06-03-2013, 01:25 AM | #211 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समय कम है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे आप बच नहीं सकते। यह तो जीवन की सच्चाई है। अगर समय कम है तो फिर समझदारी इसी बात में दिखती है कि हम इसे जरा भी बर्बाद न करें। इसकी एक छोटी सी प्यारी बूंद भी नहीं। हमने देखा है कि जिंदगी में सफल वही होते हैं, जो जीवन से आखिरी बूंद की संतुष्टि और ऊर्जा भी निचोड़ लेते हैं। वे इसी सरल नियम पर अमल करके ऐसा करते हैं। वे अपने जीवन में उन चीजों पर ही ध्यान देते हैं, जिन पर उनका नियंत्रण होता है और फिर वे बस मितव्ययिता से (समय की दृष्टि से) बाकी चीजों की चिंता छोड़ देते हैं। अगर कोई आपसे सीधे मदद मांगता है, तो आप मदद कर सकते हैं या इनकार भी कर सकते हैं। चुनाव आपका है। लेकिन अगर सारी दुनिया आपसे मदद मांगने लगे तो आपके बस में कुछ खास नहीं होता। इस बात पर खुद को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा, सिर्फ समय ही बर्बाद होगा। देखिए, इसका मतलब यह नहीं कि चीजों की परवाह ही न करें या जरूरतमंद लोगों की तरफ से मुंह मोड़ लें। यह जान लें कि कई ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें आप व्यक्तिगत फर्क डाल सकते हैं और बाकी क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहां आप सुई की नोक बराबर भी फर्क नहीं डाल सकते। अगर आप किसी ऐसी चीज को बदलने में वक्त बर्बाद कर रहे हैं जो कभी नहीं बदलने वाली, तो जिंदगी आपके पास से फर्राटे से गुजर जाएगी और आप मौके चूक जाएंगे। दूसरी ओर अगर आप खुद को ऐसी चीजों या क्षेत्रों में समर्पित करते हैं जिन्हें आप बदल सकते हैं या जहां आप फर्क डाल सकते हैं तो जिंदगी ज्यादा सार्थक बन जाएगी। विचित्र बात यह है कि यह जितनी ज्यादा सार्थक बनेगी, आपके पास उतना ही ज्यादा समय होगा। जाहिर है, अगर हममें से ज्यादातर कोशिश करें तो कुछ भी बदल सकते हैं, लेकिन यह नियम आपके लिए है-ये आपके निजी नियम है। सिर्फ उतने तक ही सीमित रहें, जिसे आप बदल सकते हैं।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 06-03-2013 at 01:30 AM. |
06-03-2013, 01:29 AM | #212 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
गुरू का आखिरी उपदेश
गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों में आज काफी उत्साह था। उनकी बारह वर्षों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और अब वो अपने घरों को लौट सकते थे। गुरुजी भी शिष्यों को आखिरी उपदेश की तैयारी कर रहे थे। गुरु ने अपने हाथ में कुछ लकड़ी के खिलौने थे। उन्होंने शिष्यों को खिलौने दिखाते हुए कहा, आपको इन तीनों में अंतर ढूंढने हैं। सभी खिलौनों को देखने लगे। तीनों लकड़ी से बने एक समान दिखने वाले गुड्डे थे। सभी चकित थे कि इनमें क्या अंतर हो सकता है? तभी किसी ने कहा, ये देखो इस गुड्डे के में एक छेद है। यह संकेत काफी था। जल्द ही शिष्यों ने पता लगा लिया और गुरु से बोले, इन गुड्डों में बस इतना ही अंतर है कि एक के दोनों कान में छेद है। दूसरे के एक कान और एक मुंह में छेद है और तीसरे के सिर्फ एक कान में छेद है। गुरु बोले, बिलकुल सही और उन्होंने धातु का एक पतला तार देते हुए उसे कान के छेद में डालने के लिए कहा। शिष्यों ने वैसा ही किया। तार पहले गुड्डे के एक कान से होता हुआ दूसरे कान से निकल गया। दूसरे गुड्डे के कान से होते हुए मुंह से निकल गया और तीसरे के कान में घुसा, पर कहीं से निकल नहीं पाया। तब गुरु ने शिष्यों से गुड्डे अपने हाथ में लेते हुए कहा, इन तीन गुड्डों की तरह ही आपके जीवन में तीन तरह के व्यक्ति आयेंगे। पहला गुड्डा ऐसे व्यक्तियों को दर्शाता है, जो आपकी बात एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे। ऐसे लोगों से कभी अपनी समस्या साझा न करें। दूसरा गुड्डा ऐसे लोगों को दर्शाता है, जो आपकी बात सुनते हैं और उसे दूसरों के सामने जाकर बोलते हैं। इनसे बचें और कभी अपनी महत्वपूर्ण बातें इन्हें न बताएं। तीसरा गुड्डा ऐसे लोगों का प्रतीक है, जिन पर आप भरोसा कर सकते हैं। उनसे किसी भी तरह का विचार विमर्श कर सकते हैं, सलाह ले सकते हैं। यही वो लोग हैं, जो आपकी ताकत हैं और इन्हें आपको कभी नहीं खोना चाहिए।
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06-03-2013, 02:44 PM | #213 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपने मन का स्वामी खुद बनें
जीवन में कोई समस्या के सामने आने अथवा किसी कारण कोई मनोवेग या भावना उत्पन्न होने पर तत्काल कुछ कह देना या कर देना दुर्बल मन मस्तिष्क का परिचायक होता है। इसी प्रकार कोई इच्छा आपके मन में जाग्रत हो रही है, तो उस इच्छा के उत्पन्न होने पर तत्काल उसको बिना जांचे पूरा करने में लग जाना भी एक तरह से अविकसित व्यक्तित्व का ही लक्षण होता है। पहले तो यह ठान लीजिए कि आपको अपने मन का स्वामी बनना है। इसलिए सबसे पहले अपनी समस्या, इच्छा या मनोवेग को अपने विवेक के तराजू पर पूरी संजीदगी के साथ तौलिए। उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर भी सोचिए। इसके बाद जो नतीजे सामने आते हैं, उनके आधार पर कुछ कहिए या कीजिए। यदि आपको लगता है कि उस समय कुछ कहना या करना कतई उचित नहीं है, तो शांत रहिए और मौन धारण कर लीजिए और अपने काम में जुट जाइए। इससे निश्चित तौर पर आपकी इच्छा शक्ति और व्यक्तित्व का विकास होगा। कई बार लोग अपनी समस्या या कठिनाई को एक बार में ही निपटा देना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि वे समस्या या कठिनाई देख कर बेहद घबरा जाते हैं और उनके उत्साह पर पानी फिर जाता है। वे बेतरतीब तरीके से उन समस्याओं के समाधान में जुटने का प्रयास करने लगते हैं, जो कतई उचित नहीं है। समस्याओं को या कठिनाइयों को निपटाने का सही ढंग यह है कि सबसे पहले उन सभी को कागज पर लिख डालिए। इसके बाद समस्याओं को उनके महत्व के क्रम से लगा लीजिए। यह देखिए कि वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कौन सी समस्या है, जिसका आपको सबसे पहले निपटारा करना है। फिर उस समस्या को कई छोटे-छोटे भागों में बांटिए और उसके प्रारंभिक हल में जुट जाइए। इस प्रकार एक समय में एक ही समस्या को हल करने में अपना ध्यान लगाइए। इसको अपनाने से आपका मनोबल और उत्साह बढ़ेगा।
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06-03-2013, 02:48 PM | #214 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बोल का मोल
एक बूढ़े के चार बेटे थे। बेटे सभी कम जानते थे, किन्तु बोलचाल और आचरण में चारों एक जैसे न थे। एक बार चारों बेटे और पिता यात्रा पर जा रहे थे। यात्रा के बीच उनके पास खाने को कुछ भी न बचा था। धन भी खत्म हो चुका था। वे लोग कई दिन से भूखे थे। पांचों सड़क के किनारे विश्राम कर रहे थे। तभी एक व्यापारी बैलगाड़ी हांकता हुआ निकला। व्यापारी मेले में पकवान और मिठाई बेचने जा रहा था। पकवान और मिठाइयों की महक से पांचों के मुंह में पानी आने लगा। बूढे ने कहा, जाओ व्यापारी से मांगो। शायद कुछ खाने को दे दे। एक बेटा व्यापारी के पास गया और बोला, ओ व्यापारी, इतना माल ले जा रहा है। थोड़ा मुझे दे। भूख लगी है। व्यापारी ने सोचा यह जितनी कठोर वाणी बोल रहा है, इसे उतना ही कठोर पकवान दूंगा। यह सोचकर उसने एक सूखा हुआ पकवान दे दिया। व्यापारी थोड़ी दूर गया कि दूसरा भाई पहुंचा। बोला बड़े भाई, प्रणाम। क्या छोटे भाई को खाने के लिए कुछ भी न दोगे? व्यापारी ने सोचा, इसने मुझे भाई कहा है। छोटे भाई को देना मेरा कर्तव्य है। उसने दोनाभर कर मिठाई दे दी। अब तीसरा भाई गया और बोला आदरणीय आप मेरे पिता समान हैं। मुझे कुछ खाने को दें। व्यापारी ने सोचा, यह मुझे पिता जैसा आदर दे रहा है। इसे भरपेट मिठाई देनी चाहिए। उसने कई पकवान और मिठाई भरकर दे दी। अंत में चौथा पुत्र गया। उसने कहा-मित्र, मुसीबत की घड़ी में क्या तुम मुझे भूखा ही रखोगे? व्यापारी ने सोचा, यह मित्र मुसीबत में है। इसकी मदद करनी चाहिए। उसने कहा, इस गाड़ी से लदे सारे पकवान और मिठाई तुम्हारे लिए हैं। चलो, कहां ले चलूं? वे दोनों वहां आ गए, जहां पिता के साथ बाकी तीनों बेटे बैठे थे। पिता ने सबसे कहा, अब तुम सब अपनी-अपनी मांगी हुई भोजन साम्रगी की तुलना करो। जिसने जैसा बोला और आचरण किया, उसे वैसा मिला। क्या अब भी अपने बोल का मोल नहीं समझे?
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18-03-2013, 12:42 PM | #215 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
भावुक होना ही काफी नहीं
आज की पीढ़ी के साथ दिक्कत यह है कि वह मुद्दों को लेकर बहुत जल्दी संजीदा हो जाती हैं और फिर उन्हें आसानी से भूल भी जाती है। यह बड़ी समस्या है। सिर्फ भावुक होना या गुस्सा होना काफी नहीं है। जब तक किसी मसले का हल न निकले, हमें उसे जरूर याद रखना चाहिए। चेन्नई में जन्मे सिद्धार्थ ने बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई के बाद एक्टिंग करने का फैसला किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान वह थियेटर ग्रुप से जुड़े रहे। अभिनय करने के अलावा वह एक प्रभावशाली वक्ता भी रहे। वह अपने कॉलेज की डिबेटिंग सोसाइटी के अध्यक्ष बने और वर्ल्ड डिबेटिंग चैंपियनशिप में हिस्सा लिया। हैदराबाद में उद्यमियों के कार्यक्रम में एक बार सिद्धार्थ ने मौजूदा पीढ़ी से अपने अनुभव बांटते हुए कहा कि आजकल क्या हो रहा है? उनका कहना था कि जब कोई भी कोई घटना घटती है तो हम चीखते हैं, चिल्लाते हैं और आंसू बहाते हैं। हमारे अंदर किसी एक घटना को लेकर जोश या फिर गुस्सा पनपता है, लेकिन बहुत जल्दी हम यह सब भूल जाते हैं। मसलन, मुंबई का आतंकी हमला। उस घटना के बाद कितना शोर-शराबा हुआ था। मीडिया ने उस हमले को खूब दिखाया। कई दिनों तक लगातार टीवी चैनलों पर लाइव कवरेज चलता रहा। अगले दिन मुंबई में लोग अपने रूटीन काम पर जाते दिखे। ऐसा लगा मानो कुछ हुआ ही न हो। या यूं कहें कि किसी को फर्क ही नहीं पड़ता कि उनके शहर में इतनी बड़ी घटना घटी है। या फिर उनके पास यह सोचने का वक्त ही नहीं है कि उनके शहर में इतने सारे लोग आतंकी हमले में मारे गए हैं। जो लोग हमले के बाद गमजदा नजर आए वे भी कुछ दिनों में सब भूल गए। कुछ घटनाओं को लेकर गुस्सा बना रहे, तो बेहतर है; ताकि हम उनके खिलाफ लड़ सकें। लेकिन किसी घटना को जल्दी भूल जाना भी ठीक नहीं होता। उसे नतीजे तक तो पहुंचना ही चाहिए। मौजूदा पीढ़ी को यह समझना ही होगा कि हमें हर कदम को अंजाम तक पहुंचाना है।
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18-03-2013, 12:45 PM | #216 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बड़ा सोचो, बड़ा सपना देखो
अत्यंत गरीब परिवार का एक बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में दूसरे शहर जाने के लिए रेल से सफर कर रहा था। घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटियां ही रखी थीं। आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगी और वह टिफिन से रोटियां निकाल कर खाने लगा। उसके खाने का तरीका अजीब था। वह रोटी का एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटियां थीं। आस-पास के यात्री देख कर हैरान हो रहे थे। आखिरकार एक व्यक्ति से रहा नहीं गया। उसने पूछ ही लिया कि भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं, फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमें सब्जी हो। तब उस युवक ने जवाब दिया, भैया, इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है, लेकिन मैं अपने मन में यह सोच कर खा रहा हूं कि इसमें बहुत सारा अचार है। मैं अचार के साथ रोटी खा रहा हूं। फिर व्यक्ति ने पूछा, खाली ढक्कन में अचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो, तो क्या तुम्हें अचार का स्वाद आ रहा है? युवक ने जवाब दिया, हां, बिलकुल आ रहा है। मैं रोटी के साथ अचार सोचकर खा रहा हूं और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है। एक व्यक्ति बोला, जब सोचना ही था तो अचार की जगह पर मटर-पनीर सोचते, शाही गोभी सोचते। तुम्हें इनका स्वाद मिल जाता। तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने अचार सोचा तो अचार का स्वाद आया। और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता। सोचना ही था तो छोटा क्यों सोचते हो। तुम्हें तो बड़ा सोचना चाहिए था। जैसा सोचोगे, वैसा पाओगे। छोटी सोच होगी, तो छोटा मिलेगा, बड़ी सोच होगी, तो बड़ा मिलेगा। इसलिए जीवन में हमेशा बड़ा सोचो, बड़े सपने देखो, तो हमेशा बड़ा ही पाओगे ।
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18-03-2013, 12:46 PM | #217 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
वर्तमान का हर पल कीमती
अगर कभी आपको लगे कि अतीत सचमुच बेहतर था, तो शायद आपको ठीक-ठीक पता होगा कि ऐसा क्यों था पैसा, शक्ति, सेहत, स्फूर्ति, आनंद, यौवन। फिर दूसरे क्षेत्रों को टटोलने के लिए आगे बढ़ जाएं। हम सभी को अच्छी चीजें पीछे छोड़नी पड़ती हैं। हमें प्रेरित करने वाली नई चुनौतियां, नए क्षेत्र खोजने पड़ते हैं। हर दिन जागने पर हमारी नई शुरुआत होती है और हम इसे जैसा चाहे वैसा बना सकते हैं, इस पर खाली कैनवास की तरह जो चाहे लिख सकते हैं। इस उत्साह को बरकरार रखना मुश्किल हो सकता है, कुछ हद तक नियमित व्यायाम करने की तरह। शुरूआत में काफी कष्ट होता है, लेकिन अगर आप लगन से जुटे रहें, तो एक दिन पाएंगे कि आप बिना किसी स्पष्ट कोशिश के जॉगिंग कर रहे हैं, तेज-तेज चल रहे हैं या तैर रहे हैं। लेकिन शुरूआत करना सचमुच मुश्किल होता है और इसे कायम रखने के लिए एकाग्रता, उत्साह, समर्पण और लगन की प्रबल शक्तियों की जरूरत होती है। अतीत को एक ऐसे कमरे के रूप में देखने की कोशिश करें, जो उस कमरे से अलग है, जिसमें आप इस वक्त रहते हैं। आप वहां कभी-कभार जा तो सकते हैं, लेकिन यह याद रखें कि अब आप वहां रहते नहीं हैं। आप यात्रा करने तो जा सकते हैं, लेकिन अब वह आपका घर नहीं है। आपका घर तो वर्तमान में है। इस वर्तमान का हर पल कीमती है। उस पुराने कमरे में ज्यादा वक्त बिताकर अपने कीमती समय की बूंदों को बर्बाद न करें। पलटकर देखने के चक्कर में वर्तमान पल या अवसर न गंवाएं, वरना बाद में आप इसी वक्त की ओर पलटकर सोचेंगे कि आपने इसे बर्बाद क्यों कर दिया। यहीं पर जिएं, अभी जिएं, वर्तमान पल में जिएं। हमें अतीत में जीने की आदत को तो बदलना ही होगा। इसके अलावा हमें यह भी तय करना होगा कि हम केवल और केवल वर्तमान में ही जीएं तभी हम आगे बढ़ पाएंगे। सच तो यही है कि वर्तमान ही हमारा भविष्य तय करता है।
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18-03-2013, 12:50 PM | #218 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पुजारी का व्यवहार
एक समृद्ध व्यापारी सदैव अपने गुरू से परामर्श करके कुछ न कुछ सुकर्म किया करता था। एक बार वह गुरु से बोला - गुरुदेव, धनार्जन के लिए मैं अपना गांव पीछे जरूर छोड़ आया हूं, पर मुझे लगता है कि वहां पर एक ऐसा देवालय बनाया जाए, जिसमें देवपूजन के साथ-साथ भोजन की भी व्यवस्था हो, अच्छे संस्कारों से लोगों को सुसंस्कृत किया जाए, अशरण को शरण मिले, वस्त्रहीन का तन ढके, रोगियों को दवा और चिकित्सा मिले, बच्चे अपने धर्म के वास्तविक स्वरूप से अवगत हो सकें। गुरु बोले - गांव में ही क्यों, तुम ऐसा ही एक मंदिर अपने इस नगर में भी बनवाओ। व्यापारी को सुझाव पसंद आया और उसने अपने गांव और नगर, जहां वह अपने परिवार के साथ रहता था, में देवालय बनवा दिए। दोनों देवालय लोगों की श्रद्धा के केंद्र बन गए। कुछ दिन बाद व्यापारी ने देखा कि नगर के लोग गांव के मन्दिर में आने लगे हैं, जबकि वहां पहुंचने का रास्ता काफी कठिन है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है? वह गुरु के पास गया। गुरू ने उसे परामर्श दिया कि वह गांव के मंदिर के पुजारी को नगर के मन्दिर में सेवा के लिए बुला ले। उसने ऐसा ही किया। नगर के पुजारी को गांव और गांव के पुजारी को नगर में सेवा पर नियुक्त कर दिया। कुछ ही दिन में गांव के लोग नगर के मन्दिर की ओर रुख करने लगे। उसे हैरानी हुई। वह गुरुजी के पास गया और कहने लगा कि समस्या तो पहले से भी गम्भीर हो चली है । अब तो मेरे गांव के परिचित और परिजन कष्ट सह कर और किराया खर्च कर नगर के देवालय में आने लगे हैं। गुरु सारी बात समझ गए और बोले, गांव वाले पुजारी का स्वभाव ही इतना अच्छा है, जो लोग उसी देवालय में जाना चाहते हैं, जहां वे होते हैं। उनका व्यवहार ही लोगों को उनकी ओर आकर्षित करता है। अब व्यापारी को अपने गुरू की सारी बात समझ में आ चुकी थी।
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18-03-2013, 12:53 PM | #219 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अफसोस नहीं, फैसला करें
कभी कभी हम किसी बात पर अफसोस करते हैं औैर कहते हैं, अफसोस, मैंने यह नहीं किया या काश ऐसा होता। इस बात के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन कई बार ऐसा करना बेहद उपयोगी साबित हो सकता हैं बशर्ते आप तरक्की करने के लिए उनका फायदा उठाने का फैसला करें। ‘काश मैंने यह किया होता’ में तीन तरह की परिस्थितियां होती है। पहली तो तब, जब आपको सचमुच महसूस हो कि आपने किसी अवसर का फायदा नहीं उठाया या कोई मौका चूक गए। दूसरी तब, जब आप किसी महान काम करने वाले व्यक्ति को देखते हैं और मन ही मन में सोचते हैं कि काश, उसकी जगह पर आप होते। तीसरी और आखिरी प्रकार की परिस्थिति में निश्चित रूप से आप नहीं, बल्कि दूसरे होते हैं, जो स्थाई रूप से ‘मैं भी प्रतिस्पर्धा कर सकता था’ मानसिकता ओढ़े रखते हैं। जो सोचते हैं कि काश, मुझे मौके, खुशकिस्मती के वरदान, सुनहरे अवसर मिले होते। बहरहाल, इस आखिरी समूह के लिए बुरी खबर यह है कि अगर खुशनसीबी आकर उनकी गोद में भी बैठ जाए, तब भी वे उसे नहीं देख पाएंगे। दूसरों की सफलता देखने के बारे में यह दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है। कुछ लोग दूसरों को ईर्ष्या से देखते हैं और कुछ प्रेरणा के साधन के रूप में। अगर आप मन ही मन यह कहें, ‘काश मैंने वह किया होता,काश मैंने वह सोचा होता, काश मैं वहां गया होता, काश मैंने वह देखा होता, काश मैंने वह समझा होता’, तो इसके बाद आपको यह कहना भी सीखना चाहिए ‘और अब मैं उसे करूंगा....।’ काश, मैंने यह किया होता। ज्यादातर मामलों में जिस चीज को न करने का आपको अफसोस होता है, उसे आप अब भी कर सकते हैं, हालांकि हो सकता है कि यह उस तरह न हो पाए, जिस तरह आप पहले कर सकते थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप अब वैसा काम कर नहीं सकते। बस, आपको खुद को तय करना पड़ेगा।
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18-03-2013, 12:57 PM | #220 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
जहां प्रेम, वहां प्रवेश
एक औरत अपने घर से निकली, तो घर के सामने सफेद लम्बी दाढ़ी वाले तीन साधु - महात्माओं को बैठे देखा। वह उन्हें पहचान नहीं पाई । उसने कहा, मैं आप लोगों को नहीं पहचानती, बताइए क्या काम है? एक साधु बोला, हमें भोजन करना है। महिला ने कहा, मेरे घर में पधारिये और भोजन ग्रहण कीजिए। साधुओं ने स्त्री को बताया, हम किसी घर में एक साथ प्रवेश नहीं करते। औरत ने अचरज से पूछा ऐसा क्यों है? जवाब में मध्य में खड़े साधु ने कहा, पुत्री मेरी दायीं तरफ खड़े साधु का नाम धन और बायीं तरफ खड़े साधु का नाम सफलता है और मेरा नाम प्रेम है। अब जाओ और अपने पति से विचार-विमर्श करके बताओ कि तुम हम तीनों में से किसे बुलाना चाहती हो। औरत अन्दर गई और अपने पति से सारी बात बता दी। पति ने खुश होकर कहा, जल्दी से धन को बुला लेते हैं । उसके आने से हमारा घर धन-दौलत से भर जाएगा। औरत बोली, क्यों न हम सफलता को बुला लें। उसके आने से हम जो करेंगे, वो सही होगा और हम देखते-देखते धन-दौलत के मालिक भी बन जायेंगे। पति बोला, तुम्हारी बात भी सही है, पर इसमें मेहनत करनी पड़ेगी। थोड़ी देर उनकी बहस चलती रही। अंतत: निश्चय किया कि वह साधुओं से कहेंगे कि धन और सफलता में जो आना चाहे आ जाए। औरत ने यह आग्रह साधुओं के सामने दोहरा दिया। साधुओं ने एक दूसरे की तरफ देखा और जाने लगे। महिला ने कहा, आप लोग इस तरह वापस क्यों जा रहे हैं? इस पर साधुओं ने कहा, दरअसल हम तीनों इसी तरह हर घर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। जो व्यक्ति लालच में आकर धन या सफलता को बुलाता है, हम वहां से लौट जाते हैं और जो अपने घर में प्रेम का वास चाहता है, उसके यहां बारी-बारी से हम दोनों भी प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए इतना याद रखना कि जहां प्रेम है, वहां धन और सफलता की कमी नहीं होती।
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