29-03-2015, 09:40 PM | #1 |
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'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
ग़फ़लत ज़रा न की मिरे ग़फ़लत-शेआर ने ओ बे-नसीब दिन के तसव्वुर ये ख़ुश न हो चोला बदल लिया है शब-ए-इंतिज़ार ने अब तक असीर-ए-दाम-ए-फ़रेब-ए-हयात हूँ मुझ को भुला दिया मिरे परवरदिगार ने नौहा-गारों को भी है गला बैठने की फ़िक्र जाता हूँ आप अपनी अजल को पुकारने देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी ‘हफ़ीज’ फ़ुर्सत का वक़्त ही न दिया कारोबार ने
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29-03-2015, 09:40 PM | #2 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
अब तो कुछ और भी अँधेरा है
ये मिरी रात का सवेरा है रह-ज़नों से तो भाग निकला था अब मुझे रह-बरों ने घेरा है आगे आगे चलो तबर वालो अभी जंगल बहुत घनेरा है क़ाफ़िला किस की पैरवी में चले कौन सब से बड़ा लुटेरा है सर पे राही की सरबराही ने क्या सफाई का हाथ फेरा है सुरमा-आलूद ख़ुश्क आँसुओं ने नूर-ए-जाँ ख़ाक पर बिखेरा है राख राख उस्तख़्वाँ सफ़ेद सफ़ेद यही मंज़िल यही बसेरा है ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा कौन तेरा है कौन मेरा है सो रहो अब ‘हफीज़’ जी तुम भी ये नई ज़िंदगी का डेरा है
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29-03-2015, 09:41 PM | #3 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
अगर मौज है बीच धारे चला चल
वगरना किनारे किनारे चला चल इसी चाल से मेरे प्यारे चला चल गुज़रती है जैसे गुज़ारे चला चल तुझे साथ देना है बहरूपियों का नए से नया रूप धारे चला चल ख़ुदा को न तकलीफ़ दे डूबने में किसी नाख़ुदा के सहारे चला चल पहुँच जाएँगे क़ब्र में पाँव तेरे पसारे चला चल पसारे चला चल ये ऊपर का तबक़ा ख़ला ही ख़ला है हवा ओ हवस के ग़ुबारे चला चल डुबोया है तू ने हया का सफ़ीना मिरे दोस्त सीना उभारे चला चल मुसलसल बुतों की तमन्ना किए जा मुसलसल ख़ुदा को पुकारे चला चल यहाँ तो बहर-ए-हाल झुकना पड़ेगा नहीं तो किसी और द्वारे चला चल तुझे तो अभी देर तक खेलना है इसी में तो है जीत हारे चला चल न दे फुर्सत-ए-दम-ज़दन ओ ज़माने नए से नया तीर मारे चला चल शब-ए-तार है ता-ब-सुब्ह-ए-क़यामत मुकद्दर है गर्दिश सितारे चला चल कहाँ से चला था कहाँ तक चलेगा चला चला मसाफ़त के मारे चला चल बसीरत नहीं है तो सीरत भी क्यूँ हो फ़कत शक्ल ओ सूरत सँवारे चला चल ‘हफीज’ इस नए दौर में तुझ को फ़न का नशा है तो प्यारे उतारे चला चल
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29-03-2015, 09:41 PM | #4 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
दिल अभी तक जवान है प्यारे
किसी मुसीबत में जान है प्यारे तू मिरे हाल का ख़याल न कर इस में भी एक शान है प्यारे तल्ख़ कर दी है ज़िंदगी जिस ने कितनी मीठी है ज़बान है प्यारे वक़्त कम है न छेड़ हिज्र की बात ये बड़ी दास्तान है प्यारे जाने क्या कह दिया था रोज़-ए-अज़ल आज तक इम्तिहान है प्यारे हम हैं बंदे मगर तिरे बंदे ये हमारी भी शान है प्यारे नाम है इस का नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ये मिरा मेहरबान है प्यारे कब किया मैं ने इश्क़ का दावा तेरा अपना गुमान है प्यारे मैं तुझे बे-वफ़ा नहीं कहता दुश्मनों का बयान है प्यारे सारी दुनिया को है ग़लत-फ़हमी मुझ पे तो मेहरबान है प्यारे तेरे कूचे में है सुकूँ वर्ना हर ज़मीं आसमान है प्यारे ख़ैर फरियाद बे-असर ही सही ज़िंदगी का निशान है प्यारे शर्म है एहतिराज़ है क्या है पर्दा सा दरमियान है प्यारे अर्ज़-ए-मतलब समझ के हो न ख़फ़ा ये तो इक दास्तान है प्यारे जंग छिड़ जाए हम अगर कह दें ये हमारी ज़बान है प्यारे
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29-03-2015, 09:42 PM | #5 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ
मगर लब पर दुआ है और मैं हूँ न साक़ी है न अब वो शय है बाकी मिरा दौर आ गया है और मैं हूँ उधर दुनिया है और दुनिया के बंदे इधर मेरा ख़ुदा है और मैं हूँ कोई पुरसाँ नहीं पीर-ए-मुगाँ का फ़क़त मेरी वफ़ा है और मैं हूँ अभी मीआद बाकी है सितम की मोहब्बत की सज़ा है और मैं हूँ न पूछो हाल मेरा कुछ न पूछो कि तस्लीम ओ रज़ा है और मैं हूँ ये तूल-ए-उम्र ना-माकुल ओ बे-कैफ़ बुज़ुर्गो की दुआ है और मैं हूँ लहू के घूँट पीना और जीना मुसलसल इक मज़ा है और मैं हूँ ‘हफीज’ ऐसी फ़लाकत के दिनों में फ़क़त शुक्र-ए-ख़ुदा है और मैं हूँ
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29-03-2015, 09:42 PM | #6 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ
मगर लब पर दुआ है और मैं हूँ न साक़ी है न अब वो शय है बाकी मिरा दौर आ गया है और मैं हूँ उधर दुनिया है और दुनिया के बंदे इधर मेरा ख़ुदा है और मैं हूँ कोई पुरसाँ नहीं पीर-ए-मुगाँ का फ़क़त मेरी वफ़ा है और मैं हूँ अभी मीआद बाकी है सितम की मोहब्बत की सज़ा है और मैं हूँ न पूछो हाल मेरा कुछ न पूछो कि तस्लीम ओ रज़ा है और मैं हूँ ये तूल-ए-उम्र ना-माकुल ओ बे-कैफ़ बुज़ुर्गो की दुआ है और मैं हूँ लहू के घूँट पीना और जीना मुसलसल इक मज़ा है और मैं हूँ ‘हफीज’ ऐसी फ़लाकत के दिनों में फ़क़त शुक्र-ए-ख़ुदा है और मैं हूँ
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29-03-2015, 09:42 PM | #7 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
है अज़ल की इस ग़लत बख़्शी पे हैरानी मुझे
इश्क़ ला-फ़ानी मिला है ज़िंदगी फ़ानी मुझे मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में देखने आती है अब मेरी ही वीरानी मुझे थी यही तम्हीद मेरे मातमी अंजाम की फूल हँसते हैं तो होती है पशेमानी मुझे हुस्न बे-परवा हुआ जाता है या रब क्या करूँ अब तो करनी ही पड़ी दिल की निगह-बानी मुझे बाँध कर रोज़-ए-अज़ल शीराज़ा-ए-मर्ग-ओ-हयात सौंप दी गोया दो आलम की परेशानी मुझे पूछता फिरता था दानाओं से उल्फ़त के रमूज़ याद अब रह रह के आती है वो नादानी मुझे
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29-03-2015, 09:43 PM | #8 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
हम ही में थी न कोई बात याद न तुम को आ सके
तुम ने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके तुम ही न सुन के अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन किस की ज़बान खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके होश में आ चुके थे हम जोश में आ चुके थे हम बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके रौनक़-ए-बज़्म बन गए लब पे हिकायतें रहीं दिल में शिकायतें रहीं लब न मगर हिला सके शौक़-ए-विसाल है यहाँ लब पे सवाल है यहाँ किस की मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके ऐसा ही कोई नामा-बर बात पे कान धर सके सुन के यक़ीन कर सके जा के उन्हें सुना सके इज्ज़ से और बढ़ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त अब वो करे इलाज-ए-दोस्त जिस की समझ में आ सके अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल कौन तिरी तरह ‘हफ़ीज’ दर्द के गीत गा सके
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29-03-2015, 09:43 PM | #9 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
हुस्न ने सीखीं ग़रीब-आज़ारियाँ
इश्क़ की मजबूरियाँ लाचारियाँ बह गया दिल हसरतों के ख़ून में ले गईं बीमार को बीमारियाँ सोच कर ग़म दीजिए ऐसा न हो आप को करनी पड़ें ग़म-ख़्वारियाँ दार के क़दमों में भी पहुँची न अक़्ल इश्क़ ही के सर रहीं सरदारियाँ इक तरफ़ जिंस-ए-वफ़ा क़ीमत-तबल इक तरफ़ मैं और मिरी नादारियाँ होते होते जान दूभर हो गई बढ़ते बढ़ते बढ़ गईं बे-ज़ारियाँ तुम ने दुनिया ही बदल डाली मिरी अब तो रहने दो ये दुनिया-दारियाँ
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29-03-2015, 09:44 PM | #10 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
इश्क़ में छेड़ हुई दीदा-ए-तर से पहले
ग़म के बादल जो उठे तो यहीं पर से पहले अब जहन्नम में लिए जाती है दिल की गर्मी आग चमकी थी ये अल्लाह के घर से पहले हाथ रख रख के वो सीने पे किसी का कहना दिल से दर्द उठता है पहले कि जिगर से पहले दिल को अब आँख़ की मंज़िल में बिठा रक्खेंगे इश्क़ गुज़रेगा इसी राह-गुज़र से पहले वो हर वादे से इंकार ब-तर्ज़-ए-इक़रार वो हर इक बात पे हाँ लफ़्ज-ए-मगर से पहले मेरे क़िस्से पे वही रौशनी डाले शायद शम-ए-कम-माया जो बुझती है सहर से पहले चाक-ए-दामानी-ए-गुल का है गिला क्या बुलबलु कि उलझता है ये ख़ुद बाद-ए-सहर से पहले कुछ समझ-दार तो हैं नाश उठाने वाले ले चले हैं मुझे इस राह-गुज़र से पहले दिल नहीं हारते यूँ बाज़ी-ए-उल्फ़त में ‘हफीज’ खेल आगाज़ हुआ करता है सर से पहले
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