कि मानी ही नहीं।
तब वररुचि ने उससे पूछा, ‘‘प्रिये, तेरी खुशी के लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। जो तू कहेगी, मैं वही करूँगा।’’
पत्नी बोली, ‘‘अच्छी बात है। मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुँडाकर, मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना।’’
वररुचि ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।
उसी दिन की बात है, राजा की स्त्री भी रूठ गयी। नन्द ने भी कहा, ‘‘प्रिये, तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है। तेरी खुशी के लिए मैं सबकुछ करने को तैयार हूँ। तू आदेश कर, मैं उसका पालन करूँगा।’’
राजा की स्त्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूँ कि तेरे मुँह में लगाम डालकर तुझ पर सवारी करूँ और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौड़े।’’
राजा ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।
दूसरे दिन सुबह राजदरबार में जब वररुचि उपस्थित हुआ, तो राजा ने पूछा, ‘‘मन्त्री, तुमने अपना सिर किस पुण्यकाल में मुँडा डाला?’’
वररुचि ने उत्तर दिया, ‘‘राजन्, मैंने उस पुण्यकाल में सिर मुँडाया, जिस काल में पुरुष मुँह में लगाम लगाकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं।’’
सुनकर राजा बड़ा लज्जित हुआ।
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Old 13-07-2013, 01:43 PM   #5
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चंगुल में गर्दन
किसी वन में एक विशाल सरोवर था। उसमें तरह-तरह के जीव-जन्तु रहते थे। उन्हीं जन्तुओं में एक बगुला भी था। जवानी के दिनों में तो उसकी गर्दन में इतनी लोच, नजर में ऐसा पैनापन और चोंच में ऐसी पकड़ हुआ करती थी कि भूले-भटके भी कोई मछली उसके पास पहुँच जाती तो उसकी चोंच में दबकर उसके पेट की ओर सरक जाती थी। अब वह बूढ़ा हो चला था और हर तरफ से निढाल-सा हो चुका था। बस एक चीज बची हुई थी। यह थी उसकी चालाकी। अब इसी का भरोसा था।
एक दिन वह सरोवर के किनारे बैठकर रोने लगा। दूसरे जीवों ने बहुत पूछा पर वह बताने का नाम न ले। रोता चला जा रहा था, रोता चला जा रहा था। आँसू थमते ही न थे। उसको किसी ने इससे पहले इस तरह रोते नहीं देखा था इसलिए सभी को हैरानी हो रही थी। हैरानी इसलिए भी हो रही थी कि मछलियाँ उसके पास तक चली आ रही थीं। फिर भी वह उनकी ओर देख तक नहीं रहा था। अब केंकड़ा आदि कुछ जीव एक शिष्टमण्डल बनाकर उसके पास आये और बार-बार यह जानने का हठ करने लगे कि वह रो क्यों रहा है।
अब लम्बी उसाँस लेता हुआ वह भरे गले से बोला, ‘‘प्यारे, मैंने अब वैराग्य ले लिया है। अब मछलियों को तो नहीं ही खाऊँगा और कुछ खाये-पिये बिना ही उपवास करते हुए मैं अपने प्राण दे दूँगा। यह निश्चय करके मैं यहाँ बैठा हूँ। तुम लोगों ने तो देखा ही होगा कि पास आयी मछलियों को भी मैं उलटकर नहीं देख रहा हूँ।’’
अब केकड़े की उत्सुकता और बढ़ गयी। उसने पूछा, ‘‘आपके इस तरह एकाएक वैराग्य लेने का कोई कारण तो होगा? हमें भी बताइए न!’’
बगुले ने कहा, ‘‘बच्चे, मैं इसी सरोवर में पैदा हुआ, यहीं बड़ा हुआ, यहीं पर बूढ़ा भी हो गया। अब जो जीवन जीना और भोगना था वह तो मैं जी और भोग चुका। मुझे अपने लिए तो कोई दुख हो ही नहीं सकता। दुख तो इस सरोवर के प्राणियों के लिए हो रहा है।’’
अब श्रोताओं का कुतूहल और प्रबल हो उठा। उनके कुछ और जिज्ञासा करने के बाद उसने बताया कि उसने किसी से सुना है कि इस साल बहुत भयंकर सूखा पड़नेवाला है। उस सूखे में यह सरोवर तो सूख जाएगा और सभी प्राणियों को तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा। उसी की कल्पना करके उसे रोना आ रहा था।
केकड़े ने पूछा, ‘‘किससे सुनी है आपने यह बात?’’
बगुले ने उत्तर दिया, ‘‘ज्योतिषियों को बात करते सुना था। उनका कहना था कि इस साल शनि रोहिणी के शकट का भेदन कर रहा है और फिर उसका योग शुक्र से होगा। तुमने वराहमिहिर की वह उक्ति तो सुनी ही होगी कि यदि शनि रोहिणी के शकट का भेदन करता है तो बारह वर्ष तक बरसात नहीं होती। कहते हैं रोहिणी के शकट का भेदन हो जाने पर पृथ्वी अपने को पापिनी समझने लगती है, इसलिए शुद्धि करने के लिए भस्म और राख मलकर कापालिक का वेश अपना लेती है।’’
पृथ्वी के कापालिक वेश धारण करने की बात केकड़े की समझ में नहीं आयी तो उसने बगुले से इसे कुछ समझाकर बताने को कहा।
उसकी इस सरलता पर इस दुख के बीच भी बगुले को हँसी आ गयी, ‘‘मतलब इसका यह है भानजे कि इस विकराल सूखे के प्रभाव से धरती रेगिस्तान का-सा रूप ले लेती है। जहाँ देखो वहाँ धूल और राख उड़ती दिखाई देती है और जगह-जगह मरे हुए लोगों के कपाल और पंजर बिखरे दिखाई देते हैं मानो धरती ने मुण्डमाला पहन रखी हो।’’
केकड़े ने पूछा, ‘‘क्या सचमुच ऐसा हो सकता है?’’
बगुला बोला, ‘‘ज्योतिषी की बात है, झूठी तो हो नहीं सकती। ज्योतिषियों का तो कहना है कि शनि तो दूर, यदि चन्द्रमा भी रोहिणी के शकट का भेदन करे तो प्रलय की-सी स्थिति उपस्थित हो जाती है। लोग बेहाल होकर अपने बच्चों तक को मारकर खा जाते हैं। यदि कहीं चुल्लू दो चुल्लू पानी मिला भी तो सूर्य की दहकती किरणों से इस तरह उबल रहा होता है कि उसके पीने पर प्यास बुझने के स्थान पर और भड़क उठती है। लगता है पानी नहीं आग पी रहे हैं।
‘‘तो मुझे चिन्ता तो इसी बात को लेकर है कि जल्द ही इस तालाब का पानी सूखकर घट जाएगा और फिर पूरी तरह सूख जाएगा। जिन जीवों के साथ मैं पैदा हुआ, जिनके साथ खेलता-खाता हुआ बड़ा हुआ, वे सभी पानी के बिना मर जाएँगे। उनका वियोग मैं अपनी आँखों से देख नहीं पाऊँगा। यही सोचकर रो रहा था। यही सोचकर मैं यह आमरण उपवास का व्रत ठानकर बैठा हूँ। इस समय दूसरे छोटे सरोवरों के जीवों को उनके अपने सगे-सम्बन्धी बड़े सरोवरों में ले जा रहे हैं। कुछ बड़े जानवर, जैसे मगर, घड़ियाल, गोह और दरियाई हाथी अपने पाँवों चलकर दूसरे बड़े तालाबों में जा रहे हैं। इस सरोवर के प्राणियों को कोई चिन्ता ही न हो जैसे। वे निश्चिन्त पड़े हुए हैं। यही सोचकर तो मुझे और भी रोना आ रहा है कि यहाँ तो न कोई किसी का नाम लेनेवाला रह जाएगा, न पानी देनेवाला।’’
शिष्टमण्डल ने यह बात सुनी तो उसने यह बात चारों ओर फैला दी। इस समाचार का फैलना था कि सारे जानवर डर से काँपने लगे। मछलियों और कछुओं ने तो घबराहट में उससे अपने बचाव का उपाय भी पूछना शुरू कर दिया, ‘‘मामा जी, क्या हमारे प्राण किसी तरह बच सकते हैं?’’
बगुले ने कहा, ‘‘यहाँ से कुछ ही दूर पर एक बहुत गहरा जलाशय है। उसमें खाने के लिए सेवार आदि तो भरा ही हुआ है, पानी इतना अधिक है कि बारह वर्ष की तो बात ही अलग, यदि चौबीस वर्ष तक भी वर्षा न हो तो भी वह न सूखे। यदि कोई मेरी पीठ पर बैठ जाए तो मैं उसे वहाँ पहुँचा भी सकता हूँ।’’
अब तो उसकी साख यूँ जम गयी कि सारे जलचर उससे अपना सम्बन्ध निकालने लगे। उसे भाई, चाचा, ताऊ, मामा कहकर पुकारते हुए इस बात का आग्रह करने लगे कि सबसे पहले वह उन्हें ही ले जाए। वह बदमाश भी उन्हें पीठ पर चढ़ाकर ले जाता और वहाँ से कुछ ही दूरी पर स्थित एक चट्टान पर पहुँचते ही उन्हें नीचे गिरा देता और आराम से खाता रहता और फिर वापस आ जाता। लौटने पर वह जिन जीवों को ले जा चुका रहता था उनके विषय में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर दूसरे जीवों का जी खुश कर देता। इसी तरह उसके दिन कटते रहे।
एक दिन उससे केकड़े ने कहा, ‘‘मामा जी, सबसे पहले तो आपने यह बात मुझसे कही थी और मुझे ही भूल गये। मुझसे पहले दूसरे जानवरों को ले जा रहे हो। आज तो आपको मुझे लेकर चलना ही होगा।’’
केकड़े की बात सुनकर बगुला सोचने लगा, बात तो यह भी ठीक है। इतने समय से लगातार मछलियों का ही मांस खाते-खाते मेरा भी मन ऊब चुका है। आज स्वाद बदलने के लिए इसको गटकूँगा। यह सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बैठा लिया और उस चट्टान की ओर उड़ चला। अभी दोनों वहाँ पहुँच भी नहीं पाये थे कि केकड़े ने दूर से ही उस स्थान को देख लिया, जहाँ मछलियों के काँटों के ढेर के ढेर पड़े हुए थे। अब सारा खेल उसकी समझ में आ गया। उसने बड़े भोलेपन से पूछा, ‘‘मामा, अब वह सरोवर कितनी दूर रह गया? मुझे तो लगता है आप मुझे ढोते-ढोते थक भी चले हैं।’’
बगुले ने सोचा, पानी का यह जीव अब आसमान में क्या कर पाएगा। वह हँसकर बोला, ‘‘भानजे, कैसा सरोवर और कैसी थकान। इस समय तो तुम अपने देवी-देवताओं को मनाओ। मैं अब तुम्हें इस चट्टान पर पटककर चट कर जाऊँगा।’’
उसका इतना कहना था कि केकड़े ने अपने चंगुल से उसकी गर्दन धर दबोची और वह वहीं टें बोल गया।
अब केंकड़ा किसी तरह घिसटता-लुढ़कता उस सरोवर में लौटा। अब सभी जलचर उसे घेरकर पूछने लगे, ‘‘अरे कुलीरक, तू वापस क्यों आ गया? इतना समय हो गया और वह मामा भी नहीं आया। बात क्या हुई? इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? हम लोगों की बारी कब आएगी?’’
उनकी बात सुनकर केंकड़ा हँसने लगा। उसने सारी कथा उन्हें कह सुनायी और अन्त में कहा, ‘‘यह रही उसकी गर्दन। इसे मैं साथ ही लेता आया कि तुम लोगों को विश्वास दिला सकूँ। अब डरने की कोई बात नहीं। जो हुआ सो भले के लिए ही हुआ। अब भविष्य में कोई ज्योतिषियों और ग्रहों का नाम लेकर हमें बहका नहीं सकेगा। और भविष्य के खतरे दिखाकर उनसे बचाने के नाम पर हमें लूटकर खा नहीं सकेगा।’’
जलचरों की समझ में तो यह बात आ गयी पर मनुष्यों की समझ में यह बात कभी नहीं आ सकेगी। पर मैं ठहरा सियार और तुम ठहरे पक्षियों में सबसे चौकस पक्षी, हम आदमियों जितने मूर्ख तो हो नहीं सकते।
कौआ और कौवी को अपनी बड़ाई सुनकर खुशी हुई, पर यह बात तो वे पहले से जानते थे कि मनुष्य बुद्धि के मामले में उनसे उन्नीस पड़ता है और अपने बच्चों को सिखाता है कि जैसे कौआ चौकन्ना रहता है उसी तरह तुम भी रहा करो। इस समय तो उन्हें काले साँप से छुटकारा चाहिए था और इसकी सलाह चाहिए थी। इसलिए कौआ कुछ उतावली में आ गया, ‘‘भाई, यह तो बताओ कि उस काले साँप से छुटकारा कैसे मिलेगा?’’
सियार ने कहा, ‘‘तुम ऐसा करो कि किसी पास के नगर में चले जाओ और वहाँ किसी राजा, साहूकार या जमींदार के यहाँ से कोई कीमती हार या माला उठा लाओ और साँप के उस कोटर में डाल दो। जो लोग तुम्हारा पीछा करते हुए आएँगे और हार को उस कोटर में गिरते देखेंगे तो वे जब हार निकालने चलेंगे तो पहला काम उस काले साँप को मारने का ही करेंगे। तुम्हारा कण्टक ही कट जाएगा।’’
सियार की बात सुनकर कौआ और कौवी दोनों उड़ चले। कौवी ने देखा कि किसी सरोवर में राजा के रनिवास की रानियाँ अपने सोने और मोती के हार और वस्त्र आदि किनारे रखकर जलविहार कर रही हैं। कौवी ने एक झपट्टा मारा और सोने की एक माला लेकर उड़ चली। अब जो रानियों की रखवाली के लिए आये हुए बूढ़े और जनखे थे, वे लाठी लेकर पीछे-पीछे दौड़ पड़े। कौवी ने योजना के अनुसार उस सोने की माला को कोटर में डाल दिया और दूर जाकर एक डाली पर बैठकर तमाशा देखने लगी। होना तो वही था जिसका सियार ने पहले ही अनुमान करा दिया था। जब वे कोटर के पास पहुँचे तो भीतर से साँप की फुफकार सुनाई दी। उन्होंने डण्डे से मार-मारकर उसका कीमा बना दिया। सोने की माला लेकर वे तो वापस लौट गये। इधर कौआ अपनी घरवाली के साथ आराम से रहने लगा और निश्चिन्त होकर अण्डे देने और बच्चे पालने लगा।
इस कथा को सुनाने के बाद दमनक बोला, ‘‘मैं इसीलिए कह रहा था कि उपाय से जो सम्भव है वह पराक्रम से भी सम्भव नहीं है। बुद्धिमान आदमी के लिए कोई काम असम्भव नहीं है। कहते हैं कि जिसके पास बुद्धि है बल भी उसी के पास है। बुद्धिहीन के पास भला बल हो भी कैसे सकता है?
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चींटियाँ साँप को चट कर गयीं
किसी वल्मीक में अतिदर्प नाम का एक काला नाग रहता था। एक दिन वह बिल के रास्ते को छोड़कर किसी दूसरे तंग रास्ते से निकलने लगा। उसका शरीर तो मोटा था और रास्ता सँकरा, इसलिए निकलते समय रगड़ से उसका शरीर छिल गया। अब उसके घाव और खून की गन्ध पाकर चींटियों ने उसे घेर लिया। वह विकल हो गया। वह भागता तो कहाँ भागता और जाता तो कहाँ जाता। चींटियाँ एक-दो तो थीं नहीं। उसका पूरा शरीर घावों से भर गया और उसके प्राण निकल गये।
इसीलिए कह रहा था, बहुत से लोगों का विरोध मोल नहीं लेना चाहिए। अब इस बारे में मुझे खास बात कहनी है। उसे सुनने के बाद आपको जो भी ठीक लगे कीजिए।
मेघवर्ण बोला, ‘‘कहिए। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा।’’
स्थिरजीवी बोला, ‘‘तो फिर साम आदि के चार उपायों के अलावा जो पाँचवाँ उपाय है उसे सुनें। आप मुझे विद्रोही घोषित कर दें। यह प्रकट न होने दें कि मैं आपसे मिल गया हूँ। इसके लिए मुझे ताड़ना देकर अपनी सभा से निकाल बाहर करें। यह काम इस तरह होना चाहिए कि शत्रु पक्ष के जासूसों को पूरा विश्वास हो जाए कि मुझे दरबार से निकाल दिया गया है। फिर कहीं से नकली खून मँगाकर मेरे शरीर पर जहाँ-तहाँ चुपड़कर इसी बरगद के नीचे पड़ा रहने दें और स्वयं ऋष्यमूक पर्वत की ओर चले जाएँ। वहाँ आप चैन से रहें। इधर मैं शत्रुओं को अपने जाल में फाँसता हूँ। उनका विश्वास पूरी तरह जम जाने के बाद मैं उनके दुर्ग का भेद मालूम कर लूँगा और फिर कभी दिन के समय जब उन्हें दिखाई नहीं देता, मैं उन्हें मार डालूँगा। इसे छोड़कर दूसरा कोई उपाय हमारे पास बचा नहीं है। शत्रुओं के दुर्ग में जान बचाकर भागने के लिए कोई गुप्त मार्ग नहीं है। वे बचकर निकलना भी चाहेंगे तो निकल नहीं पाएँगे। यही उनके सर्वनाश में सहायक होगा। आप तो जानते ही हैं कि कूटनीतिज्ञ उस दुर्ग को दुर्ग नहीं मानते जिससे निकल भागने का कोई रास्ता ही न हो। वह तो दुर्ग के नाम पर जेलखाना हुआ।
और देखिए, मेरे ऊपर जो भी बीते आपको मेरे साथ किसी तरह की दया नहीं दिखानी है। युद्ध के समय में राजा को अपने उन सेवकों को भी सूखे काठ की तरह युद्ध की आग में झोंक देना चाहिए जिन्हें उसने बड़े लाड़-प्यार से पाला हो। राजा अपने सेवकों की रक्षा अपने प्राणों की तरह करता है, उनका पालन-पोषण अपनी काया की तरह करता है, पर किसलिए? इसीलिए न कि जिस दिन शत्रु का सामना होगा उस समय वे काम आएँगे!
इसलिए इस समय मैंने जो सुझाव दिया आपको उसी पर चलना होगा। आप न तो मुझे रोकेंगे न ही मनाएँगे। इतनी बात गुपचुप समझाकर वह भरी सभा में मेघवर्ण से अकारण तकरार करने लगा।
अब उसके दूसरे सेवक स्थिरजीवी को ऊटपटाँग जवाब देते और उलटी-सीधी बातें करते देखकर जब उसका वध करने चले तो मेघवर्ण ने उन्हें रोक दिया, ‘‘आप लोग इसे रहने दें। शत्रुओं का पक्ष लेनेवाले इस दुष्ट को मैं अपने हाथों दण्ड दूँगा।’’ ऐसा कहकर वह उछलकर उसके ऊपर चढ़ गया और हल्के-हल्के उसे चोंच से मारते हुए यह दिखाने लगा कि वह उसे पूरी निर्दयता से मार रहा है। फिर उसके ऊपर मँगाया हुआ खून उँड़ेलकर उसके उपदेश को मानते हुए सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत की ओर रवाना हो गया।
इसी अवधि में उल्लुओं की दूती खिंडरिच ने कहीं से मेघवर्ण और स्थिरजीवी के बीच कलह का समाचार सुन लिया। वह झट उलूक राजा के पास जा पहुँची और सारी घटना बताकर बोली कि अब आपका शत्रु डरकर इस स्थान को छोड़कर जाने कहाँ चला गया। उलूकराज ने अपने सैनिकों को ललकारते हुए कहा, ‘‘दौड़ो, उनका पीछा करो। कोई बचकर निकलने न पाए। डरकर भागता हुआ शत्रु बड़े भाग्य से ही हाथ आता है। भागता हुआ शत्रु अपना पुराना स्थान छोड़ चुका रहता है और नये ठिकाने पर जम नहीं पाया रहता है, इसलिए उसकी हालत इतनी डाँवाडोल होती है कि वह बहुत आसानी से काबू में आ जाता है।’’
इस तरह अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करके उसने उस बरगद के पेड़ को चारों ओर से घेरकर उसी के नीचे डेरा डाल दिया। उस पेड़ की डाल-डाल छान मारने के बाद भी जब कोई कौआ नहीं मिला तो उसके बन्दीजन उसका गुणगान करने लगे। वह स्वयं पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर बैठकर कहने लगा, पता लगाओ वे किस मार्ग से यहाँ से भागकर गये हैं। नये दुर्ग में पहुँचने से पहले ही उनका सफाया कर दो। क्योंकि यदि शत्रु को टाट की भी ओट मिल जाए तो उसको हराना कठिन हो जाता है। यदि दुर्ग की सुरक्षा मिल गयी तब तो उसका बाल भी बाँका नहीं किया जा सकता।
स्थिरजीवी की ओर इस बीच किसी उल्लू ने ध्यान ही नहीं दिया। वह सोचने लगा कि यदि इनकी नजर मेरे ऊपर पड़ी ही नहीं तब तो मेरा सारा नाटक ही धरा रह जाएगा। कहते हैं कि समझदारी इसमें है कि किसी काम में हाथ ही न डालो। अगर हाथ डाल ही दिया तो उसे अन्त तक निभाओ। आरम्भ करके छोड़ देने से अच्छा तो यह था कि कुछ करते ही नहीं। आरम्भ किया है तो इसे सफल भी बनाना होगा। यदि वे स्वयं मुझे नहीं देख पाते हैं तो मैं अपनी कराह से इनका ध्यान अपनी ओर खींचूँगा। यह सोचकर वह धीरे-धीरे कराहने लगा। उसकी कराह सुनना था कि सारे उल्लू मारने के लिए एक साथ झपट पड़े।
उनको झपटते देखकर उसने कहा, ‘‘अरे भाई, मैं मेघवर्ण का मन्त्री स्थिरजीवी हूँ। मैं तो पहले से ही अधमरा हो चुका हूँ। उसी दुष्ट ने मेरी यह गति बना दी है। मेरी सारी बातें अपने स्वामी से जाकर बताओ। मुझे उनसे कुछ और जरूरी बातें करनी हैं।’’
जब उलूकराज ने स्थिरजीवी की पूरी रामकहानी सुनी तो वह स्वयं उसके पास आया और पूछा, ‘‘आपकी यह दशा कैसे हुई?’’
स्थिरजीवी बोला, ‘‘महाराज, हुआ यह कि वह दुष्ट मेघवर्ण आपके मारे हुए असंख्य कौओं की हालत देखकर क्रोध से भड़क उठा और आपके ऊपर चढ़ाई करने को तैयार हो गया। मैंने उस मूर्ख को उसके भले के लिए समझाया कि मालिक, आपको उलूकराज पर चढ़ाई करने की बात भी नहीं सोचनी चाहिए, क्योंकि हम लोग उनकी तुलना में अधिक कमजोर हैं। नीति यही कहती है कि दुर्बल राजा को अपने से अधिक शक्तिशाली राजा का विरोध करने की बात मन में नहीं लानी चाहिए। उसका तो इससे कुछ बिगड़ेगा नहीं पर चढ़ाई करने वाला उसी तरह मिट जाएगा, जैसे दीये की लौ पर हमला करनेवाले पतंगे जलकर राख हो जाते हैं। इसलिए हमारे पास एक ही उपाय है और वह यह कि हमें उन्हें उपहार आदि देकर सन्धि कर लेनी चाहिए। कहा भी है कि बलवान शत्रु को देखकर ही समझदार राजा को अपना सबकुछ देकर भी अपने प्राण बचा लेना चाहिए। जान बची रही तो धन तो बाद में भी आ जाएगा।
मेरी यह सलाह सुनकर वह मूर्ख भड़क उठा और क्रोध से भरकर मेरे ऊपर उसी समय हमला कर दिया और मार-मारकर मेरी यह गति बना दी। अब तो मैं आपकी ही शरण में हूँ। अधिक क्या कहूँ! अभी तो मुझसे चला-फिरा भी नहीं जा रहा है। चलने-फिरने लगा तो पहले मैं आपको ले चलकर वह जगह दिखाऊँगा जहाँ वे छिपे बैठे हैं। मेघवर्ण का नाश कराने से पहले मेरे जी को शान्ति नहीं।’’
उसकी बात सुनकर अरिमर्दन नाम का वह उल्लू अपने कुल के पुराने मन्त्रियों से सलाह करने लग गया। उसके भी एक नहीं पाँच मन्त्री थे। उनके नाम थे रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास और प्राकारकर्ण। सबसे पहले रक्ताक्ष से उसने पूछा, ‘‘मन्त्रिवर, शत्रुपक्ष का एक मन्त्री हमारे काबू में आ गया है। इस हालत में हमें क्या करना चाहिए?’’
रक्ताक्ष ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज, इसमें इतना सोच-विचार क्या करना। उसको झट मौत के घाट उतार देना चाहिए। कहते हैं, हीनः शत्रु निहन्तव्यो यावत् न बलवान् भवेत्। शत्रु कमजोर हो तभी उसे मार डालना चाहिए। यदि दया करके उसे उस समय छोड़ दिया और वह ताकतवर हो गया तो फिर उसे जीतना कठिन हो जाता है।
और फिर हाथ आया हुआ शत्रु तो हाथ आयी हुई लक्ष्मी होता है। यदि आयी लक्ष्मी को लौटा दिया तो वह शाप देती है। कहते हैं यदि आदमी अवसर की तलाश में रहे तो उसे एक बार अवसर जरूर मिलता है पर यदि उस समय भी आलस्य कर जाए तो अवसर हाथ से निकल जाता है और वह लौटकर फिर नहीं आता।’’
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Old 13-07-2013, 01:44 PM   #7
VARSHNEY.009
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पढ़े-लिखे मूर्ख
किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए।
अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे। बारह वर्ष तक जी लगाकर पढ़ने के बाद वे सभी अच्छे विद्वान हो गये।
अब उन्होंने सोचा कि हमें जितना पढ़ना था पढ़ लिया। अब अपने गुरु की आज्ञा लेकर हमें वापस अपने नगर लौटना चाहिए। यह निर्णय करने के बाद वे गुरु के पास गये और आज्ञा मिल जाने के बाद पोथे सँभाले अपने नगर की ओर रवाना हुए।
अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि रास्ते में एक तिराहा पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आगे के दो रास्तों में से कौन-सा उनके अपने नगर को जाता है। अक्ल कुछ काम न दे रही थी। वे यह निर्णय करने बैठ गये कि किस रास्ते से चलना ठीक होगा।
अब उनमें से एक पोथी उलटकर यह देखने लगा कि इसके बारे में उसमें क्या लिखा है।
संयोग कुछ ऐसा था कि उसी समय पास के नगर में एक बनिया मर गया था। उसे जलाने के लिए बहुत से लोग नदी की ओर जा रहे थे। इसी समय उन चारों में से एक ने पोथी में अपने प्रश्न का जवाब भी पा लिया। कौन-सा रास्ता ठीक है कौन-सा नहीं, इसके विषय में उसमें लिखा था, ‘‘महाजनो येन गतः स पन्था।’’
किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि यहाँ महाजन का अर्थ क्या है और किस मार्ग की बात की गयी है। श्रेणी या कारवाँ बनाकर निकलने के कारण बनियों के लिए महाजन शब्द का प्रयोग तो होता ही है, महान व्यक्तियों के लिए भी होता है, यह उन्होंने सोचने की चिन्ता नहीं की। उस पण्डित ने कहा, ‘‘महाजन लोग जिस रास्ते जा रहे हैं उसी पर चलें!’’ और वे चारों श्मशान की ओर जानेवालों के साथ चल दिये।
श्मशान पहुँचकर उन्होंने वहाँ एक गधे को देखा। एकान्त में रहकर पढ़ने के कारण उन्होंने इससे पहले कोई जानवर भी नहीं देखा था। एक ने पूछा, ‘‘भई, यह कौन-सा जीव है?’’
अब दूसरे पण्डित की पोथी देखने की बारी थी। पोथे में इसका भी समाधान था। उसमें लिखा था।
उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति सः बान्धवः।
बात सही भी थी, बन्धु तो वही है जो सुख में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रुओं का सामना करने में, न्यायालय में और श्मशान में साथ दे।
उसने यह श्लोक पढ़ा और कहा, ‘‘यह हमारा बन्धु है।’’ अब इन चारों में से कोई तो उसे गले लगाने लगा, कोई उसके पाँव पखारने लगा।
अभी वे यह सब कर ही रहे थे कि उनकी नजर एक ऊँट पर पड़ी। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतनी तेजी से चलने वाला यह जानवर है क्या बला!
इस बार पोथी तीसरे को उलटनी पड़ी और पोथी में लिखा था, धर्मस्य त्वरिता गतिः।
धर्म की गति तेज होती है। अब उन्हें यह तय करने में क्या रुकावट हो सकती थी कि धर्म इसी को कहते हैं। पर तभी चौथे को सूझ गया एक रटा हुआ वाक्य, इष्टं धर्मेण योजयेत प्रिय को धर्म से जोड़ना चाहिए।
अब क्या था। उन चारों ने मिलकर उस गधे को ऊँट के गले से बाँध दिया।
अब यह बात किसी ने जाकर उस गधे के मालिक धोबी से कह दी। धोबी हाथ में डण्डा लिये दौड़ा हुआ आया। उसे देखते ही वे वहाँ से चम्पत हो गये।
वे भागते हुए कुछ ही दूर गये होंगे कि रास्ते में एक नदी पड़ गयी। सवाल था कि नदी को पार कैसे किया जाए। अभी वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि नदी में बहकर आता हुआ पलाश का एक पत्ता दीख गया। संयोग से पत्ते को देखकर पत्ते के बारे में जो कुछ पढ़ा हुआ था वह एक को याद आ गया। आगमिष्यति यत्पत्रं तत्पारं तारयिष्यति।
आनेवाला पत्र ही पार उतारेगा।
अब किताब की बात गलत तो हो नहीं सकती थी। एक ने आव देखा न ताव, कूदकर उसी पर सवार हो गया। तैरना उसे आता नहीं था। वह डूबने लगा तो एक ने उसको चोटी से पकड़ लिया। उसे चोटी से उठाना कठिन लग रहा था। यह भी अनुमान हो गया था कि अब इसे बचाया नहीं जा सकता। ठीक इसी समय एक दूसरे को किताब में पढ़ी एक बात याद आ गयी कि यदि सब कुछ हाथ से जा रहा हो तो समझदार लोग कुछ गँवाकर भी बाकी को बचा लेते हैं। सबकुछ चला गया तब तो अनर्थ हो जाएगा।
यह सोचकर उसने उस डूबते हुए साथी का सिर काट लिया।
अब वे तीन रह गये। जैसे-तैसे बेचारे एक गाँव में पहुँचे। गाँववालों को पता चला कि ये ब्राह्मण हैं तो तीनों को तीन गृहस्थों ने भोजन के लिए न्यौता दिया। एक जिस घर में गया उसमें उसे खाने के लिए सेवईं दी गयीं। उसके लम्बे लच्छों को देखकर उसे याद आ गया कि दीर्घसूत्री नष्ट हो जाता है, दीर्घसूत्री विनश्यति। मतलब तो था कि दीर्घसूत्री या आलसी आदमी नष्ट हो जाता है पर उसने इसका सीधा अर्थ लम्बे लच्छे और सेवईं के लच्छों पर घटाकर सोच लिया कि यदि उसने इसे खा लिया, तो नष्ट हो जाएगा। वह खाना छोड़कर चला आया।
दूसरा जिस घर में गया था वहाँ उसे रोटी खाने को दी गयी। पोथी फिर आड़े आ गयी। उसे याद आया कि अधिक फैली हुई चीज की उम्र कम होती है, अतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेत् न चिरायुषम्। वह रोटी खा लेता तो उसकी उम्र घट जाने का खतरा था। वह भी भूखा ही उठ गया।
तीसरे को खाने के लिए ‘बड़ा’ दिया गया। उसमें बीच में छेद तो होता ही है। उसका ज्ञान भी कूदकर उसके और बड़े के बीच में आ गया। उसे याद आया, छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति। छेद के नाम पर उसे बड़े का ही छेद दिखाई दे रहा था। छेद का अर्थ भेद का खुलना भी होता है, यह उसे मालूम ही नहीं था। वह बड़े खा लेता तो उसके साथ भी अनर्थ हो जाता। बेचारा वह भी भूखा रह गया।
लोग उनके ज्ञान पर हँस रहे थे पर उन्हें लग रहा था कि वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अब वे तीनों भूखे-प्यासे ही अपने-अपने नगर की ओर रवाना हुए।
यह कहानी सुनाने के बाद स्वर्णसिद्धि ने कहा, ‘‘तुम भी दुनियादार न होने के कारण ही इस आफत में पड़े। इसीलिए मैं कह रहा था शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’
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Old 13-07-2013, 01:45 PM   #8
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अन्धा, कुबड़ा और राजकुमारी
एक राजा था, उसकी एक गम्भीर समस्या थी। उसने ब्राह्मण बुलवाये। उनसे बताया कि उसके एक ऐसी कन्या हुई है जिसके तीन स्तन हैं। उसने उनसे इस अशुभ के निवारण का कोई उपाय बताने को कहा।
ब्राह्मण बोले, ‘‘यदि किसी राजा की कन्या का कोई अंग न हो या कोई अंग अधिक हो तो उसका अपना चरित्र भी दूषित होता है और उसके पति की मृत्यु भी हो जाती है।
हीनांगी वाऽधिकांगी वा या भवेत् कन्यका नृणाम्।
भर्तुः स्यात् सा विनाशाय, स्वशीलनिधनाय च।
फिर उन्होंने बताया कि इनमें भी तीन स्तनों वाली कन्या से तो और भी अनिष्ट हो जाता है। यदि ऐसी कन्या नजर भी आ जाए तो इससे पिता का नाश होते देर नहीं लगती।
या पुनस्त्रिस्तनी कन्या याति लोचनगोचरम्।
पितरं नाशयत्येव सा द्रुतं, नाऽत्र संशयः।
ब्राह्मण जिस तरह की सलाह देने के लिए बुलाये जाते रहे हैं उस तरह की सलाह उन्होंने दे दी और कहा कि राजा उस कन्या को इस तरह रखे कि उस पर उसकी नजर न पड़ने पाए। यदि कोई इसके साथ विवाह करना चाहे तो उसके साथ इसका विवाह करके उसे राज्य से बाहर निकाल दिया जाए।
राजा ने ऐसा ही किया। उसको एक गुप्त स्थान में इस तरह छिपाकर रखा गया कि किसी भी सूरत में उस पर राजा की नजर न पड़ने पाए। कन्या धीरे-धीरे जवान होती गयी। जब शादी की उम्र हुई तो राजा ने मुनादी फिरा दी कि जो कोई उसकी तीन स्तनों वाली कन्या से विवाह करेगा उसे एक लाख सोने की मुहरें दी जाएँगी पर इसके साथ ही उसे राज्य से बाहर भी निकाल दिया जाएगा।
राजा को मुनादी कराये बहुत दिन बीत गये पर कोई उस कन्या से विवाह करने के लिए नहीं आया। उसी नगर में एक अन्धा रहता था। उसका एक सहायक था। उसका नाम था मन्थरख। वह शरीर से कुबड़ा था। वह उस अन्धे की लाठी पकड़कर चलता था। उन दोनों ने राजा की मुनादी का समाचार सुना पर उस समय उनकी हिम्मत यह कहने की नहीं हुई कि उनमें से कोई उससे विवाह करना चाहता है। जब उन्होंने देखा कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी कोई उस कन्या से विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो उन्होंने सोचा कि क्यों न हम एक बार चलकर अपना भाग्य आजमाएँ और उस नगाड़े को छूकर अपना इरादा प्रकट कर दें। यदि राजा मान गया तो राजकुमारी के साथ एक लाख सोने की मुहरें मिल जाएँगी और पूरा जीवन आराम से कटेगा। यदि राजा सुनकर बिगड़ उठा तो अधिक से अधिक जान से मरवा देगा। इससे उन्हें अपने इस नरक जैसे जीवन से छुटकारा तो मिलेगा।
यह तय कर लेने के बाद अन्धे ने उस कुबड़े के साथ जाकर नगाड़े को हाथ लगा दिया। यह नगाड़ा छूने का काम कुछ उसी तरह का था जैसे राजसभा में किसी काम का बीड़ा उठाने का होता है। नगाड़े को छूकर उसने कहा, ‘‘मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूँ।’’
राजा के सिपाहियों ने यह बात राजा को बताकर पूछा कि आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाए।
राजा ने कहा, ‘‘रूप-रंग या उम्र पर न जाओ। कोई अन्धा हो या लँगड़ा, कोढ़ी हो या खंजा, जात हो या बेजात, काला हो या गोरा, जो भी उससे विवाह करना चाहता है उसके साथ विवाह कर दिया जाएगा, पर उसे मेरे राज्य से बाहर अवश्य जाना होगा।
राजा की आज्ञा पाकर उन सिपाहियों ने नदी के किनारे ले जाकर उस अन्धे के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया। राजा की ओर से उसे एक लाख मुहरें दे दी गयीं। फिर उसे नाव में बैठाकर मल्लाहों से कहा गया कि वे उसे राज्य से बाहर छोड़ आएँ।
अब वे दूसरे देश में जाकर आराम से रहने लगे। अन्धा तो दिन-रात मजे से चारपाई तोड़ता रहता। घर का सारा काम कुबड़े को सँभालना पड़ता था। इस तरह कुछ दिनों के बाद राजकुमारी का उस कुबड़े मन्थरक से लगाव पैदा हो गया। यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि चाहे दुनिया उलट जाए पर कोई स्त्री सती हो ही नहीं सकती। फिर इस तीन स्तनोंवाली कन्या के तो भाग्य में ही चरित्रहीन होना लिख दिया गया था।
एक दिन उस कन्या ने मन्थरक से कहा, ‘‘यह अन्धा हमारी राह का काँटा बना हुआ है। कहीं से जहर ले आओ और इसे पिलाकर ठण्डा कर दिया जाए। फिर हम दोनों खुलकर मौज करें।’’
अगले दिन जब मन्थरक जहर की तलाश में निकला तो उसे एक काला नाग मिल गया। उसे लेकर वह खुश-खुश घर लौटा। उसने राजकुमारी से कहा, ‘‘प्रिये, इस काले नाग को काटकर मसाले के साथ पकाकर इस अन्धे को खिला दो। इसे मछली खाने का बड़ा शौक है। चुपचाप खा लेगा और इसके साथ ही इसकी छुट्टी हो जाएगी।’’
यह कहकर मन्थरक कहीं बाहर चला गया। उस राजकुमारी ने साँप के टुकड़े किये और तेल में भूनकर आग पर पकने को छोड़ दिया। इसी बीच उसे कोई काम आ पड़ा। उसने अन्धे से कहा कि चूल्हे पर मछली पक रही है। वह उसके पास ही बैठ जाए और बीच-बीच में कलछी से चलाता रहे।
मछली का नाम सुनते ही अन्धे की लार टपकने लगी। वह कलछी लेकर उसे चलाने लगा। चलाते समय साँप की जहरीली भाप उसकी आँखों में लगी तो इससे उसका मोतियाबिन्द गलने लगा। भाप उसे बहुत अच्छी लग रही थी इसलिए उसने जमकर सिंकाई की।
उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि वहाँ तो मछली के स्थान पर साँप के टुकड़े पड़े हैं। उसकी समझ में न आया कि उसकी पत्नी ने इसे मछली बताकर चलाते रहने को क्यों कहा। उसने इसकी तह में जाने के लिए फिर अपने अन्धा होने का बहाना किया और साँप को मछली मानकर उसमें कलछी घुमाने लगा।
इसी समय कुबड़ा बाहर से आया। उसने राजकुमारी को चूमना और उससे लिपटना शुरू कर दिया। और फिर इसके बाद तो कुछ बाकी रहना नहीं था।
अन्धे को आया क्रोध। वह उठा और टटोलता हुआ उस चारपाई पर पहुँच गया। आसपास कोई हथियार नहीं मिला तो उसने कुबड़े को टाँग से पकड़ा और पूरी ताकत लगाकर घुमाकर राजकुमारी की छाती पर दे मारा। इस चोट के साथ ही राजकुमारी का तीसरा स्तन उसकी छाती में घुस गया। इस तरह घुमाये जाने के कारण जो झटका लगा उससे कुबड़े का कुबड़ापन भी ठीक हो गया।
अब यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है। भाग्य साथ दे तो उलटे काम के भी सीधे नतीजे निकलते हैं।
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Old 13-07-2013, 01:46 PM   #9
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वणिक-पुत्र की पत्नी
हितोपदेश’ भारतीय नीति-कथाओं का संग्रह है। इसका रचनाकाल 850 वर्ष ई. पू. माना गया है। ‘हितोपदेश’ की नीतिपरकता और सोद्देश्यता का प्रभाव परवर्ती विदेशी कथा साहित्य पर भी पड़ा है। इन कथाओं का मूल आधार बुद्धि और शक्ति का कम-से-कम व्यय और लक्ष्य की अधिक-से-अधिक प्राप्ति है। यह बात बुद्धिमत्ता और नीतिनिपुणता से ही सम्भव है। यहाँ एक ऐसे ही चातुर्य की कहानी प्रस्तुत है।

कन्नौज में वीरसेन का राज्य था। वीरसेन ने अपने पुत्र को अपने प्रतिनिधि के रूप में वीरपुर भेजा। राजकुमार धनी था, सुन्दर था और अभी युवक था। एक दिन जब वह अपने नगर की गलियों में से गुजर रहा था कि उसे एक बेहद सुन्दर युवती दिखाई दी, जिसका नाम लावण्यवती था। लावण्यवती एक सौदागर के बेटे की पत्नी थी। राजकुमार महल में पहुँचा, तब तक लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसके हृदय में स्थायी जगह बना ली थी। उसने एक दासी के हाथ लावण्यवती को एक पत्र भेजा। इस पत्र में राजकुमार ने लिखा था कि लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसे बिद्ध कर डाला है।
अब, दूसरी ओर लावण्यवती का भी वही हाल था, जो राजकुमार का था, लेकिन जब राजकुमार की दासी ने उसे पत्र देना चाहा, तो उसने उसे लेने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे डर था कि पत्र लेने से उसका अपमान होगा।
‘‘मैं तो अपने पति की हूँ।’’ वह बोली, ‘‘मेरे पति ही मेरा मान हैं। पत्नी का मान भी तभी तक है, जब तक उसके मन में अपने पति का आधार है। मेरे जीवनाधार जो कहेंगे, मैं वही करूँगी।’’
‘‘क्या मैं जाकर यही उत्तर दूँ?’’ दासी ने पूछा।
‘‘हाँ,’’ लावण्यवती ने कहा।
दासी ने जब जाकर राजकुमार से वैसा ही कहा, तो वह उदास हो गया।
‘‘पंचशर देव ने मुझे बिद्ध कर दिया है,’’ वह बोला, ‘‘केवल लावण्यवती की उपस्थिति ही मेरे घावों को मिटा सकती है।’’
‘‘तब हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि उसका पति ही उसे यहाँ ले आए,’’ दासी ने कहा।
‘‘वह कभी हो ही नहीं सकता,’’ राजकुमार बोला।
‘‘हो सकता है,’’ दासी ने जवाब दिया। ‘‘जो पराक्रम से नहीं होता, वह उपाय से हो जाता है। शृगाल ने कीचड़ वाले मार्ग से चलकर हाथी को मार डाला था।’’
‘‘सो कैसे?’’ राजकुमार ने पूछा।
दासी बोली -
‘‘ब्रह्म जंगल में कर्पूरतिलक नामक एक हाथी रहता था। शृगाल उसे जानते थे। एक दिन वे आपस में कहने लगे, ‘‘अगर यह बड़ा जानवर किसी तरह मार डाला जाए, तो हम लोग चार महीने तक उसे खा सकेंगे।’’ तब एक बूढ़ा शृगाल उठ खड़ा हुआ और उसने वादा किया कि वह अपनी बुद्धि के बल पर इस हाथी को मार डालेगा। तदनुसार, वह कर्पूरतिलक की खोज में निकल पड़ा। उसके पास पहुँचकर उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘हे दैवी प्राणी! एक बार अपनी कृपादृष्टि मुझ पर भी डालिए।’’
‘‘तुम कौन हो?’’ हाथी चिंघाड़ा, ‘‘यहाँ क्या लेने आए हो?’’
‘‘मैं एक शृगाल हूँ,’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘जंगल के जीवों का खयाल है कि वे राजा के बिना जिन्दा नहीं रह सकते। उन्होंने एक सभा करके मुझे आपके पास यह सन्देश देने के लिए भेजा है कि वे आपको अपना राजा बनाना चाहते हैं। अतः मेरा आपसे अनुरोध है कि आप तुरन्त वहाँ चलिए ताकि सौभाग्य का यह क्षण टल न जाए।’’ इतना कहकर वह आगे-आगे चलने लगा। पीछे-पीछे कर्पूरतिलक चल रहा था। वह जल्दी ही अपना शासन शुरू कर देना चाहता था।
अन्ततः शृगाल उसे एक गहरे गड्ढे के पास ले आया और ऊपर से ढँका होने के कारण हाथी उसमें गिर पड़ा।
‘‘प्यारे भाई शृगाल,’’ हाथी चिल्लाया, ‘‘अब क्या होगा? मैं तो बुरी तरह कीचड़ में धँस गया हूँ।’’
‘‘महाराज!’’ शृगाल ने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘आप मेरी पूँछ पकड़कर बाहर आ जाइए।’’
तभी कर्पूरतिलक को अन्दाज मिला कि उसे फाँसा गया है। वह कीचड़ में डूब गया। शृगालों ने मिलकर उसे खा लिया। यही कारण है कि मैंने आपसे उपाय द्वारा काम करने की बात कही है।
दासी के कहने पर राजकुमार ने शीघ्र ही सौदागर के बेटे चारुदत्त को बुलावा भेजा। राजकुमार ने उसे अपने साथ रख लिया। एक दिन स्नान के बाद उसने चारुदत्त से कहा, ‘‘मैंने गौरी की मन्नत मना रखी है, जो मुझे पूरी करनी है-तुम्हें एक काम करना होगा। एक महीने तक हर शाम तुम किसी अच्छे परिवार की कोई स्त्री मेरे पास लाओगे ताकि मैं उसका सत्कार कर सकूँ। यह काम आज से ही शुरू होना है।’’
चारुदत्त शाम के वक्त एक स्त्री को ले आया और उसे राजकुमार के पास छोड़कर एक ओर चला गया और छुपकर देखने लगा कि राजकुमार क्या करता है। राजकुमार ने स्त्री के पास गये बिना ही उसे नमस्कार किया और फिर आभूषण, वस्त्र, चन्दन, इत्र आदि की भेंट देकर एक सिपाही के साथ विदा कर दिया। इससे चारुदत्त को बड़ी सन्तुष्टि हुई। उसका जी ललचा आया। इसलिए इतनी सारी भेंट पाने के लालच में दूसरी शाम अपनी पत्नी को ही ले आया। जब राजकुमार ने अपनी जिन्दगी, लावण्यवती को सामने पाया, तो यह कूदकर उसके पास चला आया। उसने उसे आलिंगन में बाँधकर लगातार चूमना शुरू कर दिया। यह दृश्य देखकर बेचारा चारुदत्त वहीं जड़ हो गया - जैसे वह बेचारगी की मूर्ति बन गया था।
वणिक्-पुत्र ने लालच में पड़ एक जाल फैलाया,
लेकिन बदले में पत्नी को चुम्बित होते पाया।
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VARSHNEY.009
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2012 का सच / मनोहर चमोली 'मनु'

चूहे ने आवाज लगाई-”मीकू खरगोश। बिल से बाहर निकलो। धरती खत्म होने वाली है। चलो भागो।” मीकू बिल से बाहर निकला। चूहे से कहने लगा-”भाग कर जाएंगे कहां?” चूहे ने जवाब दिया-” तुमने नहीं सुना? सन् 2012 में धरती समाप्त हो जाएगी। चलो, जहाँ सब भाग रहे हैं।”
“वहाँ कहाँ ? धरती तो गोल है। रहेंगे तो धरती पर ही न। उड़ने वाले पक्षी भी कहां जाएंगे? पानी में रहने वाले जीव भी कहां जाएंगे? कभी सोचा भी है? सुनी-सुनाई बातों में ध्यान नहीं देते। कुछ समझे?” मीकू ने चूहे को डांटते हुए कहा।
“मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मैं तो इतना जानता हूं कि धरती सन् 2012 में खत्म होने वाली है। आकाश से बमबारी होने वाली है। भयानक धमाका होगा और फिर सब कुछ खत्म हो जाएगा। यही कारण है कि हर कोई जान बचाने के लिए भाग रहा है।” चूहे ने सिर खुजाते हुए बोला।
मीकू को हंसी आ गई। वह बोला-”तुम बहुत भोले हो। आकाश में धमाके होते ही रहते हैं। इन धमाको को अंतरिक्ष की खगोलीय घटना कहते हंै। धरती जैसे कई हजारों ग्रह अंतरिक्ष का भाग हैं। अंतरिक्ष में एक क्षुद्र ग्रह पट्टी है। जिसे ‘एस्ट्रायड बेल्ट’ कहते हैं। इस बेल्ट से कई बार विशालकाय चट्टान निकल कर छिटक जाती है। वातावरण के दबाव की वजह से यह चट्टानें धरती की सतह पर टकराने से पहले ही वायुमंडल में नष्ट हो जाती है।”
चूहे ने पूछा-”तो क्या आसमान से बारिश के साथ-साथ बड़े-बड़े पत्थर भी गिर सकते हैं?”
“और नहीं तो क्या। वे तो गिरते ही रहते हैं। आसमान से विशालकाय चट्टानें औसतन दस-बारह साल में एक बार धरती पर गिरती ही हैं। धरती पर हर रोज कुछ न कुछ तो गिरता ही रहता है। पर वह धरती की सतह पर आने से पहले ही कई किलोमीटर उपर ही भस्म हो जाता है। धरती पर धूल के कण ही गिर पाते हैं।” मीकू ने आसमान की ओर देखते हुए बताया।
“अरे ! ये तो वाकई बहुत खतरनाक है।” चूंचू ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा। “इससे खतरनाक तो आग के गोले हैं।” मीकू ने कहा।
“क्या? आग के गोले! अब ये मत कहना कि आसमान से आग के गोले भी धरती पर गिर सकते हैं?” चूंचू उछल पड़ा।
मीकू ने समझाया-” गिरते हैं भाई। सूरज भी तो आग का गोला है। धरती अरबों साल पहले सूरज से ही तो छिटक कर दूर जा गिरी थी। सालों बाद वह ठंडी हुई। समझे। क्षुद्र ग्रह पट्टी से निकली चट्टानें कई बार वायुमंडल की रगड़ से आग के गोले में बदल जाती है। जरा सोचो, यदि ये आग के गोले बारिश की तरह धरती पर गिरने लगें तो क्या होगा?”
चूंचू डरते हुए कहने लगा-”मुझे तो डर लग रहा है।”
मीकू ने हंसते हुए कहा-”डरो नहीं। देखो। अभी अंतरिक्ष के कई रहस्य हैं, जिनके बारे में विज्ञान भी मौन है। अंतरिक्ष की कई घटनाएं ऐसी हैं, जिनके कारणों का जवाब किसी के पास अभी तक नहीं है। लेकिन खोज जारी हैं। वैज्ञानिक लगातार अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाने में लगे हुए हैं। तुम हो कि भागने की सोच रहे हो।”
चूंचू ने पूछा-”तुम अंतरिक्ष के बारे में इतना कैसे जानते हो?”
मीकू ने गर्व से कहा-”मैं पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता हूं। विज्ञान और अंतरिक्ष से जुड़े चैनलों के कार्यक्रम देखता हूं। और हां। मैं सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करता। प्राकृतिक आपदाओं को टाला नहीं जा सकता है। हां। उनसे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हमें जागरुक रहना चाहिए। तो क्या अब भी तुम दौड़ोगे?”
चूहे ने कान खुजाते हुए कहा-”नहीं। नहीं। मैं यहीं हूं। आज तक तो मैं कार्टून ही देखा करता था। लेकिन अब मैं भी विज्ञान और अंतरिक्ष से जुड़े कार्यक्रमों को भी देखूंगा। मैं चला।” यह कहकर चूंचू अपने बिल में घुस गया और टी.वी. में विज्ञान चैनलों को खोजने लग गया।
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