21-11-2010, 07:31 PM | #1 |
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रचनाएँ
कबीर के दोहे दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥ तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥ माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ |
21-11-2010, 07:33 PM | #2 |
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कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ |
21-11-2010, 07:33 PM | #3 |
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जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ |
21-11-2010, 07:34 PM | #4 |
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शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ |
21-11-2010, 07:34 PM | #5 |
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जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥ आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ |
21-11-2010, 07:37 PM | #6 |
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Re: रचनाएँ
आप अपने अमूल्य विचार से मेरा मार्गदर्शन करें.यदि कोई त्रुटि या कमी हो तो उसे व्यवस्थित करने मेरी सहायता करे.धन्यवाद...
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21-11-2010, 09:21 PM | #7 |
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Re: रचनाएँ
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान |
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण || जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश | जो है जा को भावना सो ताहि के पास || जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान | मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान || जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए | यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए || ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग | प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत || तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार | सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार || तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय | सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए || |
21-11-2010, 09:27 PM | #8 |
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प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए || जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही | ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही || साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥ पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत | अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत || उजल कपडा पहन करी, पान सुपारी खाई | ऐसे हरी का नाम बिन, बांधे जम कुटी नाही || जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही | सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही || नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए | मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए || प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय | लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय || |
21-11-2010, 09:30 PM | #9 |
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काया मंजन क्या करे, कपडे धोई न धोई |
उजल हुआ न छूटिये, सुख नी सोई न सोई || कागद केरो नाव दी, पानी केरो रंग | कहे कबीर कैसे फिरू, पञ्च कुसंगी संग || कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर | जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर || जाता है तो जाण दे, तेरी दशा न जाई | केवटिया की नाव ज्यूँ, चडे मिलेंगे आई || कुल केरा कुल कूबरे, कुल राख्या कुल जाए | राम नी कुल, कुल भेंट ले, सब कुल रहा समाई || कबीरा हरी के रूठ ते, गुरु के शरणे जाए | कहत कबीर गुरु के रूठ ते, हरी न होत सहाय || कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥ कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी | एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी || कबीर खडा बाजार में, सबकी मांगे खैर | ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर || |
21-11-2010, 09:33 PM | #10 |
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Re: रचनाएँ
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय || पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय | ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय || राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय | जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय || शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान | तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन || साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये | मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए || माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए | हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय || सुमिरन मन में लाइए, जैसे नाद कुरंग | कहे कबीरा बिसर नहीं, प्राण तजे ते ही संग || सुमिरन सूरत लगाईं के, मुख से कछु न बोल | बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल || |
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