21-04-2011, 12:47 AM | #51 |
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Re: प्रणय रस
पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी; जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी; आँखों के मोती बन-बनकर जो टूट चुके हैं अभी-अभी सच कहता हूँ, उन सपनों में भी था मुझको विश्वास कभी । आलोक दिया हँसकर प्रातः अस्ताचल पर के दिनकर ने; जल बरसाया था आज अनल बरसाने वाले अम्बर ने; जिसको सुनकर भय-शंका से भावुक जग उठता काँप यहाँ; सच कहता-हैं कितने रसमय संगीत रचे मेरे स्वर ने । तुम हो जाती हो सजल नयन लखकर यह पागलपन मेरा; मैं हँस देता हूँ यह कहकर 'लो टूट चुका बन्धन मेरा!' ये ज्ञान और भ्रम की बातें- तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ? है एक विवशता से प्रेरित जीवन सबका, जीवन मेरा ! कितने ही रस से भरे हृदय, कितने ही उन्मद-मदिर-नयन, संसृति ने बेसुध यहाँ रचे कितने ही कोमल आलिंगन; फिर एक अकेली तुम ही क्यों मेरे जीवन में भार बनीं ? जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही था दिया प्रेम का यह बन्धन ! कब तुमने मेरे मानस में था स्पन्दन का संचार किया ? कब मैंने प्राण तुम्हारा निज प्राणों से था अभिसार किया ? हम-तुमको कोई और यहाँ ले आया-जाया करता है; मैं पूछ रहा हूँ आज अरे किसने कब किससे प्यार किया ? जिस सागर से मधु निकला है, विष भी था उसके अन्तर में, प्राणों की व्याकुल हूक-भरी कोयल के उस पंचम स्वर में; जिसको जग मिटना कहता है, उसमें ही बनने का क्रम है; तुम क्या जानो कितना वैभव है मेरे इस उजड़े घर में ? मेरी आँखों की दो बूँदों में लहरें उठतीं लहर-लहर; मेरी सूनी-सी आहों में अम्बर उठता है मौन सिहर, निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल मैं एकाकी बन चुका यहाँ, संसृति का युग बन चुका अरे मेरे वियोग का प्रथम प्रहर ! कल तक जो विवश तुम्हारा था, वह आज स्वयं हूँ मैं अपना; सीमा का बन्धन जो कि बना, मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना; पैरों पर गति के अंगारे, सर पर जीवन की ज्वाला है; वह एक हँसी का खेल जिसे तुम रोकर कह देती 'तपना'। मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल, गति है नीचे गति है ऊपर; भ्रमती ही रहती है पृथ्वी, भ्रमता ही रहता है अम्बर ! इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के जग में मैंने पाया तुमको; जग नश्वर है, तुम नश्वर हो, बस मैं हूँ केवल एक अमर !
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14-06-2011, 08:28 PM | #52 |
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Re: प्रणय रस
प्रथम प्यार का, प्रथम पत्र है
लिखता, निज मृगनयनी को उमड़ रहे, जो भाव ह्रदय में अर्पित , प्रणय संगिनी को , इस आशा के साथ, कि समझें भाषा प्रेमालाप की ! प्रेयसि पहली बारलिख रहा,चिट्ठी तुमको प्यार की ! अक्षर बन कर जनम लिया है , मेरे मन के भावों ने ! दवे हुए जो बरसों से थे भड़क उठे अंगारों से शब्द नहीं लिखे हैं , इसमें भाषा ह्रदयोदगार की ! आशा है सम्मान करोगी, प्यार भरे अरमान की ! तुम्हें द्रष्टिभर जिस दिन देखा उन सतरंगी रंगों में भूल गया मैं रंग पुराने , भरे हुए थे स्मृति में ! उसी समय से पढनी सीखी , गीता अपने प्यार की ! प्रियतम पहली बार गा रहा, मधुर रागिनी प्यार की ! प्रथम मिलन के शब्द, स्वर्ण अक्षर से लिख मानसपट पर गूँज रहे हैं मन में अब , जब पास नहीं , तुम मेरे हो ! निज मन की बतलाऊँ कैसे ? बातें हैं अहसास की ! बहुत आ रही मुझे सुहासिन याद तुम्हारे प्यार की !
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02-08-2011, 09:27 PM | #53 |
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Re: प्रणय रस
चन्द्रबाबू अग्निहोत्री
माँग भरती रही ....... रूप रोता रहा विवशता प्रणय की किसने है जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा । दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । धवल ज्योत्स्ना में बिखेरा सुआँचल, तारों की सारी निशा ने पहन कर, लुटा फिर दिया चाँद को वह सभी कुछ, रक्खा था उसने हृदय में सँजोकर, मिलन को उषा का सुस्वागत मिला, पर रात रोती रही, चाँद ढलता रहा । दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । बसन्ती सुरभि में पली इक कली ने, भ्रमर का मधुर स्वर निमंत्र्ति किया, कली मुस्कराई, लजाई, मगर फिर, प्रिय भ्रमर को अधर-रस समर्पित किया, बस क्षणिक गीत-गुंजन कली पा सकी, गीत बनते रहे, स्वर बदलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । सपनों से लिपटी बहारें मचल कर, हर रूप यौवन को पाकर लजाया, प्रणय की मधुर कल्पना तब सजाकर, अदेखे पिया को नयन में बसाया, कि सपन में पिया का अभिसार पाने, आँख जगती रही, स्वप्न सजता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । नभ ने धरा के कपोलों को चूमा, रुपहली किरन का सुआँचल उठाकर, धडकनें धरा की बढी फिर स्वतः ही, गगन को समर्पण किया जब लजाकर, तभी आ जगाया उन्हें रवि किरन ने, अश्रु झरते रहे, प्यार पलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । विवशता प्रणय की किसी ने न जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा। ।
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02-08-2011, 09:31 PM | #54 |
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Re: प्रणय रस
याद तुम्हारी..........
जब जब पूरब में ऊषा नित अरुणिम आभा बिखराती है, क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ? उन्मत्त समीरण की बाँहें, हर तरु का आलिंगन करती, फूलों की मदमस्त जवानी, तितली निज बाँहों में भरती, अधखिली कली के यौवन से मधुपावलियाँ गुंठन करती, सौन्दर्य-रूप की तंत्री में सुरभित बगिया जीवन भरती, सुख के वैभव में सहसा क्यों कोयल दर्द सुना जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब बीतों में ढल जाती है ? है नित्य सितारे क्रीडा करते, रजनी के नव यौवन से, नित निशा सुन्दरी, रूपगर्विता हो, प्रस्वेदित प्रणयन से, जब वक्ष धरा का गीला होता, प्रियतम नभ के चुम्बन से, तब प्रणय-मिलन स्पंदित होते, दिल की बढती धडकन से, बदली चन्दा का घूँघट क्यों सहसा हटा हटा जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ? है पावस की घनघोर घटा, मदमस्त हस्तिनी सी आती, वह शान्त पिपासा करने जग की, यौवन घट भर भर लाती, चिर-तृषित धरा गगनांचल में लेटी कुछ-कुछ शरमाई सी, ऋतुदान हेतु कर रही प्रतीक्षा, सोई सी अलसाई सी, सहसा बिजली चमक चमक क्यों उसका दर्द बढा जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ? संध्या का सूरज रक्तिम हो, ढल गया जमी अस्ताचल को, चाँदनी हँसी खिलखिला उठी, फैलाकर निज श्वेतांचल को, प्रणय-पिपासा हृदय सँजोए और धडकते दिल को लेकर, जब किया समर्पण चन्दा को निज यौवन रूप हृदय देकर, जगती नींद तभी सहसा क्यों सपनों को बहका जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ? मधुरिम तराने प्यार के क्यों रूप की हर साँस गाती ? हर आँख की उन्मन पलक क्यों निज अंक में सपने सुलाती ? सिन्दूर बेंदी पग-महावर, किसको चले सजकर मनाने ? हर घाव मिलन का विरहानिल क्यों सहसा सहला जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बनकर गीतों में ढल जाती है ?
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09-08-2011, 08:00 AM | #55 |
Administrator
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Re: प्रणय रस
बहुत बढ़िया सिकंदर जी.
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
09-08-2011, 09:50 AM | #56 |
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Re: प्रणय रस
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25-08-2011, 06:34 PM | #57 |
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Re: प्रणय रस
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क्योंकि हर एक फ्रेंड जरूरी होता है. |
25-08-2011, 09:14 PM | #58 |
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Re: प्रणय रस
कोई मौसम तुम सा आए धरती का ये जीवन दुष्कर देख देख प्रियतम वो अम्बर झर झर नीर बहाए कोई मौसम तुम सा आए उठे गंध वह भीना भीना जैसे ओढ़े आंचल झीना धरा प्रणय रस सिक्त अघाये कोई मौसम तुम सा आए आए चुपके से कुछ अक्सर जैसे शरद उंगलियों में भर नटखट सखी गुदगुदा जाए कोई मौसम तुम सा आए या जैसे रक्तिम पलाश वन अमलतास के स्वर्णिम तरुवर धरती का आंचल रंग जाए कोई मौसम तुम सा आए -जया पाठक
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25-08-2011, 09:16 PM | #59 |
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Re: प्रणय रस
खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय! खुल गए साधना के बंधन, संगीत बना, उर का रोदन, अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण, सीमाएँ अमिट हुईं सब लय। क्यों रहे न जीवन में सुख दुख क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख? तुम रहो दृगों के जो सम्मुख प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय! तन में आएँ शैशव यौवन मन में हों विरह मिलन के व्रण, युग स्थितियों से प्रेरित जीवन उर रहे प्रीति में चिर तन्मय! जो नित्य अनित्य जगत का क्रम वह रहे, न कुछ बदले, हो कम, हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम, जग से परिचय, तुमसे परिणय! तुम सुंदर से बन अति सुंदर आओ अंतर में अंतरतर, तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर वरदान, पराजय हो निश्चय!
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26-08-2011, 12:33 AM | #60 |
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Re: प्रणय रस
खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी. गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग, हो, ली ! एक बदलीने झुक कर पूछा, "ओ, मधुकर, तू , गुनगुन क्या गाये? "छपक छप - मार कुलाँचे,मछलियाँ, कँवल पत्र मेँ, छिप छिप जायेँ ! "हँसा मधुप, रस का वो लोभी, बोला, " कर दो, छाया,बदली रानी ! मैँ भी छिप जाऊँ, कँवल जाल मेँ, प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !" " रे धूर्त भ्रमर, तू,रस का लोभी -- फूल फूल मँडराता निस दिन, माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ? गरज रहे घन - ना मैँ तेरी सहेली!" टप, टप, बूँदोँ ने बाग ताल, उपवन पर, तृण पर, बन पर, धरती के कण क़ण पर, अमृत रस बरसाया - निज कोष लुटाया ! अब लो, बरखा आई, हरितमा छाई ! आज कँवल मेँ कैद मकरँद की, सुन लो प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर, हो गई, सगाई !!
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