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Old 30-11-2012, 07:14 PM   #251
bindujain
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

नौका तेज धारा के साथ बहती जाती थी और वह दिनके-दिन पेट के बल पड़ा हुआ बारबार कहता था-कभी नहीं ! कभी नहीं !! कभी नहीं !!
तब यह विचार आने पर कि उसने औरों को अपना परेमरस चखाया, केवल मैं ही वंचित रहा। उसने संसार को अपने परेम की लहरों से प्लावित कर दिया और मैं उसके होंठों को भी न तर कर सका। वह दांत पीसकर उठ बैठा और अन्तवेर्दना से चिल्लाने लगा। वह अपने नखों से अपनी छाती को खरोंचने और अपने हाथों को दातों से काटने लगा।
उसके मन में यह विचार उठा-यदि मैं उसके सारे परेमियों का संहारा कर देता तो कितना अच्छा होता।
इस हत्याकाण्ड की कल्पना ने उसे सरल हत्यातृष्णा से आन्दोलित कर दिया। वह सोचने लगा कि वह निसियास का खूब आराम से मजे लेलेकर वध करेगा और उसके चेहरे को बराबर देखता रहेगा कि कैसे उसकी जान निकलती है। तब अकस्मात उसका त्र्कोधावेग द्रवीभूत हो गया। वह रोने और सिसकने लगा; वह दीन और नमर हो गया। एक अज्ञात विनयशीलता ने उसके चित्त को कोमल बना दिया। उसे यह आकांक्षा हुई कि अपने बालपन के साथी निसियास के गले में बांहें डाल दे और उससे कहे-निसियास मैं तुम्हें प्यार करता हूं क्योंकि तुमने उससे परेम किया है। मुझसे उसकी परेमचचार करो। मुझसे वह बातें कहो जो वह तुमसे किया करती थी।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 30-11-2012, 07:14 PM   #252
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

लेकिन अभी तक उसके हृदय में इन वाक्यबाण की नोक निरन्तर चुभ रही थी-थायस मर रही है !
फिर वह परेमोन्मत्त होकर कहने लगा-ओ दिन के उजाले ! ओ निशा के आकाशदीपकों की रौप्य छटा, ओ आकाश, ओ झूमती हुई चोटियों वाले वृक्षों! ओ वनजन्तुओं ! ओ गृहपशुओं ! ओ मनुष्यों के चिन्तित हृदयों ! क्या तुम्हारे कान बहरे हो गये हैं ? तुम्हें सुनाई नहीं देता कि थायस मर रही है ? मन्द समीरण, निर्मल परकाश, मनोहर सुगन्ध ! इनकी अब क्या जरूरत है ? तुम भाग जाओ, लुप्त हो जाओ ! ओ भूमण्डल के रूप और विचार ! अपने मुंह छिपा लो, मिट जाओ ! क्या तुम नहीं जानते कि थायस मर रही है ? वह संसार के माधुर्य का केन्द्र थी जो वस्तु उसके समीप आती थी वह उसकी रूपज्योति से परतिबिम्बित होकर चमक उठती थी। इस्कन्द्रिया के भोज में जितने विद्वान्, ज्ञानी, वृद्ध उसके समीप बैठते थे उनके विचार कितने चित्ताकर्षक थे, उनके भाषण कितने सरस ! कितने हंसमुख लोग थे ! उनके अधरों पर मधुर मुस्कान की शोभा थी और उनके विचार आनन्दभोग की सुगन्ध में डूबे हुए थे। थायस की छाया उनके ऊपर थी, इसलिए उनके मुख से जो कुछ निकलता वह सुन्दर, सत्य और मधुर होता था ! उनके कथन एक शुभर अभक्ति से अलंकृत हो जाते थे। शोक ! वह शोक सब अब स्वप्न हो गया। उस सुखमय अभिनय का अन्त हो गया। थायस मर रही है ! वह मौत मुझे क्यों नहीं आती। उसकी मौत से मरना मेरे लिए कितना स्वाभाविक और सरल है ! लेकिन ओ अभागे, निकम्मे, कायर पुरुष, ओ निराश और विषाद में डूबी हुई दुरात्मा, क्या तू मरने के लिए ही बनायी गयी है ? क्या तू समझता है कि तू मृत्यु का स्वाद रख सकेगा ? जिसने अभी जीवन का मर्म नहीं जाना, वह मरना क्या जाने ? हां, अगर ईश्वर है, और मुझे दण्ड दे, तो मैं करने को तैयार हूं। सुनता है ओ ईश्वर, मैं तुझसे घृणा करता हूं सुनता है ! मैं तुझे कोसता हूं! मुझे अपने अग्निवजरों से भस्म कर दे, मैं इसका इच्छुक हूं, यहां मेरी बड़ी अभिलाषा है। तू मुझे अग्निकुण्ड में डाल दे। तुझे उत्तेजित करने के लिए, देख, मैं तेरे मुख पर थूकता हूं। मेरे लिए अनन्त नरकवास की जरूरत है। इसके बिना यह अपार त्र्कोध शान्त न होगा जो मेरे हृदय में खड़क रहा है।
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Old 30-11-2012, 07:15 PM   #253
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

दूसरे दिन परातःकाल अलबीना ने पापनाशी को अपने आश्रम में खड़े पाया। वह उसका स्वागत करती हुई बोली-'पूज्य पिता, हम अपने शान्तिभवन में तुम्हारा स्वागत करते हैं, क्योंकि आप अवश्य ही उस विदुषी की आत्मा को शान्ति परदान करने आये हैं जिसे अपने यहां आश्रम दिया है। आपको विदित होगा कि ईश्वर ने अपनी असीम कृपा से उसे अपने पास बुलाया है। यह समाचार आपसे क्योंकर छिपा रह सकता था जिसे स्वर्ग के दूतों ने मरुस्थल के इस सिरे से उस सिरे तक पहुंचा दिया है ? यथार्थ में थायस का शुभ अंत निकट है। उसके आत्मोद्घार की त्रि्कया पूरी हो गयी और मैं सूक्ष्मतः आप पर यह परकट कर देना उचित समझती हूं कि जब तक वह यहां रही, उसका व्यवहार और आचरण कैसा रहा। आपके चले जाने के पश्चात जब वह अपनी मुहर लगाई हुई कुटी में एकान्त सेवन के लिए रखी गयी, तो मैंने उसके भोजन के साथ बांसुरी भी भेज दी, जो ठीक उसी परकार की थी जैसी नर्तकियां भोज के अवसरों पर बजाया करती हैं। मैंने यह व्यवस्था इसलिए की जिसमें उसका चित्त उदास न हो और वह ईश्वर के सामने उससे कम संगीतचातुर्य और कुशागरता न परकट करे जितनी वह मनुष्यों के सामने दिखाती थी। अनुभव से सिद्ध हुआ कि मैंने व्यवस्था करने में दूरदर्षिता और चरित्रपरिचय से काम लिया, क्योंकि थायस दिनभर बांसुरी बजाकर ईश्वर का कीर्तिगान करती रहती थी और अन्य देवकन्याएं, जो उसकी वंशी की ध्वनि से आकर्षित होती थीं, कहतीं-हमें इस गान में स्वर्गकुंजों की बुलबुल की चहक का आनन्द मिलता है ! उसके स्वर्गसंगीत से सारा आश्रम गुंजरित हो जाता था। पथिक भी अनायास खड़े होकर उसे सुनकर अपने कान पवित्र कर लेते थे। इस भांति थायस तपश्चयार करती रही। यहां तक कि साठ दिनों के बाद वह द्वार जिस पर आपने मुंहर लगा दी थी, आपही-आप खुल गया और वह मिट्टी की मुहर टूट गयी। यद्यपि उसे किसी मनुष्य ने छुआ तक नहीं। इस लक्षण से मुझे ज्ञात हुआ कि आपने उसके लिए जो परायश्चित नियत किया था, वह पूरा हो गया और ईश्वर ने उसके सब अपराध क्षमा कर दिये। उसी समय से वह मेरी अन्य देवकन्याओं के साधारण जीवन में भाग लेने लगी है। उन्हीं के साथ कामधन्धा करती है, उन्हीं के साथ ध्यानउपासना करती है। वह अपने वचन और व्यवहार की नमरता से उनके लिए एक आदर्शचरित्र थी, और उनके बीच में और व्यवहार की नमरता से उनके लिए एक आदर्शचरित्र थी, और उनके बीच में पवित्रता की एक मूर्तिसी जान पड़ती थी। कभीकभी वह मनमलिन हो जाती थी, किन्तु वे घटाएं जल्द ही कट जाती थीं और फिर सूर्य का विहसित परकाश फैल जाता था। जब मैंने देखा कि उसके हृदय में ईश्वर के परति भक्ति, आशा और परेम के भाव उदित हो गये हैं तो फिर मैंने उनके अभिनयकलानैपुण्य का उपयोग करने में विलम्ब नहीं किया। यहां तक कि मैं उसके सौन्दर्य को भी उसकी बहनों की धमोर्न्नति के लिए काम में लाई। मैंने उससे सद्गरंथ में वर्णित देवकन्याओं और विदुषियों की कीर्तियों का अभिनय करने के लिए आदेश किया। उसने ईश्वर, डीबोरा, जूडिथ, लाजरस की बहन मरियम, तथा परभु मसीह की माता मरियम का अभिनय किया। पूज्य पिता, मैं जानती हूं कि आपका संयमशील मन इन कृत्यों के विचार ही से कम्पित होता है, लेकिन आपने भी यदि उसे इन धार्मिक दृश्यों में देखा होता तो आपका द्गदय पुलकित हो जाता। जब वह अपने खजूर के पत्तों से सुन्दर हाथ आकाश की ओर उठाती थी, तो उसके लोचनों से सच्चे आंसुओं की वर्षा होने लगती थी। मैंने बहुत दिनों तक स्त्रीसमुदाय पर शासन किया है और मेरा यह नियम है कि उनके स्वभाव और परवृत्तियों की अवहेलना न की जाय। सभी बीजों में एक समान फूल नहीं लगते, न सभी आत्माएं समान रूप में निवृत्त होती हैं। यह बात भी न भूलनी चाहिए कि थायस ने अपने को ईश्वर के चरणों पर उस समय अर्पित किया जब उसका मुखकमल पूर्ण विकास पर था और ऐसा आत्मसमर्पण अगर अद्वितीय नहीं, तो विरला अवश्य है। यह सौन्दर्य जो उसका स्वाभाविक आवरण है, तीस मास के विषम ताप पर भी अभी तक निष्परभ नहीं हुआ है। अपनी इस बीमारी में उसकी निरन्तर यही इच्छा रही है कि आकाश को देखा करे। इसलिए मैं नित्य परातःकाल उसे आंगन में कुएं के पास, पुराने अंजीरे के वृक्ष के नीचे, जिसकी छाया में इस आश्रम की अधिष्ठात्रियां उपदेश किया करती हैं, ले जाती हूं। दयालु पिता, वह आपको वहीं मिलेगी। किन्तु जल्दी कीजिए, क्योंकि ईश्वर का आदेश हो चुका है और आज की रात वह मुख कफन से ंक जायेगा जो ईश्वर ने इस जगत को लज्जित और उत्साहित करने के लिए बनाया है। यही स्वरूप आत्मा का संहार करता था, यही उसका उद्घार करेगा।
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Old 30-11-2012, 07:16 PM   #254
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी अलबीना के पीछेपीछे आंगन में गया जो सूर्य के परकाश से आच्छादित हो रहा था। ईंटों की छत के किनारों पर श्वेत कपोतों की एक मुक्तामालासी बनी हुई थी। अंजीर के वृक्ष की छांह में एक शय्या पर थायस हाथपर-हाथ रखे लेटी हुई थी। उसका मुख श्रीविहीन हो गया था। उसके पास कई स्त्रियां मुंह पर नकाब डाले खड़ी अन्तिम संस्कारसूचक गीत गा रही थीं-
'परम पिता, मुझ दीन पराणी पर
अपनी सपरेम वत्सलता से दया कर।
अपनी करुणादृष्टि से
मेरे अपराधों को क्षमा कर।'
पापनाशी ने पुकारा-'थायस !'
थायस ने पलकें उठायी और अपनी आंखों की पुतलियां उस कंठध्वनि की ओरफेरीं।
अलबीना ने देवकन्याओं को पीछे हट जाने की आज्ञा दी, क्योंकि पापनाशी पर उनकी छाया पड़ना भी धर्मविरुद्ध था।
पापनाशी ने फिर पुकारा-'थायस।'
उसने अपना सिर धीरेसे उठाया। उसके पीले होंठों से एक हल्की सांस निकलआयी।
उसने क्षीण स्वर में कहा-'पिता, क्या आप हैं ? आपको याद है कि हमने सोते से पानी पिया था और छुहारे तोड़े थे ? पिता, उसी दिन मेरे हृदय में परेम का अभ्युदय हुआ- अनन्त जीवन के परेम का !'
यह कहकर वह चुप हो गयी। उसका सिर पीछे को झुक गया।
यमदूतों ने उसे घेर लिया था और इन्तिम पराणवेदना श्वेत बूंदों ने उसके माथे को आर्द्र कर दिया था। एक कबूतर अपने अरुण त्र्कन्दन से उस स्थान की नीरवता भंग कर रहा था। तब पापनाशी की सिसकियां देवकन्याओं के भजनों के साथ सम्मिश्रत हो गयीं।
'मुझे मेरी कालिमाओं से भलीभांति पवित्र कर दे और मेरे पापों को धो दे, क्योंकि मैं अपने कुकर्मों को स्वीकार करती हूं, और मेरे पातक मेरे नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हैं।'
सहसा थायस उठकर शय्या पर बैठ गयी। उसकी बैंगनी आंखें फैल गयीं, और वह तल्लीन होकर बांहों को फैलाये हुए दूर की पहाड़ियों की ओर ताकने लगी। तब उसने स्पष्ट और उत्फुल्ल स्वर में कहा-'वह देखो, अनन्त परभात के गुलाब खिले हैं।'
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Old 30-11-2012, 07:16 PM   #255
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति आ गयी, उसके मुख पर हल्कासा रंग छा गया। उसकी जीवनज्योति चमक उठी थी, और वह पहले से भी अधिक सुन्दर और परसन्नवदन हो गयी थी।
पापनाशी घुटनों के बल बैठ गया; अपनी लम्बी, पतली बांहें उसके गले में डाल दीं, और बोला-ऐसे स्वरों में जिसे स्वयं न पहचान सकता था कि यह मेरी ही आवाज है- 'पिरये, अभी मरने का नाम न ले ! मैं तुझ पर जान देता हूं। अभी न मर ! थायस, सुन, कान धरकर सुन, मैंने तेरे साथ छल किया है, तुझे दगा दिया है। मैं स्वयं भरांति में पड़ा हुआ था। ईश्वर, स्वर्ग आदि यह सब निरर्थक शब्द हैं, मिथ्या हैं। इस ऐहिक जीवन से ब़कर और कोई वस्तु; और कोई पदार्थ नहीं है। मानवपरेम ही संसार में सबसे उत्तम रत्न है। मेरा तुझ पर अनन्त परेम है। अभी न मर। यह कभी नहीं हो सकता, तेरा महत्त्व इससे कहीं अधिक है, तू मरने के लिए बनाई ही नहीं गयीं। आ, मेरे साथ चल ! यहां से भाग चलें। मैं तुझे अपनी गोद में उठाकर पृथ्वी की उस सीमा तक ले जा सकता हूं। आ, हम परेम में मग्न हो जायें। पिरये, सुन, मैं क्या कहता हूं। एक बार कह दे, मैं जिऊंगी-मैं जीना चाहती हूं ! थायस उठ, उठ !'
थायस ने एक शब्द भी न सुना। उसकी दृष्टि अनन्त की ओर लगी हुई थी।
अन्त में वह निर्बल स्वर में बोली-'स्वर्ग के द्वार खुल रहे हैं, मैं देवदूतों को, नबियों को और सन्तों को देख रही हूं-मेरा सरल हृदय थियोडर उन्हीं में है। उसके सिर पर फूलों का मुकुट है, वह मुस्कराता है, मुझे पुकार रहा है। दो देवदूत मेरे पास आये हैं, वह इधर चले आ रहे हैं....वह कितने सुन्दर हैं ! मैं ईश्वर के दर्शन कर रही हूं !'
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Old 30-11-2012, 07:17 PM   #256
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

उसने एक परफुल्ल उच्छवास लिया और उसका सिर तकिये पर पीछे गिर पड़ा। थायस का पराणान्त हो गया ! सब देखते ही रह गये, चिड़िया उड़ गयी।
पापनाशी ने अंतिम बार, निराश होकर, उसको गले से लगा लिया। उसकी आंखें उसे तृष्णा, परेम और त्र्कोध से फाड़े खाती थीं।
अलबीना ने पापनाशी से कहा-'दूर हो, पापी पिशाच !'
और उसने बड़ी कोमलता से अपनी उंगलियां मृत बालिका की पलकों पर रखीं। पापनाशी पीछे हट गया, जैसे किसी ने धक्का दे दिया हो। उसकी आंखों में ज्वाला निकल रही थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके पैरों के तले पृथ्वी फट गयी है।
देवकन्याएं जकरिया का भजन गा रही थीं-
'इजराइलियों के खुदा को कोटि धन्यवाद !'
अकस्मात उनके कंठ अवरुद्ध हो गये, मानो किसी ने गला बन्द कर दिया। उन्होंने दादुर!!!
वह इतना घिनौना हो गया था कि जब उसने अपना हाथ अपने मुंह पर फेरा, तो उसे स्वयं ज्ञात हुआ कि उसका स्वरूप कितना विकृत हो गया है !


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