09-12-2011, 05:35 PM | #1 |
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विदेश में हिन्दी लेखन
विदेश में रहने वाले हिंदी साहित्यकार इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनाओं में अलग-अलग देशों की विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हिन्दी की साहित्यिक रचनाशीलता का अंग बनती हैं, विभिन्न देशों के इतिहास और भूगोल का हिन्दी के पाठकों तक विस्तार होता है। विभिन्न शैलियों का आदान प्रदान होता है और इस प्रकार हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय विकास भी होता है।
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09-12-2011, 05:37 PM | #3 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
डॉ. अनिल प्रभा कुमार जन्म- दिल्ली में। शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी ऑनर्स और एम.ए. करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से 'हिंदी के सामाजिक नाटकों में युगबोध' विषय पर शोध करके पीएच.डी की उपाधि पाई। कार्यक्षेत्र- १९६७ से १९७२ तक दिल्ली दूरदर्शन पर हिंदी 'पत्रिका' और 'युवा पीढ़ी' कार्यक्रमों में व्यक्त रही। १९६७ में 'ज्ञानोदय' के 'नई कलम विशेषांक' में 'खाली दायरे' कहानी पर प्रथम पुरस्कार पाने पर लिखने में प्रोत्साहन मिला। कुछ रचनाएँ 'आवेश', 'संचेतना', 'ज्ञानोदय' और 'धर्मयुग' में भी छपीं। १९७२ में अमरीका में आकर बस गई हूँ। १९८२ तक न्यूयार्क में 'वायस ऑफ अमरीका' की संवाददाता के रूप में काम किया और फिर अगले सात वर्षों तक 'विजन्यूज़' में तकनीकी संपादक के रूप में। इस दौर में कविताएँ लिखी। फिर ज़िंदगी के इस तेज़ बहाव में लिखना हाथ से छूटता ही गया। पिछले कुछ वर्षों से अभिव्यक्ति अनुभूति के साथ साथ वर्त्तमान-साहित्य के प्रवासी महाविशेषांक 'अन्यथा' और 'हंस' में भी कहानियाँ प्रकाशित। संप्रति- विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यूजर्सी में हिंदी भाषा और साहित्य का प्राध्यापन कर रही हैं। पेश है इनकी कहानी - उसका इंतजार |
09-12-2011, 05:38 PM | #4 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
उसका इंतजार
झाड़न से तस्वीरों पर की धूल हटाते-हटाते, धरणी के हाथ रुक गए। बाबू जी की तस्वीर के सामने आकर उसकी आँखें अपने आप झुक गईं। बाबू जी की आँखें जैसे अभी भी किसी के आने का इंतज़ार करती हों। एक ही प्रश्न होता था उनका। उस दिन भी यही हुआ था। ''कोई बात बनी?'' प्रश्न सुनते ही सभी ठठा कर हँस पड़े थे। यह प्रत्याशित प्रश्न था। बेटे का परिवार अभी दरवाज़े से घर में दाखिल भी नहीं हो पाया कि न नमस्ते न जय राम जी की। सीधे-सादे बाबू जी की उत्कंठा एकदम औपचारिकता के सारे जाल को लाँघ कर प्रगट हो उठी। सब लोगों के हँसने से थोड़ा वह झेंप गए और थोड़ा समझ गए कि जवाब ना में है। ना हँस सकी तो धरणी। जी चाहा, बाबू जी को छोटे बच्चे कि तरह बाहों में भर ले और सहला कर कहे कि मैं समझती हूँ आपकी बेचैनी, पर कुछ कर नहीं सकती। अब तो यह घटना भी यादों वाली कोठरी में पड़ी धूल फाँक रही होगी। कितना वक्त बीत गया, बाबू जी को बीते भी कई बरस हो गए। धरणी ख़ुद भी उम्र के इस पड़ाव पर खड़ी होकर, पीछे मुड़-मुड़ कर देखती है। आगे देखते डर जो लगता है। बात तो अभी तक नहीं बनी। वह तो बस इंतज़ार ही कर रही है। एक बहुत हल्की-सी आशा की लौ, अभी भी उसके शरीर में कंपकंपाती है। ''विधु, कोई मिला? कोई पसन्द आया? कोई बात बनी?'' ''माँ...!'' सिर्फ़ एक शब्द का उत्तर मिलता। इस एक शब्द के पीछे कितने मतलब हो सकते थे, वह सब जानती थी। माँ जो थी, तुतलाहट से लेकर झल्लाहट तक की भाषा समझती थी। शब्द सिर्फ़ एक ही था - माँ, पर लहजा अर्थ बदल देता था। माँ, क्यों तंग करती हो? फिर वही सवाल? तुम्हें कुछ और नहीं सूझता? परेशान मत करो! जब कोई मिलेगा तो बता दूँगी। कभी लम्बी चुप्पी और नाराज़गी। अब यही बात करोगी तो मैं घर पर ही नहीं रहूँगी। फिर वर्जना... तुम सीमा का उल्लंघन कर रही हो, यह मेरा निजी मामला है। कभी हताशा और कातरता - मैं ख़ुद ही असुरक्षित और अकेलापन महसूस करती हूँ, पूछ कर क्यों ज़ख्म को और छील देती हो? कभी खीज... तुम मुझे चैन से क्यों नहीं बैठने देती, मैं खुश हूँ अपनी ज़िन्दगी से। आखिरी बार, ''माँ...?'' उसने इतने ग़ुस्से और हिकारत से कहा था कि फिर उस लक्ष्मण-रेखा को लाँघने की, धरणी की हिम्मत ही नहीं हुई। अब बहुत अरसे से वह सिर्फ़ चुप रहती है। |
09-12-2011, 05:40 PM | #5 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
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09-12-2011, 05:41 PM | #6 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
झील जैसी गहरी आँखों और चाँदनी जैसे रंग वाली बेटी कब जवान होकर अपनी स्वतंत्र ईकाई बन गई, पता ही नहीं चला।
कॉलेज में काफ़ी लड़के विधु के पीछे लगे रहते थे। धरणी को थोड़ी असहजता होती। बातों-बातों में कभी इस का उदाहरण दे और कभी उस का। ज़्यादातर अपनी ही माँ की बातों को अनजाने ही दोहरा देती। फिर आधुनिक माँ बन जाती। कहती, अपने पाँव पर खड़ी होकर व्यस्क निर्णय लेना। पर निर्णय क्या लेना चाहिए, अपरोक्ष रूप से यह भी बता देती। पशु-पक्षी भी तो एक रंग-रूप की ही जोड़ी बनाते हैं। मूल्य समान हों, अपने जैसी ही पृष्ठ-भूमि हो तो ज़िन्दगी आसान हो जाती है। अपने देशी लड़कों में स्थिरता होती है, शादी के बाद ''बार'' में नहीं जाते, घर पत्नी और बच्चों के पास लौटते हैं। वही बोली, वही खाना-पीना, वही मूल्य, वही रंग-रूप की समता। कम से कम बाहरी बातों का संघर्ष तो नहीं रहता, अन्दर की हज़ार बातें होती हैं - ताल-मेल करने को। विधु बस सुनती रहती थी। उसे लगता जैसे उसके ऊपर अपरोक्ष रूप से भार रखा जाता है, जो उसे मंज़ूर नहीं। पर पटक सके, इतनी ताक़त भी तो नहीं। उसके मानस-पटल पर अमरीकी लड़कों की तस्वीर थी। उसे छह फ़ुट लम्बे क़द, बलिष्ठ शरीर, गहरी धँसी आँखें, चेहरे का रेखांकन करती नुकीली ठुड्डी और जबड़े की हड्डियों में ही पुरुषत्व का आकर्षण दीखता। सागर और धरणी इसे बेटी का बचपना समझते। फिर अचानक ही एक दिन बड़ी बेटी का निमंत्रण-पत्र मिला। मुझे मालूम था कि आप कभी स्वीकृति नहीं देंगे इसलिए मैंने आठ अगस्त को एरिक से शादी करने का निर्ण्य कर लिया है। अगर आप चाहें तो आकर शादी में आकर आशीर्वाद दे सकते हैं। सागर के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। उन्हें लगा जैसे उनका स्वाभिमान, इज़्ज़त, मान्यताएँ, सब कुछ, जिसमें वह विश्वास रखते थे, टूट- टूट कर बिखर गया। नपुंसक और दयनीय क्रोध में आकर वह चीख़ते, चीज़ें पटक डालते। विधु दरवाज़ों की ओट में खड़ी होकर काँपती। |
09-12-2011, 05:42 PM | #7 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
धरणी को भी आघात कम नहीं लगा था। सोचती उसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई? पर वह दिल की बात सहेलियों से कर लेती। सभी इन्हीं हादसों से गुज़र रहीं थीं। एक-दूसरे को देख कर तसल्ली कर लेतीं।
दो-तीन दिन बाद जब आवेग थम गया तो धरणी ने कहा, ''जी, दुख तो मुझे भी कम नहीं हो रहा, पर हम ऐसा कोई काम न करें कि दस साल बाद हमें अफ़सोस हो।'' सागर निरीह से देखते रहे। ''शादी का तो उसने निश्चय कर ही लिया है। हम अपनी ओर से बाद में दावत दे देते हैं ताकि बेटी से सम्बन्ध तो न टूटे।'' धरणी ने सुझाया। ''जो तुम ठीक समझो।'' कह कर सागर शिथिलता से लेट गए। एक अनजाने शहर के होटल में आकर टिके पति-पत्नी एक दूसरे की ओर देखते - चुप और बेबस। धरणी बार-बार फ़ोन डॉयल करती। उधर से रिकॉर्डिंग मिलती। वह कई बार संदेश भी छोड़ चुकी थी। सागर आशा भरी नज़रों से देखते। धरणी निराशा से सिर हिला देती जैसे डॉक्टर रोगी के बचने की उम्मीद न होने पर हिलाता है। ''वह फ़ोन उठा नहीं रही।'' धरणी हार कर बैठ गई। ''हमें इतना शर्मिन्दा भी किया और ऊपर से नाराज़गी भी, जैसे क़ुसूरवार हम ही हों।'' ''बस अब चुप कर जाइए।'' धरणी जैसे हवा में उड़ते तिनकों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रही थी। वह पति के साथ सहमत थी। आख़िर दोनों ने एकमत होकर ही तो विधु की सगाई भारत में जाकर करने का प्रयास किया था - विधु की अनुमति से। सागर के बचपन के दोस्त का बेटा, पढ़ा-लिखा, सुन्दर, सुसंस्कृत। विधु ने तस्वीर भी पसन्द की थी। माँ-बेटी दोनों गई थीं तो विधु को लगा, गिनने में तो अंक ठीक ही लगते हैं पर मन में कुछ हिलोर नहीं उठी। कहाँ गया वह सपना कि कोई उसके प्रेम में पाग़ल है और वह उसे अपना जीवन साथी चुनती है। सोचा, मैं तो इसे जानती भी नहीं। इसका और मेरा वातावरण कितना अलग है? यह तो कुछ भी नहीं जानता उस दुनिया के बारे में, जहाँ मैं रहती हूँ। पर कहा इतना ही, ''सोच कर बताऊँगी।'' |
09-12-2011, 05:43 PM | #8 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
धरणी, पिता और भाई-भाभियों के दबाव में आ गई।
''विधु, यहाँ ऐसे नहीं होता। हम सब को रिश्ता ठीक लग रहा है। इतनी दूर से आई हो तो अब सगाई करवा ही लो।'' बड़े मामा ने विधु को समझाया। दो दिन में सगाई भी हो गई। विधु सकते में थी। अकेले में रात को जब होश आया तो वह माँ से तड़प कर बोली थी ''माँ, तुम भी यहाँ आकर इन सब से मिल गई हो? मुझे बछिया की तरह एक अनजान खूँटे से बाँधने को तैयार हो गईं?'' माँ के विश्वास-घात की चोट ने उसे चंडी के रूप में बदल दिया, ''अब तुम्ही तोड़ो यह सगाई।'' धरणी रोने-रोने हो गई। ''बहन जी, यहाँ हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आप चाहे बाद में बेशक अमरीका जाकर तोड़ दीजिएगा।'' बड़े भाई ने धरणी को समझा दिया। विधु के रोष का ठिकाना नहीं। सभी की इज़्ज़त... डैडी की, मम्मी की, ख़ानदान की और बलि किसकी? मेरी! धरणी ने एक सवाल पूछा, ''तूने अगर हिन्दुस्तान के लड़के से शादी करवानी नहीं थी, तो फिर यहाँ आने को तैयार क्यों हो गई?'' ''सोचा था, शायद मेरे मन को कोई भा ही जाए? मैंने आपकी बात मानने की क़ोशिश तो की?'' उसने खोख़ली आवाज़ में जवाब दिया। विधु को बड़ी बहन की शादी पर हुई डैडी की प्रतिक्रिया का ध्यान था। उसके बाद जो उन्हें दिल का दौरा पड़ा उसकी दहशत से वह कभी उबर नहीं पाई। डैडी से बहुत प्रेम करती थी वह। अपनी वजह से उन्हें कोई दुख नहीं देना चाहती थी। पर ज़बरदस्ती की हुई सगाई ने उसे प्रचंड विरोधी बना दिया। वह अपने मन के विरुद्ध, तर्कों का साथ नहीं दे सकती। वापस चली गई थी वह अपनी नौकरी पर, उसी बेगाने शहर में। क्रिसमस की छुट्टियों पर सभी अपने घर गए और सिर्फ़ वह अकेली ही रही उस एपार्टमेंट बिल्डिंग में। न थैंक्स-गिविंग पर घर गई, न ही किसी ने बुलाया। कितना रोयी थी वह ग़ुस्से में, मजबूरी में। सोचती, मेरे ही अपने मेरा साथ नहीं दे रहे। अपनी ज़िन्दगी के साथ जुआ न खेलने के लिए मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। डैडी ने तो यहाँ तक कह दिया कि अब उस लड़के की ज़िन्दगी तो ख़राब मत करो। कम से कम उसकी पैटीशन तो फ़ाइल कर दो, ताकि वह मंगेतर- वीसा पर तो आ सके। उसने ज़हर का घूँट भर कर, रात-भर जाग कर वह सारे फ़ॉर्म भर दिए थे। बस, उसके बाद से विधु ने सबसे बात करना बंद कर दिया। अकेले में रोती रही, कोई चुप कराने वाला भी नहीं था। अब तीन महीने बाद शायद माँ की ममता जागी होगी। यहीं शहर में आकर टिके हैं अब फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे हैं। वह किसी से नहीं मिलना चाहती, बस! धरणी को दमे का दौरा पड़ा था। विधु ने स्वाभिमान निगल लिया। माँ का इतना ख़्याल रखा कि धरणी ने रोम-रोम से दुआएँ दीं। उसने अपना रुख बदल लिया। कह दिया, '' विधु जा, जो भी तुझे पसन्द है, उसी से शादी कर ले।'' विधु को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लगा सिर पर से कोई चट्टान सरक गई। ''मम्मी अभी कोई नहीं है।'' ''क्यों?'' ''काम में बहुत व्यस्त रहती हूँ न। समय ही नहीं मिलता।'' ''बेटा, हमारे पास आकर रह। इस शहर में कोई नौकरियों की कमी है?'' ''क़ोशिश करूँगी।'' धरणी आश्वस्त हुई। सोचा, यहाँ रहेगी तो किसी जान-पहचान वाले से मुलाक़ात तो करवाई ही जा सकती है। विधु जाने कैसे भाँप गई। बोली, ''एक शर्त्त पर, तुम लोग मुझसे कभी शादी करवाने की बात नहीं करोगे।'' कुछ सोच कर धरणी ने कहा, ''अच्छा!'' सागर उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। विधु उनके पास लौट आई थी। शाम को सागर काम से घर लौटे तो धरणी ने मेज़ पर खाना लगा दिया। उन्होंने प्रश्न भरी आँखों से धरणी को देखा। धरणी ने होठों पर उँगली रख कर चुप रहने का इशारा कर दिया। उसका अपना दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। कान ऊपर की आवाज़ों से स्थिति का अन्दाज़ा लगाने की क़ोशिश में थे। विधु हाथ में किसी पुरुष की फोटो लिए धड़धड़ाती हुई नीचे आई। ''यह फोटो मेरे कमरे में किसने रखी?'' ''मैंने'', धरणी ने बड़े संयत स्वर में जवाब दिया। ''आपने कहा था न कि आप लोग मुझे शादी के बारे में तंग नहीं करेंगे?'' ''विधु देख, हमने कुछ भी नहीं किया। नीना आंटी ने तेरे लिए यह फ़ोटो दी है। कहती हैं, ''बहुत हैंडसम है, अपना बिज़नेस है, बहुत अमीर हैं और लड़का स्वभाव का बहुत ही अच्छा है। मैंने तो कुछ नही कहा। जो फोटो उन्होंने दी, मैंने तेरे कमरे में रख दी।'' ''तो वह अपनी बेटी की शादी क्यों नहीं इससे कर देतीं?'' फ़ोटो को ज़मीन पर पटक कर विधु क़सरत के लिए चली गई। उसे जब भी तनाव होता है वह भागना शुरू कर देती है। तब तक भागती रहती है जब तक बिल्कुल बेदम न हो जाए। |
09-12-2011, 05:44 PM | #9 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
सागर अब तक चुपचाप कौर निगलते रहे थे अब और नहीं खा पाए।
''क्या होगा इसका, धरणी क्या होगा?'' उनका गला रुँधने लगा। धरणी क्या उत्तर देती? ''मैं बहुत मजबूर महसूस करता हूँ। कर्त्ता आदमी हूँ, पर इस लड़की ने मेरे हाथ-पैर बाँध दिए हैं।'' ''जब वक्त आएगा, इसका संयोग होगा तो अपने-आप कुछ हो जाएगा।'' ''क...ब?'' सागर अधीरता वश ज़ोर से बोल गए। ''तीस से ऊपर की हो गई है। हम ढूँढ नहीं सकते, कोई बताता है तो इसका दुश्मन हो जाता है, ख़ुद इसे कोई मिलता नहीं।'' ''मिलते हैं, पर यह उनमें भी नुक़्स निकाल देती है।'' ''क्यों? ''पता नहीं किस इन्द्र-धनुष के पीछे भाग रही है? वह ऐसा राजकुमार ढूँढ रही है, जो है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से?'' धरणी चिंता में खो सी गई। अगले दिन सागर ने बेटी के नाम एक ख़त लिखा। ''प्रिय विधु, तुम मुझसे बात नहीं करना चाहती इसलिए एक घर में रहते हुए भी मुझे तुमसे पत्र लिख कर बात करनी पड़ रही है। बेटा, मैं बस इतना चाहता हूँ कि मेरे जीते-जी तुम्हारा एक सुखी परिवार हो, कोई तुम्हारा ख़्याल करने वाला, सुख-दुख बाँटने वाला हो और मैं अपनी ज़िम्मेदारी से छुट्टी पाऊँ। जो भी लड़का तुम्हें पसन्द हो, तुम उससे शादी कर लो। मैं सिर्फ़ तुम्हें अपनी घर-गृहस्थी में ख़ुश देखना चाहता हूँ। विधु कोई भी इन्सान सर्व-गुण सम्पन्न नहीं होता। किसी न किसी लड़के में कोई न कोई कमी तो होगी ही। तुम कोई एक या दो बातें चुन लो जो तुम्हारे लिए अहमियत रखती हों। बस, उन्हीं पर ध्यान केन्द्रित करो। छोटी- मोटी बातों को जाने दो। सभी गुण तो द्रौपदी को भी एक पति में नहीं मिले थे, इसे पाँच पति मिल कर ही पूरा कर पाए। उम्र तो अपनी गति से चलती है, बढ़ेगी ही। ज्यों-ज्यों तुम्हारी उम्र बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों तुम्हारे लिए वर मिलने की उम्मीद फीकी होती जाती है। चाहता हूँ कि किसी तरह हाथ बढ़ा कर किसी अनहोनी की आशंका को रोक सकूँ। हम लोग उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं। कल नहीं होंगे तो कौन तुम्हारा खयाल रखेगा? यह विचार जब आता है तो मैं नींद से उठ कर बैठ जाता हूँ। मेरी बच्ची, बिना मतलब इतनी ज़िद, इतनी कट्टरता और विरोध कहीं नहीं ले जाएगा। थोड़ा विचारों में लचीला पन लाओ और व्यावहारिक बनो। हम तुम्हारे शुभ-चिन्तक हैं, इसका विश्वास रखो। ढेर सारे प्यार सहित, तुम्हारा डैडी |
09-12-2011, 05:44 PM | #10 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
विधु ने ख़त पढ़ा। हाथ में लेकर सोचती रही। एक और भाषण- बाप का बेटी के नाम। ख़त धीरे से उसने रद्दी की टोकरी में सरका दिया।
मन्दिर में जाकर दिया जलाते ही धरणी की आँखें भीग गईं। ''प्रभु इस बच्ची का भला करो।'' उद्वेग से गला रुँध गया। कितने व्रत- उपवास कर चुकी, कितनी मन्नतें माँगी। कितनी बार घर में हवन- पूजा करवाई, विधु की सिर्फ़ फ़ोटो ही सामने रख कर। विधु की मौसी आए दिन भारत से कभी कोई तावीज़, कभी किसी हवन की भस्म और कभी किसी अंगूठी में पत्थर लगवा कर भेजती - विधु को पहनवा देना। विधु बिन किसी चूँ- चपड़ के पहन भी लेती। ''विधु, तेरे दफ़्तर में कोई लड़का नहीं है क्या?'' धरती पूछती। ''है माँ, पर सब शादी-शुदा हैं।'' विधु दूसरी ओर देखते हुए जवाब देती। हर साल ''वैलेन्टाइन डे'' वाला दिन विधु पर बहुत भारी पड़ता। खौफ़ खाती थी वह उस दिन से। लगता दफ़्तर में हर आता-जाता आदमी जैसे उसकी ही मेज़ को घूरता था। कहीं कोई चॉकलेट नहीं, कार्ड या फूल भी नहीं। शायद अगले साल? अब उसने सबसे बचने का तरी॔क़ा सोच लिया। ख़ुद ही अपने को फूल भिजवा दिए।ज़ुबानें तो बन्द हो गईं। दफ़्तर में उसके साथ काम करने वाले लड़के या उसकी अपनी सहेलियों के दोस्त पता नहीं क्यों उससे इतना अपनापन दिखाते हैं? अपनी प्रेमिकाओं को सगाई की अंगूठी देने के लिए उसकी राय पूछते। वह खुशी-ख़ुशी उनकी शॉपिंग में मदद भी करवा देती। घर लौट कर अंधेरे कमरे में बिलख-बिलख कर रोती। इन संवेदना-हीन लोगों को क्या मेरी ख़ाली उँगली दिखाई नहीं देती? धरणी बस विधु के चेहरे के भाव ही देखती रहती है। समझ में नहीं आता कि क्या करे? किसी ने बताया कि भारतीय मूल के प्रशिक्षित युवा लोगों का कोई सम्मेलन इस बार न्यूयॉर्क में हो रहा है। उसने विधु से पूछ कर उसका नाम भी रजिस्टर्ड करवा दिया। विधु गई तो पर ख़त्म होने से पहले ही लौट भी आई। धरणी की आँखों में सवाल उभरा, ''कोई बात बनी?'' विधु तीर सी आगे निकल गई। धरणी ने बाद में उसे फ़ोन पर बात करते सुना, ''वहाँ ऐसे-ऐसे अंकल-नुमा लड़के थे कि क्या बताऊँ? ढीले-ढाले से, पढ़ाकू, कोई चश्मे वाला, किसी के बाल उड़े हुए। मुझ से तो अगर कोई बात करने की कोशिश भी करता तो मैं तो मुँह ही दूसरी ओर कर लेती या फिर अपने सैल-फ़ोन से झूठ- मूठ व्यस्त होने का बहाना करती। दूसरी तरफ़ से पता नही किसी ने क्या कहा कि विधु तुनक गई। ''पर मैं अपनी उम्र से बहुत छोटी लगती हूँ। जब मैंने इतने सालों तक इन्तज़ार किया है तो बेहतर है कि उस आदमी के सिर पर बाल तो हों।'' लेटे-लेटे धरणी चुपचाप छत की ओर देखती रही। सामने अल्मारी में गुलाबी शादी का जोड़ा वैसे ही मलमल की धोती में सहेज कर रखा हुआ था जो उसने ख़ास विधु के लिए दस साल पहले अपनी किसी सहेली के हाथ, चंडीगढ़ से मँगवाया था। आज घर में मातम सा वातावरण था। लगा जैसे कोई ख़ुशी बहुत पास आने वाली थी कि छिन गई। सागर को लगा था विधु को शायद आदित्य पसन्द आ गया है। वह पीछे ही रहे हालाँकि धरणी सब बताती रही। सुदर्शन, चिकित्सक, अमरीका का ही पढ़ा-लिखा, सभ्य और सुसंस्कृत- सभी बातें दिखती थीं उसमें। उन्होंने ख़ुद जाकर नीना को धन्यवाद दिया था, उनका रोम-रोम शुक्रगुज़ार था। लगता था जैसे कोई सपना पूरा होने ही वाला है। आदित्य से मिल कर विधु रात गए लौटी तो धरणी उसके हाव- भाव देख कर ही ठिठक गई, पर चुप रही। आदित्य दो दिन के लिए हयुस्टन से न्यूयार्क आया था, विधु से ही मिलने। आज सारा दिन विधु उसे लेकर बाहर घुमाने गई हुई थी। सुबह उसने अस्वाभाविक चुप्पी के साथ नाश्ता किया और फिर घर से निकल गई। शाम को लौटी तो यों लगा जैसे किसी का दाह-संस्कार कर के आई हो। सागर अनमने से पियानो पर बैठे थे। मन जैसे भँवर में डोल रहा था। दोनों माँ-बाप की नज़रें उसकी ओर उठीं जैसे पूछ रही हों... ''कोई बात बनी?'' ''आदित्य की और मेरी बात ख़त्म, बस। अब इस बारे में कोई मुझसे बात नहीं करेगा।'' दॄढ़ता से कह कर वह अपने कमरे में चली गई। बड़ी ज़ोर से दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ हुई। पूरे घर में निस्तब्धता इतनी कि जैसे सांस लेने की भी मनाही हो। अगली शाम काम से विधु घिसटते क़दमों से घर लौटी। डैडी को सामने पाकर ठिठकी, फिर आगे बढ़ गई। ज़ाहिर था कि सागर सारा दिन घर पर ही रहे थे। कोई बोझ था उनके मन पर। ''विधु, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।'' ''मुझे किसी से बात नहीं करनी। मेरी तबियत ठीक नहीं।'' ''लेकिन हम बात करना चाहते हैं।'' धरणी ने थोड़े कठोर होकर कहा। ''आख़िर बात क्या हुई?'' ''मैं बात ही नहीं करना चाहती।'' ''मुझसे नहीं तो कम से कम अपनी माँ से तो कर सकती हो।'' कह कर सागर उठ गए। धरणी ने प्यार से हाथ बढ़ा कर विधु को अपने पास बिठा लिया। ''विधु, जब तुम छोटी थीं तो और बात थी। अब इस उम्र में कोई ज़्यादा लड़के दिखाई नहीं देते। कितने सालों बाद तो कोई लड़का मिला है, भला अब इस में तुम्हें क्या बात ग़लत दिखाई दी।'' ''जानना चाहती हो?'' विधु आहत होकर खड़ी हो गई। ''कल जब हम सब लोग साथ थे, तो उसने तीन ड्रिन्कस लीं, फिर उसने सिर्फ़ अपने हिस्से के पैसे निकाले।'' ''यहाँ अमरीका में तो सभी लड़के पीते हैं।'' ''उसकी कई गर्ल-फ़्रेन्डस भी रह चुकी हैं।'' ''अब जब इतनी उम्र के हो जाओ तो स्वाभाविक ही है।'' ''वह पहले एक लड़की के साथ रहता था।'' अब धरणी चुप हो गई। फिर उसने एक हारते हुए वकील की तरह कहा, ''चल अब तो नहीं रहता न। वह उसका अतीत था। हमें क्या लेना-देना?'' ''और जब कल रात को वह मुझे छोड़ने आया था तो उसने मुझे ज़बरदस्ती 'किस्स' करने की भी कोशिश की।'' विधु चोट से फ़ुंफ़कार उठी। धरणी को जैसे किसी ने गहरे कुँए में धक्का दे दिया। धँसते हुए उसके शब्द भी डूब गए, ''यह यहाँ की संस्कृति है।'' कई बीमारियाँ और उनकी उतनी ही दवाइयाँ। धरणी सोती है तो बेहोश होकर। सागर को अब ऊँचा सुनाई देता है। विधु फ़्लू से बेहाल थी। पता नहीं कब से अपने कमरे से पुकारती रही। ''माँ... पानी''। धरणी बाथरूम जाने के लिए उठी तो आवाज़ सुनाई दी। धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर कर रसोई-घर में आई। पानी का गिलास लेकर विधु के कमरे में गई। हाथ बढ़ा कर उसका माथा छुआ, तप रहा था। विधु ने हाथ झटक दिया। उसी हालत में तैयार होकर काम पर जाने का संघर्ष करती रही। छुट्टी लेना इतना आसन नहीं। बाहर बर्फ़ पड़ रही थी। ''विधु चाभी दे, मैं बर्फ़ हटा कर तुम्हारी कार गर्म कर देता हूँ।'' सागर ने कोमलता से कहा। विधु बिना कुछ खाए पीये, अपने को घसीटती हुई, कार के ऊपर से बर्फ़ हटाने लगी। ''मैं हटा देता हूँ।'' ''नो, थैंक्स।'' उसने नज़रें उठा कर उनकी तरफ़ देखा भी नहीं। सागर हार कर भीतर लौट आए। सारी हताशा धरणी के सामने बिखर गई। ''क्या करेगी यह लड़की? कल को यह क्या करेगी?'' धरणी क्या जवाब दे? ''रात बीमार थी तो माँ को पुकार रही थी, पानी देने के लिए। कल जब माँ नहीं होगी, अकेली रह जाएगी तो किस को पुकारेगी? कौन देगा इसको उठ कर पानी?'' सागर को लगा जैसे वह रो पड़ेंगे। धरणी ने उन के कंधे थपथपा दिए पर कुछ कह न सकी। अब धरणी कुछ नही कहती किसी से भी नहीं। बस जाकर अपने इष्ट-देव के आगे हाथ जोड़ आती है। ''प्रभु, भला करो।'' प्रार्थना करने के अलावा और कोई शक्ति बची नहीं उसमें। एक दिन कैविन उनकी प्रार्थना का जवाब बन कर आ ही गया। कैविन घर के बाहर कार रोक कर, वहीं से विधु को फ़ोन करता; ''बाहर आ जाओ।'' विधु बाहर लपकती तो धरणी को भी देखने की उत्सुकता होती कि बेटी किस के साथ जा रही है? सुरक्षा के लिए भी कार का और कार वाले का हुलिया जानना ज़रूरी था। विधु आँखे तरेरती। ''दरवाज़ा बन्द करने आ रही हूँ,'' वह खिसियानी होकर कहती। ''मेरे चले जाने के बाद करना।'' विधु सख़्ती से कहती। दरवाज़ा बन्द कर धरणी सीधे, सोने वाले कमरे में बनाए मंदिर की ओर दौड़ती। फिर एक दिन वह नीना के घर ही थी, विधु काम से लौटते वक्त उसे वापिस लेने पहुँची। विधु का चेहरा देख कर धरणी के दिल में हौल सा उठा। नीना ने विधु को हाथ पकड़ कर बिठा लिया। विधु वहीं फूट-फूट कर रो पड़ी। बहुत पूछने पर बस यही कह सकी, ''कैविन अब मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।'' ''आखिर क्यों?'' ''कहता है कि मैं बहुत अच्छी हूँ और वह मेरे लायक नहीं।'' धरणी मुँह -बाये सुनती रही। उसे यह सब बातें समझ नहीं आती। ''उसने मुझे अस्वीकार कर दिया है माँ।'' विधु ने जैसे चीख़ मार कर उसे समझा दिया। धरणी ने उसे सीने से लगा कर ढाँढस बँधाने की क़ोशिश की। विधु घायल तो थी ही पर अब ग़ुस्से से जैसे फ़ुंफ़कार उठी। ''जब मैं जवान थी, आकर्षक थी, तब आप लोगों ने बेहूदा से देसी लड़के दिखा- दिखा कर मेरा वक्त ख़राब कर दिया। होश आते ही मेरी शादी करवाने को तुल गए। कितना विरोध करना पड़ा है मुझे। अब आप लोग मेरी मन-पसन्द के लड़के से मेरी शादी करने को राज़ी हुए हैं तो लड़के हैं ही कहाँ? और अगर कोई है तो वह मुझसे प्रेम नहीं करते क्योंकि अब मैं आकर्षक ही नहीं रह गई।'' विधु फिर से फफक-फफक कर रो उठी। |
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