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Old 13-01-2013, 03:55 AM   #21
Dark Saint Alaick
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Default Re: पथ के दावेदार

“जानता हूं।”

“मेरे सो जाने के बाद कल तुम ऊपर गए थे?”

“जी हां।”

“लाठी ठोंकी थी? अनाधिकार प्रवेश करने के लिए दरवाजा तोड़ने की कोशिश की थी?”

अपूर्व विस्मय के मारे स्तब्ध हो गया। साहब ने कहा-”संयोग से दरवाजा खुला होता तो तुम कमरे में घुसकर मेरी पत्नी या बेटी पर आक्रमण कर बैठते। इसीलिए मेरे जागते रहने पर नहीं गए?”

अपूर्व ने धीमे स्वर से कहा, “आप तो सो रहे थे, कैसे पता चला?”

साहब ने कहा, “मेरी लड़की ने मुझे बताया है। उसे तुमने गाली भी दी।”

इतना कहकर उसने बगल में खड़ी लड़की की ओर उंगली से इशारा किया, यह वही लड़की है। कल भी इसे अपूर्व अच्छी तरह नहीं देख पाया था। आज भी साहब के विशाल शरीर की आड़ में उसकी साड़ी की किनारी को छोड़ और कुछ भी नहीं देख पाया। सिर हिलाकर उसने पिता की हां-में-हां मिलाई या नहीं, यह भी समझ में नहीं आया। लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि यह लोग भले आदमी नहीं हैं। सारे मामले को जान-बूझकर विकृत और उलटा करके सिध्द करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए बहुत सतर्क रहने की जरूरत है।
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Old 13-01-2013, 03:56 AM   #22
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Default Re: पथ के दावेदार

साहब ने कहा, “मैं जाग रहा होता तो तुम्हें लात मारकर धकेल देता। तुम्हारे मुंह में एक भी दांत साबुत न रहने देता। लेकिन यह अवसर अब खो चुका हूं। इसलिए पुलिस के हाथ से जो कुछ न्याय मिलेगा उतना ही लेकर संतुष्ट होना पड़ेगा। हम लोग जा रहे हैं। तुम इसके लिए तैयार रहना।”

अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “अच्छी बात है।”-लेकिन उसका मुंह उतर-सा गया।

साहब ने लड़की का हाथ पकड़कर कहा, “चलो!” और सीढ़ी से उतरते-उतरते बोला, “मैंने तो पहले ही कहा था बाबू, कि जो होना था हो गया। अब उन्हें और छेड़ने की जरूरत नहीं है। वह साहब और मेम ठहरे।”

अपूर्व ने कहा, “साहब-मेम ठहरे तो इससे क्या होता है?”

तिवारी ने कहा, “यह लोग पुलिस में जो गए हैं।”

अपूर्व ने कहा, “जाने से क्या होता है?”

तिवारी ने व्याकुल होकर कहा, “बड़े बाबू को तार कर दूं? छोटे बाबू, उन्हें बुला ही लिया जाए।”

“क्या पागल हो गया है तिवारी जा उधर देख। खाना सारा जल गया होगा। साढ़े दस बजे मुझे ऑफिस जाना है,” इतना कहकर वह अपने कमरे में चला गया। तिवारी रसोईघर में चला गया। लेकिन रसोई बनाने से लेकर बाबू के ऑफिस जाने तक का सभी कुछ उसके लिए अत्यंत अर्थहीन हो गया।
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Old 13-01-2013, 03:56 AM   #23
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Default Re: पथ के दावेदार

वह करुणामयी के हाथ का बना हुआ आदमी है इसलिए मन कितना ही दुश्चिन्ता ग्रस्त क्यों न हो, हाथ के काम में कहीं भूल-चूक नहीं होती। यथासमय भोजन करने बैठकर अपूर्व ने उसे उत्साहित करने के अभिप्राय से भोजन की कुछ बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा की तथा दो-एक ग्रास मुंह में डालकर बोला, “तिवारी, आज का भोजन तो मानो अमृत ही बनाया है। कई दिनों से अच्छी तरह भोजन नहीं किया था। कैसा डरपोक आदमी है तू? मां ने भी अच्छे आदमी को साथ भेजा है।”

तिवारी ने कहा, “हूं।”

अपूर्व ने उसकी ओर देखकर हंसते हुए कहा, “मुंह एकदम हांडी जैसा क्यों बना रखा है? उस हरामजादे फिरंगी की धमकी देखी? पुलिस में जा रहा है। अरे जाता क्यों नहीं? जाकर क्या करेगा, सुनें तो? तेरा कोई गवाह है?”

तिवारी ने कहा, “मेम साहब को भी क्या गवाही की जरूरत है?”

अपूर्व ने कहा, “उनके लिए क्या कोई दूसरे नियम-कानून हैं फिर वह मेम साहब कैसे? रंग तो मेरे पॉलिश किए हुए जूते की ही तरह है?”

तिवारी मौन रहा।

कुछ देर चुपचाप भोजन करने के बाद अपूर्व ने मुंह ऊपर उठाया। कहा, “और वह लड़की भी कितनी दुष्ट है। कल इस तरह आई जैसे भीगी बिल्ली हो। और ऊपर जाते ही इतनी झूठ-मूठ बातें जोड़ दी।”
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Old 13-01-2013, 03:56 AM   #24
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Default Re: पथ के दावेदार

तिवारी बोला, “ईसाई है न?”

“जानते हो तिवारी, जो असली साहब हैं वह इनसे घृणा करते हैं। एक मेज पर बैठकर कभी नहीं खिलाते। चाहे कितना ही हैट-कोट पहनें और गिरजे में जाएं।”

तिवारी ने ऐसा कभी नहीं सोचा था। छोटे बाबू का ऑफिस जाने का समय हो रहा है। अब घर में अकेले उसका समय कैसे कटेगा? साहब थाने गया है। हो सकता है, लौटकर दरवाजा तोड़ डाले। हो सकता है, पुलिस साथ लेकर आए। हो सकता है उसे बांधकर ले जाए। क्या होगा? कौन जाने।

अपूर्व भोजन करने के बाद कपड़े पहन रहा था। तिवारी ने कमरे का पर्दा हटाकर कहा, “देखकर जाते तो अच्छा होता।”

“क्या देखकर जाता?”

“उनके लौटने की राह....।”

अपूर्व ने कहा, “यह कैसे हो सकता है? आज मेरी नौकरी का पहला दिन है। लोग क्या सोचेंगे?”

तिवारी चुप रह गया।

अपूर्व ने कहा, “तू दरवाजा बंद करके निश्चिंत बैठा रह, मैं जल्दी ही लौटूंगा। कोई दरवाजा नहीं तोड़ सकता।”
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Old 13-01-2013, 03:57 AM   #25
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Default Re: पथ के दावेदार

तिवारी ने कहा, “अच्छा।” लेकिन उसने एक लम्बी सांस दबा रखने की जो कोशिश की उसे अपूर्व ने देख लिया। बाहर जाते समय तिवारी ने भारी गले से कहा, “पैदल मत जाना छोटे बाबू! किराए की गाड़ी ले लेना।”

“अच्छा,” कहकर अपूर्व नीचे उतर गया। उसके चलने का ढंग ऐसा था, जैसे नई नौकरी के प्रति उसके मन में कोई हर्ष न हो।

वोथा कम्पनी के भागीदार पूर्वीय क्षेत्र के मैनेजर रोजेन साहब उस समय बर्मा में ही थे। रंगून कार्यालय उन्होंने ही स्थापित किया था। उन्होंने अपूर्व का बड़े आदर से स्वागत किया। उसके स्वरूप, बातचीत तथा यूनिवर्सिटी की डिग्री देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। सभी कर्मचारियों को बुलाकर परिचय कराया और दो-तीन महीने में व्यवसाय का सम्पूर्ण रहस्य सिखा देने का आश्वासन दिया। बातचीत, परिचय तथा नए उत्साह से उसकी मानसिक ग्लानि कुछ समय के लिए मिट गई। एक व्यक्ति ने उसे विशेष रूप से आकर्षित किया। वह था ऑफिस का एकाउन्टेन्ट। ब्राह्मण है। नाम है रामदास तलवलकर। आयु लगभग उसके जितनी ही या कुछ अधिक हो सकती है। दीर्घ आकृति, बलिष्ठ, गौरवर्ण है। पहनावे में पाजामा, लम्बा कोट, सिर पर पगड़ी, माथे पर लाल चंदन का टीका। बड़ी अच्छी अंग्रेजी में बातचीत करते हैं, लेकिन अपूर्व के साथ उन्होंने पहले से ही हिंदी में बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व हिंदी अच्छी तरह नहीं जानता। लेकिन जब देखा कि वह हिंदी छोड़कर और किसी में उत्तर नहीं देता तो उसने भी हिंदी बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व ने कहा, “यह भाषा मैं नहीं जानता। बोलने में बहुत गलतियां होती हैं।”

रामदास बोला, “गलतियां तो मुझसे भी होती हैं। क्योंकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं है।”

अपूर्व बोला, “अगर पराई भाषा में ही बातचीत करनी है तो अंग्रेजी में क्या दोष है?”

रामदास बोला, “अंग्रेजी में तो हम लोग और अधिक गलतियां करते हैं। आप अंग्रेजी में बोला करें। लेकिन अगर मैं हिंदी में उत्तर दूंगा, क्षमा कर दीजिएगा।”
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Old 13-01-2013, 03:57 AM   #26
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Default Re: पथ के दावेदार

अपूर्व बोला, “मैं भी हिंदी में ही बोलने की चेष्टा करूंगा। लेकिन गलती होने पर आप भी मुझे क्षमा करोगे।”

इस बातचीत के बीच रोजेन साहब स्वयं मैनेजर के कमरे में आ गए। उम्र पचास के लगभग होगी। हालैंड के निवासी हैं। साधारण ढंग के कपडे। चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूंछें। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते हैं। पक्के व्यवसायी हैं। अब तक बर्मा के अनेक स्थानों में घूमकर तरह-तरह के लोगों से मिलकर, तथ्य संग्रह करके, काम काज के कार्यक्रम का उन्होंने खाका तैयार कर लिया है। उस कार्यक्रम के कागज अपूर्व की टेबल पर रखते हुए बोले, “इसके विषय में आपकी क्या राय है?” फिर तलवलकर से बोले, “इसकी एक प्रति आपके कमरे में भी भेज दी है। लेकिन इसे अभी रहने दिया जाए। क्योंकि आज नए मैनेजर के सम्मान में ऑफिस बंद हो जाएगा। मैं जल्दी ही चला जाऊंगा। तब आप दोनों पर ही सारा कार्यक्रम रहेगा। मैं अंग्रेज नहीं हूं। यद्यपि यह राज्य हम लोगों का हो सकता था। फिर भी उन लोगों की तरह हम भारतीयों को नीच नहीं समझते। अपने समान ही समझते हैं। केवल फर्म की ही नहीं, आप लोगों की उन्नति भी आप लोगों के कर्त्तव्य-ज्ञान पर निर्भर है। अच्छा गुड्ड। ऑफिस दो बजे के बाद बंद जो जाना चाहिए। कहते हुए जिस तरह आए थे उसी तरह चले गए।

ठीक दो बजे दोनों साथ-साथ ऑफिस से निकले। तलवलकर शहर में नहीं रहता। लगभग दस मील पश्चिम में इनसिन नामक स्थान में डेरा है। डेरे में उसकी पत्नी तथा एक छोटी-सी बेटी रहती है वहां शहर का हो-हल्ला नहीं है। टे्रनों में आने-जाने से कोई असुविधा नहीं होती।

“हाल्दर बाबू, कल ऑफिस के बाद मेरे यहां चाय का निमंत्रण रहा,” तलवलकर ने कहा।

अपूर्व बोला, “मैं चाय नहीं पीता बाबू जी।”

“नहीं पीते? पहले मैं भी नहीं पीता था। लेकिन मेरी पत्नी नाराज होती है। अच्छा, न हो तो फल-फूल, शर्बत... हम लोग भी ब्राह्मण हैं।”
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Old 13-01-2013, 03:57 AM   #27
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अपूर्व ने हंसते हुए कहा, “ब्राह्मण तो अवश्य हैं, लेकिन अगर आप लोग मेरे हाथ का खाएं तो मैं भी आपकी पत्नी के हाथ का खा सकता हूं।”

रामदास ने कहा, “मैं तो खा सकता हूं। लेकिन मेरी पत्नी की बात...अच्छा, आपका डेरा तो पास ही है। चलिए न, आपको पहुंचा आऊं। मेरी ट्रेन तो पांच बजे छूटेगी।”

अपूर्व घबरा गया। इस बीच वह सब कुछ भूल गया था। डेरे का नाम लेते ही क्षण भर में उसका सारा उपद्रव, सारा झगड़ा बिजली की रेखा की भांति चमककर उसके चेहरे को श्रीहीन कर गया। अब तक वहां क्या हुआ होगा, वह कुछ नहीं जानता। हो सकता है, बहुत कुछ हुआ तो। अकेले उसी को बीच में जाकर खड़ा होना पड़ेगा। एक परिचित व्यक्ति के साथ रहने से कितनी सुविधा और साहस रहता है। लेकिन परिचय के आरम्भ में ही....यह क्या सोचेगा?.... यह सोचकर अपूर्व को बड़ा संकोच हो उठा। बोला, “देखिए....?”

अभी बात पूरी नहीं कर सका था कि उसके संकोच और लज्जा को अनुभव करके रामदास ने हंसते हुए कहा, “एक ही रात में पूरी सुव्यवस्था की मैं आशा नहीं करता बाबू जी! मुझे भी एक दिन नया डेरा ठीक करना पड़ा था। फिर मेरी तो पत्नी भी थी। आपके साथ तो वह भी नहीं है। आप आज लज्जा का अनुभव कर रहे हैं। लेकिन उन्हें न लाने पर एक वर्ष बाद भी आपकी लज्जा दूर नहीं होगी। यह मैं कहे देता हूं। चलिए देखूं क्या कर सकता हूं। अव्यवस्था के बीच ही तो मित्र की आवश्यकता होती है।”

इस मित्रहीन देश में आज उसे मित्र की अत्यंत आवश्यकता है। दोनों टहलते-टहलते डेरे के सामने पहुंचे तो तलवलकर को घर में आमंत्रित किए बिना न रह सका। ऊपर चढ़ते समय देखा कि वही ईसाई लड़की नीचे उतर रही है। उसका पिता उसके साथ नहीं था। वह अकेली थी। दोनों एक ओर हटकर खड़े हो गए। लड़की धीरे-धीरे उतरकर सड़क पर चली गई।
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Old 13-01-2013, 03:58 AM   #28
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रामदास ने पूछा, “यह लोग तीसरी मंजिल पर रहते हैं क्या?”

“हां।”

“यह लोग भी बंगाली हैं?”

अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, देसी ईसाई हैं। सम्भव है मद्रासी, गोआनीज या और कुछ होंगे, लेकिन बंगाली नहीं हैं।”

रामदास ने कहा, “लेकिन साड़ी पहनने का ढंग तो ठीक आप लोगों जैसा ही है।”

अपूर्व ने हैरानी से पूछा, “हम लोगों का ढंग आपको कैसे मालूम?”

रामदास ने कहा, “मैंने बम्बई, पूना, शिमला में बहुत-सी बंगाली महिलाओं को देखा है। इतना सुंदर साड़ी पहनने का ढंग भारत की किसी जाति में नहीं है।”

“हो सकता है,” कहकर अपूर्व डेरे के बंद दरवाजे को खटखटाने लगा।
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थोड़ी देर बाद अंदर से सतर्क कंठ का उत्तर आया, “कौन?”

“मैं हूं, मैं। दरवाजा खोलो। भय की कोई बात नहीं है,” कहकर अपूर्व हंसने लगा। यह देखकर कि इस बीच कोई भयानक घटना नहीं हुई, तिवारी कमरे में सुरक्षित है। और यह अनुभव करके उसके ऊपर से जैसे एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया।

कमरा देखकर रामदास बोला, “आपका नौकर अच्छा है। सब कुछ अच्छी तरह सजाकर रखा है। यह सारा सामान मैंने ही खरीदा था। आपको और जिस चीज की जरूरत हो, बताइए, भेज दूंगा। रोजेन साहब की आज्ञा है।”

तिवारी ने मधुर स्वर में कहा, “और सामान की जरूरत नहीं है बाबू जी, यहां से सकुशल हट जाएं तो प्राण बच जाएंगे।”

उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन अपूर्व ने सुन लिया। उसने आड़ में ले जाकर पूछा, “और कुछ हुआ था क्या?”

“नहीं।”

“तब फिर ऐसी बात क्यों कहता है?”

तिवारी ने कहा, “शौक से थोडे ही कहता हूं। दोपहर भर साहब जैसी घुड़दौड़ करता रहा है, वैसी क्या कोई मनुष्य कर सकता है?”
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अपूर्व मुस्कराकर बोला, “तो तू चाहता है कि वह अपने कमरे में चलने-फिरने भी न पाए? लकड़ी की छत है! अधिक आवाज होती है।”

तिवारी ने रुष्ट होकर कहा, “एक स्थान पर खड़े होकर घोड़े की तरह पैर पटकने को चलना कहा जाता है?”

अपूर्व बोला, “इससे पता चलता है कि वह शराबी है। उसने जरूर शराब पी रखी होगी।”

तिवारी बोला, “हो सकता है। मैं उसका मुंह सूंघकर देखने नहीं गया था।” फिर अप्रसन्न भाव से रसोई घर में जाते हुए बोला, “चाहे जो भी हो, इस घर में रहना नहीं होगा।”

ट्रेन का समय हो जाने पर रामदास ने विदा मांगी। पता नहीं तिवारी के अभियोग या उसके स्वामी के चेहरे से उसने कुछ अनुमान लगाया या नहीं, लेकिन जाते समय अचानक पूछ बैठा, “बाबू जी, क्या आपको इस डेरे में असुविधा है?”

अपूर्व ने तनिक हंसकर कहा, “नहीं।” फिर रामदास को जिज्ञासु भाव से निहारते देखकर बोला, “ऊपर जो साहब रहते हैं वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहें।”

रामदास ने विस्मित होकर पूछा, “वही लड़की तो नहीं?”

“जी हां, उसी के पिता,” इतना कहकर अपूर्व ने कल सांझ और आज सवेरे की घटनाएं सुना दीं। रामदास कुछ देर मौन रहने के बाद बोला, “मैं होता तो इतिहास दूसरा ही होता। बिना क्षमा मांगे वह इस दरवाजे से एक कदम भी नीचे न उतर पाता।”

अपूर्व ने कहा, “अगर वह क्षमा न मांगता तो आप क्या करते?”
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