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Old 09-06-2012, 07:03 PM   #11
neelam
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एक समय भारद्वाज चित्त को एकाग्र करके मेरे पास आये और मैंने उसको उपदेश किया था । वह उसको सुनकर वचनरूपी समुद्र से साररूपी रत्न निकाल और हृदयमें धरकर एक समय सुमेरु पर्वत पर गया । वहाँ ब्रह्माजी बैठे थे, उसने उनको प्रणाम किया और उनके पास बैठकर यह कथा सुनाई । तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा, हे पुत्र! कुछ वर माँग; मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हूँ । भारद्वाज ने, जिसका उदार आशय था, उनसे कहा, हे भूत-भविष्य के ईश्वर! जो तुम प्रसन्न हुए हो, तो यह वर दो कि सम्पूर्ण जीव संसार-सुख से मुक्त हों और परमपद पावें और उसी का उपाय भी कहो । ब्रह्माजी ने कहा, हे पुत्र! तुम अपने गुरु वाल्मीकिजी के पास जाओ । उसने आत्मबोध महारामायण शास्त्र का जो परमपावन संसार समुद्र के तरने का पुल है, आरम्भ किया है । उसको सुनकर जीव महामोहजनक संसार समुद्र से तरेंगे । निदान परमेष्ठी ब्रह्मा जिनकी सर्वभूतों के हित में प्रीति है आप ही, भारद्वाज को साथ लेकर मेरे आश्रम में आये और मैंने भले प्रकार से उनका पूजन किया । उन्होंने मुझसे कहा, हे मुनियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकि! यह जो तुमने रामके स्वभाव के कथन का आरम्भ किया है इस उद्यम का त्याग न करना; इसकी आदि से अन्त पर्यन्त समाप्ति करना; क्योंकि यह मोक्ष उपाय संसार रूपी समुद्र के पार करने का जहाज और इससे सब जीव कृतार्थ होंगे ।
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Old 09-06-2012, 07:03 PM   #12
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इतना कहकर ब्रह्माजी, जैसे समुद्र से चक्र एक मुहूर्त पर्यन्त उठके फिर लीन हो जावे वैसे ही अन्तर्द्धान हो गये । तब मैंने भारद्वाज से कहा, हे पुत्र! ब्रह्माजी ने क्या कहा? भारद्वाज बोले हे भगवान्! ब्रह्माजी ने तुमसे यह कहा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ! यह जो तुमने राम के स्वभावके कथन का उद्यम किया है उसका त्याग न करना; इसे अन्तपर्यन्त समाप्तिकरना क्योंकि; संसारसमुद्र के पार करने को यह कथा जहाज है और इससे अनेक जीव कृतार्थ होकर संसार संकट से मुक्त होंगे । इतना कह कर फिर वाल्मीकिजी बोले हे राजन! जब इस प्रकार ब्रह्माजीने मुझसे कहा तब उनकी आज्ञानुसार मैंने ग्रन्थ बनाकर भारद्वाज को सुनाया । हे पुत्र! वशिष्ठजी के उपदेश को पाकर जिस प्रकार रामजी निश्शंक हो बिचरे हैं वैसे ही तुम भी बिचरो । तब उसने प्रश्न किया कि हे भगवान्! जिस प्रकार रामचन्द्रजी जीवन्मुक्त होकर बिचरे वह आदि से क्रम करके मुझसे कहिये?
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Old 09-06-2012, 07:03 PM   #13
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वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता,कौशल्या, सुमित्रा और दशरथ ये आठ तो जीवन्मुक्त हुए हैं और आठ मन्त्री अष्टगण वशिष्ठ और वामदेव से आदि अष्टाविंशति जीवन्मुक्त हो बिचरे हैं उनके नाम सुनो । रामजी से लेकर दशरथपर्यन्त आठ तो ये कृतार्थ होकर परम बोधवान् हुए हैं और १ कुन्तभासी, २ शतवर्धन, ३ सुखधाम, ४ विभीषण, ५ इन्द्रजीत्, ६ हनुमान ७ वशिष्ठ और ८ वामदेव ये अष्टमन्त्री निश्शंक हो चेष्टा करते भये और सदा अद्वैत-निष्ठ हुए हैं । इनको कदाचित् स्वरूप से द्वैतभाव नहीं फुरा है । ये अनामय पद की स्थिति में तृप्त रहकर केवल चिन्मात्र शुद्धपर परमपावनता को प्राप्त हुए हैं ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेकथारम्भवर्णनो नाम प्रथमस्सर्गः ॥१॥
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Old 09-06-2012, 07:04 PM   #14
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तीर्थयात्रावर्णन

भारद्वाज ने पूछा हे भगवान्! जीवन्मुक्त की स्थिति कैसी है और रामजी कैसे जीवन्मुक्त हुए हैं वह आदि से अन्तपर्यन्त सब कहो? वाल्मीकिजी बोले, हे पुत्र! यह जगत् जो भासता है सो वास्तविक कुछ नहीं उत्पन्न हुआ; अविचार करके भासता है और विचार करने से निवृत्त हो जाता है । जैसे आकाश में नीलता भासती है सो भ्रम से वैसे ही है यदि विचार करके देखिए तो नीलता की प्रतीति दूर हो जाती है वैसे ही अविचार से जगत भासता है और विचार से लीन हो जाता है । हे शिष्य! जब तक सृष्टि का अत्यन्त अभाव नहीं होता तब तक परमपद की प्राप्ति नहीं होती । जब दृश्य का अत्यन्त अभाव हो जावे तब शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ता भासेगी । कोई इस दृश्य का महाप्रलय में अभाव कहते हैं परन्तु मैं तुमको तीनों कालों का अभाव कहता हूँ । जब इस शास्त्र को श्रद्धासंयुक्त आदि से अन्त तक सुनकर धारण करे भ्रान्ति निवृत्ति हो जावे और अव्याकृत पद की प्राप्ति हो । हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है । इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है ।
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Old 09-06-2012, 07:04 PM   #15
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जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है । जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है । जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर बरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघल कर जल होता है तो केवल शुद्ध ही रहता है वैसे ही आत्मा रूपी जल है उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होगा तब संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी । जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तब मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ । इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है । वह वासना दो प्रकार की है- एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा को देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाईं भ्रमता रहता है ।हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासना के क्षय होने पर पञ्चभूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है ।
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Old 09-06-2012, 07:04 PM   #16
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शुद्ध वासना में जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानी की वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानी की वासना रसरहित है वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिलकर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता, पीता, लेता, देता, बोलता चलता एवम् और अन्य व्यवहार करता है पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है कदाचित् द्वैतभावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे तब तक फिरता है और जब घुमाना छोड़ दे तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है तब तक जन्म पाता है और जब अहंकार से रहित हुआ तब फिर जन्म नहीं पाता । हे साधो! इस अज्ञानरूपी वासना के नाश करने को एक ब्रह्मविद्या ही श्रेष्ठ उपाय है जो मोक्ष उपायक शास्त्र है । यदि इसको त्याग कर और शास्त्ररूपी गर्त्त में गिरेगा तो कल्पपर्यन्त भी अकृत्रिम पद को न पावेगा । जो ब्रह्मविद्या का आश्रय करेगा वह सुख से आत्मपद को प्राप्त होगा । हे भारद्वाज! यह मोक्ष उपाय रामजी और वशिष्ठजी का संवाद है, यह विचारने योग्य है और बोध का परम कारण है । इसे आदि से अन्तपर्यन्त सुनो और जैसे रामजी जीवन्मुक्त हो विचरे हैं सो भी सुनो । एक दिन रामजी अध्ययनशाला से विद्या पढ़के अपने गृह में आये और सम्पूर्ण दिन विचारसहित व्यतीत किया ।
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Old 09-06-2012, 07:04 PM   #17
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फिर मन में तीर्थ ठाकुरद्वारे का संकल्प धरकर अपने पिता दशरथ के पास,जो अति प्रजापालक थे, आये और जैसे हंस सुन्दर कमल को ग्रहण करे वैसे ही उन्होंने उनका चरण पकड़ा । जैसे कमल के फूल के नीचे कोमल सरैयाँ होती हैं और उन तरैयों सहित कमल को हंस पकड़ता है वैसे ही दशरथजी की अँगुलियों को उन्होंने ग्रहण किया और बोले, हे पिता! मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों के दर्शनों को चाहता है । आप आज्ञा कीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ । मैं तुम्हारा पुत्र हूँ । आगे मैंने कभी नहीं कहा यह प्रार्थना अब ही की है इससे यह वचन मेरा न फेरना, क्योंकि ऐसा त्रिलोकी में कोई नहीं है कि जिसका मनोरथ इस घर से सिद्ध न हुआ हो इससे मुझको भी कृपाकर आज्ञा दीजिये । इतना कह कर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जिस समय इस प्रकार रामजीने कहा तब वशिष्ठजी पास बैठे थे उन्होंने भी दशरथ से कहा, हे राजन् इनका चित्त उठा है रामजी को आज्ञा दो तीर्थ कर आवें और इनके साथ सेना, धन, मंत्री और ब्राह्मण भी दीजिये कि विधि पूर्वकदर्शन करें तब महाराज दशरथ ने शुभ मुहुर्त्त दिखाकर रामजी को आज्ञा दी । जब वे चलने लगे तो पिता और माता के चरणों में पड़े और सबको कण्ठ लगाकर रुदन करने लगे ।
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Old 09-06-2012, 07:04 PM   #18
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इस प्रकार सबसे मिलकर लक्ष्मण आदि भाई, मन्त्री और वशिष्ठ आदि ब्राह्मण जो बिधि जाननेवाले थे बहुत सा धन और सेना साथ ली और दान पुण्य करते हुए गृह के बाहर निकले । उस समय वहाँ के लोगों और स्त्रियों ने रामजी के ऊपर फूलों और कलियों की माला की, जैसे बरफ बरसती है वैसी ही वर्षा की ओर रामजी की मूर्ति हृदय में धर ली । इसी प्रकार रामजी वहाँसे ब्राह्मणों और निर्धनों को दान देते गंगा, यमुना, सरस्वती आदि तीर्थों में विधिपूर्वक स्नानकर पृथ्वी के चारों ओर पर्यटन करते रहे । उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में दान किया और समुद्र के चारों ओर स्नान किया । सुमेरु और हिमालय पर्वत पर भी गये और शालग्राम, बद्री, केदार आदि में स्नान और दर्शन किये । ऐसे ही सब तीर्थस्नान, दान, तप, ध्यान और विधिसंयुक्त यात्रा करते करते एक वर्ष में अपने नगर में आये ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेतीर्थयात्रावर्णनन्नाम द्वितीयसर्गः ॥२॥
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Old 09-06-2012, 07:05 PM   #19
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विश्वामित्रागमन


वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जब रामजी यात्रा करके अपनी अयोध्यापुरी में आये तो नगरवासी पुरुष और स्त्रियों ने फूल और कली की वर्षा की, जय जय शब्द मुख से उच्चारने लगे और बड़े उत्साह को प्राप्त भये जैसे इन्द्र का पुत्र स्वर्ग में आता है वैसे ही रामचन्द्रजी अपने घर में आये। रामजी ने पहिले राजा दशरथ और फिर वशिष्ठजी को प्रणाम किया ओर सब सभा के लोगों से यथायोग्य मिलकर अन्तःपुर में आ कौश्ल्या आदि माताओं को प्रणाम किया और भाई, बन्धु आदि कुटुम्ब से मिले । हे भारद्वाज! इस प्रकार रामजी के आने का उत्साह सात दिन पर्यन्त होता रहा । उस अन्तर में कोई मिलने आवे उससे मिलते और जो कोई कुछ लेने आवे उनको दान पुण्य करते थे अनेक बाजे बजते थे और भाट आदि बन्दीजन स्तुति करते थे । तदनन्तर रामजी का यह आचरण हुआ कि प्रातःकाल उठके स्नान सन्ध्यादि सत्कर्म कर भोजन करते और फिर भाई बन्धुओं से मिलकर अपने तीर्थ की कथा और देवद्वार के दर्शन की वार्त्ता करते थे । निदान इसी प्रकार उत्साह से दिन रात बिताते थे । एक दिन रामजी प्रातः काल उठके अपने पिता राजा दशरथ के निकट गये जिनका तेज चन्द्रमा के समान था ।
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Old 09-06-2012, 07:05 PM   #20
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उस समय वशिष्ठादिक की सभा बैठी थी । वहाँ वशिष्ठजी के साथ कथा वार्त्ता की । राजा दशरथ ने उनसे कहा कि हे रामजी! तुम शिकार खेलने जाया करो । उस समय रामजी की अवस्था सोलह वर्ष से कई महीने कम थी । लक्ष्मण और शत्रुघ्न भाई साथ थे, पर भरतजी नाना के घर गये थे । निदान उन्हीं के साथ नित चर्चा हुलास कर और स्नान, सन्ध्यादिक नित्य कर्म और भोजन करके शिकार खेलने जाते थे । वहाँ जो जीवों को दुःख देनेवाले जानवर देखते उनको मारते और अन्य लोगों को प्रसन्न करते थे । दिनको शिकार खेलने जाते और रात्रि को बाजे निशान सहित अपने घर में आते थे । इसी प्रकार बहुत दिन बीते । एक दिन रामजी बाहर से अपने अन्तःपुर में आकर शोकसहित स्थित भये । हे भारद्वाज! राजकुमार अपनी सब चेष्टा और इन्द्रियों के रससंयुक्त विषयों को त्याग बैठे और उनका शरीर दुर्बल होकर मुख की कान्ति घट गई । जैसे कमल सूखकर पीतवर्ण हो जाता है वैसे ही रामजी का मुख पीला हो गया जैसे सूखे कमल पर भँवरे बैठे हों वैसे ही सूखे मुखकमल पर नेत्ररूपी भँवरे भासने लगे । जैसे शरत्काल में ताल निर्मल होता है वैसे ही इच्छारूपी मल से रहित उनका चित्तरूपी ताल निर्मल हो गया और दिन पर दिन शरीर निर्बल होता गया ।
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