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Old 30-11-2012, 03:04 PM   #11
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी-बन्धुवर, जहां भगवान की चचार होती है वहां भगवान अवश्य वर्तमान रहते हैं। हमारा धर्म है कि अपने सम्भाषणों में भी ईश्वर की स्तुति ही किया करें। मैं इस समय ईश्वर की कीर्ति परसारित करने के लिए एक परस्ताव लेकर आपकी सेवा में उपस्थिति हुआ हूं।
पालम-'बन्धु पापनाशी, भगवान तुम्हारे परस्ताव को मेरे काहू के बेलों की भांति सफल करे। वह नित्य परभात को मेरी वाटिका पर ओसबिन्दुओं के साथ अपनी दया की वर्षा करता है और उसके परदान किए हुए खोरों और खरबूजों का आस्वादन करके मैं उसके असीम वात्सल्य की जयजयकार मानता हूं। उससे यही याचना करनी चाहिए कि हमें अपनी शान्ति की छाया में रखे क्योंकि मन को उद्विग्न करने वाले भीषण दुरावेगों से अधिक भयंकर और कोई वस्तु नहीं है। जब यह मनोवेग जागृत हो जाते हैं तो हमारी दशा मतवालों कीसी हो जाती है, हमारे पैर लड़खड़ाने लगते हैं और ऐसा जान पड़ता है कि अब औंधे मुंह गिरे ! कभीकभी इन मनोवेगों के वशीभूत होकर हम घातक सुखभोग में मग्न हो जाते हैं। लेकिन कभीकभी ऐसा भी होता है कि आत्मवेदना और इन्द्रियों की अशांति हमें नैराश्यनद में डुबा देती हैं, जो सुखभोग से कहीं सर्वनाशक है। बन्धुवर, मैं एक महान पापी पराणी हूं, लेकिन मुझे अपने दीर्घ जीवनकाल में यह अनुभव हुआ है कि योगी के लिए इस मलिनता से बड़ा और कोई शत्रु नहीं है। इससे मेरा अभिपराय उस असाध्य उदासीनता और क्षोभ से है जो कुहरे की भांति आत्मा पर परदा डाले रहती है और ईश्वर की ज्योति को आत्मा तक नहीं पहुंचने देती। मुक्तिमार्ग में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है, और असुरराज की सबसे बड़ी जीत यही है कि वह एक साधु पुरुष के हृदय में क्षुब्ध और मलिन विचार अंकुरित कर दे। यदि वह हमारे ऊपर मनोहर परलोभनों ही से आक्रमण करता तो बहुत भय की बात न थी। पर शोक ! वह हमें क्षुब्ध करके बाजी मार ले जाता है। पिता एण्तोनी को कभी किसी ने उदास या दुःखी नहीं देखा। उनका मुखड़ा नित्य फूल के समान खिला रहता था। उनके मधुर मुसकान ही से भक्तों के चित्त को शान्ति मिलती थी। अपने शिष्यों में कितने परसन्न मुसकान चित्त रहते थे। उनकी मुखकान्ति कभी मनोमालिन्य से धुंधली नहीं हुई। लेकिन हां, तुम किसी परस्ताव की चचार कर रहे थे ?'
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी-बन्धु पालम, मेरे परस्ताव का उद्देश्य केवल ईश्वर के माहात्म्य को उज्ज्वल करना है। मुझे अपने सद्परामर्श से अनुगृहीत कीजिए, क्योंकि आप सर्वज्ञ है और पाप की वायु ने कभी आपको स्पर्श नहीं किया।
पालम-बन्धु पापनाशी, मैं इस योग्य भी नहीं हूं कि तुम्हारे चरणों की रज भी माथे पर लगाऊं और मेरे पापों की गणना मरुस्थल के बालुकणों से भी अधिक है। लेकिन मैं वृद्ध हूं और मुझे जो अनुभव है, उससे तुम्हारी सहर्ष सेवा करुंगा।'
पापनाशी-'तो फिर आपसे स्पष्ट कह देने में कोई संकोच नहीं है कि मैं इस्कन्द्रियः में रहने वाली थायस नाम की एक पवित्र स्त्री की अधोगति से बहुत दुःखी हूं। वह समस्त नगर के लिए कलंक है और अपने साथ कितनी ही आत्माओं का सर्वनाश कर रही है।
पालम-'बन्धु पापनाशी, यह ऐसी व्यवस्था है जिस पर हम जितने आंसू बहायें कम हैं। भद्रश्रेणी में कितनी ही रमणियों का जीवन ऐसा ही पापमय है। लेकिन इस दुरवस्था के लिए तुमने कोई निवारणविधि सोची है ?'
पापनाशी-बन्धु पालम, मैं इस्कन्द्रिया जाऊंगा, इस वेश्या की तलाश करुंगा और ईश्वर की सहायता से उसका उद्घार करुंगा। यही मेरा संकल्प है। आप इसे उचित समझते हैं ?'
पालम-'पिरय बन्धु, मैं एक अधम पराणी हूं किन्तु हमारे पूज्य गुरु एण्तोनी का कथन था कि मनुष्य को अपना स्थान छोड़कर कहीं और जाने के लिए उतावली न करनीचाहिए।'
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी-'पूज्य बन्धु, क्या आपको मेरा परस्ताव पसन्द नहीं है ?'
पालम-'पिरय पापनाशी, ईश्वर न करे कि मैं अपने बन्धु के विशुद्ध भावों पर शंका करुं, लेकिन हमारे श्रद्धेय गुरु एण्तोनी का यह भी कथन था कि जैसे मछलियां सूखी भूमि पर मर जाती हैं, वही दशा उन साधुओं की होती है जो अपनी कुटी छोड़कर संसार के पराणियों से मिलतेजुलते हैं। वहां भलाई की कोई आशा नहीं।'
यह कहकर संत पालम ने फिर कुदाल हाथ में ली और धरती गोड़ने लगे। वह फल से लदे हुए एक अंजीर के वृक्ष की जड़ों पर मिट्टी च़ा रहे थे। वह कुदाल चला ही रहे थे कि झाड़ियों में सनसनाहट हुई और एक हिरन बाग के बाड़े के ऊपर से कूदकर अन्दर आ गया। वह सहमा हुआ था, उसकी कोमल टांगें कांप रही थीं। वह सन्त पालम के पास आया और अपना मस्तक उनकी छाती पर रख दिया।
पालम ने कहा-'ईश्वर को धन्य है जिसने इस सुन्दर वनजन्तु की सृष्टि की।'
इसके पश्चात पालम सन्त अपने झोंपड़े में चले गये। हिरन भी उनके पीछेपीछे चला। सन्त ने तब ज्वार की रोटी निकाली और हिरन को अपने हाथों से खिलायी।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी कुछ देर तक विचार में मग्न खड़ा रहा। उसकी आंखें अपने पैरों के पास पड़े हुए पत्थरों पर जमी हुई थीं। तब वह पालम सन्त की बातों पर विचार करता हुआ धीरेधीरे अपनी कुटी की ओर चला। उसके मन में इस समय भीषण संगराम हो रहा था। उसने सोचा-सन्त पालम की सलाह अच्छी मालूम होती है। वह दूरदर्शी पुरुष हैं। उन्हें मेरे परस्ताव के औचित्य पर संदेह है, तथापि थायस को घात पिशाचों के हाथों में छोड़ देना घोर निर्दयता होगी। ईश्वर मुझे परकाश और बुद्धि दे।
चलतेचलते उसने एक तीतर को जाल में फंसे हुए देखा जो किसी शिकारी ने बिछा रखा था। यह तीतरी मालूम होती थी, क्योंकि उसने एक क्षण में नर को जाल के पास उड़कर और जाल के फन्दे को चोंच से काटते देखा, यहां तक कि जाल में तीतरी के निकलने भर का छिद्र हो गया। योगी ने घटना को विचारपूर्ण नेत्रों से देखा और अपनी ज्ञानशक्ति से सहज में इसका आध्यात्मिक आशय समझ लिया। तीतरी के रूप में थामस थी, जो पापजाल में फंसी हुई थी, और जैसे तीतर ने रस्सी का जाल काटकर उसे मुक्त कर दिया था, वह भी अपने योगबल और सदुपदेश से उन अदृश्य बंधनों को काट सकता था जिनमें थामस फंसी हुई थी। उसे निश्चय हो गया कि ईश्वर ने इस रीति से मुझे परामर्श दिया है। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसका पूर्व संकल्प दृ़ हो गया; लेकिन फिर जो देखा, नर की टांग उसी जाल में फंसी हुई थी जिसे काटकर उसने मादा को निवृत्त किया था तो वह फिर भरम में पड़ गया।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

वह सारी रात करवटें बदलता रहा। उषाकाल के समय उसने एक स्वप्न देखा, थायस की मूर्ति फिर उसके सम्मुख उपस्थित हुई। उसके मुखचन्द्र पर कलुषित विलास की आभा न थी, न वह अपने स्वभाव के अनुसार रत्नजटिल वस्त्र पहने हुए थी। उसका शरीर एक लम्बीचौड़ी चादर से का हुआ था, जिससे उसका मुंह भी छिप गया था केवल दो आंखें दिखाई दे रही थीं, जिनमें से गा़े आंसू बह रहे थे। यह स्वप्नदृश्देखकर पापनाशी शोक से विह्वल हो रोने लगा और यह विश्वास करके कि यह दैवी आदेश है, उसका विकल्प शान्त हो गया। वह तुरन्त उठ बैठा, जरीब हाथ में ली जो ईसाई धर्म का एक चिह्न था। कुटी के बाहर निकला, सावधानी से द्वारबन्द किया, जिसमें वनजन्तु और पक्षी अन्दर जाकर ईश्वरगरन्थ को गन्दा न कर दें जो उसके सिरहाने रखा हुआ था। तब उसने अपने परधान शिष्य फलदा को बुलाया और उसे शेष तेईस शिष्यों के निरीक्षण में छोड़कर, केवल एक ीला ाला चोगा पहने हुए नील नदी की ओर परस्थान किया। उसका विचार था कि लाइबिया होता हुआ मकदूनिया नरेश (सिकन्दर) के बसाये हुए नगर में पहुंच जाऊं। वह भूख, प्यास और थकन की कुछ परवाह न करते हुए परातःकाल से सूयार्स्त तक चलता रहा। जब वह नदी के समीप पहुंचा तो सूर्य क्षितिज की गोद में आश्रय ले चुका था और नदी का रक्तजल कंचन और अग्नि के पहाड़ों के बीच में लहरें मार रहा था।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

वह नदी के तटवर्ती मार्ग से होता हुआ चला। जब भूख लगती किसी झोंपड़ी के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर के नाम पर कुछ मांग लेता। तिरस्कारों, उपेक्षाओं और कटुवचनों को परसन्नता से शिरोधार्य करता था। साधु को किसी से अमर्ष नहीं होता। उसे न डाकुओं का भय था, न वन के जन्तुओं का, लेकिन जब किसी गांव या नगर के समीप पहुंचता तो कतराकर निकल जाता। वह डरता था कि कहीं बालवृन्द उसे आंखमिचौली खेलते हुए न मिल जाएें अथवा किसी कुएं पर पानी भरने वाली रमणियों से सामना न हो जाए जो घड़ों को उतारकर उससे हासपरिहास कर बैठें। योगी के लिए यह सभी शंका की बातें हैं, न जाने कब भूतपिशाच उसके कार्य में विघ्न डाल दें। उसे धर्मगरन्थों में यह पॄकर भी शंका होती है कि भगवान नगरों की यात्रा करते थे और अपने शिष्यों के साथ भोजन करते थे। योगियों की आश्रमवाटिका के पुष्प जितने सुन्दर हैं, उतने ही कोमल भी होते हैं, यहां तक कि सांसारिक व्यवहार का एक झोंका भी उन्हें झुलसा सकता है, उनकी मनोरम शोभा को नष्ट कर सकता है। इन्हीं कारणों से पापनाशी नगरों और बस्तियों से अलगअलग रहता था कि अपने स्वजातीय भाईयों को देखकर उसका चित्त उनकी ओर आकर्षित न हो जाए।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

वह निर्जन मार्गों पर चलता था। संध्या समय जब पक्षियों का मधुर कलरव सुनाई देता और समीर के मन्द झोंके आने लगते तो अपने कनटोप को आंखों पर खींच लेता कि उस पर परकृतिसौन्दर्य का जादू न चल जाए। इसके परतिकूल भारतीय ऋषिमहात्मा परकृतिसौन्दर्य के रसिक होते थे। एक सप्ताह की यात्रा के बाद वह सिलसिल नाम के स्थान पर पहुंचा। वहां नील नदी एक संकरी घाटी में होकर बहती है और उसके तट पर पर्वतश्रेणी की दुहरी मेंड़सी बनी हुई है। इसी स्थान पर मिस्त्रनिवासी अपने पिशाचपूजा के दिनों में मूर्तियां अंकित करते थे। पापनाशी को एक बृहदाकार 'स्फिक्र्स'* ठोस पत्थर का बना हुआ दिखाई दिया। इस भय से कि इस परतिमा में अब भी पैशाचिक विभूतियां संचित न हों, पापनाशी ने सलीब का चिह्न बनाया और परभु मसीह का स्मरण किया। तत्क्षण उसने परतिमा के एक कान में से एक चमगादड़ को उड़कर भागते देखा। पापनाशी को विश्वास हो गया कि मैंने उस पिशाच को भगा दिया जो शताब्दियों से इन परतिमा में अड्डा जमाये हुए था। उसका धमोर्त्साह ब़ा, उसने एक पत्थर उठाकर परतिमा के मुख पर मारा। चोट लगते ही परतिमा का मुख इतना उदास हो गया कि पापनाशी को उस पर दया आ गयी। उसने उसे सम्बोधित करके कहा-हे परेत, तू भी उन परेतों की भांति परभु पर ईमान ला जिन्हें परातःस्मरणीय एण्तोनी ने वन में देखा था, और मैं ईश्वर, उसके पुत्र और अलख ज्योति के नाम पर तेरे उद्घार करुंगा।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

यह वाक्य समाप्त होते ही सिंफक्स के नेत्रों में अग्निज्योति परस्फुटित हुई, उसकी पलकें कांपने लगीं और उसके ष्पााणमुख से 'मसीह' की ध्वनि निकली; माना पापनाशी के शब्द परतिध्वनित हो गये हों। अतएव पापनाशी ने दाहिना हाथ उठाकर उस मूर्ति को आशीवार्द दिया।
इस परकार ष्पााणहृदय में भक्ति का बीज आरोपित करके पापनाशी ने अपनी राह ली। थोड़ी देर के बाद घाटी चौड़ी हो गयी। वहां किसी बड़े नगर के अवशिष्ट चिह्न दिखाई दिये। बचे हुए मन्दिर जिन खम्भों पर अवलम्बित थे, वास्तव के उन बड़ीबड़ी ष्पााण मूर्तियों ने ईश्वरीय पररेणा से पापनाशी पर एक लम्बी निगाह डाली। वह भय से कांप उठा। इस परकार वह सत्रह दिन तक चलता रहा, क्षुधा से व्याकुल होता तो वनस्पतियां उखाड़कर खा लेता और रात को किसी भवन के खंडहर में, जंगली बिल्लियों और चूहों के बीच में सो रहता। रात को ऐसी स्त्रियां भी दिखायी देती थीं जिनके पैरों की जगह कांटेदार पूंछ थी। पापनाशी को मालूम था कि यह नारकीय स्त्रियां हैं और वह सलीब के चिह्न बनाकर उन्हें भगा देता था।
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

अठारहवें दिन पापनाशी को बस्ती से बहुत दूर एक दरिद्र झोंपड़ी दिखाई दी। वह खजूर के पत्तियों की थी और उसका आधा भाग बालू के नीचे दबा हुआ था। उसे आशा हुई कि इनमें अवश्य कोई सन्त रहता होगा। उसने निकट आकर एक बिल के रास्ते अन्दर झांका (उसमें द्वार न थे) तो एक घड़ा, प्याज का एक गट्ठा और सूखी पत्तियों का बिछावन दिखाई दिया। उसने विचार किया, यह अवश्य किसी तपस्वी की कुटिया है, और उनके शीघर ही दर्शन होंगे हम दोनों एकदूसरे के परति शुभकामनासूचक पवित्र शब्दों का उच्चारण करेंगे। कदाचित ईश्वर अपने किसी कौए द्वारा रोटी का एक टुकड़ा हमारे पास भेज देगा और हम दोनों मिलकर भोजन करेंगे। मन में यह बातें सोचता हुआ उसने सन्त को खोजने के लिए कुटिया की परिक्रमा की। एक सौ पग भी न चला होगा कि उसे नदी के तट पर एक मनुष्य पाल्थी मारे बैठा दिखाई दिया। वह नग्न था। उसके सिर और दा़ी के बाल सन हो गये थे और शरीर ईंट से भी ज्यादा लाल था। पापनाशी ने साधुओं के परचलित शब्दों में उसका अभिवादन किया-'बन्धु, भगवान तुम्हें शान्ति दे, तुम एक दिन स्वर्ग के आनन्दलाभ करो।'
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पर उस वृद्ध पुरुष ने इसका कुछ उत्तर न दिया, अचल बैठा रहा। उसने मानो कुछ सुना ही नहीं। पापनाशी ने समझा कि वह ध्यान में मग्न है। वह हाथ बांधकर उकडूं बैठ गया और सूयार्स्त तक ईशपरार्थना करता रहा। जब अब भी वह वृद्ध पुरुष मूर्तिवत बैठा रहा तो उसने कहा-'पूज्य पिता, अगर आपकी समाधि टूट गयी है तो मुझे परभु मसीह के नाम पर आशीवार्द दीजिए।'वृद्ध पुरुष ने उसकी ओर बिना ताके ही उत्तर दिया-
'पथिक, मैं तुम्हारी बात नहीं समझा और न परभु मसीह को ही जानता हूं।'
पापनाशी ने विस्मित होकर कहा-'अरे जिसके परति ऋषियों ने भविष्यवाणी की, जिसके नाम पर लाखों आत्माएं बलिदान हो गयीं, जिसकी सीजर ने भी पूजा की, और जिसका जयघोष सिलसिली की परतिमा ने अभीअभी किया है, क्या उस परभु मसीह के नाम से भी तुम परिचित नहीं हो ? क्या यह सम्भव है ?'
वृद्ध-'हां मित्रवर, यह सम्भव है, और यदि संसार में कोई वस्तु निश्चित होती तो निश्चित भी होता !'
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