12-09-2013, 07:39 PM | #1 |
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कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
12-09-2013, 07:39 PM | #2 |
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Re: कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त
वो मुझे पाँच बरस पहले की बरसात के दिनों में मिला था । उन दिनों मैं बेकार था और किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के अनुभवी प्रश्नों से परास्त होकर लौट रहा था । उस रोज़ बरसात ने चिढ़ पैदा कर दी थी । मैंने उससे स्वंय को आगे छोड़ने के लिए लिफ्ट माँगी थी । जो असल में सहायता माँगना ही है किन्तु अँग्रेजी के इस सभ्य शब्द ने उसका वजन कम कर दिया है । उसने कहाँ, क्यों और कैसे शब्दों का प्रयोग न करते हुए मुझे बैठा लिया । हम बरसात में भीग चुके थे और जल्द ही सूख जाना चाहते थे । जैसे कि भीगना एक दुःख है और सूखना बहुत बड़ा सुख ।
मुझे मेरे गंतत्व पर पहुँचाकर उसका यह पूँछना कि बीयर पियोगे, मुझे हैरत में डाल देना था । उसने रास्ते भर शब्द का एक टुकड़ा भी मेरी ओर नहीं फैंका था और अब वह मुझे बीयर ऑफर कर रहा था । मेरे मुँह से उस क्षण न जाने क्यों यह शब्द निकले कि 'हम अजनबी हैं और तुम बीयर की बात कर रहे हो'। उसने यह कहकर मुझे लाजवाब कर दिया था कि मेरे लिये अजनबी को लिफ्ट देने और बीयर ऑफर करने में कोई ख़ास अंतर नहीं । अगले पंद्रह मिनटों बाद हम उसके फ़्लैट में थे जो कि कंपनी की ओर से उसको रहने के लिए मिला था । पहली बीयर के अंतिम घूँट और सिगरेट के कशों के मध्य सारी औपचारिकता वाष्पित हो चुकी थी । कई बार बोलते-बोलते शब्द उसके गले में अटके रह जाते थे । और जब वे बाहरी दुनिया में प्रवेश करते तो विभिन्न अर्थों में खुलकर सामने खड़े हो जाते । कभी तो लगता कि अपने होने की वजहें टटोल रहे हों । अगले ही क्षण हँसी के मध्य छनछना उठते । पहली रात मैंने अमर को ऐसा ही पाया था । बताना आवश्यक नहीं कि शुरू के दिनों में उसे मेरे साथ सुकून मिलता था । बाद के दिनों में जिसमें मैं भी शामिल हो गया था । साथ बीयर पीने की कई वजहें मिल जाया करती थीं । बेवजह पीते हुए हम अपराधबोध से ग्रस्त हो जाते थे । जैसे कोई गुप्त पाप कर बैठे हों और उसका प्रायश्चित नहीं किया जा सकता हो । मुझे याद है कि अपने ऑफिस की बातें शायद ही हमने कभी की हों । कभी हम पूरी-पूरी रात बात किया करते तो कभी घंटों चुप्पी साध लेते । एक सुख था जो कहीं से आता था और हमें अपनी गिरफ्त में ले लेता था । वे जनवरी की सर्दियों के दिन थे, जब उसने पहली बार मुझे उसका आधा नाम 'अनु' बताया था । बाद के दिनों में जो मेरे लिए अनुराधा और उसके लिए अनु थी । वे रोने के दिन थे किन्तु उसे हँसना आता था । मेरे लिए दोनों काम मुश्किल थे । मैं केवल उसे सुन सकता था, देख सकता था, महसूस कर सकता था और अंत में बीयर की गिरफ्त में जा सकता था । यह एक तरह से मौत को गले लगा लेना था । ठीक तरह से याद करूँ तो जैसा उसने टुकड़ों में बताया था, उसकी कहानी का प्रारंभ अनु से नहीं होता । अनु तो बहुत बाद के दिनों में उसके जीवन में आयी थी । उसकी वास्तविक शुरुआत इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास कर लेने से हुई थी । उसे सरकारी कॉलेज मिला था और उन दिनों वो बहुत खुश रहा करता था । घर पर कॉल लैटर पहुँचने पर, पहले दिन तो बहुत खुशियाँ मनायी गयीं थीं । अम्मा ने आस-पास के सभी लोगों से जा-जाकर बताया था कि उनके लड़के का चयन हो गया है किन्तु जब कॉल लैटर में दिए गए पन्द्रह दिन धीमे-धीमे समाप्त होने लगे तो खुशियाँ वाष्पित हो गयीं और चिंताएँ बादल की तरह उनके आँगन पर छा गयीं । दिन थे कि शेर हुए जा रहे थे और आँगन में जंगल नहीं उगाया जा सकता था । वे भारत के आम नागरिक थे, जिनके साथ तकलीफें प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हैं । उसके पिताजी का नाम रामधन अवश्य था किन्तु धन और नाम दोनों विपरीत दिशायें थीं । घर में वही दो जोड़ी कपडे, चार जोड़ी बर्तन और तीन जोड़ी आँखें थीं । बहुत जगह हाथ पसारे किन्तु अगला एक दिन भी हाथ से जाता रहता था । पास के ही इतवारी चाचा ने एक रात मशवरा दिया कि बैंक वाले इस सिलसिले में लोन देते हैं । उनका यह बताना रेगिस्तान में कुआँ खोद देने जैसा था । रामधन ने अगले रोज़ बैंक जाकर पड़ताल करने का मन बनाया और रात भर कुएँ का पानी पीता रहा । बैंक में वह अमर को भी साथ ले गया । जैसे कि अमर कोई साहस हो, जो साथ रहने से सुकून देगा । पहले के दो घंटे वे दोनों बाहर बैठ कर प्रतीक्षा का सुख लेते रहे । ऐसा उन्होंने जानबूझ कर नहीं किया था बल्कि बैंक मैनेजर के अति व्यस्त होने के कारण किया था । बैंक मैनेजर गुप्ता जी पूर्व में बहुत सुलझे हुए आदमी हुआ करते थे किन्तु उनके लड़के ने बीते समय के कारण उलझा कर रख दिया था । बीते चार वर्षों में उनका लड़का बाकायदा एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढता रहा और घर से हर महीने के पाँच हज़ार रुपये भी लेता रहा । और चार वर्ष बीत जाने के बाद उसने सबको यह कहकर चौंका दिया कि अब तक वो वहाँ पर मौज लेता रहा था । असल में वो तो पहले वर्ष में ही अटका रहा था और कभी उससे बाहर ही नहीं निकल सका । बाद के तीन वर्षों में उसे मकान मालिक की लड़की से प्रेम हो गया था । जिसके साथ उसने ख़ुशी-ख़ुशी दिन बिताये थे । अब गुप्ता जी के लिए इस संसार में कोई विश्वासपात्र आदमी बचा नहीं रह गया था ।
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12-09-2013, 07:40 PM | #3 |
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Re: कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त
गुप्ता जी कागजों की उल्टा-पल्टी कर रहे थे, जब रामधन ने झिझकते हुए उनके कमरे में प्रवेश किया । रामधन के उन्हें नींद से जगाने पर वे खींझ से भर उठे । रामधन के द्वारा अपनी समस्या बताने के दौरान वे गर्दन नीचे करके अपने काम में उलझे रहे और एकाएक नज़र ऊपर करके कॉल लैटर देखना चाहा । रामधन ने तब बाहर से अमर को बुलाया और कॉल लैटर दिखाने को कहा । बहुत देर देख लेने के बाद उन्होंने पूँछा कि क्या नाम है आपका ? प्रतिउत्तर में रामधन नाम सुनकर उनके गालों पर मुस्कराहट की लकीरें खिंच आयीं । उस एक पल अमर को लगा कि पिताजी का नाम चाहे जो होता किन्तु रामधन नहीं होना चाहिए । किसी आम आदमी का नाम रामधन रखना, उसके साथ सरासर अन्याय है । उसका नाम गरीबचंद, फकीरचंद जैसा कुछ भी तो रखा जा सकता है, जो उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाये ।
गुप्ता जी ने बहुत कुछ जाँच लेने के बाद कहा कि बिना गारंटी के तो लोन नहीं मिल सकता । आप के पास क्या गारंटी है कि आपका लड़का इंजीनियरिंग कर ही लेगा ? और यदि वह नाकामयाब हुआ तो उसके ऊपर बैंक के द्वारा खर्च किये गए पैसों का भुगतान कौन करेगा ? इस बात पर रामधन के छोटे से हुए मुँह को देखते हुए बोले कि मान भी लिया जाए कि यह पूरी कर भी ले तो इसकी क्या गारंटी है कि यह अगले दो बरस में नौकरी पर लग जायेगा और ब्याज सहित रकम वापस कर देगा ? बोलो है कोई गारंटी ? रामधन की अंतरात्मा उस पल यही कह रही थीं कि साहब मेरा बेटा इंजीनियरिंग जरुर पूरी करेगा और नौकरी भी मिलेगी किन्तु ज़बान सभ्य बनी हुई थी । वो जानता था कि गरीब आदमी तभी सभ्य माना जाता है, जब वह अपनी ज़बान बंद रखे । और उसकी असभ्यता बर्दाश्त नहीं की जा सकती । रामधन की आँखें गिडगिडाने की मुद्रा में आकर छलक ही आयीं थीं किन्तु उससे होना कुछ नहीं था । ऐसा गुप्ता जी ने सरकारी नीति का हवाला देकर कहा था । इतवारी चाचा का मशवरा मृग मरीचिका ही साबित हुआ । बैंक से बाहर निकल आने पर एक चपरासीनुमा व्यक्ति उनके पास आया, जिसने यह बताया कि यदि वे पाँच हज़ार रुपये दे दें तो लोन दिलवा देगा । रामधन ने यह प्रस्ताव, देखता हूँ कहकर टाल दिया । और वापस निराशा के जंगल में चला आया । घर पर अम्मा के 'क्या हुआ?' पूँछने पर प्रतिउत्तर में ख़ामोशी ही सुनाई दी । इंसान सुख और दुःख का कितना भी बँटवारा कर ले, मिलता उसे इच्छा का छोटा टुकड़ा ही है । शाम को इतवारी चाचा के पास से नया मशवरा मिला कि जाकर एक बार एम.एल.ए. साहब से क्यों नहीं मिलते ? शायद कोई जुगाड़ बैठ जाए । इतवारी चाचा के पास सलाह-मशवरे का सदैव स्टॉक रहता था । आप पूँछे या न पूँछें, वे तमाम बातें चलते-चलते ही बता जाया करते थे । उन्होंने ही बताया था कि यह शहर फ़िरोज़ शाह तुगलुक़ ने बसाया था । इस शहर में कम से कम कोई भूख से नहीं मर सकता, हाँ लेकिन पेट से ज्यादा कोई कुछ बचा पायेगा इसकी गारंटी वे नहीं लेते । बस्ती के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि ये उन सभी लोगों के द्वारा स्वतः ही बस गयी, जोकि भिन्न-भिन्न गाँवों के छोर पर से पलायन कर आये थे । शहर में दो ही बड़े वर्ग हैं एक मालिक और दूसरा मजदूर । मालिक अपने होने की वजह से बड़ा और मजदूर संख्या में । सरकारी दफ्तर के कर्मचारियों को इस शहर में शामिल हुआ माना जा सकता था बस । इस काँच के शहर की ये सबसे बड़ी पहचान है, बताते हुए इतवारी चाचा लम्बी साँस खींचते थे । दो दिनों तक एम.एल.ए. साहब नहीं मिले थे और दिन में चार चक्कर लगाने के बाद रामधन थका हुआ नज़र आता था । तीसरे दिन अमर को साथ लेकर वो एम.एल.ए. साहब के बंगले पर पहुँचा तो पता चला कि आज एम.एल.ए. साहब घर पर ही हैं किन्तु एक आवश्यक मीटिंग में व्यस्त हैं । बैठक में गाँधी जी की तस्वीर लटकी हुई थी । जिसके नीचे लिखा हुआ था 'सत्य और अहिंसा से कोई भी युद्ध जीता जा सकता है' । अमर पिछले चार घंटों में इसे पूरे अड़तालीस बार पढ़ चुका था । और ना जाने क्यों उसे यह लग रहा था कि पचास बार पढ़ लेने पर उसकी फीस का बंदोबस्त हो जाएगा । अगले दो घंटों में वह सत्तर की गिनती गिन चुका था । उसे संतुष्टि का आभास हो रहा था ।
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12-09-2013, 07:40 PM | #4 |
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Re: कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त
नीम के वृक्षों से गाढ़ा, स्याह अँधेरा टपकने लगा था । मीटिंग समाप्त हो जाने के लम्बे समय बाद उन्हें भीतर जाने का अवसर मिला । रामधन ने हालातों को बयाँ करते हुए बैंक मैनेजर का भी ज़िक्र किया । अमर का ध्यान इस ओर बिलकुल ना था बल्कि वो वहाँ एम.एल.ए. साहब के लड़के को बड़े चाव से देख रहा था, जो नूडल्स खाने में मग्न था । अमर के मन में उस पल एक सुखद ख्याल आया कि वो भी एक दिन ऐसे ही मग्न होकर नूडल्स खायेगा । न जाने कैसा स्वाद होता होगा ? अच्छा ही होता होगा, तभी बड़े लोग खाते हैं ।
जब रामधन ने पाँच हज़ार का ज़िक्र कर दिया तो अमर का ध्यान एम.एल.ए. साहब की ओर गया । एम.एल.ए. साहब ने बहुत सोचते हुए अपने सेक्रेटरी से कहा कि इन्हें पाँच हज़ार रुपये दे दो । रामधन ने कहा मगर साहब लोन ? एम.एल.ए. साहब उठते हुए बोले कि 'मुझे अभी आधे घंटे में दिल्ली को निकलना है अन्यथा कुछ अवश्य करता' । तुम फिलहाल उसको पाँच हज़ार रुपये देकर काम चला लो । फिर देखता हूँ क्या करना है । अगले रोज़ बैंक में पहुँचने पर पता चला कि रामधन ने आने में देर कर दी है और मैनेजर साहब छुट्टी पर चले गए हैं । अब कुछ नहीं हो सकता जैसे निराशाजनक शब्द हाथ में लेकर रामधन लौट आया । जाते जाते चपरासी ने झिड़क दिया, आ जाते हैं मुफ्तखोर । ये नहीं पता कि इंडिया में दो ही चीज़ें मुफ्त मिल सकती हैं निरोध और फिर भी गलती की तो पोलियो ड्रॉप । देर रात तक घर में मातम छाया रहा । अब एक ही रास्ता था जो रामधन को सूझ रहा था, कि अपने गाँव की दो बीघा पुस्तैनी जमीन बेच दे । उसने अब निर्णय कर लिया कि वह ऐसा ही करेगा । जमीन का क्या है ? एक बार जो अमर पढ़ गया तो ऐसी न जाने कितनी जमीन वो खरीद सकता है । अंतिम निर्णय के साथ उसने अगले रोज़ जाकर जमीन बेच आने का निश्चय किया और गहरी साँस लेते हुए बचपन से लेकर अब तक के सभी पल जी गया । गाँव पहुँच रामधन ने वहाँ के प्रधान से मोल भाव किया और जमीन बेच देने के उद्देश्य से तहसील पहुँच गया । कागज बनते और खानापूर्ति होते शाम हो गयी । देर शाम रामधन के हाथ में रकम आ गयी । शाम की अंतिम बस पकड़ने के उद्देश्य से वह चौराहे की ओर चलने लगा । रामधन कुछ ही दूर चल पाया होगा कि चार हथियारबंद लोगों ने उससे बन्दूक की नोक पर रकम छीन लेनी चाही और इसी छीना-झपटी में रामधन उनकी मोटरसाइकिल से लिपटा चला गया । अंततः उसे गोली मर दी गयी । अंतिम साँस से पहले उसे अमर और गाँधी का चेहरा याद आया होगा । रामधन अभिमन्यु की मौत मारा गया, ऐसा इतवारी चाचा कहते थे । उन्हीं ने बताया कि वे चार लोग गाँव के ही थे, जो सुबह से रामधन के पीछे लगे हुए थे । रामधन की मृत्यु के साथ ही अमर के इंजीनियर बनने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे । अब वह कुछ भी बन सकता था किन्तु इंजिनीयर नहीं बन सकता था । लम्बी चुप्पी और अम्मा के समझाने के पश्चात अमर ने पास के ही कॉलेज में दाखिला ले लिया । मुझे याद है कि अमर ने हमारी पहचान की दूसरी सर्दियों में बताया था कि यहीं से उसके जीवन में अनु का प्रवेश हुआ था । अनुराधा उर्फ़ अनु उसकी सहपाठी थी । उसके पिताजी वकील थे और माँ अध्यापिका । अनु पर गुलाबी और हरा रंग खूब फबता था । उसे आइसक्रीम बहुत पसंद थी और वो बताती थी कि उसके फ्रिज में हमेशा आइसक्रीम और फल भरे रहते हैं । उनके घर पर कुत्ते नहीं पाले जाते थे इसीलिए उन्होंने घर के दरवाजे पर बोर्ड टाँग रखा था, जिस पर लिखा था 'कृपया कुत्तों से सावधान रहें'। द्वितीय वर्ष के दिनों में कॉलेज के प्रोफेसर अमर की बुद्धि पर टिपण्णी करते कि 'यू शुड ट्राय फॉर सिविल सर्विसेज ' । प्रोफ़ेसर की बात पर अनु को अमर पर बहुत प्यार आता था । ऐसे जैसे कि अमर आई.ए.एस. हो और वो उसकी प्रेमिका कहलाने पर गर्व महसूस कर रही हो । उन्हीं दिनों में अनु ने अमर से कहा था कि वो उसके लिए अपनी जान भी दे सकती है । उस बात के बाद से अमर और अनु प्रेमी युगल बन गए थे । बरसात में भीगना, सर्दियों में एक ही शॉल में बैठना और ताजमहल देखना उनकी मीठी याद बन चुके थे । तोहफों के रूप में अनु सदैव प्रेमपत्र दिया करती थी । कितनी तो बातें हुआ करती थीं उनमें । रात भर जागने, चाँद को देखने, चिड़ियों के चहचहाने, गुलाब के सूख जाने और बसंत के लौट आने की बातें । रूठने की, मनाने की, पास आने की और डूब जाने की बातें । अमर ने उसमें अपनी भविष्य की पत्नी के सभी गुण देख लिए थे । वह सर्वगुण संपन्न ही नज़र आती थी ।
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Re: कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त
तीसरा वर्ष बीत जाने के पश्चात हाथों में बेरोज़गारी की लकीरें उभर आयीं थीं । प्रेमपत्रों में खटास उत्पन्न हो चली थी । बरसात आग लगाती और गुलाब काँटा चुभो जाते । वे आइसक्रीम से घृणा करने के दिन थे । वे प्रेम में दुःख के दिन थे । उन्हीं दिनों में अनु का एम.बी.ए. के लिए दूसरे शहर चले जाना शामिल था ।
उसके बाद के दिनों में, अनु और अमर के मध्य दूरियां बढती गयीं । अनु यदि छुट्टी के दिनों में घर आती तो अमर से मिलना टालती रहती । अंततः मिलने पर, उनके मध्य सन्नाटा पसरा रहता था । मुलाकातों में अनु अब खामोश रहने लगी थी । अमर को यकीन नहीं होता था की ये वही अनु है जो कभी चुप नहीं रहा करती थी । मुझसे मुलाकातों के तीन बरस के दौरान, अमर यहाँ तक का किस्सा कई बार सुना चुका था । चौथे बरस में आकर उसने मुझे बताया था कि असल में अनु का एम.बी.ए. में साथ के ही किसी लड़के से इश्क चल निकला था । और एक अभागे दिन अनु ने उसे बताया था कि वो किसी और लड़के को चाहती है और उसी से शादी करने जा रही है । उस दिन उसकी अम्मा भी उसे छोड़कर हमेशा के लिए चली गयी । अनु की कहानी केवल वहीँ समाप्त नहीं हुई थी । अमर ने उसे कभी समाप्त होने ही नहीं दिया था । अपनी पिछली कहानी के साथ अमर आज मेरे साथ था । प्रथम बीयर के अंतिम घूँट के साथ ही उसकी आँखें बहकने लग गयीं । अभी चार की गिनती शेष थी । हम सन् 2002 की बीती सर्दियों की शाम को याद करके पीने में ख़ुशी महसूस कर रहे थे । उसके पास उन सर्दियों को याद करके ख़ुशी मनाने का अच्छा बहाना रहता था । और फिर बिना ख़ुशी, बिना गम के पीने में आज भी अच्छा नहीं लगता था । उसका यूँ एकाएक उन्हें याद करना मुझे भी अच्छा लगने लगा था । हालाँकि उन बरसात के बाद के दिनों को याद करना दुःख की बात थी किन्तु धीमे-धीमे वे सुख देने लगे थे । हर एक बीयर और सिगरेट के कशों के साथ उसका उन प्रेमपत्रों को पढने का पुराना रिवाज़ था, जो कि बीते हुए समय के प्रथम और अंतिम तौहफे थे । हर बार की तरह मुझे याद हो आता कि पिछली दफा किस प्रेम पत्र को पढ़ते हुए उसने कौन सी कहानी सुनाई थी या किस बात पर वो हँस दिया था और किस बात को याद करते हुए उसकी आँखें छलक आयीं थीं । उसकी इन सभी आदतों को प्रारम्भ के दिनों में मैंने बदलने की यथासंभव पूरी कोशिश की थी । जो बाद के दिनों में धीमे-धीमे ख़त्म हो गयी थी । उसे अनु से प्रेम था और शायद अनु को भी कभी रहा होगा । इस बात का मैं यकीनी तौर पर गवाह नहीं बन सकता किन्तु हाँ उनका प्रेम उन बीते दिनों की रातों में एक दूजे को थपकियाँ देकर अवश्य सुलाता था । ऐसा उसने पिछली से पिछली सर्दियों में तीसरी बीयर के पाँचवें घूँट पर कहा था । मुझे उनके इस तरह से सोने की आदत पर हँसी आयी थी । जिसे मैंने बीयर के घूँट तले दबा लिया था । मुफ्त की बीयर पीने का मैं शौक नहीं रखता, ऐसा मैंने शुरू के दिनों में उससे कहा था । हमारी दोस्ती तब कच्ची थी, जिसे उसने अपने प्रेम पत्रों के पढ़ते रहने के बीच पक्का कर दिया था । मेरा काम केवल उसकी यादों का साक्षी भर होना नहीं था बल्कि उसमें अपनी राय को शामिल करना भी था । ऐसे कि जैसे मेरे उन गलत-सही विश्लेषणों से उसके प्रेम के वे मधुर-मिलन के दिन फिर से नई कोपिलें फोड़ देंगे । यह ठीक रिक्त स्थान को अपनी उपस्थित से भरने जैसा था । यह तीसरी बीयर थी, जब उसने मुझे बताया कि इस बार की सर्दियों के अंतिम दिनों में वह ऑस्ट्रेलिया जा रहा है । उसके ऑस्ट्रेलिया जाने के कहने के बाद से ही मुझे उसके वे बीते हुए दिन याद हो आये, जिनमें वो किसी और से शादी करके वहाँ बस गयी थी । अब ऑस्ट्रेलिया शब्द का अर्थ मुझे उसके वे मृत दिन लग रहे थे । जो वहाँ खुशहाली से चारों ओर पसरे होंगे । इसका वहाँ जाना जैसे बारिश कर देना था । हम अब पूर्णतः बीयर की गिरफ्त में थे । उसका ये कहना कि वो वहाँ जाकर उसे तलाश कर उसके प्रेमपत्र वापस दे देगा । उसका मुझे आसमान से जमीन पर बेरहमी से पटक देना था । वो एक कस्बा नहीं था, ना ही कोई अजमेर जैसा शहर, जोकि हर गुजरता आदमी बता दे कि मन्नत कहाँ जाकर माँगनी है । वो एक देश था, अपने में सम्पूर्ण और अंजान । उसका वहाँ जाना, उसका खो जाना था । उसके बीयर के दिनों को भूल जाना था, जो कि बहुत भयानक था । उसने बीते दिनों में जीना सीख लिया था किन्तु अब वह खुद के लिये जीने की पुरानी वजह तलाशेगा । यह ख़ुशी से आत्महत्या करने जैसा था । कहते हैं आत्महत्या करना कानूनन अपराध है ......
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