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Old 16-11-2012, 07:16 AM   #151
amol
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लव और कुश

जहां सीता जी निराश और शोक में डूबी हुई रो रही थीं, उसके थोड़ी ही दूर पर ऋषि वाल्मीकि का आश्रम था। उस समय ऋषि सन्ध्या करने के लिए गंगा की ओर जाया करते थे ! आज भी वह जब नियमानुसार चले तो मार्ग में किसी स्त्री के सिसकने की आवाज कान में आयी! आश्चर्य हुआ कि इस समय कौन स्त्री रो रही है। समझे, शायद कोई लकड़ी बटोरने वाली औरत रास्ता भूल गयी हो! सिसकियों की आहट लेते हुए निकट आये तो देखा कि एक स्त्री बहुमूल्य कपड़े और आभूषण पहने अकेली रो रही है। पूछा—बेटी, तू कौन है और यहां बैठी क्यों रो रही है ?
सीता ऋषि वाल्मीकि को पहचानती थीं। उन्हें देखते ही उठकर उनके चरणों से लिपट गयीं और बोलीं—भगवन ! मैं अयोध्या की अभागिनी रानी सीता हूं। स्वामी ने बदनामी के डर से मुझे त्याग दिया है! लक्ष्मण मुझे यहां छोड़ गये हैं।
वाल्मीकि ने परेम से सीता को अपने पैरों से उठा लिया और बोले—बेटी, अपने को अभागिनी न कहो। तुम उस राजा की बेटी हो, जिसके उपदेश से हमने ज्ञान सीखा है। तुम्हारे पिता मेरे मित्र थे। जब तक मैं जीता हूं, यहां तुम्हें किसी बात का कष्ट न होगा। चलकर मेरे आश्रम में रहो। रामचन्द्र ने तुम्हारी पवित्रता पर विश्वास रखते हुए भी केवल बदनामी के डर से त्याग दिया, यह उनका अन्याय है। लेकिन इसका शोक न करो। सबसे सुखी वही आदमी है, जो सदैव परत्येक दशा में अपने कर्तव्य को पूरा करता रहे। यह बड़े सौंदर्य की जगह है यहां तुम्हारी तबीयत खुश होगी। ऋषियों की लड़कियों के साथ रहकर तुम अपने सब दुःख भूल जाओगी। राजमहल में तुम्हें वही चीजें मिल सकती थीं; जिनसे शरीर को आराम पहुंचता है, यहां तुम्हें वह चीजें मिलेंगी, जिनसे आत्मा को शान्ति और आराम पराप्त होता है उठो, मेरे साथ चलो। क्या ही अच्छा होता, यदि मुझे पहले मालूम हो जाता, तो तुम्हें इतना कष्ट न होता। सीता जी को ऋषि वाल्मीकि की इन बातों से बड़ा सन्टोष हुआ। उठकर उनके साथ उनकी कुटिया में आई। वहां और भी कई ऋषियों की कुटियां थीं। सीता उनकी स्त्रियों और लड़कियों के साथ रहने लगीं। इस परकार कई महीने के बाद उनके दो बच्चे पैदा हुए। ऋषि वाल्मीकि ने बड़े का नाम लव और छोटे का नाम कुश रखा। दोनों ही बच्चे रामचन्द्र से बहुत मिलते थे। जहीन और तेज इतने थे कि जो बात एक बार सुन लेते, सदैव के लिए हृदय पर अंकित हो जाती। वह अपनी भोलीभाली तोतली बातों से सीता को हर्षित किया करते थे। ऋषि वाल्मीकि दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते थे। इन दोनों बच्चों के पालनेपोसने में सीता अपना शोक भूल गयीं।
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Old 16-11-2012, 07:16 AM   #152
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जब दोनों बच्चे जरा बड़े हुए तो ऋषि वाल्मीकि ने उन्हें पॄाना परारम्भ किया। अपने साथ वन में ले जाते और नाना परकार के फलफूल दिखाते। बचपन ही से सबसे परेम और झूठ से घृणा करना सिखाया। युद्ध की कला भी खूब मन लगाकर सिखाई। दोनों इतने वीर थे कि बड़ेबड़े भयानक जानवरों को भी मार गिराते थे। उनका गला बहुत अच्छा था। उनका गाना सुनकर ऋषि लोग भी मस्त हो जाते थे। वाल्मीकि ने रामचन्द्र के जीवन का वृत्तान्त पद्य में लिखकर दोनों राजकुमारों को याद करा दिया था। जब दोनों गागाकर सुनाते, तो सीता जी अभिमान और गौरव की लहरों में बहने लगती थीं।
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Old 16-11-2012, 07:16 AM   #153
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अश्वमेध यज्ञ

सीता को त्याग देने के बाद रामचन्द्र बहुत दुःखित और शोकाकुल रहने लगे। सीता की याद हमेशा उन्हें सताती रहती थी। सोचते, बेचारी न जाने कहां होगी, न जाने उस पर क्या बीत रही होगी ! उस समय को याद करके जो उन्होंने सीता जी के साथ व्यतीत किया था, वह परायः रोने लगते थे। घर की हर एक चीज उन्हें सीता की याद दिला देती थी। उनके कमरे की तस्वीरें सीता जी की बनायी हुई थीं। बाग के कितने ही पौधे सीताजी के हाथों के लगाये हुए थे। सीता के स्वयंवर के समय की याद करते, कभी सीता के साथ जंगलों के जीवन का विचार करते। उन बातों को याद करके वह तड़पने लगते। आनंदोत्सवों में सम्मिलित होना उन्होंने बिल्कुल छोड़ दिया। बिल्कुल तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत करने लगे। दरबार के सभासदों और मंत्रियों ने समझाया कि आप दूसरा विवाह कर लें। किसी परकार नाम तो चले। कब तक इस परकार तपस्या कीजियेगा? किन्तु रामचन्द्र विवाह करने पर सहमत न हुए। यहां तक कि कई साल बीत गये। उस समय कई परकार के यज्ञ होते थे। उसी में एक अश्वमेद्य यज्ञ भी था। अश्व घोड़े को कहते हैं। जो राजा यह आकांक्षा रखता था कि वह सारे देश का महाराजा हो जाय और सभी राजे उसके आज्ञापालक बन जायं, वह एक घोड़े को छोड़ देता था। घोड़ा चारों ओर घूमता था। यदि कोई राजा उस घोड़े को पकड़ लेता था, तो इसके अर्थ यह होते थे कि उसे सेवक बनना स्वीकार नहीं। तब युद्ध से इसका निर्णय होता था। राजा रामचन्द्र का बल और सामराज्य इतना ब़ गया कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। दूरदूर के राजाओं, महर्षियों, विद्वानों के पास नवेद भेजे गये। सुगरीव, विभीषण, अंगद सब उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आ पहुंचे। ऋषि वाल्मीकि को भी नवेद मिला। वह लव और कुश के साथ आ गये। यज्ञ की बड़ी धूमधाम से तैयारियां होने लगीं। अतिथियों के मनबहलाव के लिए नाना परकार के आयोजन किये गये थे। कहीं पहलवानों के दंगल थे, कहीं रागरंग की सभायें। किन्तु जो आनन्द लोगों को लव और कुश के मुंह से रामचन्द्र की चचार सुनने में आता था वह और किसी बात में न आता था। दोनों लड़के सुर मिलाकर इतने पिरयभाव से यह काव्य गाते थे कि सुनने वाले मोहित हो जाते थे। चारों ओर उनकी वाहवाह मची हुई थी। धीरेधीरे रानियों को भी उनका गाना सुनने का शौक पैदा हुआ। एक आदमी दोनों बरह्मचारियों को रानिवास में ले गया। यहां तीन बड़ी रानियां, उनकी तीनों बहुएं और बहुतसी स्त्रियां बैठी हुई थीं। रामचन्द्र भी उपस्थित थे। इन लड़कों के लंबेलंबे केश, वन की स्वास्थ्यकर हवा से निखरा हुआ लाल रंग और सुन्दर मुखमण्डल देखकर सबके-सब दंग हो गये। दोनों की सूरत रामचन्द्र से बहुत मिलती थी। वही ऊंचा ललाट था, वही लंबी नाक, वही चौड़ा वक्ष। वन में ऐसे लड़के कहां से आ गये, सबको यही आश्चर्य हो रहा था। कौशिल्या मन में सोच रही थीं कि रामचन्द्र के लड़के होते तो वह भी ऐसे ही होते। जब लड़कों ने कवित्त गाना परारम्भ किया, तो सबकी आंखों से आंसू बहने शुरू हो गये। लड़कों का सुर जितना प्यारा था, उतनी ही प्यारी और दिल को हिला देने वाली कविता थी। गाना सुनने के बाद रामचन्द्र ने बहुत चाहा कि उन लड़कों को कुछ पुरस्कार दें, किन्तु उन्होंने लेना स्वीकार न किया। आखिर उन्होंने पूछा—तुम दोनों को गाना किसने सिखाया और तुम कहां रहते हो ?
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Old 16-11-2012, 07:27 AM   #154
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लव ने कहा—हम लोग ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में रहते हैं उन्होंने हमें गाना सिखाया है।
रामचन्द्र ने फिर पूछा—और यह कविता किसने बनायी?
लव ने उत्तर दिया—ऋषि वाल्मीकि ने ही यह कविता भी बनायी है।
रामचन्द्र को उन दोनों लड़कों से इतना परेम हो गया था कि वह उसी समय ऋषि वाल्मीकि के पास गये और उनसे कहा—महाराज! आपसे एक परश्न करने आया हूं, दया कीजियेगा।
ऋषि ने मुस्कराकर कहा—राजा रंक से परश्न करने आया है? आश्चर्य है। कहिये।
रामचन्द्र ने कहा—मैं चाहता हूं कि इन दोनों लड़कों को, जिन्होंने आपके रचे हुएपद सुनाये हैं, अपने पास रख लूं। मेरे अंधेरे घर के दीपक होंगे। हैं तो किसी अच्छे वंश के लड़के?
वाल्मीकि ने कहा—हां, बहुत उच्च वंश के हैं। ऐसा वंश भारत में दूसरा नहीं है।
राम—तब तो और भी अच्छा है। मेरे बाद वही मेरे उत्तराधिकारी होंगे। उनके मातापिता को इसमें कोई आपत्ति तो न होगी?
वाल्मीकि—कह नहीं सकता। सम्भव है आपत्ति हो पिता को तो लेशमात्र भी न होगी, किन्तु माता के विषय में कुछ भी नहीं कह सकता। अपनी मयार्दा पर जान देने वाली स्त्री है।
राम—यदि आप उसे देवी को किसी परकार सम्मत कर सकें तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी।
वाल्मीकि—चेष्टा करुंगा। मैंने ऐसी सज्जन, लज्जाशीला और सती स्त्री नहीं देखी। यद्यपि उसके पति ने उसे निरपराध, अकारण त्याग दिया है, किन्तु यह सदैव उसी पति की पूजा करती है।
रामचन्द्र की छाती धड़कने लगी। कहीं यह मेरी सीता न हो। आह दैव, यह लड़के मेरे होते! तब तो भाग्य ही खुल जाता।
वाल्मीकि फिर बोले—बेटा, अब तो तुम समझ गये होगे कि मैं किस ओर संकेत कर रहा हूं।
रामचन्द्र का चेहरा आनन्द से खिल गया। बोले—हां, महाराज, समझ गया। वाल्मीकि—जब से तुमने सीता को त्याग दिया है वह मेरे ही आश्रम में है। मेरे आश्रम में आने के दोतीन महीने के बाद वह लड़के पैदा हुए थे। वह तुम्हारे लड़के हैं। उनका चेहरा आप कह रहा है। क्या अब भी तुम सीता को घर न लाओगे? तुमने उसके साथ बड़ा अन्याय किया है। मैं उस देवी को आज पन्द्रह सालों से देख रहा हूं। ऐसी पवित्र स्त्री संसार में कठिनाई से मिलेगी। तुम्हारे विरुद्ध कभी एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं सुना। तुम्हारी चचार सदैव आदर और परेम से करती है। उसकी दशा देखकर मेरा कलेजा फटा जाता है। बहुत रुला चुके, अब उसे अपने घर लाओ। वह लक्ष्मी है।
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Old 16-11-2012, 07:28 AM   #155
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रामचन्द्र बोले—मुनि जी, मुझे तो सीता पर किसी परकार का सन्देह कभी नहीं हुआ। मैं उनको अब भी पवित्र समझता हूं। किन्तु अपनी परजा को क्या करुं ? उनकी जबान कैसे बन्द करुं? रामचन्द्र की पत्नी को सन्देह से पवित्र होना चाहिए। यदि सीता मेरी परजा को अपने विषय में विश्वास दिला दें, तो वह अब भी मेरी रानी बन सकती हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त हर्ष की बात होगी।
वाल्मीकि ने तुरंत अपने दो चेलों को आदेश दिया कि जाकर सीता जी को साथ लाओ। रामचन्द्र ने उन्हें अपने पुष्पकविमान पर भेजा, जिनसे वह शीघर लौट आयें। दोनों चेले दूसरे दिन सीता जी को लेकर आ पहुंचे। सारे नगर में यह समाचार फैल गया था कि सीता जी आ रही हैं। राजभवन के सामने, यज्ञशाला के निकट लाखों आदमी एकत्रित थे। सीता जी के आने की खबर पाते ही रामचन्द्र भी भाइयों के साथ आ गये। एक क्षण में सीता जी भी आईं। वह बहुत दुबली हो गयी थीं, एक लाल साड़ी के अलावा उनके शरीर पर और कोई आभूषण न था। किन्तु उनके पीले मुरझाये हुए चेहरे से परकाश की किरणेंसी निकल रही थीं। वह सिर झुकाये हुए महर्षि वाल्मीकि के पीछेपीछे इस समूह के बीच में खड़ी हो गयीं।
महर्षि एक कुश के आसान पर बैठ गये और बड़े दृ़ भाव से बोले—देवी ! तेरे पति वह सामने बैठे हुए हैं। अयोध्या के लोग चारों ओर खड़े हैं। तू लज्जा और झिझक को छोड़कर अपने पवित्र और निर्मल होने का परमाण इन लोगों को दे और इनके मन से संदेह को दूर कर।
सीता का पीला चेहरा लाल हो गया। उन्होंने भीड़ को उड़ती हुई दृष्टि से देखा, फिर आकाश की ओर देखकर बोलीं—ईश्वर! इस समय मुझे निरपराध सिद्ध करना तुम्हारी ही दया का काम है। तुम्हीं आदमियों के हृदयों में इस संदेह को दूर कर सकते हो। मैं तुम्हीं से विनती करती हूं! तुम सबके दिलों का हाल जानते हो। तुम अन्तयार्मी हो। यदि मैंने सदैव परकट और गुप्त रूप में अपने पति की पूजा न की हो, यदि मैंने अपने पति के साथ अपने कर्तव्य को पूर्ण न किया हो, यदि मैं पवित्र और निष्कलंक न हूं, तो तुम इसी समय मुझे इस संसार से उठा लो। यही मेरी निर्मलता का परमाण होगा। अंतिम शब्द मुंह से निकलते ही सीता भूमि पर गिर पड़ी। रामचन्द्र घबराये हुए उनके पास गये, पर वहां अब क्या था? देवी की आत्मा ईश्वर के पास पहुंच चुकी थी। सीता जी निरंतर शोक में घुलतेघुलते योंही मृतपराय हो रही थीं, इतने बड़े जनसमूह के सम्मुख अपनी पवित्रता का परमाण देना इतना बड़ा दुःख था, जो वह सहन न कर सकती थीं। चारों ओर कुहराम मच गया।
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Old 16-11-2012, 07:29 AM   #156
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सब लोग फूटफूटकर रोने लगे। सबके जबान पर यही शब्द थे—‘यह सचमुच लक्ष्मी थी, फिर ऐसी स्त्री न पैदा होगी।’ कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा छाती पीटने लगीं और रामचन्द्र तो मूर्छित होकर गिर पड़े। जब बड़ी कठिनता से उन्हें चेतना आयी तो रोते हुए बोले—मेरी लक्ष्मी, मेरी प्यारी सीता! जा, स्वर्ग की देवियां तेरे चरणों पर सिर झुकाने के लिए खड़ी हैं। यह संसार तेरे रहने के योग्य न था। मुझ जैसा बलहीन पुरुष तेरा पति बनने के योग्य न था। मुझ पर दया कर, मुझे क्षमा कर। मैं भी शीघर तेरे पास आता हूं। मेरी यही ईश्वर से परार्थना है कि यदि मैंने कभी किसी पराई स्त्री का स्वप्न में ध्यान किया हो, यदि मैंने सदैव तुझे देवी की तरह हृदय में न पूजा हो, यदि मेरे हृदय में कभी तेरी ओर से सन्देह हुआ हो, तो पतिवरता स्त्रियों में तेरा नाम सबसे ब़कर हो। आने वाली पीयिं सदैव आदर से तेरे नाम की पूजा करें। भारत की देवियां सदैव तेरे यश के गीत गायें। अश्वमेद्ययज्ञ कुशल से समाप्त हुआ। रामचन्द्र भारतवर्ष के सबसे बड़े महाराज मान लिये गये। दो योग्य, वीर और बुद्धिमान पुत्र भी उनके थे। सारे देश में कोई शत्रु न था। परजा उन पर जान देती थी। किसी बात की कमी न थी। किन्तु उस दिन से उनके होंठों पर हंसी नहीं आयी। शोकाकुल तो वह पहले भी रहा करते थे, अब जीवन उन्हें भार परतीत होने लगा। राजकाज में तनिक भी जी न लगता। बस यही जी चाहता कि किसी सुनसान जगह में जाकर ईश्वर को याद करें। शोक और खेद से बेचैन हृदय को ईश्वर के अतिरिक्त और कौन सान्त्वना दे सकता था !
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Old 16-11-2012, 07:29 AM   #157
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लक्ष्मण की मृत्यु

किन्तु अभी रामचन्द्र की विपत्तियों का अन्त न हुआ था। उन पर एक बड़ी बिजली और गिरने वाली थी। एक दिन एक साधु उनसे मिलने आया और बोला—मैं आपसे अकेले में कुछ कहना चाहता हूं। जब तक मैं बातें करता रहूं, कोई दूसरा कमरे में न आने पाये। रामचन्द्र महात्माओं का बड़ा सम्मान करते थे। इस विचार से कि किसी साधारण द्वारपाल को द्वार पर बैठा दूंगा तो सम्भव है कि वह किसी बड़े धनीमानी को अन्दर आने से रोक न सके, उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर बैठा दिया और चेतावनी दे दी कि सावधान रहना, कोई अंदर न आने पाये। यह कहकर रामचन्द्र उस साधु से कमरे में बातें करने लगे। संयोग से उसी समय दुवार्सा ऋषि आ पहुंचे और रामचन्द्र से मिलने की इच्छा परकट की। लक्ष्मण ने कहा—अभी तो महाराज एक महात्मा से बातें कर रहे हैं। आप तनिक ठहर जायं तो मैं मिला दूंगा। दुवार्सा अत्यन्त क्रोधी थे। क्रोध उनकी नाक पर रहता था। बोले—मुझे अवकाश नहीं है। मैं इसी समय रामचन्द्र से मिलूंगा। यदि तुम मुझे अंदर जाने से रोकोगे तो तुम्हें ऐसा शाप दे दूंगा कि तुम्हारे वंश का सत्यानाश हो जायगा।
बेचारे लक्ष्मण बड़ी दुविधा में पड़े। यदि दुवार्सा को अंदर जाने देते हैं तो रामचन्द्र अपरसन्न होते हैं, नहीं जाने देते तो भयानक शाप मिलता है। आखिर उन्हें रामचन्द्र की अपरसन्नता ही अधिक सरल परतीत हुई। दुवार्सा को अंदर जाने की अनुमति दे दी। दुवार्सा अंदर पहुंचे। उन्हें देखते ही वह साधु बहुत बिगड़ा और रामचन्द्र को सख्तसुस्त कहता चला गया। दुवार्सा भी आवश्यक बातें करके चले गये। किन्तु रामचन्द्र को लक्ष्मण का यह कार्य बहुत बुरा मालूम हुआ। बाहर आते ही लक्ष्मण से पूछा—जब मैंने तुमसे आगरहपूर्वक कह दिया था तो तुमने दुवार्सा को क्यों अंदर जाने दिया? केवल इस भय से कि दुवार्सा तुम्हें शाप दे देते। लक्ष्मण ने लज्जित होकर कहा—महाराज! मैं क्या करता। वह बड़ा भयानक शाप देने की धमकी दे रहे थे।
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Old 16-11-2012, 07:30 AM   #158
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राम—तो तुमने एक साधु के शाप के सामने राजा की आज्ञा की चिंता नहीं की। सोचो, यह उचित था? मैं राजा पहले हूं—भाई, पति, पुत्र या पति पीछे। तुमने अपने बड़े भाई की इच्छा के विरुद्ध काम नहीं किया है, बल्कि तुमने अपने राजा की आज्ञा तोड़ी है। इस दण्ड से तुम किसी परकार नहीं बच सकते। यदि तुम्हारे स्थान पर कोई द्वारपाल होता तो तुम समझते हो, मैं उसे क्या दण्ड देता? मैं उस पर जुमार्ना करता। लेकिन तुम इतने समझदार, उत्तरदायित्व के ज्ञान से इतने पूर्ण हो, इसलिए वह अपराध और भी बड़ा हो गया है और उसका दण्ड भी बड़ा होना चाहिए। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि आज ही अयोध्या का राज्य छोड़कर निकल जाओ। न्याय सबके लिए एक है। वह पक्षपात नहीं जानता। यह था रामचन्द्र की कर्तव्यपरायणता का उदाहरण! जिस निर्दयता से कर्तव्य के लिए पराणों से पिरय अपनी पत्नी को त्याग दिया उसी निर्दयता से अपने पराणों से प्यारे भाई को भी त्याग दिया। लक्ष्मण ने कोई आपत्ति नहीं की। आपत्ति के लिए स्थान ही न था। उसी समय बिना किसी से कुछ कहेसुने राजमहल के बाहर चले गये और सरयू के किनारे पहुंचकर जान दे दी।
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Old 16-11-2012, 07:31 AM   #159
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अन्त

रामचन्द्र को लक्ष्मण के मरने का समाचार मिला तो मानो सिर पर पहाड़ टूट पड़ा। संसार में सीताजी के बाद उन्हें सबसे अधिक परेम लक्ष्मण से ही था। लक्ष्मण उनके दाहिने हाथ थे। कमर टूट गयी। कुछ दिन तक तो उन्होंने ज्योंत्यों करके राज्य किया। आखिर एक दिन सामराज्य बेटों को देकर आप तीनों भाइयों के साथ जंगल में ईश्वर की उपासना करने चले गये।
यह है रामचन्द्र के जीवन की संक्षिप्त कहानी। उनके जीवन का अर्थ केवल एक शब्द है, और उसका नाम है ‘कर्तव्य’। उन्होंने सदैव कर्तव्य को परधान समझा। जीवन भर कर्तव्य के रास्ते से जौ भर भी नहीं हटे। कर्तव्य के लिए चौदह वर्ष तक जंगलों में रहे, अपनी जान से प्यारी पत्नी को कर्तव्य पर बलिदान कर दिया और अन्त में अपने पिरयतम भाई लक्ष्मण से भी हाथ धोया। परेम, पक्षपात और शील को कभी कर्तव्य के मार्ग में नहीं आने दिया। यह उनकी कर्तव्यपरायणता का परसाद है कि सारा भारत देश उनका नाम रटता है और उनके अस्तित्व को पवित्र समझता है। इसी कर्तव्यपरायणता ने उन्हें आदमियों के समूह से उठाकर देवताओं के समकक्ष बैठा दिया। यहां तक कि आज निन्यानवे परतिशत हिन्दू उन्हें आराध्य और ईश्वर का अवतार समझते हैं। लड़को ! तुम भी कर्तव्य को परधान समझो। कर्तव्य से कभी मुंह न मोड़ो। यह रास्ता बड़ा कठिन है। कर्तव्य पूरा करने में तुम्हें बड़ीबड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; किन्तु कर्तव्य पूरा करने के बाद तुम्हें जो परसन्नता पराप्त होगी, वह तुम्हारा पुरस्कार होगा।
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