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Old 13-01-2013, 03:52 AM   #11
Dark Saint Alaick
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Default Re: पथ के दावेदार

दरबान बोला, “खोजने से मिल सकता है। लेकिन इतने किराए में ऐसा मकान मिलना कठिन है।”

अपूर्व जब तार घर पहुंचा तो तारबाबू खाना खाने चले गए थे। एक घंटे प्रतीक्षा करने के बाद जब आए तो घड़ी देखकर बोले, “आज छुट्टी है। दो बजे ऑफिस बंद हो गया।”

अपूर्व ऊंची आवाज में बोला, “यह अपराध आपका है। मैं एक घंटे से बैठा हूं।”

बाबू बोला, “लेकिन मैं तो सिर्फ दस मिनट हुए यहां से गया हूं।”

अपूर्व ने उसके साथ झगड़ा किया। झूठा कहा, रिपोर्ट करने की धमकी दी। लेकिन फिर बेकार समझकर चुप हो गया। भूख, प्यास और क्रोध से जलता हुआ बड़े तारघर पहुंचा। वहां से अपने निर्विघ्न पहुंचने का समाचार जब मां को भेज दिया तब उसे संतोष हुआ।

दरबान ने विनय भरे स्वर में कहा, “साहब, हमको भी बहुत दूर जाना है।”

अपूर्व ने उसे छुट्टी देने में कोई आपत्ति नहीं की। दरबान के चले जाने के बाद घूमते-घूमते, गलियों का हिसाब करते-करते, अंत में मकान के सामने पहुंच गया।
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Old 13-01-2013, 03:52 AM   #12
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Default Re: पथ के दावेदार

उसने देखा-तिवारी महाराज एक मोटी लाठी पटक रहे हैं और न जाने क्या अंट-शंट बकते-झकते जा रहे हैं।

साथ ही एक-दूसरे व्यक्ति तिमंजिले से हिंदी और अंग्रेजी में इसका उत्तर भी दे रहे हैं और घोड़े के चाबुक से बीच-बीच में सट-सट का शब्द भी कर रहे हैं। तिवारी से नीचे उतरने को कह रहे हैं और वह उनको ऊपर बुला रहा है। शिष्टाचार के इस आदान-प्रदान में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है उसे न कहना ही उचित है।

अपूर्व ने सीढ़ी पर से तेजी से ऊपर चढ़कर तिवारी का लाठीवाला हाथ जोर से पकड़कर कहा, “क्या पागल हो गया है?” इतना कहकर उसे ठेलता हुआ घर के अंदर ले गया। अंदर आकर वह क्रोध, क्षोभ और दु:ख से रोते हुए बोला, “यह देखिए, उस हरामजादे ने क्या किया है।”

उस कांड को देखते ही अपूर्व की थकान, नींद, भूख और प्यास एकदम हवा हो गई। खिचड़ी के हांडी से अभी तक भाप तथा मसाले की भीनी-भीनी गंध निकल रही है, लेकिन उसके ऊपर, नीचे, आस-पास, चारों ओर पानी फैला हुआ है। दूसरे कमरे में जाकर देखा, उसका साफ-सुथरा बिछौना मैले काले पानी से सन गया है। कुर्सी पर पानी, टेबल पर पानी, यहां तक कि पुस्तकें भी पानी में भीग गई हैं।

अपूर्व ने पूछा, “यह सब क्या हुआ?”

तिवारी ने दुर्घटना का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया-

“अपूर्व के जाने के कुछ देर बाद ही साहब घर में आए। आज ईसाइयों का कोई त्यौहार है। पहले गाना-बजाना और फिर नृत्य आरम्भ हुआ और जल्दी ही दोनों के संयोग से यह शास्त्रीय संगीत इतना असहाय हो उठा कि तिवारी को आशंका होने लगी कि लकड़ी की छत साहब का इतना आनंद शायद सहन न कर पाएगी तभी रसोई के पास ऊपर से पानी गिरने लगा? भोजन नष्ट हो जाने के भय से तिवारी ने बाहर जाकर इसका विरोध किया। लेकिन साहब चाहे काला हो या गोरा-देशी आदमी की ऐसी अभद्रता नहीं सह सकता। वह उत्तेजित हो उठा और देखते-ही-देखते अंदर जाकर बाल्टी-पर-बाल्टी पानी ढरकाना आरम्भ कर दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह अपूर्व ने अपनी आंखों से देख लिया।
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Old 13-01-2013, 03:52 AM   #13
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Default Re: पथ के दावेदार

कुछ देर मौन रहकर अपूर्व बोला, “साहब के कमरे में क्या कोई और नहीं है।”

“शायद कोई हो। कोई उसे पियक्कड़ साले के साथ दांत किट-किटकर तो कर रहा था।” अपूर्व समझ गया कि किसी ने उसे रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन हम लोगों के दुर्भाग्य को तिल भर भी कम नहीं कर सका।

अपूर्व चुप रहा। जो होना था हो चुका था। लेकिन अब शांति थी।

अपूर्व ने हंसने की कोशिश करके कहा, “तिवारी, ईश्वर की इच्छा न होने पर इसी तरह मुंह का ग्रास निकल जाता है। आओ, समझ लें कि हम लोग आज भी जहाज में ही हैं। चिउड़ा-मिठाई अब कुछ बची है। रात बीत ही जाएगी।”

तिवारी ने सिर हिलाकर हुंकारी भरी और उस हांडी की ओर फिर एक बार हसरत भरी नजरों से देखकर चिउड़ा-मिठाई लेने के लिए उठ खड़ा हुआ। सौभाग्य से खाने-पीने के सामान का संदूक रसोईघर के कोने में रखा था। इसलिए ईसाई का पानी इसे अपवित्र नहीं कर पाया था।

फलाहार जुटाते हुए तिवारी ने रसोईघर से कहा, “बाबू, यहां तो रहना हो नहीं सकेगा।”

अपूर्व अन्यमनस्क भाव से बोला, “हां, लगता तो ऐसा ही है।”
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Old 13-01-2013, 03:53 AM   #14
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Default Re: पथ के दावेदार

तिवारी उसके परिवार का पुराना नौकर है। आते समय उसका हाथ पकड़कर मां ने जो बातें समझाकर बताई थीं, उन्हीं को याद कर उद्विग्न स्वर में बोला, “नहीं बाबू, इस घर में अब एक दिन भी नहीं। क्रोध में आकर काम अच्छा नहीं हुआ। मैंने साहब को गालियां दी हैं।”

अपूर्व ने कहा, “उसे गालियां न देकर मारना ठीक था।”

तिवारी में अब क्रोध के स्थान पर सद्बुध्दि पैदा हो रही थी। हम लोग बंगाली हैं।

अपूर्व मौन ही रहा। साहस पाकर तिवारी ने पूछा, “ऑफिस के दरबान जी से कहकर कल सवेरे ही क्या इस घर को छोड़ा नहीं जा सकता? मेरा तो विचार है कि छोड़ देना ठीक होगा।”

अपूर्व ने कहा, “अच्छी बात है, देखा जाएगा।” दुर्जनों के प्रति उसे कोई शिकायत नहीं है। समय नष्ट न करके चुपचाप जगह छोड़ देना ही उसने उचित समझ लिया है। बोला, “अच्छी बात है, ऐसा ही होगा। तुम भोजन आदि का प्रबंध करो।”

“अभी करता हूं बाबू!” कहकर कुछ निश्चिंत होकर अपने काम में लग गया।

लेकिन उसी की बातों का सूत्र पकड़कर, ऊपर वाले फिरंगी का र्दुव्यवहार याद कर अचानक अपूर्व का समूचा बदन क्रोध से जलने लगा। मन में विचार आया कि हम लोगों ने चुपचाप, बिना कुछ सोचे-समझे इसे सहन कर लेना ही अपना कर्त्तव्य समझ लिया है। इसीलिए दूसरों को चोट पहुंचाने का अधिकार स्वयं ही दृढ़ तथा उग्र हो उठा है। इसीलिए तो आज मेरा नौकर भी मुझको तुरंत भागकर आत्महत्या करने का उपदेश देने का साहस कर रहा है। तिवारी बेचारा रसोईघर में फलाहार ठीक कर रहा था। वह जान भी न सका। उसकी लाठी लेकर अपूर्व बिना आहट किए धीरे-धीरे बाहर निकला और सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया।
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Old 13-01-2013, 03:53 AM   #15
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Default Re: पथ के दावेदार

दूसरी मंजिल पर साहब के बंद द्वार को खटखटाना आरम्भ किया। कुछ देर बाद एक भयभीत नारी कंठ ने अंग्रेजी में कहा, “कौन है?”

“मैं नीचे रहता हूं और उस आदमी को देखना चाहता हूं।”

“क्यों?”

“उसे दिखाना है कि उसने मेरा कितना नुकसान किया है।”

“वह सो रहे हैं।”

अपूर्व ने कठोर स्वर में कहा, “जगा दीजिए। यह सोने का समय नहीं है। रात को सोते समय मैं तंग करने नहीं आऊंगा। लेकिन इस समय उसके मुंह से उत्तर सुने बिना नहीं जाऊंगा।”

लेकिन न तो द्वार ही खुला और न ही कोई उत्तर ही आया। दो-एक मिनट प्रतीक्षा करने के बाद अपूर्व ने फिर चिल्लाकर कहा, “मुझे जाना है, उसे बाहर भेजिए।”

इस बार वह विनम्र और मधुर नारी स्वर द्वार के समीप सुनाई दिया, “मैं उनकी लड़की हूं। पिताजी की ओर से क्षमा मांगती हूं। उन्होंने जो कुछ किया है, सचेत अवस्था में नहीं किया। आप विश्वास रखिए, आपकी जो हानि हुई है कल हम उसे यथाशक्ति पूरी कर देंगे।”
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Old 13-01-2013, 03:54 AM   #16
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Default Re: पथ के दावेदार

लड़की के स्वर से अपूर्व कुछ नर्म पड़ गया। लेकिन उसका क्रोध कम नहीं हुआ। बोला, “उन्होंने बर्बर की तरह मेरा बहुत नुकसान किया। उसे भी अधिक उत्पात किया है। मैं विदेशी आदमी हूं। लेकिन आशा करता हूं कि कल सुबह मुझसे स्वयं मिलकर इस झगड़े को समाप्त कर लेने की कोशिश करेंगे।”

लड़की ने कहा, “अच्छी बात है।” फिर कुछ देर चुप रहकर बोली, “आपकी तरह हम लोग भी यहां बिल्कुल नए हैं। कल शाम को ही मालपीन से आए हैं।”

और कुछ न कहकर अपूर्व धीरे-धीरे उतर आया। देखा, तिवारी भोजन की व्यवस्था में ही लगा था।

थोड़ा-सा खा-पीकर अपूर्व सोने के कमरे में आकर भीगे तकिए को ही लगाकर सो गया। प्रवास के लिए घर से बाहर पांव रखने के समय से लेकर अब तक विपत्तियों की सीमा नहीं रही थी। सुख-शांति हीन, चिंता ग्रस्त मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी-उस ईसाई लड़की की बात! वह नहीं जानता कि देखने में वह कैसी है। क्या उम्र है, कैसा स्वभाव है। लेकिन इतना जरूर जान गया कि उसका उच्चारण अंग्रेजों जैसा नहीं है और जो भी हो, ईसाई के नाते स्वयं को राजा की जाति का समझकर पिता की भांति घमंडी नहीं है। अपने पिता के अन्याय तथा उत्पात के लिए उसने लज्जा अनुभव की है। उसकी भयभीत, विनम्र स्वर में क्षमा-याचना, उसे अपने कर्कश तथा तीव्र अभियोग की तुलना में असंगत-सी लगी। उसका स्वभाव उग्र नहीं है। कड़ी बात कहने में उसे हिचक होती है।

तभी बिहारी का मोटा कंठ स्वर उसके कानों तक पहुंचा। वह कह रहा था, “नहीं मेम साहब यह आप ले जाइए। बाबू भोजन कर चुके। हम लोग यह सब छूते तक नहीं।”
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Old 13-01-2013, 03:54 AM   #17
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अपूर्व उठ बैठा और उस ईसाई लड़की के शब्दों को कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा। तिवारी बोला, “कौन कहता है कि हमने भोजन नहीं किया? यह आप ले जाइए। बाबू सुनेंगे तो नाराज होंगे।”

अपूर्व ने धीरे-धीरे बाहर आकर पूछा, “क्या बात है तिवारी?”

लड़की जल्दी से पीछे हट गई। शाम हो चली थी लेकिन कहीं भी रोशनी नहीं जली थी। लड़की का रंग अंग्रेजों जैसा सफेद नहीं है लेकिन खूब साफ है। उम्र उन्नीस-बीस या कुछ अधिक होगी। कुछ लंबी होने से दुबली जान पड़ती है। ऊपरी होंठ के नीचे सामने के दोनों दांतों को कुछ ऊंचा न समझा जाए तो चेहरे की बनावट अच्छी है। पैरों में चप्पल, शरीर पर भड़कीली-सी साड़ी, चाल-ढाल कुछ बंगाली और कुछ पारसी जान पड़ती है। एक डाली में कुछ नारंगी, नाशपाती, दो-चार अनार और अंगूर का एक गुच्छा सामने धरती पर रखे हैं।

अपूर्व ने पूछा, “यह सब क्या है?”

लड़की ने अंग्रेजी में धीरे से उत्तर दिया - “आज हमारा त्यौहार है। मां ने भेजा है। आज तो आपका खाना भी नहीं हुआ।”

अपूर्व ने कहा, “अपनी मां को हम लोगों की ओर से धन्यवाद देना और कहना कि हमारा खाना हो गया है।”

लड़की चुप थी। अपूर्व ने पूछा, “हमारा खाना नहीं हुआ, आपको यह कैसे पता लगा?”
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लड़की ने लज्जित स्वर में कहा, “इसीलिए तो झगड़ा हुआ था।”

अपूर्व बोला, “नहीं। वास्तव में हमारा खाना हो चुका है।”

लड़की बोली, “हो सकता है। लेकिन यह तो बाजार के फल हैं, इनमें कोई दोष नहीं है।”

अपूर्व समझ गया कि उसे किसी प्रकार शांत करने के लिए दोनों अपरिचित स्त्रियों के उद्वेग की सीमा नहीं है। कुछ देर पहले वह अपने स्वभाव का जो परिचय दे आया है, उससे न जाने क्या होगा? यह सोचकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो यह भेंट लेकर आई है इसलिए मीठे स्वर में बोला, “नहीं, कोई दोष नहीं है।” फिर तिवारी से बोला, “ले लो, इनमें कोई दोष नहीं है महाराज।”

तिवारी इससे प्रसन्न नहीं हुआ। बोला, “रात में हम लोगों को जरूरत नहीं है। और मां ने मुझे यह सब करने के लिए बार-बार मना किया है। मेम साहब, आप इन्हें ले जाइए। हमें जरूरत नहीं है।”

मां ने मना किया है या कर सकती हैं, इसमें असम्भव कुछ भी नहीं था और वर्षों के विश्वसनीय तिवारी को इन सब झंझटों को सौंपकर उसका अभिभावक भी वह नियुक्त कर सकती हैं, यह भी सम्भव है। अभी संकुचित, लज्जित और अपरिचित लड़की, जो उसे प्रसन्न करने उसके द्वार पर आई है, उसे उपहार की सामान्य वस्तुओं को अस्पृश्य कहकर अपमानित करने को भी वह उचित न मान सका। तिवारी ने कहा, “यह हम सब नहीं छुएंगे मेम साहब। इन्हें उठा ले जाइए। मैं इस स्थान को धो डालूं।”

लड़की कुछ देर चुपचाप खड़ी रही। फिर डाली उठाकर धीमे-धीमे चली गई।
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अपूर्व ने धीमे और रूखे स्वर में कहा, “न खाते, लेकिन लेकर चुपके से फेंक तो सकते थे।”

तिवारी बोला, “नष्ट करने का क्या लाभ होता बाबू?”

“मूर्ख, गंवार कहीं का,” इतना कहकर अपूर्व सोने चला गया। बिस्तर पर लेटकर पहले तिवारी के प्रति क्रोध से उसका सम्पूर्ण शरीर जलने लगा। लेकिन इस विषय में वह जितना ही सोचता था, लगता था कि शायद यह ठीक ही हुआ कि उसने स्पष्ट कहकर लौटा दिया। उसे अपने बड़े मामा की याद आ गई। उस निष्ठावान ब्राह्मण ने एक दिन भोजन करने से मना कर दिया था। करुणामयी ने पति से भाई का मन-मुटाव दूर करने के लिए एक चतुराई का सहारा लेना चाहा, लेकिन दरिद्र ब्राह्मण ने हंसकर कहा- “नहीं बहन, यह सब नहीं हो सकता। जीजा जी क्रोधी व्यक्ति हैं। इस अपमान को वह सह न पाएंगे। हो सकता है, तुम्हें भी इसमें भागीदार बनना पड़े। मेरे स्वर्गीय गुरुदेव कहा करते थे, 'मुरारी, सत्य-पालन में दु:ख है। वंचना और प्रताणना के मीठे पथ से वह कभी नहीं आता।' मैं बिना भोजन किए चला जाऊंगा। यही उचित है बहन।”

इस घटना के कारण करुणामयी ने अनेक दु:ख सहे लेकिन भाई को कभी दोष नहीं दिया। इसी बात को याद कर अपूर्व के मन में बार-बार यह बात उठने लगी, “उचित ही हुआ। तिवारी ने ठीक ही किया।”

अपूर्व की इच्छा थी कि सुबह बाजार घूम आए। लेकिन न जा सका। क्योंकि ऊपर वाला साहब कब क्षमा-याचना करने आएगा, इसका कुछ ठीक नहीं था। वह आएगा अवश्य, इसमें कोई संदेह नहीं था। आज जब उसका नशा टूटेगा तब उसकी पत्नी और बेटी, उसे किसी भी दशा में छोडेंग़ी नहीं। क्योंकि उनके द्वारा ऐसा संकेत वह कल ही पा चुका था। नींद टूटने के बाद से वह लड़की कई बार याद आई। नींद में भी उसकी भद्रता, सौजन्यता और उसका विनम्र कंठ स्वर कानों में एक परिचित सुर की भांति आते-जाते रहे। अपने शराबी पिता के दुराचार के कारण उस लड़की की लज्जा की सीमा नहीं थी। मूर्ख तिवारी के रूखे व्यवहार से अपूर्व भी लज्जा का अनुभव कर रहा था।
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अचानक सिर के ऊपर पड़ोसियों के जाग उठने की आहट आई और प्रत्येक आहट से वह आशा करने लगा कि साहब उसके द्वार पर आकर खड़ा है। क्षमा तो वह करेगा ही, यह निश्चित है। लेकिन विगत दिन की वीभत्सता, क्या करने से सरल और सामान्य होकर विषाद का चिद्द मिटा देगी? यही उसकी चिंता का विषय था। आशा और उद्वेग के साथ प्रतीक्षा करते-करते जब नौ बज गए तो सुना, साहब नीचे उतर रहे हैं। उनके पीछे भी दो पैरों का शब्द सुनाई दिया। थोड़ी देर बाद ही उनके द्वार का लोहे का कड़ा जोर से बज उठा। तिवारी ने आकर कहा, “बाबू, ऊपर वाला साहब कड़ा हिला रहा है।”

अपूर्व ने कहा, “दरवाजा खोलकर उनको आने दो।”

तिवारी के दरवाजा खोलते ही अपूर्व ने अत्यंत गम्भीर आवाज सुनी, “तुम्हारा साहब कहां है?”

उत्तर में तिवारी ने कहा, ठीक-ठाक सुनाई नहीं पड़ा।

स्वर से अपूर्व चौंक पड़ा, बाप रे! यह क्या सामान्य कंठ स्वर है?

सोचा, शायद साहब ने सवेरे उठते ही शराब पी ली है। इसलिए इस समय जाना उचित है या नहीं। सोचने से पहले ही फिर उधर से आदेश हुआ, “बुलाओ जल्दी।”

अपूर्व धीरे-धीरे पास जाकर खड़ा हो गया। साहब ने एक पल उसे ऊपर से नीचे तक देखकर अंग्रेजी में पूछा, “अंग्रेजी जानते हो?”
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