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Old 09-12-2010, 11:30 AM   #21
teji
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Default Re: गांधीवादः डॉ. राममनोहर लोहिया

सरकार बनने के बाद गांधीवाद के इस पलायन को दो दृष्टियों से देखना होगा - गांधीवाद जब विपक्ष में था, तो उसके अन्दर क्या था, और क्या नहीं था। उसमें चरखा था और राकेट नहीं था। यह वाक्य केवल मुहावरेबाजी नहीं है। वह गांधीवाद का कुछ अतिसरलीकरण तो है, लेकिन ये वाक्य गांधीवाद के सार को ठोस रूप देकर प्रस्तुत करता है। इस सार के उपर पडे आवरण को हटा दें, तो यह ऐसा अनाकर्ष कभी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश, गांधीजी में असली टिका। बातें वक्ती बातों के साथ जिस तरह जुडी हुई हैं, जीवन की अनश्वरता के प्रति आश्वस्त आदमी ही उसका जोखिम उठा सकता था।
वे शायद सोचते थे कि उनके प्रिय शिष्य उनके सिद्धान्त की टिका। बातों को जीवित रखेंगे, और जरूरत के मुताबिक बदलने वाली वक्ती बातों से उसे सजाते रहेंगे, किन्तु शिष्यों के मामले में कोई पैगम्बर गांधीजी जैसा अभाग्यशाली नहीं रहा। बहरहाल इसके बारे में आगे फिर कहूंगा। चरखा वक्ती चीज है। इसी तरह प्राकृतिक चिकित्सा अंशगमहत्व की चीज है यद्यपि सर्वथा वक्ती नहीं। गांधीजी का ठोस प्रतीक तात्कालिक कार्य के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन सव्यिता को जारी रखने के लिए यह भी उतना ही जरूरी है कि ठोस प्रतीक में उसका अमूर्त सिद्धान्त निकाला जाये। ये सिद्धान्त हैं : आदमी के पास ऐसे औजार होने चाहिए जिस पर कई अर्थ़ों में उसका नियंत्रण हो। उसका तात्कालिक निवास क्षेत्र आत्मनिर्भर और प्रत्यक्ष लोकतंत्र द्वारा शासित हो। चरखे का सन्देश है नियत्रण योग्य मशीनें और गांव शासन।
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Old 09-12-2010, 11:31 AM   #22
teji
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Default Re: गांधीवादः डॉ. राममनोहर लोहिया

सामान्य सिद्धान्त निकालने की निष्ठा होने पर भी, यह सिद्धान्त अभी नाकाफी है। गांधीजी में सादगी और छोटी मशीनों पर आग्रह साफ है, जबकि दुनिया बराबर पेचीदा मशीनों और विलासिता की ओर बढ रही है, तो कम से कम दुनिया के गोरे लोग बढ रहे हैं। उनकी मिसाल का दबाव जबरदस्त है, और उनके नमूने के असर से कोई बच नहीं सकता। इसी कारण गांधीजी का आर्थिक चिन्तन स्वतत्र स्थापना से अधिक एक संशोधन है। उनके अपने देशवासी यूरोप-अमरीकी मशीनी ढांचे की नकल करने को आतुर है, और गांधीजी के संशोधन का बात अगर ज्यादा जोर से की जाये तो आसानी से रद्द कर दी जाती है। चर्खा और बिना सिले कपडे, इनके साथ अभी ही एक पुराण-पंथी गन्ध जुड गयी है, और सिद्धांत के शत्रु इसे हंसी में ही उडा देने को तैयार बैठे हैं। अगर कोई ऐसा आर्थिक चिन्तन विकसित हो सकता जो वर्तमान युग के मशीनी ढांचे से बिलकुल इनकार न करे, बल्कि उसमें गांधीवादी संशोधन को जोडें, उसके ठोस प्रतीक को नहीं, तो गांधीवाद सरकारी रूप में भी सार्थक हो सकता है। कट्टरपंथी मठी गांधीवादी ऐसे सिद्धान्त के बारे में कह सकते हैं कि उसका गांधीजी से कोई ताल्लुक नहीं। और बाल की खाल निकालने वाले आलोचक उसे एक विकृति कह कर मखौल उडा सकते हैं। लेकिने सरकार के एक नए विधेयात्मक सिद्धान्त के रूप में दुनिया उसका स्वागत करेगी।
गांधीवादी सिद्धान्त के रहन-सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है। किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी पंकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछडे हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक वंति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढने और जरूरतों की संख्या घटने का द्वैध किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें किसी पंकार का तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिके दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पडेगा, पूरे राष्टं की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं।
सादगी गांधीवादी सिद्धान्त की अनोखी विशिष्टता नहीं है। साम्यवादी बिलकुल सादगी से रहते हैं, शायद दुनिया के सनारूढ व्यक्तियों में सबसे ज्यादा। लेकिन सादगी साम्यवादी सिद्धान्त का अंग नहीं है, गांधीवाद का है। जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार, और समूची मनुष्य जाति में ही कुछ खास लोगों में मिलती है।
बेल्जियम की एक औरत, जेने जेवर्ट, जो विश्वीव संघ की समर्थक भी है, पांच साल से अधिक हो गया, उनरी यूरोप में आठ आना रोज पर बसर करती रही है। यह अपने आप में एक विलक्षण घटना है। यह प्रवृत्ती अगर बढ और फैल सके तो इससे इतनी बडी वंति होगी जितनी बडी यूरोप में अभी तक नहीं हुई। समाज व्यवस्था में नैतिक नियम निकलना चाहिए, या नैतिक नियम पर आधारित व्यवस्था बननी चाहिए, अन्यथा ऐसी चीजें केवल विलक्षण या व्यवस्था का उल्लंघन रह जायेगी।
जब तक सादगी में रहने की इच्छा को आधुनिक मशीनी ढांचे में गूंथकर संस्था और विचार की एक संगत व्यवस्था नहीं बनाई जाती, तब तक कलाकार या सनकी लोग ही गांधीवाद के इस पहलू का इस्तेमाल करेंगे। जब आधुनिक मशीनों ने सम्प़ता की सम्भावना प्रस्तुत कर दी हो पुराने अनुभवों से यह बात कुछ अविीवसनीय लगती है, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग इस पर यकीन करता हैगउस समय सम्पूर्णे त्याग का दर्शन या इससे मिलती-जुलती कोई बात निरर्थक हो जाती है। सभी मनुष्यों के लिए अच्छा रहन-सहन नीति का एक आवश्यक लक्ष्य है। लेकिन अच्छे रहन-सहन की सीमा क्या है? और कुछ थोडी-बहुत विलासिता का बंटवारा कैसे हो? नीति के संकेत-चिन्हों के रूप में नहीं, बल्कि दिशा-निर्देश के रूप में ही इन प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। लेकिन ये सवाल सम्पनि की संस्था और उसके पुरस्कार से जुडे हुए हैं। सम्पनि सम्बन्धी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्पष्टता से निकल रहे थे तभी गांधीजी की मृत्यु हो गई, जबकि मार्क्स इस मामले में पक्के थे और उन्होंने परिवर्तन का समर्थन किया था।
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Old 09-12-2010, 11:33 AM   #23
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Default Re: गांधीवादः डॉ. राममनोहर लोहिया

मनुष्यों में जब से सन्त और ऋषि होने लगे, तभी से उनका ध्यान सम्पनि के सवाल की ओर जाता रहा है। सम्पनि अप्रिय या बुरे मनोविकारों का स्रोत थी, जो मन को विछत करती थी। अतः इसका इलाज था कि सम्पनि के प्रति मोह न रहे। अलग-अलग रूपों में और विभि़न्न सीमाओं तक सभी देशों में अपरिग्रह का दर्शन विकसित हुआ। एक भावनात्मक अनुशासन के अलावा इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। यह अनुशासन अपने आप में शक्तिहीन था, लेकिन कुछ अन्य बातों के मिल जाने पर इसमें बडी संभावनायें थम्। अपरिग्रह का दर्शन जहां सबसे अधिक विकसित हुआ, उस देश में ही सबसे अधिक मोह बढा, जीवन और सम्पनि के ऐसे रूपों का भी मोह बढा जो स्वीकार करने के लायक नहीं थे। पिछली दो शताब्दियों में यूरोप-अमरीका ने सम्पनि के सवाल को एक अन्य कोण से देखा है -एक संस्था के रूप में। खासतौर से मार्क्सवाद के अनुसार, सम्पनि से जो बुराई पैदा होती है, उसे केवल एक संस्था के रूप में सम्पनि का नाश करने पर ही मिटाया जा सकता है : निजी सम्पनि खतम हो, सामूहिक सम्पनि बने।
अभी भी इसके बहुतेरे संकेत हैं कि संस्था के स्तर पर सम्पनि के सवाल का सामना करना शायद उतना ही नाकाफी सिद्ध हो, जैसा पहले भावनात्मक स्तर पर हुआ । फिर भी, संस्थात्मक कारवाई के कुछ तो नतीजे निकलते हैं, जबकि भावनात्मक स्तर पर कोई भी नतीजा नहीं निकलता। यही कारण है कि सरकारी मार्क्सवाद किसी हद तक वंतिकारी होता है, जबकि सरकारी गांधीवाद भावनात्मक रूप में बडबोला और भौतिक रूप में हवाई साबित हुआ है।
एक संस्था के रूप में उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत को खत्म कर देने के बाद भी विकास और सम्प़ता की समस्या रह जाती है। यहम् पर सामूहिक और निजी सम्पनि की अलग-अलग भूमिकायें सहायक हो सकती हैं। सामूहिक सम्पनि मुख्य रूप से उत्पादन के लिए होती है, और इसलिए वह बढे। निजी सम्पनि उपभोग के लिए होती है, और इसलिए उस पर रोक लगे। सामूहिक सम्पनि का लगभग असीमित विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर एक अधिकतम सीमा को मिलाने पर ऐसी स्थिति उत्प़ हो सकती है जिसमें सम्प़ता भी हो और आत्मसंतोष भी, और जिसमें अपूर्ण इच्छाओं की कसक के लिए गुंजाइश बहुत कम रह जाये। उत्पादन की सम्पनि का विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर रोक, यह बात तार्किक दृष्टि से असंगत और कुछ बेमतलब लगती है। इसकी संगति मनुष्य की मानसिकता में है। इस मेल के द्वारा ही वह सम्बन्ध बनता है जिसमें दुनिया के सभी लोगों की कुल संभावनायें ध्यान में रहती हैं, और जिसमें व्यक्ति जितना कर सकता है उससे कम वस्तुओं का उपभोग करता है। इस संदर्भ में उपभोग की सम्पनि की अधिकतम सीमा कुछ लचीली हो जाती है। सामूहिक विस्तार और निजी सीमा का ऐसा दिमाग बनाना असंभव नहीं होना चाहिये। संस्था के रूप में सम्पनि का विनाश एक संस्थागत ढांचा पंदान करेगा। भावनात्मक स्तर पर सम्पनि के मोह के विनाश से इस ढांचे के फिर कभी टूट जाने का खतरा नहीं रहेगा। अगर गांधीवाद या उसके सुफल को आप जो भी नाम दें, निष्फल बातों को दोहराने तक ही सीमित नहीं हो जाता, चाहे उपनिषदों की सम्पनि के अपरिगंह की बात हो, या मार्क्स की निजी सम्पनि की संस्था का नाश करने की बात हो बल्कि दोनों को मिलाने की बात और ऐसा संस्थात्मक ढांचा बनाने की कोशिश करता है जिसमें मनुष्य आशा के साथ अच्छा बनने की चेष्टा कर सके, तो वह सरकारी सिद्धांत के रूप में भी स्वीकार करने लायक हो सकता है। कोई यह समझने की गलती न करे कि भावना के स्तर पर सम्पनि-मोह के नाश से, संस्था के रूप में सम्पनि के नाश की जरूरत जरा भी कम होती है। यहां केवल इस बात पर आग्रह किया गया है कि संस्था के रूप में सम्पनि के विनाश की जरूरत जरा भी कम नहीं होती।
अच्छे काम करने के सरकारी सिद्धांत के रूप में गांधीवाद की कमियों के बारे में चाहे जो भी कहा जाये, बुराई का विरोध करने के जन सिद्धांत के रूप में यह अनुपम था। व्यक्ति की आदत और सामूहिक संकल्प, दोनों ही रूपों में सिविल नाफरमानी बुद्धि को ताकत से जोडती है। ताकतवर बुद्धि है, जबकि अन्य सभी तरीके या तो निर्बल बुद्धि के होते हैं या अबुद्धिपूर्ण ताकते के। ऐसी सिविल नाफरमानी मनुष्य जाति को गांधीजी की प्रत्यक्ष देन है।
लेकिन गांधीजी और उनके सिद्धांत ने जिस सरकार को बनाने में योग दिया, उसने गांधीजी की सीख के इस सबसे अधिक वंतिकारी मर्म को नष्ट करने की पूरी कोशिश की है। इतिहास में कभी किसी संतान ने इस तरह अपनी मां की कोख में लात नहीं मारी। कभी कोई सिद्धांत विपक्ष में जैसा था, सरकार में आने पर इस तरह बिलकुल उसका उल्टा नहीं बना। लेकिन यह स्वाभाविक है कि सरकारी गांधीवाद विपक्षी गांधीवाद से टकराये, जब तक कि उनके अन्तर्विरोध को दूर करने वाली कोई बेहतर चीज उनके मेल से नहीं बनती। ऐसी संभावना पर विचार करने के पहले एक विचित्र बात की ओर ध्यान देना जरूरी है। गांधीजी के सबसे नजदीकी शिष्यों ने जिस तरह उनका प्रकट तिरस्कार किया, वैसा पहले कभी किसी सिद्धांत या पैगम्बर के साथ नहीं हुआ। जिस घडी उनकी जीत हुई, उसी समय से उनका अपमान भी शुरू हुआ। उनके सिद्धांत के तिरस्कार के अलावा, उनके व्यक्तित्व का मान भी घटा। गांधीजी की बराबरी करने वाले किसी महान व्यक्ति के ऐसे शिष्य नहीं हुए जो किसी अन्य व्यक्ति को अपने गुरु से महान घोषित करें। सवाल यह नहीं है कि बुद्ध वास्तव में गांधीजी से बडे हैं या नहीं। शायद हैं, शायद नहीं हैं। लेकिन गांधीजी के शिष्य जब भी मौका मिले बुद्ध को हिन्दुस्तान का सबसे बडा आदमी घोषित करें, यह अनोखी बात है। ऐसे कोई शिष्य न बुद्ध के थे, न ईसा के, न सुकरात के, यहां तक कि मार्क्स के भी नहीं। यह संभव है कि गांधीजी उनकी बराबरी के नहीं। ऐसी सूरत में बात यहीं खतम हो जाती है ।
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Old 09-12-2010, 11:33 AM   #24
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Default Re: गांधीवाद :: डॉ. राममनोहर लोहिया

लेकिन इस शक को दूर करना आसान नहीं कि सरकारी गांधीवाद के लिए विपक्षी गांधीवाद का निरादर करना अनिवार्य है। बुद्ध से किसी सरकार को डर नहीं लगता। गांधी से शायद हर सरकार को डर लगता है। गांधी के शिष्य उनका निरादर चोरी छिपे ज्यादा करते हैं, क्योंकि सिविल नाफरमानी से उन्हें डर लगता है, सिविल नाफरमानी का भूत उन्हें सताये रखता है ।
कोई भी सरकार, कोई सचमुच गांधीवादी सरकार भी, उन लोगों से प्रेम नहीं कर सकती जो उसका या उसके कार्य़ों का प्रतिरोध चाहे कितने भी सविनय ढंग से करते हैं। सिविल नाफरमानी करने वालों को कानून तोडने पर सरकार की नाखुशी झेलने को और उसके परिणाम भुगतने को तैयार रहना चाहिए। अगर सरकार और सिविल नाफरमानी करने वाले दोनों यह मानकर चलें कि दोनों को ही अपनी उचित मर्यादाओं के अन्दर काम करना चाहिए, तो सरकारी गांधीवाद और विपक्षी गांधीवाद के अन्तर्विरोध के दूर करने वाली कोई बडी चीज निकल सकती है। सिविल नाफरमानी करने वाले किसी भी हालत में हिंसा का इस्तेमाल न करें। ऐसी सूरत में सरकार गिरफ्तारी और उचित कैद के सिवाय और सभी पंकार के दमन का परित्याग करें। दोनों पक्षों की स्थितियों के प्रति परस्पर आदर हो। इस रिश्ते में प्रेम को शामिल करना जरूरी नहीं। इसका सामान्य रूप इतना ही रहे कि एक दूसरे के विरुद्ध संघर्ष तो हो, लेकिन सीमाओं के अन्दर, मर्यादित।
सिविल नाफरमानी की जो कमजोरियां सामने आयी हैं ये कमजोरियां सामयिक थम्ए या सिविल नाफरमानी में ही निहित थी, यह तो आगे अनुभव से ही पता चलेगा। अंग्रेजी राज के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष करने वालों की सेना में अधैर्य और टिका। लगन की कमी पंतीत होती थी। उस सेना के सामने अपने संघर्ष की कोई तार्किक परिणति नहीं थी। बिरले आस्थावानों को छोडकर यह सेना अपने संघर्ष को बढती लहर के रूप में, शत्रु की घटती हुई ताकत और अपनी बढती हुई शक्ति के रूप में नहीं देखती थी। हिंसक सैनिक जब लडाइयों में हारते हैं, तब भी उन्हें यह संतोष मिलता है कि शत्रु का जान और माल का नुकसान हुआ। यह संतोष उनकी एकता और मनोबल को बनाये रखता है। जब वे गुप्त रूप से या किसी छोटे से इलाके में भी, सैनिक टुकडियां बनाने लगते हैं, तभी से वे उस दिन का सपना देखने लगते हैं जब शत्रु पराजित होगा। अहिंसक सेना के लिए ऐसे सपने देखना संभव नहीं रहा, सिवाय कुछ कल्पनाशील लोगों के। इसके परिणाम विनाशकारी हुए। हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संघर्ष ने समझौते किये, और आगे चलकर अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका। वास्तव में उसने अपने कुछ लक्ष्य छोडकर उल्टे लक्ष्य अपना लिए। सरकारी गांधीवाद की कमियां शायद इसी का परिणाम है कि विपक्षी गांधीवाद संघर्ष को आखिरी तक नहीं लड सका। लेकिन इस अकेले अनुभव के आधार पर यह सिद्धांत बना लेना उचित नहीं होगा कि समझौतों की प्रव्या अहिंसा में निहित होती है। संदेह जरूर पैदा हो गया है, और भविष्य में सत्याग्रह का प्रयोग करने वालों को समझौते करने की, संघर्ष के वंतिकारी चरित्र को धुंधला करने की प्रवृत्ती से सावधाना रहना होगा।
रोग की जडें शायद और ज्यादा गहरी हैं। इस पर कई सदियों का असर है। दुनिया की कोई कौम अपने स्वतंत्र राज्य से इतने समय तक वंचित नहीं रही, जितना कि हिन्दुस्तान। सामूहिक अनैतिकता भारतीय चरित्र का एक अंग बन गयी है, और कभी-कभी शक होता है कि कहम् यह स्थायी तो नहीं। देश के शासक वर्ग ने सदियों के दौरान दासता का समन्वय करने में अनुपम कौशल हासिल कर लिया है। देश में जो कुछ भी आता है और ताकतवर होता है, उसके साथ वे समन्वय कर लेते हैं। कोई कौम इस हद तक, और इतने अरसे तक निीचेष्ट और उदासीन नहीं रही, जितने कि हिन्दुस्तानी। यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दुस्तानी लोग और उसका शासक वर्ग, सदियों से सामूहिक गन्दगी के दलदल में गर्दन तक फंसे रहने के बाद भी बिलकुल डूब नहीं गए। चाहे कितने भी बुरे हाल में, उन्होंने अपने अस्तित्व को बनाये रखा है। लेकिन इस कथा की चर्चा करना यहां जरूरी नहीं। हमारी बात के संदर्भ में उदासीनता और निीचेष्टता ही प्रसंगिक है। गांधीजी के कांतिकारी विचारों और पद्धतियों को दास-वृत्ती और निीचेष्टता के इस दलदल में काम करना पडा।
देशी और विदेशी दोनों ही तरहे के उदार और अज्ञानी लोग इस दास-वृत्ती और निीचेष्टता को समन्वय प्रतिभा कहते हैं। विजेता की चापलूसी करने के लिए नए या विदेशी तत्वों की स्वीछति या विजेता की अन्धी नकल दास-वृत्ती या असभ्यता है। वास्तविक समन्वय तब होता है जब किसी नयी या स्वस्थ या विदेशी चीज को सोच-समझकर और विवेकपूर्ण ढंग से चुना और अपनाया जाता है।
अगर हिन्दुस्तानी लोग कभी दास-वृत्ती और समन्वय में फर्क करना सीख लें, तो मुमकिन है कि गांधी का विचार सचमुच विकसित हो और फले-फूले।
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Old 09-12-2010, 11:43 AM   #25
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महात्मा गांधी द्वारा लिखी किताबे ::
आत्मकथा
मेरे सपनों का भारत
मंगल प्रभात
अनासक्तियोग
हिंद स्वराज्य
आरोग्य की कुंजी
गांधीजी का जीवन उन्हीके शब्दों में
हिंदू धर्म क्या है?
धर्मनीति
स्वराज्य का अर्थ
गीता की महिमा
रामनाम
रचनात्मक कार्यक्रम
दक्षिण अफ्रिका के सत्याग्रह इतिहास
कुदरती उपचार
गांधीजी की अपेक्षा
मोहन माला
हम सब एक पिता के संतान
महात्मा गांधी के विचार (आर.के.प्रभू)
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Old 09-12-2010, 11:44 AM   #26
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गांधीजी का प्रिय भजन

वैष्णव जन तो तेने कहिये,
जे पीड पराई जाणे रे।।

पर दृखे उपकार करे तोये,
मन अभिमान न आणे रे।।

सकल लोकमां सहुने वंदे,
निंदा न करे केनी रे।।

वाच काछ मन निश्चल राखे,
धन-धन जननी तेनी रे।।

समदृष्टी ने तृष्णा त्यागी,
परत्री जेने ताम रे।।

जिहृवा थकी असत्य न बोले,
पर धन नव झाले हाथ रे।।

मोह माया व्यापे नहि जेने,
दृढ वैराग्य जेना मनमां रे।।

रामनाम शुं ताली लागी,
सकल तीरथ तेना तनमां रे।।

वणलोभी ने कपटरहित छे,
काम क्रोध निवार्या रे।।

भणे नरसैयों तेनु दरसन करतां,
कुळ एकोतेर तार्या रे।।

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Old 09-12-2010, 11:47 AM   #27
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गाँधी जी अपने बारे में :::

मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से 'संत' शब्द निकाल दिया जाना चाहिए। यह इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है। मेरे जैसे आदमी के साथ तो और भी नहीं, जो बस एक साधारण-सा सत्यशोधक होने का दावा करता है, जिसे अपनी सीमाओं और अपनी त्रुटियों का अहसास है और जब-जब उससे गुटिया! हो जाती है, तब-तब बिना हिचक उन्हें स्वीकार कर लेता है और जो निस्संकोच इस बात को मानता है कि वह किसी वैज्ञानिक की भांति, जीवन की कुछ 'शाश्वत सच्चाइयों' के बारे में प्रयोग कर रहा है, किंतु वैज्ञानिक होने का दावा भी वह नहीं कर सकता, क्योंकि अपनी पद्धतियों की वैज्ञानिक यथार्थता का उसके पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ही वह अपने प्रयोगों के ऐसे प्रत्यक्ष परिणाम दिखा सकता है जैसे कि आधुनिक विज्ञान को चाहिए।

यंग इंडिया, 12-5-1920, पृ. 2
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Old 09-12-2010, 11:48 AM   #28
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गाँधी जी अपने बारे में :::

मुझे संत कहना यदि संभव भी हो तो अभी उसका समय बहुत दूर है। मैं किसी भी रूप या आकार में अपने आपको संत अनुभव नहीं करता। लेकिन अनजाने में हुई भूलचूकों के बावजूद मैं अपने आपको सत्य का पक्षधर अवश्य अनुभव करता हूं।
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Old 09-12-2010, 11:48 AM   #29
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Default Re: महात्मा गांधी :: A mega Thread

गाँधी जी अपने बारे में :::

मैं 'संत के वेश में राजनेता' नहीं हूं। लेकिन चूंकि सर्वोच्च बुद्धिमला है इसलिए कभी-कभी मेरे कार्य किसी शीर्षस्थ राजनेता के-से कार्य प्रतीत होते है। मैं समझता हूं कि सत्य और अहिंसा की नीति के अलावा मेरी कोई और नीति नहीं है। मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूंगा। वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता।

यंग, 20-1-1927, पृ. 21
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Old 09-12-2010, 11:49 AM   #30
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गाँधी जी अपने बारे में :::

मैं अपने जीवन में न कोई अंतर्विरोध पाता हूं, न कोई पागलपन। यह सही है कि जिस तरह आदमी अपनी पीठ नहीं देख सकता, उसी तरह उसे अपनी त्रुटियां या अपना पागलपन भी दिखाई नहीं देता। लेकिन मनीषियों ने धार्मिक व्यक्ति को प्रायः पागल जैसा ही माना है। इसलिए मैं इस विश्वास को गले लगाए हूं कि मैं पागल नहीं हूं बल्कि सच्चे अर्थों में धार्मिक हूं। मैं वस्तुतः इन दोनों में से क्या हूं, इसका निर्णय मेरी मृत्यु के बाद ही हो सकेगा।

यंग, 14-8-1924, पृ. 267
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