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Old 29-06-2013, 09:39 AM   #301
Dark Saint Alaick
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Default Re: पथ के दावेदार

वास्तव में साथ जाना अत्यंत संकटपूर्ण काम था, इसमें संदेह नहीं था। इसीलिए डॉक्टर ने भी जिद नहीं की। लेकिन भारती के चले जाने के बाद भी वह नदी किनारे स्थिर भाव से खड़े रहे।

घर पहुंचकर भारती ने ताला खोलकर अंदर कदम रखा। दीपक जलाकर चारों ओर सावधानी से निरीक्षण किया। उसके बाद किसी तरह बिछौना बिछाकर लेट गई। शरीर थक गया था। दोनों आंखें थकान से मुंदी जा रही थीं। लेकिन उसे किसी भी तरह नींद नहीं आई। घूम फिर कर सव्ययाची की यही बात उसे बराबार याद आने लगी कि परिवर्तनशील संसार में सत्य की उपलब्धि नाम की कोई शाश्वत वस्तु नहीं है। जन्म है, मरण है, युग-युग में, समय-समय पर उसे नया रूप धाारण करके आना पड़ता है। अतीत के सत्य को वर्तमान में भी सत्य स्वीकार करना चाहिए, यह विश्वास भ्रांत है। यह धारणा कुसंस्कार है।

भारती मन-ही-मन बोली-मानव की आवश्यकता के लिए अर्थात भारत की स्वाधीनता की आवश्यकता के लिए नए सत्य की सृष्टि करना ही भारतवासियों के लिए सबसे बड़ा सत्य है। अर्थात इसके सामने कोई भी असत्य नहीं है। कोई भी उपाय या कोई भी अभिसंधि हेय नहीं है। यह जो कारखानों के गंदे कुली-मजदूरों को सत्य मार्ग पर लाने का उद्यम है, यह जो उनकी संतान को विद्या-शिक्षा देने का आयोजन है, उनके लिए यह जो रात्रि पाठशालाएं हैं, इन सबका लक्ष्य कुछ और ही है। इस बात को निस्संकोच स्वीकार कर लेने में सव्यसाची को कोई दुविधा नहीं हुई। लज्जा मालूम नहीं हुई। पराधीन देश की मुक्ति-यात्रा में पथ चुनने की छानबीन कैसी?

एक दिन सव्यसाची ने कहा था, 'पराधीन देश में शासकों और शासितों की नैतिक बुध्दि जब एक हो जाती है तब देश के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य की और कोई भी बात नहीं होती भारती।' उस दिन इस बात का अर्थ नहीं समझ सकी थी। आज वह मतलब उसके सामने स्पष्ट प्रकट हो गया।
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Old 29-06-2013, 09:39 AM   #302
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Default Re: पथ के दावेदार

घड़ी में तीन बज गए। इसके बाद वह कब सो गई, पता नहीं, लेकिन उसे यह याद रहा कि नींद के आवेश में उसने बार-बार यह दोहराया था कि भैया, तुम अति मानव हो। तुम्हारे ऊपर मेरी भक्ति, श्रध्दा और स्नेह हमेशा अचल बना रहेगा। लेकिन तुम्हारी इस विचार बुध्दि को मैं किसी तरह भी ग्रहण न कर सकूंगी। भगवान करे, तुम्हारे हाथों से ही देश को मुक्ति मिले। लेकिन अन्याय को कभी न्याय की मूर्ति बनाकर खड़ा मत करना। तुम महान पंडित हो। तुम्हारी बुध्दि की सीमा नहीं है। तर्क में तुमको जीता नहीं जा सकता। तुम सब कुछ कर सकते हो। विदेशियों के हाथ से, पराधीनों के हाथ से, पराधीनों को जितनी लांछना मिलती है, दु:ख के इस सागर में हमारा प्रयोजन कितना है। देश की लड़की होकर क्या मैं यह नहीं जानती भैया? इसलिए अगर आवश्यकता को ही सर्वोच्च स्थान देकर दुर्बल चित्त मनुष्यों के सामने अधर्म को ही धर्म बना डालोगे तो फिर इस दु:ख का तुम्हें कभी अंत ही नहीं मिलेगा।

दूसरे दिन जब भारती की नींद टूटी, दिन चढ़ चुका था। लड़के दरवाजे के बाहर खड़े होकर पुकार रहे थे। झटपट हाथ-मुंह धोकर वह नीचे आ गई। दरवाजा खोलते ही कुछ छात्र-छात्राएं पुस्तकें-स्लेटें लिए अंदर आ गए। उन्हें बैठने को कहकर भारती कपड़े बदलने ऊपर जा रही थी कि तभी होटल के मालिक सरकार महाराज आ गए। बोले, “अपूर्व तुम को कल रात से ही....।”

भारती ने बात काटकर पूछा, “रात को आए थे?”

महाराज बोला, “आज भी सवेरे से बैठे हैं। भेज दूं?”

भारती का मुंह उतर गया। बोली, “मुझसे उन्हें क्या काम है?”

ब्राह्मण ने कहा, “वह तो मैं नहीं जानता बहिन जी। शायद उनकी मां बीमार हैं। उसी के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं।”
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Old 29-06-2013, 09:39 AM   #303
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भारती अप्रसन्नता से बोली, “मां बीमार हैं तो मैं क्या करूं?”

ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गया। अपूर्व बाबू को वह अच्छी तरह पहचानता था। वह सम्भ्रांत व्यक्ति हैं। पिछले दिनों इसी घर में उनके स्वागत-सत्कार की कोई कमी नहीं थी। लेकिन आज इस असंतोष भरे भाव का कारण वह नहीं समझ सका। बोला, “मैं जाकर उनको भेज देता हूं।”

यह कहकर वह जाने लगा तो भारती बोली, “इस समय लड़के-लड़कियां आ गए हैं। उनको पढ़ाना है। कह दो इस समय भेंट नहीं होगी।”

ब्राह्मण बोला, “फिर दोपहर या शाम को मिलने के लिए कह दूं?”

भारती बोली, “नहीं, मेरे पास समय नहीं है।”

इस प्रस्ताव को यहीं समाप्त करके वह ऊपर चली गई।

स्नान करने के बाद तैयार होकर घंटे भर बाद वह जब नीचे उतरी तब तक लड़के-लड़कियों से कमरा भर गया था और उनके पढ़ने की आवाजों से सारा मुहल्ला गूंज उठा था। भारती पढ़ाने के लिए बैठी लेकिन मन नहीं लगा। पाठ देने में और सुनने में उसे आज केवल असफलता ही नहीं बल्कि आत्मवंचना-सी मालूम होने लगी और सभी भावनाओं के बीच-बीच में आकर लगातार बाधा पहुंचाने लगी अपूर्व की चिंता। उसे इस प्रकार लौटा देना अशोभनीय ही क्यों न हो, उसे प्रश्रय देना बहुत बुरा है। इस विषय में भारती के मन में किसी भी बहाने से भेंट करके वह पहले के अस्वाभाविक संबंध को और भी विकृत कर देना चाहता है। नहीं तो अगर मां बीमार है तो वह यहां बैठा क्या कर रहा है? मां तो उसकी है, भारती की तो है नहीं।
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Old 29-06-2013, 09:39 AM   #304
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उनकी खतरनाक बीमारी का समाचार पहुंचाकर उनकी रोग-शय्या के पास पहुंचना पुत्र का प्रथम और प्रधान कर्त्तव्य है। यह विषय क्या दूसरे से परामर्श करके समझना होगा? उसे यह बात याद आ गई कि रोग के मामले में अपूर्व बहुत डरता है। उसका कोमल मन व्यथा से व्याकुल होकर बाहर से कितना ही क्यों न छटपटाता रहे, रोगी की सेवा करने की उसमें न तो शक्ति है न साहस। यह भार उस पर सौंप देने के समान सर्वनाश और नहीं है। भारती यह सब जानती थी। वह यह भी जानती थी कि अपनी मां को अपूर्व कितना प्यार करता है। मां के लिए वह जो न कर सके ऐसा कोई भी काम संसार में उसके लिए नहीं है।

उनके ही पास न जा सकने का अपूर्व को कितना दु:ख है। इसकी कल्पना करके एक ओर उसके मन में जिस प्रकार करुणा पैदा हुई दूसरी ओर इस असहनीय भीरुता से, क्रोध के मारे उसका सारा शरीर जलने लगा।

भारती ने मन-ही-मन कहा, “सेवा नहीं कर सकता तो क्या इसी कारण बीमार मां के पास जाने में कोई लाभ नहीं है? इसी उपदेश की क्या अपूर्व मुझसे प्रत्याशा करता है?”

भूख न होने के कारण आज भारती ने रसोई बनाने की चेष्टा नहीं की।

दिन का जब तीसरा पहर बीत चला तब एक घोड़ागाड़ी आकर उसके दरवाजे पर खड़ी हो गई। भारती ने ऊपर की खिड़की से देखा तो आश्चर्य और आशंका से उसका हृदय भर उठा। गठरी-पोटरी आदि अपना सारा समान गाड़ी की छत पर लादकर शशि आ धमका था। पिछली रात के हंसी-मजाक को संसार में कोई भी मनुष्य ऐसी वास्तविकता में परिवर्तित कर सकता है शायद भारती इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।

भारती नीचे उतरकर बोली, “यह क्या शशि बाबू?”
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Old 29-06-2013, 09:40 AM   #305
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शशि बोला, “मकान छोड़कर आ रहा हूं।” फिर गाड़ीवान को आदेश दिया, “सामान ऊपर ले जाओ।”

भारती बोली, “ऊपर जगह कहां है शशि बाबू?”

शशि बोला, “बहुत अच्छा, तो नीचे के कमरे में रख दो।”

भारती बोली, “नीचे के कमरे में तो पाठशाला है।”

शशि चिंतित हो उठा।

भारती ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, “एक काम किया जाए शशि बाबू! होटल में डॉक्टर का कमरा खाली है। आप वहां अच्छी तरह रहेंगे। खाने-पीने का भी कष्ट नहीं होगा। चलिए।”

“लेकिन कमरे का किराया तो देना होगा?”

भारती हंसकर बोली,'नहीं। भैया छ: महीने का किराया दे गए हैं।”

शशि प्रसन्न न होते हुए भी इस व्यवस्था से सहमत हो गया। सारे सामान के साथ कवि को महाराज के होटल में प्रतिष्ठित करके भारती ऊपर अपने सोने के कमरे में लौट आई।
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Old 29-06-2013, 09:40 AM   #306
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दूसरे दिन जब नींद टूटी तब भूखे रहने के कारण कमजोरी से उसका शरीर थका हुआ था।

जिस आदमी से भारती की मां ने विवाह किया था वह बड़ा दुराचारी था। उसके साथ इकट्ठे बैठकर ही भारती को भोजन करना पड़ता था। फिर भी किसी बासी या अस्वच्छ वस्तु को उसने कभी अपना खाद्य पदार्थ नहीं बनाया, छुआछूत की भावना उसमें नहीं थी लेकिन जहां-तहां, जिस-तिस के हाथों का भोजन ग्रहण करते हुए उसे घृणा होती थी। मां की मृत्यु के बाद से वह अपने ही हाथ से रसोई बनाकर खाती थी। लेकिन आज रसोई बना पाने की शक्ति उसके शरीर में नहीं थी। इसलिए होटल में रोटी और कुछ तरकारी तैयार कर देने के लिए उसने महाराज के पास सूचना भेज दी।

दासी भोजन की थाली लेकर आई तो भारती ने अपनी थाली और कटोरी लाकर मेज पर रख दी। दासी ने दूर ही से उसकी थाली में रोटी और कटोरी में तरकारी डालकर कहा, “लो भोजन कर लो।”

भारती ने बड़ी नर्मी से कहा, “तुम जाओ, मैं खा लूंगी।”

दासी बोली, “जाती हूं। नौकर तो उनके साथ चला गया था। अकेले सब धोना-मांजना-जो हो, लौटकर बीस रुपए मेरे हाथ में देकर बाबू रोकर बोले, 'दाई, अंत समय में तुमने जो किया, उतना मां की बेटी भी पास रहते हुए नहीं कर सकती थी।' वह रोने लगे तो मैं भी रोने लगी। बहिन जी, आह, कितना कष्ट उठाया। परदेश की भूमि, कोई अपना आदमी पास नहीं। समंदर का रास्ता, तार भेज देने से ही तो बहू-बेटे उड़कर आ नहीं सकते थे। उन लोगों का भी क्या दोष है।”

भारती का हृदय उद्वेग और अज्ञात आशंका से बर्फ-सा हो गया लेकिन मुंह खोलकर वह कुछ भी न पूछ सकी।
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दासी कहने लगी, “महाराज जी ने बुलाकर कहा, 'बाबू की मां बहुत बीमार हैं, तुमको वहां जाना पड़ेगा ज्ञाना।' मैं तब नहीं, न कह सकी। एक तो निमोनिया की बीमारी, उस पर धर्मशाला की भीड़। जंगले-किवाड़ सब टूटे हुए। एक भी बंद नहीं होता था.....कैसा संकट। पांच बजने पर प्राण निकल गए। लेकिन मेस के बाबूओं को खबर देते, बुलाते-बुलाते शव उठा रात को दो-ढाई बजे। उनके लौटकर आने पर दिन चढ़ आया था। अकेली मुझे ही सब धोना-पोंछना....।”

भारती ने पूछा, “क्या अपूर्व बाबू की मां मर गई?”

दासी ने गर्दन हिलाकर कहा, “हां बहिन जी, मानो उनके लिए बर्मा में जमीन खरीद ली गई थी। वही जो एक कहावत है-'ताहि तहां ले जाए।' ठीक यही बात हुई। इधर से अपूर्व बाबू ने प्रस्थान किया, उधर वह भी लड़के से झगड़ा करके जहाज पर बैठ गईं। बस एक नौकर साथ था। जहाज ही में बुखार आ गया। धर्मशाला में उतरते ही एकदम बेहोशी छा गई। घर पहुंचते ही बाबू वापसी जहाज से लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा, मां जा रही है। वास्तव में चली ही गईं। लेकिन अब बातें करने का समय नहीं है बहिन जी, इसी समय सभी बाहर निकल पड़ेंगे। फिर शाम को आऊंगी।” कहकर वह चली गई।
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