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Old 29-06-2013, 09:01 AM   #11
VARSHNEY.009
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ख़ानख़ाना की विनम्रता
अब्दुर्रहीम खानखाना हिंदी काव्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनके दोहे आज भी लोगों के कंठ में जीवित हैं। ऐसा कौन हिंदी-प्रेमी होगा जिसे उनके दस-पाँच दोहे याद न हों। उनके कितने ही दोहे तो लोकोक्तियों की तरह प्रयोग में लाएँ जाते हैं।
खानखाना अकबर के दरबार के सबसे बड़े दरबारी थे और तत्कालीन कोई भी अमीर या उभरा पद-मर्यादा या वैभव में उनसे टक्कर न ले सकता था। किंतु वे बड़े उदार हृदय व्यक्ति थे। स्वयं अच्छे कवि थे और कवियों का सम्मान ही नहीं, उनकी मुक्तहस्त से सहायता करते थे। इतने वैभवशाली, शक्तिमान और विद्वान तथा सुकवि होते हुए भी उनमें सज्जन सुलभ विनम्रता भी थी।
उनकी दानशीलता और विनम्रता से प्रभावित होकर गंग कवि ने एक बार उनसे यह दोहा कहा -
'सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचौं कियौं, त्यों-त्यों नीचे नैन।।'

खानखाना ने बड़ी सरलता से दोहे में ही उतर दिया -
'देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, तासों नीचे नैन।।'

रहीम के समान ऊँचे व्यक्ति ही यह उतर दे सकते हैं।
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Old 29-06-2013, 09:01 AM   #12
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चोट सही जाती है, कही नहीं जाती

केदारनाथ का मार्ग सौंदर्य की दृष्टि से जितना अप्रतिम है, चढ़ाई की दृष्टि से उतना ही बीहड़। सौंदर्य सदा काँटों के बीच ही सुरक्षित रहता है।

मार्ग बीहड़ है तो चोट भी बहुत लगती है। वह स्वयं अपनी चोटें देखकर चकित हुआ है। कैसे पैदा होता है अमिट साहस और विश्वास, यह वह उस दिन जान सका जब उसने एक वृद्धा को देखा। एक चट्टान पर से लुढ़क जाने के कारण काफ़ी चोटें आई थीं। पैदल चलना असंभव था।

उनके साथ कई आदमी थे, सहारा दिया। उनके ज़ख़्म साफ़ किए, दवा लगाई, खाने की दवा दी और उसके बाद उन्हें एक कंडी पर बैठाया। पट्टियाँ बँधी थीं। पीड़ा कभी-कभार कसक उठती थी, पर वह सदा की तरह शांत और हँसमुख बनी रही। सबसे उसी तरह प्यार से बातें करती रहीं।
अपने साथियों के साथ वह भी उनके पास गया। शिष्टाचारवश बड़ी विनम्रता से उसने कहा, "माताजी, आपको तो बहुत चोट लगी है, फिर भी आप. . ."
बात काटकर वे प्यार से बोलीं, "बेटे! तीर्थों में चोट सही जाती है, कही नहीं जाती।"
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Old 29-06-2013, 09:02 AM   #13
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दादी की मीठी चिज्जी
एक दिन मुंबई के लोकल ट्रेन में सफ़र कर रही थी। दोपहर का समय था इसलिए ज़्यादा भीड़ नहीं थी, सो बैठने के लिए जगह भी मिल गई। सामने वाले बेंच पर एक बहुत ही बुड्ढी औरत बैठी थी। सारा बदन झुर्रियों से भरा, बिना दाँत का मुँह भी गोल-गोल, सफ़ेद बालों का सुपारी जितना जूड़ा, और हाथ में एक थैला था जिसमें चिप्स, नमकीन, कुछ मिठाइयों के पैकेट। शायद अपने नाती-पोतों के लिए ये सब चीज़ें ले जा रही हैं दादी जी... सोचकर ये बात बड़ी मज़ेदार लगी।
एक दो स्टेशन जाने के बाद वो दादी उठी, हाथ-पैर थरथर काँप रहे थे, बैठे हुए लोगों का कंधा और जो भी सहारा मिले, पकड़-पकड़कर आगे बढ़ने लगी। मैं हैरान तब हुई जब वह बुढ्ढी औरत अपनी धीमी गहराती आवाज़ में कहने लगी, ''चिप्स, मिठाई ले लो, अपने बच्चों को खुश करो।''
जब तक मेरे कान पर वो शब्द पड़े, दादी काफ़ी आगे निकल चुकी थी। वहाँ भी उसका चिप्स ले लो. . मिठाई ले लो. . .चल ही रहा था। मेरे मन में आया कि एक कोई चीज़ इससे ख़रीदनी चाहिए। लेकिन मुझे अगले स्टेशन पर उतरना था और वह औरत मुझसे काफ़ी दूर निकल गई थी। समय बहुत कम था, शायद उतनी देर में कोई चीज़ लेना और पैसे चुकता करना संभव नहीं था। फिर यह भी लगा कि 'क्या करना अपना बोझ बढ़ा कर, पहले ही मेरा थैला समान से ठसा-ठस भरा हुआ है, और मैं चुप बैठी स्टेशन की राह देखने लगी। जहाँ मैं बैठी थी वहाँ से दूर दिखाई दिया कि एक आभिजात्य घराने की सी लगती महिला ने काफ़ी समान उससे ख़रीद कर उस दादी को जीवन-यापन के इस कठिन कार्य में मदद कर दी। वह देखकर मुझे अच्छा तो लगा, पर खुद को कोसती रही कि अगर मैंने भी दो प्यार भरे बोल बोल के उसकी दुखभरी ज़िंदगी में कुछ तो खुशी दी होती तो शायद मैं उस खुशी को ज़िंदगी भर अपने दिल में सँजो कर रख सकती।
आज भी मुझे उस दादी से मिलने की बड़ी ख्वाहिश है। उसके पास से चिज्जी ले कर अपने बेटे को 'दादी की चिज्जी' कहकर खिलाना चाहती हूँ क्यों कि बातों ही बातों में मैंने उसे दादी के बारे में काफ़ी बताया था (शायद यह सोचकर कि जो ग़लती मैंने की, मेरा बेटा आगे ज़िंदगी में न करें)। यदि आपको भी ऐसी दादी कहीं नज़र आए तो इधर-उधर कुछ भी सोचे बिना मदद का हाथ आगे बढ़ाएँगे ना? उसे जरूरत है हमारे दो मीठे बोलों की, मदद के हाथों की, शायद सहानुभूति उस जैसी खुद्दार को पसंद ना भी आए। मैंने ग़लती की है, आप न करिए!!
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Old 29-06-2013, 09:02 AM   #14
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दिन और रात
बहुत समय पहले की बात है जब सृष्टि की शुरुआत ही हुई थी। दिन और रात नाम के दो प्रेमी थे। दोनों में खूब गहरी पटती पर दोनों का स्वभाव बिल्कुल ही अलग-अलग था। रात सौंदर्य-प्रिय और आराम-पसंद थी तो दिन कर्मठ और व्यावहारिक, रात को ज़्यादा काम करने से सख़्त नफ़रत थी और दिन काम करते न थकता था। रात आराम करना, सजना-सँवरना पसंद करती थी तो दिन हरदम दौड़ते भागते रहना। रात आराम से धीरे-धीरे बादलों की लटों को कभी मुँह पर से हटाती तो कभी वापस उन्हें फिर से अपने चेहरे पर डाल लेती। कभी आसमान के सारे तारों को पिरोकर अपनी पायल बना लेती तो कभी उन्हें वापस अपनी चूनर पर टाँक लेती। लेटी-लेटी घंटों बहती नदी में चुपचाप अपनी परछाई देखती रहती। कभी चंदा-सी पूरी खिल जाती तो कभी सिकुड़कर आधी हो जाती। दूसरी तरफ़ बौखलाया दिन लाल चेहरा लिए हाँफता पसीना बहाता, हर काम जल्दी-जल्दी निपटाने की फिक्र में लगा रहता।
आमने-सामने पड़ते ही दिन और रात में हमेशा बहस शुरू हो जाती। दिन कहता काम ज़्यादा ज*रूरी है और रात कहती आराम। दोनों अपनी-अपनी दलीलें रखते, समझने और समझाने की कोशिश करते पर किसी भी नतीजे पर न पहुँच पाते। जान नहीं पाते कि उन दोनों में आखिर कौन बड़ा है, गुणी है. . .सही है या ज़्यादा महत्वपूर्ण है। हारकर दोनों अपने रचयिता के पास पहुँचे। भगवान ने दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुनीं और कहा कि मुझे तो तुम दोनों का महत्व बिल्कुल बराबर का लगता है तभी तो मैंने तुम दोनों को ही बनाया और अपनी सृष्टि में बराबर का आधा-आधा समय दिया। गुण-अवगुण कुछ नहीं, एक ही पहलू के दो दृष्टिकोण हैं। हर अवगुण में गुण बनने की क्षमता होती है। पर रात और दिन को उनकी बात समझ में न आई और वहीं पर फिर से उनमें वही तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई।
हारकर भगवान ने समझाने की बजाय, थोड़े समय के लिए रात को दिन के उजाले वाली चादर दे दी और दिन को रात की अँधेरे वाली, ताकि दोनों रात और दिन बनकर खुद ही फ़ैसला कर सकें। एक दूसरे के मन में जाकर दूसरे का स्वभाव और ज़रूरतें समझ सकें। तकलीफ़ और खुशियाँ महसूस कर पाएँ। और उस दिन से आजतक सुबह बनी रात जल्दी-जल्दी अपने सारे काम निपटाती है और रात बने दिन को आराम का महत्व समझ में आने लगा है। अब वह रात को निठल्ली और आलसी नहीं कहता बल्कि थकने पर खुद भी आराम करता है। सुनते हैं अब तो दोनों में कोई बहस भी नहीं होती। दोनों ही जान जो गए हैं कि अपनों में छोटा या बड़ा कुछ नहीं होता।
इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति कम या ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं। सबके अपने-अपने काम हैं, अपनी-अपनी योग्यता और ज़रूरतें हैं। जीवन सुचारु और शांतिमय हो इसके लिए काम और आराम, दोनों का ही होना ज़रूरी है। आराम के बिना काम थक जाएगा और काम के बिना आराम परेशान हो जाएगा। अब दिन खुश-खुश सूरज के संग आराम से कर्मठता का संदेश देता है। जीवन पथ को उजागर करता है और रात चंदा की चाँदनी लेकर घर-घर जाती है, थकी-हारी दुनिया को सुख-शांति की नींद सुलाती है। हर शाम-सुबह वे दोनों आज भी अपनी-अपनी चादर बदल लेते हैं. . .प्यार से गले मिलते हैं इसीलिए तो शायद दिन और रात के वह संधि-पल जिन्हें हम सुबह और शाम के नाम से जानते हैं आज भी सबसे ज़्यादा सुखद और सुहाने लगते हैं।
कौन जाने यह विवेक का जादू है या संधि और सद्भाव का. . .या फिर उस संयम का जिसे हम प्यार से परिवार कहते हें। शायद सच में अच्छा बुरा कुछ नहीं होता प्यार और नफ़रत बस हमारी निजी ज़रूरतों का ही नाम है. . .बस हमारी अपनी परछाइयाँ हैं। पर अगर कोण बदल लो तो परछाइयाँ भी तो घट और बढ़ जाती हैं। तभी तो हम आप उनके बच्चे, जो यह मर्म समझ पाए, अपने पूर्वजों की बनाई राह पर आजतक खुश-खुश चलते हैं।
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Old 29-06-2013, 09:02 AM   #15
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दीपों की बातें

एक बार की बात है, दीपावली की शाम थी, मैं दिये सजा ही रहा था कि एक ओर से दीपों के बात करने की आवाज़ सुनाई दी।
मैंने ध्यान लगा कर सुना। चार दीपक आपस में बात कर रहे थे। कुछ अपनी सुना रहे थे कुछ दूसरों की सुन रहे थे। पहला दीपक बोला, 'मैं हमेशा बड़ा बनना चाहता था, सुंदर, आकर्षक और चिकना घड़ा बनना चाहता था पर क्या करूँ ज़रा-सा दिया बन गया।'
दूसरा दीपक बोला, 'मैं भी अच्छी भव्य मूर्ति बन कर किसी अमीर के घर जाना चाहता था। उनके सुंदर, सुसज्जित आलीशान घर की शोभा बढ़ाना चाहता था। पर क्या करूँ मुझे कुम्हार ने छोटा-सा दिया बना दिया।'
तीसरा दीपक बोला, 'मुझे बचपन से ही पैसों से बहुत प्यार है काश मैं गुल्लक बनता तो हर समय पैसों में रहता।'

चौथा दीपक चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था। अपनी बारी आने पर मुस्करा कर अत्यंत विनम्र स्वर में कहने लगा, 'एक राज़ की बात मैं आपको बताता हूँ, कुछ उद्देश्य रख कर आगे पूर्ण मेहनत से उसे हासिल करने के लिए प्रयास करना सही है लेकिन यदि हम असफल हुए तो भाग्य को कोसने में कहीं भी समझदारी नहीं हैं। यदि हम एक जगह असफल हो भी जाते हैं तो और द्वार खुलेंगे। जीवन में अवसरों की कमी नहीं हैं, एक गया तो आगे अनेक मिलेंगे। अब यही सोचो, दीपों का पर्व - दिवाली आ रहा है, हमें सब लोग खरीद लेंगे, हमें पूजा घर में जगह मिलेगी, कितने घरों की हम शोभा बढ़ाएँगे। इसलिए दोस्तों, जहाँ भी रहो, जैसे भी रहो, हर हाल में खुश रहो, द्वेष मिटाओ। खुद जलकर भी दूसरों में प्रकाश फैलाओ, नाचो गाओ, और खुशी-खुशी दिवाली मनाओ।'
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Old 29-06-2013, 09:03 AM   #16
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दूरदृष्टि
बहुत दिनों की बात है हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी गाँव में एक बूढा रहता था, जो महामूर्ख के नाम से चर्चित था। उसके घर के सामने दो बड़े पहाड़ थे, जिससे आने जाने में असुविधा होती थी। पहाड़ के दूसरी ओर पहुँचने में कई दिन लग जाते।
एक दिन उसने अपने दोनो बेटों को बुलाया और उनके हाथों में फावड़ा थमाकर दृढ़ता से दोनो पहाड़ों को काट कर उनके बीच रास्ता बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर कसबे के लोगों नं मजाक उड़ाना शुरू कर दिया- तुम सचमुच महामूर्ख हो। इतने बड़े बड़े पहाड़ों को काटकर रास्ता बनाना तुम बाप बेटों के बस से बाहर है।
बूढ़े ने उत्तर दिया- मेरी मृत्यु के बाद मेरे बेटे यह कार्य जारी रखेंगे। बेटों के बाद पोते और पोतों के बाद परपोते। इस तरह पीढ़ी दर पीढी पहाड़ काटने का सिलसिला जारी रहेगा। हालाँकि पहाड़ बड़े हैं लेकिन हमारे हौसलों और मनोबल से अधिक बड़े तो नहीं हो सकते। हम निरन्तर खोदते हुए एक न एक दिन रास्ता बना ही लेंगे। आने वाली पीढ़ियाँ आराम से उस रास्ते से पहाड़ के उस पार जा सकेंगी।
उस बूढ़े की बात सुनकर लोग दंग रह गए कि जिसे वे महामूर्ख समझते थे उसने सफलता के मूलमन्त्र का रहस्य समझा दिया। गाँव वाले भी उत्साहित होकर पहाड़ काट कर रास्ता बनाने के उसके काम में जुट गए। कहना न होगा कि कुछ महीनों के परिश्रम के बाद वहाँ एक सुंदर सड़क बन गई और दूसरे शहर तक जाने का मार्ग सुगम हो गया। इसके लिये बूढ़े को भी दूसरी पीढ़ी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
दृढ़ संकल्प, लगन, और कड़ी मेहनत के साथ-साथ सकारात्मक सोच रहे तो सफलता जल्दी ही प्राप्त हो जाती है।
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Old 29-06-2013, 09:03 AM   #17
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दोगुना शुल्क
एक युवक जो कि संगीत में निपुणता प्राप्त करने की इच्छा रखता था अपने क्षेत्र के सबसे महान संगीताचार्य के पास पहुँचा और उनसे बोला, ''आप संगीत के महान आचार्य हैं और संगीत में निपुणता प्राप्त करने में मेरी गहरी रुचि है। इसलिए आप से निवेदन है कि आप मुझे संगीत की शिक्षा प्रदान करने की कृपा करें।''
संगीताचार्य ने कहा कि जब तुम्हारी इतनी उत्कट इच्छा है मुझसे संगीत सीखने की तो आ जाओ, सिखा दूँगा। अब युवक ने आचार्य से पूछा कि इस कार्य के बदले उसे क्या सेवा करनी होगी। आचार्य ने कहा कि कोई ख़ास नहीं मात्र सौ स्वर्ण मुद्राएँ मुझे देनी होंगी।
''सौ स्वर्ण मुद्राएँ हैं तो बहुत ज़्यादा और मुझे संगीत का थोड़ा बहुत ज्ञान भी है पर ठीक है मैं सौ स्वर्ण मुद्राएँ आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूँगा,'' युवक ने कहा। इस पर संगीताचार्य ने कहा,
''यदि तुम्हें पहले से संगीत का थोड़ा-बहुत ज्ञान है तब तो तुम्हें दो सौ स्वर्ण मुद्राएँ देनी होंगी।''
युवक ने हैरानी से पूछा,
''आचार्य ये बात तो गणितीय सिद्धांत के अनुकूल नहीं लगती और मेरी समझ से भी परे है। काम कम होने पर कीमत ज़्यादा?''
आचार्य ने उत्तर दिया,
''काम कम कहाँ है? पहले तुमने जो सीखा है उसे मिटाना, विस्मृत कराना होगा तब फिर नए सिरे से सिखाना प्रारंभ करना पड़ेगा।''

वस्तुत: कुछ नया उपयोगी और महत्वपूर्ण सीखने के लिए सबसे पहले मस्तिष्क को खाली करना, उसे निर्मल करना ज़रूरी है अन्यथा नया ज्ञान उसमें नहीं समा पाएगा। सर्जनात्मकता के विकास और आत्मज्ञान के लिए तो यह अत्यंत अनिवार्य है क्योंकि पहले से भरे हुए पात्र में कुछ भी और डालना असंभव है।
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Old 29-06-2013, 09:03 AM   #18
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धैर्य की पराकाष्ठा
बाल गंगाधर तिलक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी थे पर साथ ही साथ वे अद्वितीय कीर्तनकार, तत्वचिंतक, गणितज्ञ, धर्म प्रवर्तक और दार्शनिक भी थे। हिंदुस्तान में राजकीय असंतोष मचाने वाले इस करारी और निग्रही महापुरुष को अंग्रेज़ सरकार ने मंडाले के कारागृह में छह साल के लिए भेज दिया।
यहीं से उनके तत्व चिंतन का प्रारंभ हुआ। दुख और यातना सहते-सहते शरीर को व्याधियों ने घेर लिया था। ऐसे में ही उन्हें अपने पत्नी के मृत्यु की ख़बर मिली। उन्होंने अपने घर एक खत लिखा -
"आपका तार मिला। मन को धक्का तो ज़रूर लगा है। हमेशा आए हुए संकटों का सामना मैंने धैर्य के साथ किया है। लेकिन इस ख़बर से मैं थोड़ा उदास ज़रूर हो गया हूँ। हम हिंदू लोग मानते हैं कि पति से पहले पत्नी को मृत्यु आती है तो वह भाग्यवान है, उसके साथ भी ऐसे ही हुआ है। उसकी मृत्यु के समय मैं वहाँ उसके क़रीब नहीं था इसका मुझे बहुत अफ़सोस है। होनी को कौन टाल सकता है? परंतु मैं अपने दुख भरे विचार सुनाकर आप सबको और दुखी करना नहीं चाहता। मेरी ग़ैरमौजूदगी में बच्चों को ज़्यादा दुख होना स्वाभाविक है।

उन्हें मेरा संदेशा पहुँचा दीजिए कि जो होना था वह हो चुका है। इस दुख से अपनी और किसी तरह की हानि न होने दें, पढ़ने में ध्यान दें, विद्या ग्रहण करने में कोई कसर ना छोड़ें। मेरे माता पिता के देहांत के समय मैं उनसे भी कम उम्र का था। संकटों की वजह से ही स्वावलंबन सीखने में सहायता मिलती है। दुख करने में समय का दुरुपयोग होता है। जो हुआ है उस परिस्थिति का धीरज का सामना करें।"

अत्यंत कष्ट के समय पर भी पत्नी के निधन का समाचार एक कठिन परीक्षा के समान था। किंतु बाल गंगाधर तिलक ने अपना धीरज न खोते हुए परिवार वालों को धैर्य बँधाया व इस परीक्षा को सफलता से पार किया।
जीवन भर उन्होंने कर्मयोग का चिंतन किया था वो ऐसे ही तो नहीं! 'गीता' जैसे तात्विक और अलौकिक ग्रंथ पर आधारित 'गीता रहस्य' उन्होंने इसी मंडाले के कारागृह में लिखा था।
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Old 29-06-2013, 09:04 AM   #19
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नागरिक का कर्तव्य
लीबिया के लिबलिस शहर के एक प्रमुख अस्पताल में अलगअलग वार्डों में मरीजों को मुख्य डाक्टर के आने का इंतजार था। नर्स, कंपाउंडर आदि बेंचों पर शांति से बैठे थे लेकिन लंबे कद का एक आदमी लंबा चोगा पहने, चहलकदमी करता हुआ प्रत्येक स्थान और वस्तु का गहराई से निरीक्षण कर रहा था, तभी अपनी ओर आते बड़े डाक्टर को देख कर वह व्यक्ति ठिठका।

डाक्टर ने पूछा, "ऐ मिस्टर, कौन हो तुम? यहां क्या कर रहे हो?"

वह व्यक्ति बोला, "डाक्टर, मेरे पिता बहुत बीमार है।"

इस पर डाक्टर बोला, "बीमार हैं तो उन्हें यहां भरती कराओ।"

"वह बहुत कमजोर हैं। उन्हें यहां लाना संभव नहीं है। आप चलिए डाक्टर, " उस व्यक्ति ने आदरपूर्वक कहा।

लेकिन डाक्टर ने उसे झिड़क दिया, "क्या बेहूदगी है? मैं तुम्हारे घर कैसे जा सकता हूं?"

"भले ही रोगी मर जाए, फिर भी आप नहीं जा सकते?" वह व्यक्ति बोला।

डाक्टर ने उसे डांटते हुए कहा, "ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं है। तुम्हें मालूम नहीं कि तुम किस से बात कर रहे हो। चीफ सिविल सर्जन से इस तरह बात की जाती है?"

यह सुन कर वह व्यक्ति तिलमिला गया। इस का उस ने सख्ती से उत्तर दिया, "मैं ने अभी तक तो बहुत शराफत बरती है, लेकिन मुझे तुम से बात करने का ढंग सीखने की जरूरत नहीं है डाक्टर । तुम भी नहीं जानते कि तुम किस से बात कर रहे हो।"

अब डाक्टर का पारा चढ़ गया। उसने अस्पताल के वार्ड अटेंडेंट को पुकार कर कहा, "इस पागल को पागलखाने भिजवा दो।"

जैसे ही अटेंडेंट आगे बढ़ा, उस लंबे व्यक्ति ने अपना चोगा उतार फेंका। डाक्टर ने देखा, सामने कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि सैनिक वरदी में एक रोबदार कर्नल खड़ा था। अब तो डाक्टर भी खुद सकपका गया। अपने देश के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी को सामने देख कर उस के होश उड़ गए।

कर्नल गद्दाफी ने आदेश दिया, डाक्टर, अब तुम्हारे लिए लीबिया में कोई जगह नहीं है। मैं एक अस्पताल का नहीं, पूरे देश का अनुशासित सेनापति और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी हूं। जो लोग अपना कर्तव्य निभाना नही जानते, उन्हें इस देश में रहने का कोई हक नहीं।"

राष्ट्रपति के आदेश पर तत्काल अमल हुआ और सबक मिला कि राष्ट्र सेवा प्रत्येक नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य है।


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नागरी की शक्ति

पंडित मदन मोहन मालवीय जी को एक बार एक मौलवी ने अपना वकील बनाया। मुकदमे में कुछ अरबी पुस्तकों से न्यायालय के फैसलों के उद्धरण देने थे जिन्हें मालवीय जी ने अपने हाथ से नागरी लिपि में लिख लिया था। अदालत में विरोधी पक्ष जब ये उद्धरण देने लगा तो वह शुद्ध उच्चारण नहीं कर पा रहा था।

मालवीय जी ने जज से कहा कि यह अशुद्ध पढ़ा जा रहा है। अगर आप इजाज़त दें तो मैं इनको ठीक से पढ़ दूं। जज की अनुमति मिलते ही उन्होंने अपने हाथ का लिखा कागज़ निकाल कर बिना अटके शुद्ध ढंग से उन अरबी में लिखे गये नज़ीरों को पढ़ कर सुना दिया।

नागरी की इस शक्ति और क्षमता को देखकर सब दंग रह गए। अदालतों को अरबी और फारसी के प्रभाव से मुक्त करने में यह घटना काफी मददगार सिद्ध हुई।
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