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31-05-2012, 08:42 PM | #1 | |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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मैँने पहले ध्यान क्योँ नहीँ दिया ;(
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
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31-05-2012, 10:13 PM | #2 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
खतरे को भांपना सीखें
खतरे हमारी तरफ हर दिशा से, हर वक्त आते रहते हैं। बर्खास्तगी, छंटनी, कम्पनी का अधिग्रहण, प्रतिशोधात्मक सहकर्मी, चिड़चिड़े बॉस, नई प्रौद्योगिकी, नए सिस्टम, नई विधियां। दरअसल ये खतरे इतने बड़े हैं कि इनके बारे में कई पुस्तकें लिखी जा चुकीं हैं। खास तौर से परिवर्तन के खतरे के बारें में। जैसे 'हू मूव्ड माई चीज' और 'हाउ टू हैंडल टफ सिचुएशन एट वर्क'। अगर हम तेजी से सोच सकते हैं, तो लकीर के फकीर बनने से मुक्ति पा सकते हैं। लचीले रहकर तेजी से कदम उठा सकते हैं, जमकर मुक्के बरसा सकते हैं और दूरी को पार कर सकते हैं; तो हम न सिर्फ परिवर्तन के बावजूद बचने में कामयाब हो जाएंगे, बल्कि हम सर्वोच्च कोटि के कलाकार और खिलाड़ी भी बन जाएंगे। जाहिर है, हम यह सब नही कर सकते हैं। कई मौकों पर खतरा हम पर हावी हो जाएगा और हमें कुचल देगा। यह हम सभी के साथ होता है। इस सच्चाई से इनकार करने का कोई मतलब नहीं है कि जिंदगी कई बार पॉइंट ब्लैक रेंज से हम पर गोलियां चलाने लगती है और हमें सिर झुकाने का समय भी नहीं मिल पाता, लेकिन जोखिम हमेशा जोखिम ही रहता है। जब यह वास्तविकता बनता है, तभी हम इससे निपट सकते हैं। जब तक यह जोखिम है, जब तक यह सिर्फ डराता है, लेकिन कोई नुकसान नहीं कर सकता । कौन सा जोखिम, वास्तविक बन जाएगा, यह यह भांपना ही असल योग्यता, प्रतिभा है। असल में जोखिम तो बहुत होते हैं और हम उन सभी पर प्रतिक्रिया नहीं कर सकते। वास्तविक चुनौतियां कम ही होती हैं और हमें उन्हीं पर प्रतिक्रिया देनी होती है। अगर हम जोखिम को जोखिम न मानकर अवसर के रूप में देखें, तो इससे हमें काफी मदद मिल सकती है। जिंदगी में वास्तविक बनने वाले हर जोखिम विकास तथा परिवर्तन करने, अपनी विधियों और प्रबंधन शैली को ढालने और उन्हें दोबारा गढ़ने का मौका देते हैं। अगर हमारा नजरिया सकारात्मक है, तो हम में जोखिमों को नकारात्मक की बजाय सकारात्मक मानने की प्रवृत्ति होती है। वह हमें अपनी काबिलीयत को साबित करने का मौका देती है। अगर हमें कभी चुनौती ही न मिले, तो हम कभी बेहतर नहीं बन पाएंगे।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
31-05-2012, 10:40 PM | #3 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
नेता की पहचान
यह घटना उस समय की है, जब रूस के जन नेता ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन पर उनके कुछ शत्रुओं ने हमला कर दिया था। वे उस हमले में घायल हो गए थे और बिस्तर पर थे। डॉक्टरों ने उन्हें आराम की सख्त हिदायत दी हुई थी। वे अभी पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हो पाए थे कि एक दिन उन्हें समाचार मिला कि देश की सबसे प्रमुख रेल लाइन टूटी हुई है। रेल लाइन की शीघ्र मरम्मत आवश्यक थी। सभी देश भक्त लोग समाचार मिलते ही उनके पास जमा होने लगे। एक ने कहा - हम लोग वैतनिक मजदूरों पर निर्भर नहीं रह सकते। वे यह काम पूरा नहीं कर सकेंगे। यह सुन कर वहां उपस्थित अन्य देश भक्त बोले - हां, हम खुद ही इसे पूरा करेंगे। कार्य कठिन था, लेकिन सभी के मन में उत्साह व जोश भरा हुआ था। सभी लेनिन को पसंद करते थे और उनमें राष्ट्रवाद तथा समाज हित की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। सब लोगों के साथ मिलकर काम करने से शीघ्र ही रेल लाइन को ठीक कर दिया गया। कुछ ही देर में वहां पर लोगों की जबर्दस्त भीड़ लग गई। सभी इस बात से बेहद रोमांचित थे कि कुछ देश भक्त लोगों ने एकजुट होकर रेल लाइन को ठीक कर दिया है। अचानक वहां उपस्थित लोगों की नजर मजदूरों के बीच थके- हारे व बीमार लेनिन पर पड़ी। सभी यह जानकर दंग रह गए कि उन्होंने भी घायल होने के बावजूद मजदूरों के साथ मिलकर काम किया था। लेनिन से जब पूछा गया कि वह वहां क्यों आए, तो उन्होंने सहजता से जवाब दिया - अपने साथियों के साथ काम करने। एक प्रतिष्ठित नागरिक बोला - लेकिन साथी भी तो यह काम कर ही सकते थे। दुर्बल शरीर से भारी-भारी लट्ठे ढोने की अपेक्षा जन नेता को स्वास्थ्य की चिंता करते हुए आराम करना चाहिए। इस पर लेनिन मुस्करा कर बोले - जो जनता के बीच में न रहे, जनता के कष्टों को न समझे, अपना आराम पहले देखे, उसे भला कौन जन नेता कहेगा? लेनिन का जवाब सुनते ही वहां खड़े सभी लोग गद्गद हो गए और उन्होंने लेनिन के प्रति आभार तो जताया ही, साथ ही उन्हें इस बात पर बेहद खुशी हुई कि उनके जैसे नेता के कारण ही उनका देश आगे बढ़ रहा है।
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31-05-2012, 11:11 PM | #4 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपनी हीनभावना निकाल फेंकें
किसी भी इंसान को दूसरे उतना धोखा नहीं देते, जितना वह खुद को देता है। किसी भी इंसान की अवनति के लिए दूसरे उतने उत्तरदायी नहीं होते, जितना वह खुद होता है। कुछ विफलताओं के बाद व्यक्ति के मन में हीन भाव आ जाता है और वह कायर हो जाता है। वह इस बात पर चिंतन नहीं कर पाता कि जीत और हार तो जीवन का हिस्सा है। वह उन कारणों को नहीं ढूंढ पाता, जिनकी वजह से उसके प्रयास विफल हुए हैं। वह खुद को भाग्यहीन मान लेता है। उसे लगता है कि संसार में उसका कोई मूल्य नहीं है। वह यह मान लेता है कि दूसरे उससे बेहतर हैं और वह आम रहने के लिए पैदा हुआ है। चाहे आपके साथ जो घटा हो, आपने कितना भी बुरा जीवन क्यों न जिया हो, आपके जीवन का अभी अंत नहीं हुआ है। आपका मूल्य खत्म नहीं हुआ है। किसी को भी हक नहीं कि किसी अनुपयोगी वस्तु की तरह आपको कबाड़ में डाल दे। आप फिर खड़े हो सकते हैं। आप फिर मंजिल को पा सकते हैं। महत्व आपके अतीत का नहीं है। महत्व है, तो आपके भविष्य के प्रति आपकी सोच का। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिसमें दुनिया ने किसी शख्स को चुका हुआ मान लिया था, उनका तिरस्कार होने लगा था, लेकिन उनके हौसलों की उड़ान ने उन्हें फिर से खड़ा कर दिया। वे सारे लोग, जो कल तक उनका अपमान करते थे, आज फिर उनके प्रशंसक हैं और जय जयकार कर रहे हैं। रात चाहे कितनी भी गहरी हो, सूर्य को हमेशा के लिए नहीं ढक सकती। सोना चाहे कितना भी धूल से सना हो, सोना ही रहता है। यदि आप अपनी इच्छा से एक खराब और मजबूर जिंदगी चुन रहे हैं, तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता, लेकिन यदि आप बीती विफलताओं की वजह से डरे हुए हैं, तो उठिए। यदि आप किसी कारण से हीनभावना से घिरे हैं, तो अपने मन के अंदर उतरिए। आप पाएंगे कि बहुत से कार्य हैं, जिन्हें आप बहुत अच्छे से कर सकते हैं। आप अपने आसपास देखिए। आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे, जिनमें आपके जैसी योग्यता नहीं है, फिर भी वे खुशहाल हैं। अपनी हीनभावना निकाल फेंकें । यदि दुनिया में दूसरे लोग सुखी रह सकते हैं, तो आप भी रह सकते हैं।
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31-05-2012, 11:19 PM | #5 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
रास्ते का पत्थर
मनुष्य को हमेशा अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। उसे यह जरूर देखना चाहिए कि जिन-जिन वजहों से उसे कष्ट होता है, वही वजह दूसरों के लिए भी कष्टकारी हो सकती है। अपना भला तो सभी चाहते हैं, लेकिन वास्तव में सज्जन पुरूष वही होता है, जो दूसरों की भी भलाई चाहे। निस्संदेह इसमें कभी कभार कष्ट भी उठाना पड़ता है, लेकिन उस कष्ट का आनंद ही कुछ और है, जो दूसरों के लिए उठाया जाए। लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल का बचपन गांव में बीता था। वह जिस गांव में रहते थे, वहां कोई अंग्रेजी स्कूल नहीं था, इसलिए गांव के बच्चे रोज दस-ग्यारह किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गांव पढ़ने जाया करते थे। गर्मियों में स्कूल में पढ़ाई सुबह सात बजे से ही शुरू हो जाती थी, इसलिए गांव के बच्चों को सूर्योदय से पहले ही निकलना पड़ता था। एक दिन छात्रों की टोली स्कूल जाने के लिए निकली, तो उन्होंने पाया कि उनकी टोली में से एक छात्र कम है। दरअसल वल्लभ भाई पटेल पीछे रह गए थे। लड़कों ने मुड़कर देखा, तो पाया कि वल्लभ भाई एक खेत की मेड़ पर किसी चीज से जोर आजमाइश कर रहे हैं। साथियों ने दूर से ही आवाज दी - क्या हुआ? तुम रुक क्यों गए? वल्लभ भाई ने वहीं से चिल्लाकर कहा - जरा यह पत्थर हटा लूं, उसके बाद आता हूं। तुम लोग आगे चलो। साथियों को ध्यान में आया कि खेत की मेड़ पर एक नुकीला सा पत्थर लगा था, जिससे कई बार उन्हें ठोकर लग चुकी थी, पर आज तक किसी को उसे हटाने का ख्याल नहीं आया। साथी वहीं खड़े वल्लभ भाई का इंतजार करने लगे। वल्लभ भाई ने जब पत्थर हटा लिया, तो साथियों के पास पहुंच गए और फिर चलते हुए बोले - रास्ते के इस पत्थर से अक्सर बाधा पड़ती थी। अंधेरे में न जाने कितनों को इससे ठोकर लगती होगी और वे गिर भी जाते होंगे। ऐसी चीज को हटा ही देना चाहिए। इसलिए आज घर से तय करके ही चला था कि उस पत्थर को हटा कर ही दम लूंगा। सारे बच्चे आश्चर्य से वल्लभ भाई को देख रहे थे। दूसरों के हित के लिए कष्ट उठाने की भावना उनमें बचपन से ही आ गई थी। धीरे-धीरे यह भावना और बढ़ती गई। यही वह सबसे बड़ी वज़ह भी है, जिसने उन्हें नेतृत्व के शिखर तक पहुंचाया।
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01-06-2012, 10:18 PM | #6 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
दूसरों के लिए आदर्श बनें
कई लोगों की दिनचर्या अस्त-व्यस्त होती है। वे कई प्रकार के रोगों को शरीर में स्थान दे देते हैं। मानसिक रोग भी इसका कारण हो सकता है। व्यर्थ के तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा होता है, मानसिक उलझनें रोग का रूप ले लेती हैं। समय पर भोजन न करना, जब मन चाहा, तभी कुछ खा लिया। न समय पर शौच, न समय पर स्नान। न समय पर काम करना। ये सब अव्यवस्थित कार्य हैं और यह एक बड़ी वज़ह है, जो कई रोगों को आमंत्रित करती है। अपने अव्यवस्थित क्रियाकलाप द्वारा आप खुद रोगों को निमंत्रण दे देते हैं। इसमें किसी का क्या दोष? इस अव्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव तो कार्य-व्यवसाय पर पड़ता है। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि जो कुछ भी शारीरिक व्यथा या आर्थिक हानि होती है या सम्मान में कमी होती है, तो उसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। जब इस प्रकार की स्थिति आती है, तो आप उसके कारणों पर ध्यान दें। यदि आप ईमानदारी से विवेचना करेंगे, तो उसके लिए आप अपने आपको ही जिम्मेदार पाएंगे। आप ऐसी स्थिति आने ही क्यों देते हैं ? अपना सारा काम निश्चित समय पर तथा व्यवस्थित ढंग से करने पर शायद ही आपके सामने कोई समस्या आए। सब कुछ व्यवस्थित होने पर भी समस्या आएगी, तो तत्काल उसका हल भी निकल आएगा। समस्या सुलझ जाएगी। आपको किसी खास परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। जो व्यक्ति अपने जीवन में सफल हैं, उनको देखिए। आपको उनका सब कुछ व्यवस्थित नजर आएगा। महात्मा गांधी का जीवन बहुत ही सादा, पर अत्यंत व्यवस्थित था। उनका हर काम एक व्यवस्था के साथ होता था। उनकी व्यवस्था एक आदर्श थी। उनके आदर्श पर चलें और फिर खुद आप भी दूसरों के लिए आदर्श बनें। घर परिवार से लेकर अपने बाह्य जगत में भी आप अपने आपको व्यवस्थित रखें। जब आप ऐसा करेंगे, तो आपको इसका एक अलग ही आनंद प्राप्त होगा। आपकी कार्यक्षमता भी बढ़ जाएगी। आपका समय व्यर्थ नहीं जाएगा। आपका हर काम ठीक समय पर होगा। आपका जीवन सादा हो या भड़कीला, बिना व्यवस्था के काम करने से सारा मजा ही किरकिरा हो जाता है।
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01-06-2012, 10:24 PM | #7 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
राजा के सवाल
कभी-कभी मनुष्य के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह जो कुछ कर रहा है, वह सही भी है या नहीं। आम तौर पर इंसान ऐसे सवालों का जवाब खुद ढूंढ ही नहीं पाता, क्योंकि उसे ऐेसा ही लगता है कि वह जो कह या कर रहा है, वह उचित ही है। ऐसे में इंसान को चाहिए कि वह किसी के जरिए इसे जानने का प्रयास करे। इसके लिए उसे कोई योग्य पात्र भी ढूंढना पड़ेगा। योग्य पात्र मिलने पर उस इंसान को अपने सवाल का जवाब जरूर मिल जाएगा। किसी जमाने में एक राजा अपने पास आने वाले सभी लोगों से तीन प्रश्न पूछता। पहला - व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? दूसरा - सर्वोत्तम समय कौन सा है? तीसरा - सर्वश्रेष्ठ कर्म क्या है? अनेक लोग अपने तरीके से उत्तर देते, पर वह संतुष्ट नहीं होता था। एक दिन राजा जंगल में इधर-उधर भटकता हुआ एक कुटिया में पहुंचा। वहां एक साधु पौधों में पानी डाल रहा था। राजा पर नजर पड़ते ही साधु अपना काम छोड़कर राजा के लिए ठंडा पानी और फल लेकर आ गया। उसी समय एक घायल व्यक्ति भी वहां आ पहुंचा। अब साधु राजा को छोड़ कर उस व्यक्ति की सेवा में लग गया। उसने उसके घाव धोए और उस पर जड़ी-बूटी का लेप किया। जब उस आदमी को थोड़ा आराम मिला, तो राजा ने वही तीनों सवाल साधु से पूछे। साधु ने कहा - आपने अभी-अभी मेरा जो व्यवहार देखा, उसी में इन प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं। राजा ने पूछा-कैसे? साधु ने समझाया - जब आप कुटिया में आए, तो मैं पौधों को सींच रहा था, जो मेरा कर्तव्य था, लेकिन आप आ गए, तो मैं अतिथि के स्वागत में लग गया। जब मैं आपकी भूख-प्यास शांत कर रहा था, तब यह घायल व्यक्ति आ गया। मैं अतिथि सेवा का कर्तव्य त्याग कर इसकी चिकित्सा में लग गया। जो भी आपकी सेवा प्राप्त करने आए, उस समय वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है। उसकी जो सेवा हम करते हैं, वही सर्वोत्तम कर्म है और कोई भी कार्य करने के लिए वर्तमान ही सर्वोत्तम समय है। उसके अलावा कोई और समय नहीं है। राजा को साधु से अपने तीनों सवालों का सही जवाब मिल गया। वह साधु को प्रणाम कर वापस अपने राज्य को चला गया।
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04-06-2012, 11:05 AM | #8 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अवसर को लपक लें
हर काम योजना बना कर करें - दीर्घकालीन भी और अल्पकालीन भी, लेकिन कुछ पल ऐेसे भी आते हैं, जब योजनाओं को खिड़की से बाहर फैंक देना चाहिए। इन पलों को ही अवसर कहा जाता है। मेरा एक परिचित युवक था। वह अपनी प्रमोशन योजनाओं में ज्यादा तरक्की नहीं कर पा रहा था। एक दिन उसने ट्रेन के एक कम्पार्टमेन्ट में खुद को अपने चेयरमैन के साथ अकेला पाया। यह सुनहरा मौका था। वह गलत बातें बोल सकता था, खुद को बेवकूफ भी साबित कर सकता था, बहुत संकोच भी कर सकता था या घबरा सकता था। इस सबका परिणाम यह होता कि वह मौके का फायदा नहीं उठा पाता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने आदर्श तरीके से अपनी बात चेयरमैन के सामने रखी। उसने औपचारिक रूप से बातचीत की, लेकिन चेयरमैन को पूरा सम्मान भी दिया। उसने बातचीत में कंपनी के इतिहास, मिशन, स्टेटमेंट और आम लक्ष्यों पर अपनी मजबूत पकड़ साबित कर दी। वह असरदार, स्मार्ट और बोलने में निपुण था। उसने अपनी हर बात स्पष्ट और असरदार अंदाज में रखी और सबसे महत्वपूर्ण बात, उसने नाजायज फायदा उठाने की स्पष्ट कोशिश भी नहीं की। वह जानता था कि कब मुंह बंद रखना है और पीछे हटना है। इससे यकीनन मदद मिली। नतीजा क्या हुआ? चेयरमैन ने उसके विभाग प्रमुख से कहा कि उसके विभाग में एक स्मार्ट युवक है, उसे आगे बढ़ाओ। अब विभाग प्रमुख के पास उसे तरक्की देने के अलावा क्या चारा था? इसे कहते हैं, अवसर को लपकना। आप इसे अपनी योजना में शामिल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे पल अचानक आते हैं। जब वे आएं, तो आपको उन्हें पहचानना होगा। इनका अच्छी तरह से फायदा उठाना होगा। बेहतरीन और शालीन दिखना होगा। अवसर को गेंद की तरह देखना सीखें। अगर कोई गेंद आपकी ओर फैंकी जाती है, तो आपके पास उसे पकड़ने के लिए पल भर का समय होता है। सवाल पूछने, पलटकर देखने, सकारात्मक व नकारात्मक बातों को तौलने या फॉक्स ट्रॉट डांस करने के लिए आपके पास जरा भी वक्त नहीं होता। आप या तो गेंद लपक लेते हैं या फिर नहीं लपक पाते।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
04-06-2012, 11:09 AM | #9 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पानी की तरह झुकना सीखो
कहते हैं कि अभिमान इंसान को पथ भ्रष्ट कर देता है। मनुष्य कितना भी बड़ा हो जाए या कितना भी ज्ञानी हो जाए, उसे कभी भी अपने बड़प्पन पर इतराना या घमंड नहीं करना चाहिए। हो सकता है कि कुछ समय के लिए ऐसा करके वह खुद को श्रेष्ठ साबित करने में कामयाब हो जाए, लेकिन वक्त के साथ-साथ उसकी कीमत निश्चित रूप से गिरने लगती है। स्वामी श्रद्धानंद के एक शिष्य थे सदानंद। स्वामी के सान्निध्य में रह कर सदानंद ने काफी मेहनत की और विभिन्न विषयों का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया था, लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरने लगा, सदानंद को अपने ज्ञान पर अहंकार होता चला गया। अहंकार बढ़ने के कारण धीरे-धीरे उनके व्यवहार में भी बदलाव आता दिखने लगा। वह हर किसी को हेय दृष्टि से देखने लगे। यहां तक कि वह अपने साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे अपने मित्रों से भी दूरी बनाकर रहने लगे। वह जब भी चलते तनकर ही चलते। उनके बढ़ते अहंकार की बात स्वामी श्रद्धानंद तक भी पहुंची। पहले तो उन्हें लगा कि सदानंद के साथी शायद ऐसे ही कह रहे हैं। हो सकता है सदानंद के किसी आचरण से इन्हें ठेस पहुंची हो, लेकिन एक दिन स्वामी श्रद्धानंद उनके सामने से गुजरे, तो सदानंद ने उन्हें अनदेखा कर दिया और उनका अभिवादन तक नहीं किया। स्वामी श्रद्धानंद समझ गए कि इन्हें अहंकार ने पूरी तरह जकड़ लिया है। इनका अहंकार तोड़ना आवश्यक है, अन्यथा भविष्य में इन्हें दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं। उन्होंने उसी समय सदानंद को टोकते हुए उन्हें अगले दिन अपने साथ घूमने जाने के लिए तैयार कर लिया। अगली सुबह स्वामी श्रद्धानंद उन्हें वन में एक झरने के पास ले गए और पूछा - पुत्र, सामने क्या देख रहे हो ? सदानंद ने जवाब दिया - गुरुजी, पानी जोरों से नीचे बह रहा है और गिर कर फिर दोगुने वेग से ऊंचा उठ रहा है। स्वामी श्रद्धानंद ने कहा - पुत्र, मैं तुम्हें यहां एक विशेष उद्देश्य से लाया था। जीवन में अगर ऊंचा उठकर आसमान छूना चाहते हो, तो थोड़ा इस पानी की तरह झुकना भी सीख लो। सदानंद अपने गुरु का आशय समझ गए। उन्होंने उनसे अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और भविष्य में अहंकार कदापि नहीं करने का वचन दिया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
06-06-2012, 02:36 AM | #10 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
परिवार सबसे पहले
सफलता सिर्फ धन, समृद्धि और नाम से नहीं मापी जाती। यह भी महत्व रखता है कि जिन लोगों ने आपको उस मुकाम तक पहुंचाने में आपका साथ दिया, उनके लिए आपने क्या किया? क्या आप अपने बच्चों को उचित संस्कार देने के लिए समय निकाल पाए? क्या सुख-दुख में आप अपनी पत्नी के साथ रह पाते हैं ? पिछली बार आप कब अपनी मां की गोद में सिर रख कर सोए? कब आपने पूछा कि पापा आपको किस चीज की जरूरत है? इंसान की तरक्की, सुख-सुविधा, क्लब, लेट नाइट पार्टी आदि के बीच कुछ छूट रहा है, तो वह है परिवार। कई शहरों के कई घरों के बच्चे विदेशों में ऊंचे पदों पर हैं और माता-पिता बुढ़ापे में एक-दूसरे के सहारे समय काट रहे हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ ले जाना नहीं चाहते, तो कुछ घरों में माता-पिता ही इस उम्र में पराए देश में जाने की इच्छा नहीं रखते। आज बच्चे युवा होते ही जनरेशन गैप के नाम पर अपने माता-पिता का अपमान करते हैं। शादी होते ही चन्द दिनों में उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं। उन्हें सोचने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा ही एक दिन उनके साथ भी घटेगा। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपका ख्याल रखें, तो आज से ही आप अपने माता-पिता का ख्याल रखिए। बच्चे बहुत ग्रहणशील होते हैं। उनकी आंखें हर चीज देखती हैं। उनके कान हर बात सुनते हैं। उनका दिमाग हर वक्त उन्हें मिलने वाले संदेशों को समझने और नतीजे निकालने में लगा रहता है। अगर वे देखेंगे कि हम परिवार के सदस्यों के लिए घर में धैर्यपूर्वक सुखद माहौल बनाते हैं, तो वे जीवन भर इस नजरिए को अपनाएंगे। अपने माता-पिता, पुराने मित्रों और परिजन के साथ सदैव आदर और विनम्रता से पेश आइए। आपकी कामयाबी में, आपकी ऊंचाइयों में, आपके व्यक्तित्व में वे गुण भरने में, संस्कार पैदा करने में संसार में सबसे ज्यादा योगदान माता-पिता और इष्टजन का होता है। माता-पिता के काम का कोई भी मोल नहीं चुका सकता। विनम्रता, आदर, शिष्टाचार, कृतज्ञता जैसे गुण किसी युग में पुराने नहीं होंगे, बासी नहीं होंगे। यदि ये चले जाएंगे, तो सारे संसार में जंगल राज हो जाएगा। इसलिए परिवार सबसे पहले है।
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