25-04-2013, 11:36 AM | #21 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥ भावार्थ:-जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की॥1॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥ पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥ भावार्थ:-फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान्*जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥2॥तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥ जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥ भावार्थ:-विभीषणजी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान्*जी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥3॥ करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥ देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥ भावार्थ:-सीताजी को देखकर हनुमान्*जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥
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25-04-2013, 11:38 AM | #22 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
दोहा: भावार्थ:-श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमान्*जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥8॥
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25-04-2013, 11:41 AM | #23 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥ भावार्थ:-हनुमान्*जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥ बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥ भावार्थ:-उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदि सब रानियों को-॥2॥कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥2॥ तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥ भावार्थ:-मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥ सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥ भावार्थ:-हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥ सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥5॥ भावार्थ:-रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥5॥
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25-04-2013, 11:42 AM | #24 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
दोहा : भावार्थ:-अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला-॥9॥
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन॥9॥
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25-04-2013, 11:45 AM | #25 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥ भावार्थ:-सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा॥1॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥ स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥ भावार्थ:-(सीताजी ने कहा-) हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥2॥सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥2॥ चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥ भावार्थ:-सीताजी कहती हैं- हे चंद्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात्* तेरी धारा ठंडी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥3॥ सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥ सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥ भावार्थ:-सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया। तब रावण ने सब दासियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ॥4॥ कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥4॥ मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥5॥ भावार्थ:-यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा॥5॥
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25-04-2013, 11:48 AM | #26 |
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Re: सुन्दरकाण्ड
दोहा : भावार्थ:-(यों कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥10॥
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद। सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥10॥
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