16-02-2014, 11:48 AM | #21 | |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
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Dr Barry's deathbed sex secret: The extraordinary truth about ========== Fascinating story. Almost unbelievable! Thanks for locating this story and sharing. ======== I am glad you share my views about Dr. Barry's incredible story. It deserves the tag of Believe it or not. Thanks.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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17-02-2014, 08:09 AM | #22 | |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
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Do continue with quizzes like these both here and in "pehchaano to jaane" thread. Of course I hardly ever know the answer in most of the cases but I take trouble to find out the answer. It is mentally stimulating and sometimes challenging, searching the net, using modern aids like google and wikipedia and finding the answer. Sometimes, I hit bulls-eye, almost immediately, sometimes, I have to struggle a bit. These kinds of questions have helped me to polish up my skills in a new, relevant and useful technique/art/method viz, that of searching the vast world wide web, where tons and tons of information is available and using the correct search term that narrows down my final detailed search to a manageable volume. It is an absorbing job and I quite enjoy it. And along the way, I also learn a lot of other things. After all the trouble I sometimes take to find the answer, my reward is only the satisfaction of arriving at the correct answer, particularly in some cases, when, after a tiring search, I had nearly given up. So far I have been lucky and successful nearly every time and have also improved my search skills considerably. Thanks for this opportunity. Regards GV |
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17-02-2014, 01:31 PM | #23 | |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
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In the meantime, I have one more story on Albert Schweitzer which appears on the following pages.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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17-02-2014, 01:34 PM | #24 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
जीव दया के मसीहा - अलबर्ट श्वाइटजर
आलेख: सुरेशराम (wikisource) * * पश्चिमी जर्मनी का गुन्सबाख गांव। सन 1882 सर्दियों के दिन। दो लड़के आपस में लड़ पड़े। उनमें से एक था पादरी का बेटा, दूसरा मेहनत करने वाले मजदूर का। पादरी के बेटे ने मजदूर के लड़के को पछाड़ दिया। उसकी छाती पर चढ़ बैठा। कहने लगा, "बोल! अब बोल! हार गया न? मुझसे भला जीत सकता है!" हारे हुए लड़के ने जवाब दिया, "मुझे भी तेरी तरह मांस-मक्खन खाने को मिला होता तो मजा चखा देता।" "तुझे मांस-मक्खन नहीं मिलता क्या?" "मिलता होता तो यह हालत क्यों होती!" इतना सुनते ही पादरी का लड़का उसे छोड़कर खड़ा हो गया। मन ही मन पछताने लगा। तय किया कि अब वही खाना खाऊंगा, जो गरीब लोगों को मिलता है। "मां, मुझे रातवाली प्रार्थना पसन्द नहीं है! उसने बड़े आदर से अपनी माता से कहा। "क्यों, क्या बात है? तू ईश्वर को नहीं मानता क्या?" आश्चर्य से माता ने पूछा। "तुम्हारी प्रार्थना बहुत सीमित है!" "क्या मतलब?" "उसमें परिवार-वालों और पड़ोसियों के लिए ही दुआ मांगी जाती है।" "तो तू क्या चाहता है? मानव-मात्र से प्रेम करना हमारा धर्म है।" "और जो मानव नहीं हैं, लेकिन जिनमें प्राण हैं, उन्हें हम क्यों भूल जाते हैं?" "साफ बोल, क्या चाहता है?" "मैं चाहता हूं कि हमारी प्रार्थना सारे जीवों, पशु पक्षीयों तक के लिए होनी चाहिए।" "यह कैसे हो सकता है?" "तो आज रात से मै अपनी प्रार्थना अलग किया करुंगा।" "तू तो पागल हो गया है। तेरी बातें समझ में नहीं आती। वह कुछ न बोला। लेकिन घर की प्रार्थना के बाद वह अकेले में अलग से प्रार्थना करने लगा। वह विनती करता "हे! परमपिता ! सांस लेनेवाले, सभी जानदार प्राणियों की रक्षा कर और उन्हें दुआ दे। उन्हें सारी बुराइयों से बचा ओर उन्हें शान्ति की नींद दे!"
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17-02-2014, 01:36 PM | #25 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
वह अपने घर पर बैठा कुछ काम कर रहा था। एक वयोवृद्ध, शुभचिंतक गुस्से में आये। बोले, "अलबर्ट! हमें तुमसे बहुत शिकायत है!"
"कहिये, कहिये, क्या बात है?" "हमने सुना है कि तुम डॉक्टरी पढ़ने जा रहे हो।" "जी हां! मैंने यही फैसला किया है।" "तुम जैसा विद्वान धर्मशास्त्र का पंडित्, संगीत का आचार्य अपने उपदेशों से बड़ा उपकार कर सकता है। तुमको डॉक्टरी पढ़ने की क्या जरुरत है?" "नहीं-नहीं। मैं डाक्टर इस वास्ते बनना चाहता हूं ताकि बिना मुंह खोले कुछ काम कर सकूं दीन दुखियों की सेवा कर सकूं; प्रेमरुपी धर्म को अमल में उतार सकूं।" "तुम्हारे जैसे सब हो जायें तब तो आफत ही हो जायेगी।" यह कहकहर बड़बड़ाता हुआ वह बूढ़ा चला गया। "तुम बड़े विचित्र आदमी हो!" एक मित्र ने कहा। "क्या हुआ?" "सुना है कि तुम्हारा इरादा अफ्रीका जाकर वहां के जंगली लोगों के बीच रहने का है!" "हां, तुमने ठीक सुना है।" "वे लोग तो बड़े अशिक्षित, अपढ़, असभ्य हैं!" "इसकी जिम्मेदारी किसकी है?" दर्द के साथ अलबर्ट ने पूछा। "जिम्मेदारी किसकी होती?" "तुम्हें जानना चाहिए, मेरे दोस्त, कि यह जिम्मेदारी हमारी और सारे यूरोप वालों की है।" "कैसे?" "उन पर अपना साम्राज्य स्थापित कर हमने उनके साथ बड़ा अन्याय किया है। तरह तरह का अत्याचार किया है। उनके बीच बीमारियां फैलाई हैं, उन्हें नशीली चीजों का आदी बनाया है। ....बड़े भयानक हैं हमारे कारनामे!"
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17-02-2014, 01:43 PM | #26 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
"सच कह रहे हो क्या?"
"एकदम सच। हम और हमारी सभ्यता एशिया और अफ्रीका वालों की ऋणी है। हम जो कुछ भी उनके निवासियों की खातिर करें, वह उपकार नहीं, प्रायश्चित है। अफ्रीका के ग्रबन देश का लम्बारेन नगर। वहां एक नया खुला अस्पताल। सुबह का समय। डाक्टर हर पलंग पर जाकर मरीजों से मिल रहा था। "रात तुम्हें नींद आई? उसने एक मरीज से पूछा। "नहीं आई, डॉक्टर!" "क्यों, क्या बात है?" इसके लिए आप जिम्मेदार है? "मैं! कैसे?" "रोज तो आप रात को मुझे 'नमस्कार'कहने आते थे, कल रात नही आये!" डॉक्टर ने मुस्करा कर कहा, "माफ करना, कल शाम कुछ मेहमान यूरोप से आ गये थे। इस वजह से मैं रात में फेरा नहीं लगा पाया।" "आज तो आइयेगा?" "जरुर!" रात को डाक्टर उस मरीज के पास गया। उसके माथे पर हाथ फेरा और अच्छी नींद आने के लिए कामनाकी। ऊपर दिये प्रसंगों से मानवता के उस महान सेवक के जीवन की कुछ झांकी मिल जायेगी, जिसका नाम था अलबर्ट श्वाइटजर। ईसाई धर्म ग्रन्थों के प्रकाण्ड विद्वान और लेखक, पीढ़ी दर पीढ़ी के पुजारी और उपदेश कला में सिद्धहस्त, संगीत शास्त्र के अदभुत ज्ञाता और रचयिता, इन तीनों उपलब्धियों की बदौलत वह आनन्द की जिन्दगी बिता सकते थे और ऊंची से ऊंची प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर सकते थे। लेकिन उन्होंने बुद्धि विलास और ऐश्वर्य का जीवन ठुकरा कर दीन दुखियों के बीच जाकर उनकी मरहम पट्रटी करने, उनका ट्रटी पेशब उठाने और उनकी सेवा में ही ईश्वर का दर्शन करने का तय किया। तेतीस साल की उम्र में एक मेडीकल कालेज में भर्ती हुए आम विद्यार्थी की तरह डॉक्टरी का अध्ययन और अभ्यास किया और पांच साल की पढ़ाई पूरी करके अफ्रीका के एक घने जंगल में एक नदी के किनारे दस हजार की आबादी बाले कस्बे में बैठ गये। अर्ध शताब्दी से ज्यादा अरसे तक वहां सेवा करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्याग दिया। आज अलबर्ट श्वाइटजर की गिनती मानवता के शिरोमणि पुजारियों और महामानवों में की जाती है।
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17-02-2014, 01:48 PM | #27 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
उनका जन्म 14 जनवरी 1875 के दिन पश्चिमी जर्मनी के गुन्सबाख गांव में हुआ। पिता और दादा पादरी थे। और माता भी एक पादरी की बेटी थी। उनके गांव से कुछ ही दूर पर फ्रांस देश की सीमा शुरु हो जाती हैं, इसलिए बालक अलबर्ट को जर्मन और फ्रांसीसी दोनों भाषाओं में एक सी दक्षता प्राप्त थी।
बचपन से ही उनमें करुणा का स्रोत उमड़ा पड़ता था और साथ ही साथ ज्ञान की जिज्ञासा भी थी। पिता ने जाड़ों में पहनने के लिए एक बढ़िया ऊंनी कोट बनवा कर दिया। मगर अलबर्ट ने उसे छुआ तक नहीं। कहा, "जब मेरे गांव या मेरे स्कूल के अनेक बच्चों को वैसा कोट नहीं मिल सकता तो मुझे भी उसके पहनने का कोई हक नहीं है।" पिता नाराजा हो गये, "जीवन में जो तुम्हारी स्थति है उसके अनुकूल कपड़ा न पहनना मूर्खता है, अपराध है।" बालक को कोठरी में बन्द कर दिया। अलबर्ट कुछ न बोला। सजा को चुपचाप बर्दाश्त किया। अलबर्ट एक दिन बर्फ पर घोड़ा गाड़ी चला रहा था। छुट्रटी का दिन था। बड़े मौज में था। घोड़ा तेज दौड़ने लगा। अचानक कोई कुत्ता आया और घोड़े पर भौंकने लगा। अलबर्ट ने उसे फटकारा, पर कुत्ते ने एक न सुनी। आखिर अलबर्ट ने एक चाबुक उसके लगा दिया। संयोग से चाबुक उसकी आंख पर लगा। कुत्ता बिलख कर रोने लगा। अलबर्ट वहीं रुक गया और मन ही मन बहुत पछताया। कुत्ते का वह रोना वर्षो तक याद रहा। आगे चल कर अलबर्ट की करुणा ने प्राणि मात्र की सेवा का रुप लिया। गुन्सबाख में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद, अलबर्ट ने श्त्रासबर्ग विश्वविद्यलय में नाम लिखाया। वहॉँ खूब अध्ययन किया और 1899 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की और अध्यापन कार्य शुरु कर दिया। चार साल बाद एक थियोलाजिकल कालेज के प्रिसीपल बना दिये गए। सहयोगी अध्यापकों और छात्रों में वह बड़े लोकप्रिय थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, प्रसिद्धि और धन दोनों भरपूर मिलने लगे।
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17-02-2014, 01:50 PM | #28 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
मगर मन में संतोष नहीं था। अन्दर ही अन्दर विचार उठा कि जब मेरे चारों ओर दु:ख है, व्यथा है तो मुझे सुख भोगने का क्या अधिकार है? यदि आया महाप्रभु ईसा का वचन कि हमारा जीवन केवल हमारे अपने लिए नहीं। संसार का जो दु:ख है, उसे हमें बंटाना चाहिए।
उन्हीं दिनों एक अपील पढ़ने को मिली। वह पेरिस की फ्रांसीसी प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी सोसाइटी, की ओर से की गई थी कि विश्वत रेखा के पास वाले फ्रांसीसी क्षेत्र मे सेवक चाहिए। उन्होंने इसमें जाने का फैसला किया। मगर फिर सलवा उठा कि वहां जाकर क्य करेंगे? केवल उपदेश देंगे? नहीं, उनके दु:ख दर्द में साथ देंगे। तय किया कि डाक्टरी पढ़नी चाहिए और डाक्टर बनकर अफ्रीका के देहातों में काम करना चाहिए। लाख विरोध होने पर भी अपने निश्चय पर अटल रहे। श्त्रासबर्ग विश्वविद्यालय में मेडिकल कालिज में भर्ती हुए औरे सारी पढ़ाई की। दिसम्बर 1911 में सर्जरी में आखिरी परीक्षा दी। प्रथम श्रैणी में उत्तीर्ण हुए। छ: महीने बाद अपनी एक परिचित लउ़की से, जिसका नाम हेलन ब्रेसला था, शादी की। अलबर्ट ने जो कई ग्रन्थ लिखे, उसमें हेलन ने सहयोग दिया। साथ ही उसने नर्स का प्रशिक्षण भी ले लिया, ताकि डाक्टर अलबर्ट का पूरा-पूरा साथ दे सके। मार्च 1913 में पश्चिमी अफ्रीका के गेवन देश के लम्बरेन नामक कस्बे में पति-पत्नी पहुंच गये। वहॉँ वह पेड़ों की छाया के नीचे दवा बांटने लगे। बस्ती में जाकर मरीजों की शुश्रूषा करते। कुछ ही समय में उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया। अस्पताल की छोटी सी इमारत बनी। काम बढ़ने लगा। आज वहां लगभग 75 इमारते है और चिकित्सा के आधुनिकतम साधन मौजूद है।
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17-02-2014, 01:52 PM | #29 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
एक बार नाव से नदी में जा रहे थे। लम्ब सफर था। एक महिला-मरीज के लिए दवा पहुंचानी थी। नाव पर स्थानीय लोगों के साथ खाना-पीना हुआ। अचानक युवक अलबर्ट के मन में सवाल उठा "यह जीवन क्यों?"
दर्शन-शास्त्र में पढ़ा डिकाटें का वाक्य याद आया "मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।" पर यह जवाब नहीं, क्योंकि "मैं हूं।" पहले है, और "मैं सोचता हूं" बाद में। सोचते रहे। ध्यान में आया "मैं जीवन हूं, जिसे जीने की इच्छा है।" लेकिन यह भी ठीक नहीं, क्योंकि मैं अकेले में तो नहीं रहता। मन ने कहा, "मैं जीवन हूं, जिसे जीने की इच्छा है, उस जीवन के बीच, जो जीने को इचछुक है। ...." सवाल उठा, "इसका अन्त क्या होगा?" जवाब मिला, "अनन्त जीव से आध्यात्मिक एकता प्रापत करना।" लेकिन इसका आशय क्या है? सोचते रहे अनन्त जीव से एकता के प्रति निष्ठा का अभिप्राय क्या है? सोचते सोचते उत्तर मिला, "प्राणिमात्र के प्रति, जीवन के प्रति सम्मान।" वस, "जीवन के प्रति सम्मान" मे ही अलबर्ट को सारा दर्शन, सारा अध्यात्म दिखाई दिया और उसी क्षण से वह इस मंत्र के उपासक, प्रणेता और प्रचारक बन गये। ...आज सारे संसार में 'अलबर्ट श्वाइटजर' और "जीवन के प्रति सम्मान" एक दूसरे के पर्याय बन गये है। इस नाम से उन्होंने एक ग्रन्थ भी लिखा, जो उनकी सर्व श्रेष्ठ कृति मानी जाती है। सन १९५२ में उन्हें शान्ति के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्होंने अपने पास एक पैसा भी नहीं रखा। सब का सब लम्बरेन में एक कुष्ठ सेवा केन्द्र में लगा दिया। अब तो लम्बरेन में एक विशाल उपचार केन्द्र बन गया है, जिसके पीछे हैं अलबर्ट की निष्ठा, उनका त्याग और उनकी सेवा परायणता। वह उस क्षेत्र में घूनी लगाकर बैठे और गेवन के रुढ़िग्रस्त, दीन दुखी निवासियों के लिए उन्होंने जो काम किया उसे कौन भुला सकता है। एक बार पेचिश का रोग लम्बरेन और दूरदूर तक फैल गया। अस्पताल में मरीजों के झुंड के झुंड आने लगे। मगर मदद देने को कोई राजी नहीं था। अलबर्ट श्वाइटजर उठे और बोले, "मैं कैसा मूर्ख हूं, जो इन जैसे जंगली लोगों के बीच आ बसा!" यह सुनकर उनके अफ्रीकी सहयोगी, जासेफ ने कहा, "डाक्टर, यहॉ धरती पर आपकी गिनती बड़े मूर्खो में है, लेकिन स्वर्ग में बड़े बुद्धिमानों में की जायेगी।" डाक्टर समझे नहीं और बोले, "हां, इस तरह की कपटी बाते कहने की तुम्हारी आदत है। क्या ही अच्छा होता कि पेचिश रोकने के लिए हमारे काम में तुम हमें ज्यादा सहारा दिलाते!"
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17-02-2014, 01:55 PM | #30 |
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Re: कैसे कैसे डॉक्टर साहब ..
उधर अकाल भी फैल रहा था। डाक्टर ने कहा, "यह मेरे लिए बड़ा भयानक समय है।"
लेकिन निराशा का यह दौर क्षणिक ही था। वह बीमारी चली गई और डाक्टर पहले से ज्यादा जोश के साथ जुट गये। हर मरीज को वह अपना आराध्य देव मानते थे और उससे स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रखते थे। उससे ही नहीं, उसके परिवार वालों से भी। दवा देने के अलावा अलबर्ट ऑपरेशन भी करते थे। उसके पहले क्लोरोफार्म सुंधाना आवश्यक होता। इससे मरीज बेहोश हो जाता। यह देखकर अफ्रीकी लोग प्रेम से कहा करते थे "हमारा यह डाक्टर जादूकर है। पहले यह लोगों को मार डालता है, फिर उनका इलाज करता है ओर इसके बाद उन्हें फिर से जिला देता है।" इन्हीं की सेवा करते-करते उनके इस मसीहा का नव्वे वर्ष की आयु में 4 सितम्बर 1965 को लम्बरेन में ही स्वर्गवास हो गया। सेवा के साथ-साथ्ज्ञ जीवदया डॉक्टर अलबर्ट की रग रग में समाई हुई थी। एक बार वह इंगलैंड गये। वहां उनकी भेंट चार्ल्स एण्ड्रयूज से हुई। उन्हें महात्म गांधी ने 'दीनबन्धु की संज्ञा दी थी। एण्ड्रयूज और अलबर्ट को कहीं जाना था। रास्त्ते में बर्फीला मैदान पड़ा। एण्ड्रयूज के हाथ में छड़ी थी। अलबर्ट के कंधे पर उनका झोला था, जो काफी भारी था। उनका बोझ देखकर एण्ड्रयूज ने कहा "आपका झोला इस छड़ी पर लटका लें और हम दोनों अपने कंधों पर इसे उठा लें।" अलबर्ट राजी हो गये। दोनों के कंधों पर छड़ी; बीच में वह बोझ। चलते-चलते अलबर्ट एकदम रुक गये। एण्ड्रयूज गिरने से बाल-बाल बचे। पूछा, "अलबर्ट, क्या बात है? यों रुक क्यों गये?" "वह देखो, वह देखो" अलबर्ट ने कहा। एक कीड़ा रेंगे रहा था। अलबर्ट ने कीड़े को उठाया और सड़क से अलग, एक ओर को रख दिया और कहा, "यहां यह सुरक्षित है। सड़क पर रहता तो किसी का पैर पड़ जाता और यह मर जाता। अब चलो, आगे चलो।" दीनबन्धु एण्ड्रयूज ने लिखा है, "उनकी इस करुणा भावना को देखकर मैं गदगद हो गया।" अलबर्ट श्वाइटजर सेवा और जीवदया के मसीहा के रुप में सदा याद रहेंगें। **
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