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Old 30-11-2012, 03:06 PM   #21
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी उस पुरुष की अज्ञानावस्था पर बहुत विस्मित और दुखी हुआ। बोला-'यदि तुम परभु मसीह को नहीं जानते तो तुम्हारा धर्मकर्म सब व्यर्थ है, तुम कभी अनन्तपद नहीं पराप्त कर सकते।'
वुद्ध-'कर्म करना, या कर्म से हटना दोनों ही व्यर्थ हैं। हमारे जीवन और मरण में कोई भेद नहीं।'
पापनाशी-'क्या, क्या? क्या तुम अनन्त जीवन के आकांक्षी नहीं हो ? लेकिन तुम तो तपस्वियों की भांति वन्यकुटी में रहते हो ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या मैं तुम्हें नग्न और विरत नहीं देखता ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या तुम कन्दमूल नहीं खाते और इच्छाओं का दमन नहीं करते ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या तुमने संसार के मायामोह को नहीं त्याग दिया है ?'
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 30-11-2012, 03:06 PM   #22
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

'हां, ऐसा जान पड़ता है। मैंने उन मिथ्या वस्तुओं को त्याग दिया है, जिन पर संसार के पराणी जान देते हैं।'
'तुम मेरी भांति एकान्तसेवी, त्यागी और शुद्घाचरण हो। किन्तु मेरी भांति ईश्वर की भक्ति और अनन्त सुख की अभिलाषा से यह वरत नहीं धारण किया है। अगर तुम्हें परभु मसीह पर विश्वास नहीं है तो तुम क्यों सात्विक बने हुए हो ? अगर तुम्हें स्वर्ग के अनन्त सुख की अभिलाषा नहीं है तो संसार के पदार्थों को क्यों नहीं भोगते ?'
वुद्ध पुरुष ने गम्भीर भाव से जवाब दिया-'मित्र, मैंने संसार की उत्तम वस्तुओं का त्याग नहीं किया है और मुझे इसका गर्व है कि मैंने जो जीवनपथ गरहण किया है वह सामान्तयः सन्टोषजनक है, यद्यपि यथार्थ तो यह है कि संसार की उत्तम या निकृष्ट, भले या बुरे जीवन का भेद ही मिथ्या है। कोई वस्तु स्वतः भली या बुरी, सत्य या असत्य, हानिकर या लाभकर, सुखमय या दुखमय नहीं होती। हमारा विचार ही वस्तुओं को इन गुणों में आभूषित करता है, उसी भांति जैसे नमक भोजन को स्वाद परदान करता है।'
पापनाशी ने अपवाद किया-'तो तुम्हारे मतानुसार संसार में कोई वस्तु स्थायी नहीं है ? तुम उस थके हुए कुत्ते की भांति हो, जो कीचड़ में पड़ा सो रहा है-अज्ञान के अन्धकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हो। तुम परतिमावादियों से भी गयेगुजरे हो।'
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Old 30-11-2012, 03:06 PM   #23
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

'मित्र, कुत्तों और ऋषियों का अपमान करना समान ही व्यर्थ है। कुत्ते क्या हैं, हम यह नहीं जानते। हमको किसी वस्तु का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं।'
'तो क्या तुम भरांतिवादियों में हो ? क्या तुम उस निबुद्धि, कर्महीन सम्परदाय में हो, जो सूर्य के परकाश में और रात्रि के अन्धकार में कोई भेद नहीं कर सकते ?'
'हां मित्र, मैं वास्तव में भरमवादी हूं। मुझे इस सम्परदाय में शान्ति मिलती है, चाहे तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ता हो। क्योंकि एक ही वस्तु भिन्नभिन्न अवस्थाओं में भिन्नभिन्न रूप धारण कर लेती है। इस विशाल मीनारों ही को देखो। परभात के पतीपरकाश में यह केशर के कंगूरोंसे देख पड़ते हैं। सन्ध्या समय सूर्य की ज्योति दूसरी ओर पड़ती है और कालेकाले त्रिभुजों के सदृश दिखाई देते हैं। यथार्थ में किस रंग के हैं, इसका निश्चय कौन करेगा ? बादलों ही को देखो। वह कभी अपनी दमक से कुन्दन को जलाते हैं, कभी अपनी कालिमा से अन्धकार को मात करते हैं। विश्व के सिवाय और कौन ऐसा निपुण है जो उनके विविध आवरणों की छाया उतार सके ? कौन कह सकता है कि वास्तव में इस मेघसमूह का क्या रंग है ? सूर्य मुझे ज्योतिर्मय दीखता है, किन्तु मैं उसके तत्त्व को नहीं जानता। मैं आग को जलते हुए देखता हूं, पर नहीं जानता कि कैसे जलती है और क्यों जलती है ? मित्रवर, तुम व्यर्थ मेरी उपेक्षा करते हो। लेकिन मुझे इसकी भी चिन्ता नहीं कि कोई मुझे क्या समझता है, मेरा मान करता है या निन्दा।'
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Old 30-11-2012, 03:07 PM   #24
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी ने फिर शंका की-'अच्छा एक बात और बता दो। तुम इस निर्जन वन में प्याज और छुहारे खाकर जीवन व्यतीत करते हो ? तुम इतना कष्ट क्यों भोगते हो। तुम्हारे ही समान मैं भी इन्द्रियों का दमन करता हूं और एकान्त में रहता हूं। लेकिन मैं यह सब कुछ ईश्वर को परसन्न करने के लिए, स्वगीर्य आनन्द भोगने के लिए करता हूं। यह एक मार्जनीय उद्देश्य है, परलोकसुख के लिए ही इस लोक में कष्ट उठाना बुद्धिसंगत है। इसके परतिकूल व्यर्थ बिना किसी उद्देश्य के संयम और वरत का पालन करना, तपस्या से शरीर और रक्त तो घुलाना निरी मूर्खता है। अगर मुझे विश्वास न होता-हे अनादि ज्योति, इस दुर्वचन के लिए क्षमा कर-अगर मुझे उस सत्य पर विश्वास है, जिसका ईश्वर ने ऋषियों द्वारा उपदेश किया है, जिसका उसके परमपिरय पुत्र ने स्वयं आचरण किया है, जिसकी धर्म सभाओं ने और आत्मसमर्पण करने वाले महान पुरुषों ने साक्षी दी है-अगर मुझे पूर्ण विश्वास न होता कि आत्मा की मुक्ति के लिए शारीरिक संयम और निगरह परमावश्यक है; यदि मैं भी तुम्हारी ही तरह अज्ञेय विषयों से अनभिज्ञ होता, तो मैं तुरन्त सांसारिक मनुष्यों में आकर मिल जाता, धनोपार्जन करता, संसार के सुखी पुरुषों की भांति सुखभोग करता और विलासदेवी के पुजारियों से कहता-आओ मेरे मित्रो, मद के प्याले भरभर पिलाओ, फूलों के सेज बिछाओ, इत्र और फुलेल की नदियां बहा दो। लेकिन तुम कितने बड़े मूर्ख हो कि व्यर्थ ही इन सुखों को त्याग रहे हो, तुम बिना किसी लाभ की आशा के यह सब कष्ट उठाते हो। देते हो, मगर पाने की आशा नहीं रखते। और नकल करते हो हम तपस्वियों की, जैसे अबोध बन्दर दीवार पर रंग पोतकर अपने मन में समझता है कि मैं चित्रकार हो गया। इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है ?'
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Old 30-11-2012, 03:07 PM   #25
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

वृद्ध ने सहिष्णुता से उत्तर दिया-'मित्र, कीचड़ में सोने वाले कुत्ते और अबोध बन्दर का जवाब ही क्या ?'
पापनाशी का उद्देश्य केवल इस वृद्ध पुरुष को ईश्वर का भक्त बनाना था। उसकी शान्तिवृत्ति पर वह लज्जित हो गया। उसका क्रोध उड़ गया। बड़ी नमरता से क्षमापरार्थना की-'मित्रवर, अगर मेरा धमोर्त्साह औचित्य की सीमा से बाहर हो गया है तो मुझे क्षमा करो। ईश्वर साक्षी है कि मुझे तुमसे नहीं, केवल तुम्हारी भरान्ति से घृणा है ! तुमको इस अन्धकार में देखकर मुझे हार्दिक वेदना होती है, और तुम्हारे उद्घार की चिन्ता मेरे रोमरोम में व्याप्त हो रही है। तुम मेरे परश्नों का उत्तर दो, मैं तुम्हारी उक्तियों का खण्डन करने के लिए उत्सुक हूं।'
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Old 30-11-2012, 03:07 PM   #26
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

वृद्ध पुरुष ने शान्तिपूर्वक कहा-'मेरे लिए बोलना या चुप रहना एक ही बात है। तुम पूछते हो, इसलिए सुनो-जिन कारणों से मैंने वह सात्विक जीवन गरहण किया है। लेकिन मैं तुमसे इनका परतिवाद नहीं सुनना चाहता। मुझे तुम्हारी वेदना, शान्ति की कोई परवाह नहीं, और न इसकी परवाह है कि तुम मुझे क्या समझते हो। मुझे न परेम है न घृणा। बुद्धिमान पुरुष को किसी के परति ममत्व या द्वेष न होना चाहिए। लेकिन तुमने जिज्ञासा की है, उत्तर देना मेरा कर्तव्य है। सुनो, मेरा नाम टिमाक्लीज है। मेरे मातापिता धनी सौदागर थे। हमारे यहां नौकाओं का व्यापार होता था। मेरा पिता सिकन्दर के समान चतुर और कार्यकुशल था; पर वह उतना लोभी न था। मेरे दो भाई थे। वह भी जहाजों ही का व्यापार करते थे। मुझे विद्या का व्यसन था। मेरे बड़े भाई को पिताजी ने एक धनवान युवती से विवाह करने पर बाध्य किया, लेकिन मेरे भाई शीघर ही उससे असन्तुष्ट हो गये। उनका चित्त अस्थिर हो गया। इसी बीच में मेरे छोटे भाई का उस स्त्री से कुलषित सम्बन्ध हो गया। लेकिन वह स्त्री दोनों भाइयों में किसी को भी न चाहती थी। उसे एक गवैये से परेम था। एक दिन भेद खुल गया। दोनों भाइयों ने गवैये का वध कर डाला। मेरी भावज शोक से अव्यवस्थितचित्त हो गयी। यह तीनों अभागे पराणी बुद्धि को वासनाओं की बलिदेवी पर च़ाकर शहर की गलियों में फिरने लगे। नंगे, सिर के बाल ब़ाये, मुंह से फिचकुर बहाते, कुत्ते की भांति चिल्लाते रहते थे। लड़के उन पर पत्थर फेंकते और उन पर कुत्ते दौड़ाते। अन्त में तीनों मर गये और मेरे पिता ने अपने ही हाथों से उन तीनों को कबर में सुलाया। पिताजी को भी इतना शोक हुआ कि उनका दानापानी छूट गया और वह अपरिमित धन रहते हुए भी भूख से तड़पतड़पकर परलोक सिधारे। मैं एक विपुलसम्पति का वारिस हो गया। लेकिन घर वालों की दशा देखकर मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया था। मैंने उस सम्पत्ति को देशाटन में व्यय करने का निश्यच किया। इटली, यूनान, अफ्रीका आदि देशों की यात्रा की; पर एक पराणी भी ऐसा न मिला जो सुखी या ज्ञानी हो। मैंने इस्कन्द्रिया और एथेन्स में दर्शन का अध्ययन किया और उसके अपवादों को सुनते मेरे कान बहरे हो गये। निदान देशविदेश घूमता हुआ मैं भारतवर्ष में जा पहुंचा और वहां गंगातट पर मुझे एक नग्न पुरुष के दर्शन हुए जो वहीं तीस वर्षों से मूर्ति की भांति निश्चल पद्मासन लगाये बैठा हुआ था। उसके तृणवत शरीर पर लताएं च़ गयी थीं और उसकी जटाओं में चिड़ियों ने घोंसले बना लिये थे, फिर भी वह जीवित था। उसे देखकर मुझे अपने दोनों भाइयों की, भावज की, गवैये की, पिता की याद आयी और तब मुझे ज्ञात हुआ कि यही एक ज्ञानी पुरुष है। मेरे मन में विचार उठा कि मनुष्यों के दुःख के तीन कारण होते हैं। या तो वह वस्तु नहीं मिलती जिसकी उन्हें अभिलाषा होती है अथवा उसे पाकर उन्हें उसके हाथ से निकल जाने का भय होता है अथवा जिस चीज को वह बुरा समझते हैं उसका उन्हें सहन करना पड़ता है। इन विचारों को चित्त से निकाल दो और सारे दुःख आपही-आप शांत हो जाएेंगे। संसार के श्रेष्ठ पदार्थों का परित्याग कर दूंगा और उसी भारतीय योगी की भांति मौन और निश्चल रहूंगा।'
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Old 30-11-2012, 03:07 PM   #27
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पापनाशी ने इस कथन को ध्यान से सुना और तब बोला-'टिमो, मैं स्वीकार करता हूं कि तुम्हारा कथन बिल्कुल अर्थशून्य नहीं है। संसार की धनसम्पत्ति को तुच्छ समझना बुद्धिमानों का काम है। लेकिन अपने अनन्त सुख की उपेक्षा करना परले सिरे की नादानी है। इससे ईश्वर के क्रोध की आशंका है। मुझे तुम्हारे अज्ञान पर बड़ा दुःख है और मैं सत्य का उपदेश करुंगा जिसमें तुमको उसके अस्तित्व का विश्वास हो जाए और तुम आज्ञाकारी बालक के समान उसकी आज्ञा पालन करो।'
टिमाक्लीज ने बात काटकर कहा-'नहींनहीं, मेरे सिर अपने धर्मसिद्घान्तों का बोझ मत लादो। इस भूल में न पड़ो कि तुम मुझे अपने विचारों के अनुकूल बना सकोगे। यह तर्कवितर्क सब मिथ्या है। कोई मत न रखना ही मेरा मत है। किसी सम्परदाय में न होना ही मेरा सम्परदाय है। मुझे कोई दुःख नहीं, इसलि कि मुझे किसी वस्तु की ममता नहीं। अपनी राह जाओ, और मुझे इस उदासीनावस्था से निकालने की चेष्टा न करो। मैंने बहुत कष्ट झेले हैं और यह दशा ठण्डे जल से स्नान करने की भांति सुखकर परतीत हो रही है।'
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Old 30-11-2012, 03:07 PM   #28
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी को मानव चरित्र का पूरा ज्ञान था। वह समझ गया कि इस मनुष्य पर ईश्वर की कृपादृष्टि नहीं हुई है और उसकी आत्मा के उद्घार का समय अभी दूर है। उसने टिमाक्लीज का खण्डन न किया कि कहीं उसकी उद्घारकशक्ति घातक न बन जाए क्योंकि विधर्मियों से शास्त्रार्थ करने में कभीकभी ऐसा हो जाता है कि उनके उद्घार के साधन उनके अपकार के यन्त्र बन जाते हैं। अतएव जिन्हें सद्ज्ञान पराप्त है। उन्हें बड़ी चतुराई से उसका परचार करना चाहिए। उसने टिमाक्लीज को नमस्कार किया और एक लम्बी सांस खींचकर रात ही को फिर यात्रा पर चल पड़ा।
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Old 30-11-2012, 03:08 PM   #29
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

सूयोर्दय हुआ तो उसने जलपक्षियों को नदी के किनारे एक पैर पर खड़े देखा। उनकी पीली और गुलाबी गर्दनों को परतिबिम्ब जल में दिखाई देता था। कोमल बेत वृक्ष अपनी हरीहरी पत्तियों को जल पर फैलाए हुए थे। स्वच्छ आकाश में सारसों का समूह त्रिभुज के आकर में उड़ रहा था और झाड़ियों में छिपे हुए बुगलों की आवाज सुनाई देती थी। जहां तक निगाह जाती थी नदी का हरा जल हिलकोरे मार रहा था। उजले पाल वाली नौकाएं चिड़ियों की भांति तैर रही थीं, और किनारों पर जहांतहां श्वेत भवन जगमगा रहे थे। तटों पर हल्का कुहरा छाया हुआ था और द्वीपों के आड़ से जो, खजूर, फूल और फल के वृक्षों से के हुए थे; ये बत्तख, लालसर, हारिल आदि ये चिड़ियां कलरव करती हुई निकल रही थी। बाईं ओर मरुस्थल तक हरेभरे खेतों और वृक्षपुंजों की शोभा आंखों को मुग्ध कर देती थी। पके हुए गेहूं के खेतों पर सूर्य की किरणें चमक रही थीं और भूमि से भीनीभीनी सुगन्ध के झोके आते थे। यह परकृतिशोभा देखकर पापनाशी ने घुटनों पर गिरकर ईश्वर की वन्दना की-'भगवान्, मेरी यात्रा समाप्त हुई। तुझे धन्यवाद देता हूं। दयानिधि, जिस परकार तूने इन अंजीर के पौधों पर ओस की बूंदों की वर्षा की है, उसी परकार थायस पर, जिसे तूने अपने परेम से रचा है, अपनी दया की दृष्टि कर। मेरी हार्दिक इच्छा है कि वह तेरी परेममयी रक्षा के अधीन एक नवविकसित पुष्प की भांति स्वर्गतुल्य जेरुशलम में अपने यश और कीर्ति का परसार करे।' और तदुपरान्त उसे जब कोई वृक्ष फूलों से सुशोभित अथवा कोई चमकीले परों वाला पक्षी दिखाई देता तो उसे थायस की याद आती। कई दिन तक नदी के बायें किनारे पर, एक उर्वर और आबाद परान्त में चलने के बाद, वह इस्कन्द्रिया नगर में पहुंचा, जिसे यूनानियों ने 'रमणीक' और 'स्वर्णमयी' की उपाधि दे रखी थी। सूयोर्दय की एक घड़ी बीत चुकी थी, जब उसे एक पहाड़ी के शिखर पर वह विस्तृत नगर नजर आया, जिसकी छतें कंचनमयी परकाश में चमक रही थीं। वह ठहर गया और मन में विचार करने लगा-'यही वह मनोरम भूमि है जहां मैंने मृत्युलोक में पर्दापण किया, यहीं मेरे पापमय जीवन की उत्पत्ति हुई, यहीं मैंने विषाक्त वायु का आलिंगन किया, इसी विनाशकारी रक्तसागर में मैंने जलविहार किये ! वह मेरा पालना है जिसके घातक गोद में मैंने काम की मधुर लोरियां सुनीं। साधारण बोलचाल में कितना परतिभाशाली स्थान है, कितना गौरव से भरा हुआ। इस्कन्द्रिया ! मेरी विशाल जन्मभूमि ! तेरे बालक तेरा पुत्रवत सम्मान करते हैं, यह स्वाभाविक है। लेकिन योगी परकृति को अवहेलनीय समझता है, साधु बहिरूप को तुच्छ समझता है, परभु मसीह का दास जन्मभूमि को विदेश समझता है, और तपस्वी इस पृथ्वी का पराणी ही नहीं। मैंने अपने हृदय को तेरी ओर से फेर लिया है। मैं तुमसे घृणा करता हूं। मैं तेरी सम्पत्ति को, तेरी विद्या को, तेरे शास्त्रों को, तेरे सुखविलास को, और तेरी शोभा को घृणित समझता हूं, तू पिशाचों का क्रीड़ास्थल है, तुझे धिक्कार है ! अर्थसेवियों की अपवित्र शय्या नास्तिकता का वितण्डा क्षेत्र, तुझे धिक्कार है ! और जिबरील, तू अपने पैरों से उस अशुद्ध वायु को शुद्ध कर दे जिसमें मैं सांस लेने वाला हूं, जिसमें यहां के विषैले कीटाणु मेरी आत्मा को भरष्ट न कर दें।'
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इस तरह अपने विचारोद्गारों को शान्त करके पापनाशी शहर में परविष्ट हुआ। यह द्वार पत्थर का एक विशाल मण्डप था। उसके मेहराब की छांह में कई दरिद्र भिक्षुक बैठै हुए पथिकों के सामने हाथ फैलाफैलाकर खैरात मांग रहे थे। एक वृद्घा स्त्री ने जो वहां घुटनों के बल बैठी थी, पापनाशी की चादर पकड़ ली और उसे चूमकर बोली-'ईश्वर के पुत्र, मुझे आशीवार्द दो कि परमात्मा मुझसे सन्तुष्ट हो। मैंने परलौकिक सुख के निमित्त इस जीवन में अनेक कष्ट झेले। तुम देव पुरुष हो, ईश्वर ने तुम्हें दुःखी पराणियों के कल्याण के लिए भेजा है, अतएव तुम्हारी चरणरज कंचन से भी बहुमूल्य है।'
पापनाशी ने वृद्ध को हाथों से स्पर्श करके आशीवार्द दिया। लेकिन वह मुश्किल से बीस कदम चला होगा कि लड़कों के एक गोल ने उसको मुंह चिना और उस पर पत्थर फेंकना शुरू किया और तालियां बजाकर कहने लगे-'जरा अपनी विशालमूर्ति देखिए ! आप लंगूर से भी काले हैं, और आपकी दा़ी बकरे की ाढ़ी से लम्बी है। बिल्कुल भुतना मालूम होता है। इसे किसी बाग में मारकर लटका दो, कि चिड़ियां हौवा समझकर उड़ें। लेकिन नहीं, बाग में गया तो सेंत में सब फूल नष्ट हो जाएेंगे। उसकी सूरत ही मनहूस है। इसका मांस कौओं को खिला दो।' यह कहकर उन्होंने पत्थर की एक बा़ छोड़ दी।
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