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Old 04-11-2012, 06:25 AM   #1
Dark Saint Alaick
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Default दुनिया का भारतीय अर्थशास्त्री

रेखाचित्र : जन्मदिन 3 नवम्बर पर

दुनिया के भारतीय अर्थशास्त्री : अमर्त्य सेन



अमर्त्य सेन छठे दशक से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। जिस कल्याणकारी अर्थशास्त्र के लिए उन्हें साल 1998 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, उसका खुलासा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सामूहिक विकल्प और सामाजिक कल्याण’ में 1970 में ही कर दिया था। पर तब भूमंडलीकरण का नया जोश था और पूंजीवाद के इशारे पर नाचते देश किसी की सुनने को तैयार न थे। अमर्त्य की स्थापनाएं अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रमों में तो स्थान पा सकीं, पर उन्हें सही सम्मान मिलने में तीन दशक लग गए। यह सब अचानक नहीं हुआ, बल्कि अनियोजित पूंजीकरण से पैदा हुए असंतुलन के कारण विद्वानों को ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
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Old 04-11-2012, 06:26 AM   #2
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Default Re: दुनिया का भारतीय अर्थशास्त्री

अमर्त्य सेन ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना लगभग पचास वर्ष पहले आरम्भ की थी। इस विषय पर उनके सैकड़ों शोध-पत्र दुनियाभर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें अर्थशास्त्र से सम्बंधित कई मौलिक स्थापनाएं थीं। वे अब अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। बाबा आम्टे ने अपने संस्थान श्रमिक विद्यापीठ के माध्यम से मजदूरों का संचालन किया, पर जनमानस के बीच उनकी छवि एक जुझारू कार्यकर्ता की रही। अमर्त्य सेन और बाबा आम्टे, दोनों की ही कोशिशें बेलगाम पूंजीवाद को अंकुश लगाने की थी, ताकि शताब्दियों से नदी-जंगल और प्रकृति की गोद में जीवन बिताने वाले आदिवासियों का जीवन न उजड़े। समाज और सरकार आम आदमी को भूल न पाएं और विकास का लाभ किनारे पर स्थित नागरिकों तक भी पहुंचे। इन दोनों का जीवन-संघर्ष और उनके निष्कर्ष सिद्ध करते हैं कि समाज के विकास के लिए उसकी प्रत्येक इकाई का सहयोग आवश्यक है। सभी देशों के समन्वित प्रयास के बिना विश्व कल्याण असम्भव है। मुट्ठीभर पूंजीपति शेयर बाजार की रफ्तार को बढ़ा सकते हैं, गरीब का चूल्हा नहीं जला सकते। सम्पूर्ण विकास की अवधारणा तभी साकार हो सकती है, जब समाज की प्रत्येक इकाई आपसी सहयोग के लिए प्रस्तुत हो। वहीं, सरकार अपने नागरिकों को रचनात्मक गतिविधियों में लगाकर उनका अधिकतम उपयोग करना जानती हो।
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Old 04-11-2012, 06:27 AM   #3
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Default Re: दुनिया का भारतीय अर्थशास्त्री

गुरुदेव का आशीर्वाद

बचपन और अतीत आजीवन हमें उद्वेलित करते हैं। शायद तभी अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन पर उनके जीवन-अनुभवों की गहरी छाप है। उन संस्कारों की छाप है, जो उन्हें शांतिनिकेतन की पढ़ाई के दौरान मिले। उनके द्वारा प्रस्तुत कल्याणकारी अर्थशास्त्र उस बौद्धिक संवेदनशीलता का चिंतन-कर्म है, जो बंगाल के बौद्धिक वातावरण की खासियत है। 3 नवम्बर, 1933 को शांति निकेतन में अमर्त्य सेन का जन्म हुआ था। पिता आशुतोष सेन ढाका में रसायन शास्त्र के अध्यापक थे। देश के प्रमुख रक्षा वैज्ञानिक थे और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सहयोगी भी। घर ढाका में था, पर शांति निकेतन से गहरा सम्बंध था। साथ में खूब आना-जाना भी। जब भी वहां जाते तो गुरुदेव से अंतरंग बातें होतीं। परिवार में शिक्षा-संस्कृति के संस्कार थे। मां सुसंस्कृत और विदुषी महिला थीं। अमर्त्य के नाना क्षितिजमोहन सेन की गिनती उस समय के प्रमुख संस्कृत विद्वानों में थी। अपने नाना के प्रभाव से ही अमर्त्य ने संस्कृत सीखी। संगीत के प्रति प्रेम गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर प्राप्त हुआ। अमर्त्य के पूरे परिवार पर गुरुदेव का विशेष स्नेह और आशीर्वाद था। जब अमर्त्य का जन्म हुआ तो उसे भी आशीर्वाद के लिए गुरुदेव के पास लाया गया। गुरुदेव ने स्नेह और दुलार के साथ बच्चे को नाम दिया ‘अमर्त्य’। नामकरण करते हुए गुरुदेव ने कहा था, यह असामान्य बालक है। बड़ा होने पर असाधारण व्यक्ति बनेगा। मरकर भी इसका नाम अक्षुण्ण रहेगा, इसलिए हमें इसे अमर्त्य के नाम से पुकारना चाहिए। जब अमर्त्य सेन नोबेल पुरस्कार ग्रहण कर रहे थे, तब गुरुदेव का आशीर्वाद और उनकी भविष्यवाणी ही फल रही थी। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए शांति निकेतन से उपयुक्त जगह और भला क्या हो सकती थी! प्रारम्भ में संस्कृत विद्वान और डॉ. बनने का सपना देखा था अमर्त्य ने। इसी धुन में स्कूली शिक्षा पूरी की। इंटरमीडिएट में पहुंचे तो उनकी गिनती कॉलेज के मेधावी छात्रों में होने लगी। संस्कृत के अलावा गणित और भौतिक विज्ञान लेकर उन्होंने परीक्षा दी। परिणाम घोषित हुआ, अमर्त्य सर्वाधिक अंक पाकर प्रथम स्थान पर थे। अचानक उनका अर्थशास्त्र के प्रति मोह जाग्रत हुआ। यह परिवर्तन अनायास भी नहीं था। विज्ञान से वैचारिक प्रकृति की परिणति थी, जिसे समझने के लिए हमें अमर्त्य के अतीत में जाना पड़ेगा।
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Old 04-11-2012, 06:28 AM   #4
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Default Re: दुनिया का भारतीय अर्थशास्त्री

दो घटनाओं ने बदली जिंदगी

वर्ष 1943 बंगाल के इतिहास में काले वर्ष के रूप में दर्ज है। अमर्त्य की अवस्था उस समय केवल दस वर्ष की थी। उस वर्ष बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। ढाका में अपने घर के सामने अमर्त्य ने लोगों को भूख से संघर्ष करते, भीषण गरीबी की वजह से टूटते, एक-एक दाने के लिए गिड़गिड़ाते, दम तोड़ते-तड़पते हुए देखा था। अपनों को आंखों के सामने मौत के मुंह में जाते देखकर लोगों का रोना-बिलखना सुना था। इसे देखकर अमर्त्य का बाल-मन रो उठा। बचपन की वह छाप जिंदगीभर पड़ी रही। उस अकाल में करीब डेढ़ लाख से ज्यादा जानें गई थीं। हजारों परिवार उजड़े थे। मरने वालों में अधिकांश गरीब थे। मेहनत-मजदूरी करने वाले। अमीरों के घर तब भी धन-धान्य से भरे हुए थे। अमर्त्य जानते थे कि अमीर अगर अपने आस-पास रह रहे गरीबों के प्रति थोड़ी-सी भी सहृदयता दर्शाते तो हजारों जानें बचाई जा सकती थीं। यह दु:खद घटना अमर्त्य के लिए बहुत क्रांतिकारी सिद्ध हुई। उस घटना ने जीवन की दिशा निर्धारित करने का काम किया। उनके मन में गरीबों के लिए काम करने की ललक बढ़ी। एक और घटना ने उनकी सोच पर गहरा असर डाला। उन दिनों अमर्त्य अपने पिता के पास ढाका में रहते थे। अंग्रेज भारत-विभाजन का निर्णय ले चुके थे। जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव व्याप्त था। लोग बच्चों को अकेले बाहर भेजने से डरते थे। एक आदमी दूर गांव से चलकर ढाका काम की तलाश में आया था कि दंगों की चपेट में आ गया। वह लोगों को अपनी स्थिति के बारे में कुछ बता पाए, उससे पहले ही कुछ जुनूनी लोगों ने उस पर हमला बोल दिया। चाकुओं की मार से वह पलभर में लहूलुहान होकर जमीन पर लुढ़कने लगा। धर्म के नाम पर हुई उस वारदात ने अमर्त्य को भीतर तक हिला दिया। उसी के धर्म के खाते-पीते लोग उस समय भी बाजार में मौजूद थे। उन पर किसी को हाथ उठाने की हिम्मत न थी। उस दिन अमर्त्य इस नतीजे पर पहुंचे कि आग चाहे गरीबी की हो या साम्प्रदायिकता की, उसमें झुलसना गरीब को ही पड़ता है।
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Old 04-11-2012, 06:29 AM   #5
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Default Re: दुनिया का भारतीय अर्थशास्त्री

साम्यवाद से हुआ मोह भंग

इन घटनाओं ने उन्हें अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। अमर्त्य ने कहा भी कि अर्थशास्त्र का सम्बंध समाज के गरीब और उपेक्षित लोगों के सुधार से है। विज्ञान विषयों का मोह त्यागकर अर्थशास्त्र से जुड़ने का निर्णय भी इसी भावना के साथ लिया गया था। कॉलेज की पढ़ाई के लिए अमर्त्य को कोलकाता जाना पड़ा। दाखिला मिला प्रेसीडेंसी कॉलेज में। प्रकृति अपना काम कर रही थी। उस वर्ष प्रेसीडेंसी कॉलेज में एक और विलक्षण छात्र ने दाखिला लिया था। उनका नाम था सुखमय चक्रवर्ती। अमर्त्य ने विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों में प्रथम स्थान पाया था तो सुखमय कला वर्ग में प्रथम स्थान पर आए थे। दोनों एक समान मेधावी थे, इसलिए मित्र बनते देर न लगी। दोनों की इच्छा अर्थशास्त्र में बी.ए. (आॅनर्स) करने की थी। शीघ्र ही प्रेसीडेंसी कॉलेज उनकी प्रतिभा की खुशबू से महक उठा। गुरुजन इन दोनों छात्रों की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे। अमर्त्य के एक प्रोफेसर भवदोष दत्त ने तो अपने इन दोनों शिष्यों के बारे में लिखा भी है, मैं समझ गया था कि दोनों छात्र असाधारण हैं। उनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांचते समय मैं असमंजस में पड़ जाता था। दोनों के उत्तर इतने उत्कृष्ट होते थे कि अपनी दुविधा मिटाने के लिए मैं दोनों को समान अंक देता था। अमर्त्य और सुखमय के बीच गहरी मित्रता थी। स्वस्थ स्पर्द्धा की भावना भी। किसी भी प्रकार का ईर्ष्या-द्वेष उनके बीच न था, पर वार्षिक परीक्षा में अमर्त्य प्रथम स्थान पर आए। सुखमय को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। प्रथम स्थान पर आकर अमर्त्य को न तो किसी प्रकार का स्वयं पर गर्व हुआ, न सुखमय के मन में उनके प्रति कोई ईर्ष्या-भाव जागा। आगे की पढ़ाई के लिए अमर्त्य को कैम्ब्रिज जाना पड़ा। वहां भी अर्थशास्त्र के साथ उन्होंने विशेष प्रवीणता सहित आॅनर्स परीक्षा पास की। उन दिनों अमर्त्य का झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर था। आगे चलकर साम्यवाद से उनका मोह भंग होता चला गया। उसका स्थान लोकतांत्रिक व्यवस्था ने ले लिया।
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Old 04-11-2012, 06:30 AM   #6
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अकाल पर किया गहन अध्ययन

अर्थशास्त्र की पढ़ाई के दौरान अमर्त्य ने अफ्रीकी और एशियाई देशों में पड़े अकालों का अध्ययन किया। यही नहीं, उन्होंने कोलकाता में पड़े भीषण अकाल को भी अपने अध्ययन का विषय बनाया। लम्बे अध्ययन और गहन विश्लेषण के बाद वे इस परिणाम पर पहुंचे कि साल 1943 का अकाल प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि अकाल जैसी व्यवस्था थी। वह कृत्रिम अकाल एक गैर-जिम्मेदार शासन-व्यवस्था की देन था। ऐसी शासन-व्यवस्था की, जो जनसमस्याओं से पूर्णत: अनभिज्ञ थी, जिसके लिए मात्र शोषण ही शासन का पर्याय था। स्वार्थ में डूबी उस व्यवस्था को जनाकांक्षाओं से कोई मतलब न था। एक ओर नियोजन के स्तर पर लापरवाही और अज्ञानता थी, दूसरी ओर जन-आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हुए सरकार ने अपने समस्त संसाधन, अनाज और भोजन-सामग्री एक ऐसे युद्ध की तैयारियों में झोंक दिए थे, जिसका भारत अथवा यहां की जनता से कोई सम्बंध न था। अमर्त्य का मानना है कि यदि निरंकुश शासन के स्थान पर उस समय देश में जनता के प्रति जवाबदेह शासन होता तो वह बदनामी से बचने के लिए ऐसे उपाय करती, जिनसे उस अकाल जैसी अवस्था से बचा जा सकता था। यह लोकपक्षधरता जनता के मताधिकार द्वारा बनी सरकार द्वारा ही सम्भव है।
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दुनियाभर की शैक्षणिक यात्रा

अध्ययन पूरा कर अमर्त्य भारत लौटे, पर नौकरी के लिए भटकना न पड़ा। एक अच्छा अवसर मानो स्वयं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। लौटते ही वे जाधवपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए। उस समय उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। मानो यह पद विश्वविद्यालय ने अमर्त्य को न देकर उनकी विलक्षण प्रतिभा को दिया था। इसके बाद अध्ययन-अध्यापन का दौर चलता रहा। जाधवपुर से वे दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स आए। नए अनुभव हुए, पर राजधानी की अकादमिक राजनीति से मन खिन्न रहने लगा। कोलकाता की बार-बार याद आती। बार-बार याद आता शांति-निकेतन का माहौल। गुरुदेव की कविताएं और रवींद्र संगीत। दिल्ली में आठ वर्ष तक अध्यापन के बाद वे लंदन चले गए। वहां लंदन स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए। वहां से आक्सफोर्ड। फिर अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। कुछ महीनों बाद ट्रिनिटी विश्वविद्यालय में अध्यापन का प्रस्ताव मिला। हार्वर्ड की तुलना में यहां वेतन आधा था, सुविधाएं भी कम थीं पर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा और पद की गरिमा को देखते हुए अमर्त्य ने वह प्रस्ताव स्वीकार लिया। ट्रिनिटी में वे अकेले गैर अंग्रेज थे, जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ था।
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सांस में घुली ‘मिट्टी’

विलक्षण और ख्यातिप्राप्त विद्वान होने के बावजूद अमर्त्य आम आदमी से कितना गहरे तक जुड़े हैं, यह बात न केवल उनके कृतित्व में साफ झलकती है, बल्कि उनका व्यक्तित्व भी इसे दर्शाता है। कल्याणकारी अर्थशास्त्र में महिलाओं और वंचित वर्ग की आकांक्षाओं को मूर्त-रूप देने का सपना उन्होंने देखा है। उनका व्यवहार भी इसके बहुत निकट है। हर वर्ष वे कम से कम तीन बार हिंदुस्तान आते हैं। यहां आकर शांति निकेतन न जाएं, यह सम्भव नहीं है। विद्यार्थी जीवन में पिता ने एक फिलिप्स साइकिल खरीदकर दी थी। अब वह अमर्त्य जैसी ही बूढ़ी हो चुकी है। साठ वर्ष से लम्बी उम्र है उसकी। जब युवा थे तो शांति निकेतन में उस साइकिल पर खूब दौड़ लगाया करते थे। शांति निकेतन प्रवास के दौरान वह साइकिल आज भी उनके लिए वाहन का काम करती है। उम्र, व्यस्तता और मित्रों की भीड़ के चलते उस साइकिल पर पहले जैसी सवारी भले न गांठ पाएं, पर उसे देखकर स्नेह वैसा ही होता है। मौका मिले तो साइकिल पर घूमने निकल जाते हैं। आम जन-जीवन की पड़ताल करने या कहें कि पीड़ित समाज की नब्ज टटोलने। उस समय अमर्त्य का विराट व्यक्तित्व कहीं गायब हो जाता है। जब थक जाते हैं तो सड़क किनारे बनी किसी भी मामूली चाय की दुकान पर जाकर खड़े हो जाते हैं। ज्यादातर दुकानदार उन्हें पहचानते हैं, इसलिए देखते ही चाय का पानी चढ़ा देते हैं। अमर्त्य दुकान की साधारण-सी बैंच पर बैठकर या फिर खड़े-खड़े ही चाय की चुस्की लेते हैं। खाने में आज भी उन्हें बंगाली व्यंजन पसंद हैं। मिट्टी का स्वाद जीवन की सांस-सांस में घुला है।
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अभी बाकी है कुछ रोशनी

अमर्त्य ने यह साबित करने की कोशिश की है कि चिंतन व्यवहार में ढल जाने के बाद ही सार्थक होता है। समाज से परे न कोई सच होता है, न विवेक। उनके कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना भी विशुद्ध शास्त्रीय न होकर मानवीय आकांक्षाओं के अनुरूप है, तभी वह प्रशंसनीय है। उनका मानना है कि किसी भी समाज का विकास तभी सम्भव है, जब उसके विकास के नाम पर बनाई जा रही योजनाएं न केवल जनोन्मुखी हों, बल्कि वे जनसहयोग की अपेक्षा भी रखती हों। आमूल विकास के लिए जरूरी है कि लोग अपनी समस्याओं को समझें, सोचें-विचारें और संगठित होकर समाधान की खोज करें। विकास की राह में पड़ने वाली बाधाओं से जूझने का उनमें विवेक हो। ऐसे कठिन समय में जब समाज में बाजारवाद सिर चढ़कर बोल रहा हो, सरकार विश्व बैंक और पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बनने के आरोप लग रहे हों, पूंजीपति-नौकरशाह सरकार को अपने स्वार्थानुकूल योजनाएं बनाने के लिए बाध्य करते रहते हों, सेंसेक्स की रफ्तार को देश की प्रगति का प्रतीक मान लिया जाता हो, मीडिया आम आदमी की समस्याओं के बजाय पूंजीपतियों के हित पर विमर्श रचता-गढ़ता हो, मानवीय संवेदनाओं का अकाल हो...। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में अमर्त्य का कल्याणकारी अर्थदर्शन सहकारिता के लिए भी उतना ही उपयोगी है, जितना कि अर्थशास्त्र के लिए, क्योंकि दोनों के लक्ष्य व निहितार्थ एक ही हैं। दोनों ही हमें आश्वस्त करते हैं कि विकल्प अभी मिटे नहीं हैं, कुछ रोशनी अब भी बाकी है।
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उथल-पुथल वैवाहिक जिंदगी



अमर्त्य का निजी जीवन बहुत उतार-चढ़ाव वाला रहा। उन्हें जीभ का कैंसर था। बड़ी मुश्किल से, लम्बे उपचार के बाद इस जानलेवा बीमारी से मुक्ति मिली। अर्थशास्त्र की बड़ी-बड़ी गुत्थियां सुलझाने वाले अमर्त्य परिवार की पहेलियों में उलझते चले गए। एक के बाद एक उन्होंने तीन विवाह किए। पहला बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका-साहित्यकार नवनीता के साथ हुआ। पंद्रह वर्ष बाद दोनों का सम्बंध विच्छेद हो गया। नवनीता से अमर्त्य की दो पुत्रियों ने जन्म लिया, अंतरा और नंदना। उन्होंने दूसरा विवाह इवा कार्लोनी के संग किया। इवा बहुत स्नेहिल महिला थीं, पर विडम्बना देखिए, वे कैंसर की मरीज थीं। इस कारण उनका दाम्पत्य जीवन बहुत लम्बा न खिंच सका। इवा ने भी अमर्त्य की दो संतानों, इंद्राणी और कबीर को जन्म दिया। इवा बीमारी में चल बसीं, अमर्त्य अकेले रह गए। उनका अकेलापन उन्हें एम्मा राइथ्स चाइल्ड के निकट ले गया। एम्मा कभी उनकी शिष्या हुआ करती थीं। बाद में दोनों दाम्पत्य बंधन में बंध गए।
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