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Old 29-06-2013, 09:04 AM   #21
VARSHNEY.009
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निजी बदलाव
बात बहुत पुरानी है, यह एक कहानी है, कहीं से सुनी आज आपको सुनाती हूँ।
एक राजा था। वह अपनी बेटी से बेइंतहा प्यार करता था, उसकी हर इच्छा पूरी करता था। लेकिन बेटी को कभी महल के बाहर नहीं जाने देता था। बेटी महल के बाहर की दुनिया से अपरिचित थी।

एक दिन बेटी ने शहर देखने की इच्छा जताई। राजा के मना करने पर बेटी रूठ गई। राजा चिंता में पड़ गए। फूल-सी बेटी, कभी पैदल ज़्यादा चली नहीं। महल की नर्म चटाइयों पर रहने वाले कोमल पैर पथरीली सड़कों पर कैसे चलेंगे? उस समय न तो आज जैसी कोई पक्की सड़क थी, न ही जूतों का जनम हुआ था। क्या किया जाए?
सोच-विचार के बाद राजा ने मंत्रियों को आदेश दिया की पूरी शहर की गलियों पर चमड़े की चादर बिछा दी जाए, ताकि राजकुमारी को चलने में तकलीफ़ न हो।
तभी एक दरबारी ने सुझाव दिया कि सारे शहर में चमड़ा बिछाने के बजाय क्यों न राजकुमारी के पैरों में चमड़ा पहना दिया जाए। इससे राजकुमारी के पैर भी सुरक्षित रहेंगे और काम भी आसान हो जाएगा। बात बड़ी सरल और तर्कपूर्ण है। दुनिया भर को अपने अनुकूल करने से बेहतर व आसान है निजी बदलाव।
सुनते हैं तभी से जूते पहनने का चलन शुरू हुआ।
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Old 29-06-2013, 09:04 AM   #22
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नियम सबके लिए है
बात सन १८८५ की है। पूना के न्यू इंग्लिश हाईस्कूल में समारोह हो रहा था। प्रमुख द्वार पर एक स्वयंसेवक नियुक्त था, जिसे यह कर्तव्य-भार दिया गया था कि आनेवाले अतिथियों के निमंत्रण पत्र देखकर उन्हें सभा-स्थल पर यथास्थान बिठा दे। इस समारोह के मुख्य अतिथि थे मुख्य न्यायाधीश महादेव गोविंद रानडे। जैसे ही वह विद्यालय के द्वार पर पहुँचे, वैसे ही स्वयं सेवक ने उन्हें अंदर जाने से शालीनतापूर्वक रोक दिया और निमंत्रण-पत्र की माँग की।
"बेटे! मेरे पास तो निमंत्रण-पत्र नहीं हैं," रानडे ने कहा।
"क्षमा करें, तब आप अंदर प्रवेश न कर सकेंगे," स्वयंसेवक का नम्रतापूर्ण उत्तर था।
द्वार पर रानडे को देखकर स्वागत समिति के कई सदस्य आ गए और उन्हें अंदर मंच की ओर ले जाने का प्रयास करने लगे। पर स्वयंसेवक ने आगे बढ़कर कहा, "श्रीमान! मेरे कार्य में यदि स्वागत-समिति के सदस्य ही रोड़ा अटकाएँगे तो फिर मैं अपना कर्तव्य कैसे निभा सकूँगा? कोई भी अतिथि हो उसके पास निमंत्रण-पत्र होना ही चाहिए। भेद-भाव की नीति मुझसे नहीं बरती जाएगी।"

यह स्वयंसेवक आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और देश की बड़ी सेवा की।
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Old 29-06-2013, 09:05 AM   #23
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दिन और रात
बहुत समय पहले की बात है जब सृष्टि की शुरुआत ही हुई थी। दिन और रात नाम के दो प्रेमी थे। दोनों में खूब गहरी पटती पर दोनों का स्वभाव बिल्कुल ही अलग-अलग था। रात सौंदर्य-प्रिय और आराम-पसंद थी तो दिन कर्मठ और व्यावहारिक, रात को ज़्यादा काम करने से सख़्त नफ़रत थी और दिन काम करते न थकता था। रात आराम करना, सजना-सँवरना पसंद करती थी तो दिन हरदम दौड़ते भागते रहना। रात आराम से धीरे-धीरे बादलों की लटों को कभी मुँह पर से हटाती तो कभी वापस उन्हें फिर से अपने चेहरे पर डाल लेती। कभी आसमान के सारे तारों को पिरोकर अपनी पायल बना लेती तो कभी उन्हें वापस अपनी चूनर पर टाँक लेती। लेटी-लेटी घंटों बहती नदी में चुपचाप अपनी परछाई देखती रहती। कभी चंदा-सी पूरी खिल जाती तो कभी सिकुड़कर आधी हो जाती। दूसरी तरफ़ बौखलाया दिन लाल चेहरा लिए हाँफता पसीना बहाता, हर काम जल्दी-जल्दी निपटाने की फिक्र में लगा रहता।
आमने-सामने पड़ते ही दिन और रात में हमेशा बहस शुरू हो जाती। दिन कहता काम ज़्यादा ज*रूरी है और रात कहती आराम। दोनों अपनी-अपनी दलीलें रखते, समझने और समझाने की कोशिश करते पर किसी भी नतीजे पर न पहुँच पाते। जान नहीं पाते कि उन दोनों में आखिर कौन बड़ा है, गुणी है. . .सही है या ज़्यादा महत्वपूर्ण है। हारकर दोनों अपने रचयिता के पास पहुँचे। भगवान ने दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुनीं और कहा कि मुझे तो तुम दोनों का महत्व बिल्कुल बराबर का लगता है तभी तो मैंने तुम दोनों को ही बनाया और अपनी सृष्टि में बराबर का आधा-आधा समय दिया। गुण-अवगुण कुछ नहीं, एक ही पहलू के दो दृष्टिकोण हैं। हर अवगुण में गुण बनने की क्षमता होती है। पर रात और दिन को उनकी बात समझ में न आई और वहीं पर फिर से उनमें वही तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई।
हारकर भगवान ने समझाने की बजाय, थोड़े समय के लिए रात को दिन के उजाले वाली चादर दे दी और दिन को रात की अँधेरे वाली, ताकि दोनों रात और दिन बनकर खुद ही फ़ैसला कर सकें। एक दूसरे के मन में जाकर दूसरे का स्वभाव और ज़रूरतें समझ सकें। तकलीफ़ और खुशियाँ महसूस कर पाएँ। और उस दिन से आजतक सुबह बनी रात जल्दी-जल्दी अपने सारे काम निपटाती है और रात बने दिन को आराम का महत्व समझ में आने लगा है। अब वह रात को निठल्ली और आलसी नहीं कहता बल्कि थकने पर खुद भी आराम करता है। सुनते हैं अब तो दोनों में कोई बहस भी नहीं होती। दोनों ही जान जो गए हैं कि अपनों में छोटा या बड़ा कुछ नहीं होता।
इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति कम या ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं। सबके अपने-अपने काम हैं, अपनी-अपनी योग्यता और ज़रूरतें हैं। जीवन सुचारु और शांतिमय हो इसके लिए काम और आराम, दोनों का ही होना ज़रूरी है। आराम के बिना काम थक जाएगा और काम के बिना आराम परेशान हो जाएगा। अब दिन खुश-खुश सूरज के संग आराम से कर्मठता का संदेश देता है। जीवन पथ को उजागर करता है और रात चंदा की चाँदनी लेकर घर-घर जाती है, थकी-हारी दुनिया को सुख-शांति की नींद सुलाती है। हर शाम-सुबह वे दोनों आज भी अपनी-अपनी चादर बदल लेते हैं. . .प्यार से गले मिलते हैं इसीलिए तो शायद दिन और रात के वह संधि-पल जिन्हें हम सुबह और शाम के नाम से जानते हैं आज भी सबसे ज़्यादा सुखद और सुहाने लगते हैं।
कौन जाने यह विवेक का जादू है या संधि और सद्भाव का. . .या फिर उस संयम का जिसे हम प्यार से परिवार कहते हें। शायद सच में अच्छा बुरा कुछ नहीं होता प्यार और नफ़रत बस हमारी निजी ज़रूरतों का ही नाम है. . .बस हमारी अपनी परछाइयाँ हैं। पर अगर कोण बदल लो तो परछाइयाँ भी तो घट और बढ़ जाती हैं। तभी तो हम आप उनके बच्चे, जो यह मर्म समझ पाए, अपने पूर्वजों की बनाई राह पर आजतक खुश-खुश चलते हैं।
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Old 29-06-2013, 09:05 AM   #24
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पगडंडी

चौड़े रास्ते ने पास चलती पगडंडी से कहा -
"अरी पगडंडी, मेरे रहते मुझे तुम्हारा अस्तित्व अनावश्यक-सा जान पड़ता है। व्यर्थ ही तुम मेरे आगे-पीछे, जाल-सा बिछाए चलती हो!"

पगडंडी ने भोलेपन से कहा, "नहीं जानती, तुम्हारे रहते लोग मुझ पर क्यों चलते हैं। एक के बाद एक दूसरा चला। और फिर, तीसरा, इस तरह मेरा जन्म ही अनायास और अकारण हुआ है!"
रास्ते ने दर्प के साथ कहा, "मुझे तो लोगों ने बड़े यत्न ने बनाया है, मैं अनेक शहरों-गावों को जोड़ता चला जाता हूँ!"
पगडंडी आश्चर्य से सुन रही थी। "सच?" उसने कहा, "मैं तो बहुत छोटी हूँ!"
तभी एक विशाल वाहन, घरघराकर रास्ते पर रुक गया। सामने पड़ी छोटी पुलिया के एक तरफ़ बोर्ड लगा था, "बड़े वाहन सावधान! पुलिया कमज़ोर है।"

वाहन, एक भरी हुई यात्री-गाड़ी थी, जो पुलिया पर से नहीं जा सकती थी। पूरी गाड़ी खाली करवाई गई। लोग पगडंडी पर चल पड़े। पगडंडी, पुलिया वाले सूखे नाले से जाकर, फिर उसी रास्ते से मिलती थी। उस पार, फिर यात्रियों को बैठाकर गाड़ी चल दी।
रास्ते ने एक गहरा नि:श्वास छोड़ा! "री, पगडंडी! आज मैं समझा छोटी से छोटी वस्तु, वक्त आने पर मूल्यवान बन जाती है।"
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Old 29-06-2013, 09:07 AM   #25
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पश्चात्ताप
कर्णवास का एक पंडित महर्षि दयानंद सरस्वती को प्रतिदिन गालियाँ दिया करता था, पर महर्षि शांत भाव से उन्हें सुनते रहते और उसे कुछ भी उत्तर न देते।
एक दिन जब वह गाली देने नहीं आया तब महर्षि ने लोगों से उसके न आने का कारण पूछा। लोगों ने बताया, "वह बीमार है।"

महर्षि फल और औषध लेकर उसके घर पहुँचे। वह महर्षि को देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने असद व्यवहार के लिए क्षमा माँगने लगा। इसके बाद उसका गाली देना सदा के लिए छूट गया।
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Old 29-06-2013, 09:07 AM   #26
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पिंजरे के पंछी
चंद्र प्रकाश के चार साल के बेटे को पंछियों से बेहद प्यार था। वह अपनी जान तक न्योछावर करने को तैयार रहता। ये सभी पंछी उसके घर के आंगन में जब कभी आते तो वह उनसे भरपूर खेलता। उन्हें जी भर कर दाने खिलाता। पेट भर कर जब पंछी उड़ते तो उसे बहुत अच्छा लगता।

एक दिन बेटे ने अपने पिता जी से अपने मन की एक इच्छा प्रकट की। - "पिता जी, क्या चिड़िया, तोता औ कबूतर की तरह मैं नहीं उड़ सकता?"
"नहीं।" पिता जी ने पुत्र को पुचकारते हुए कहा।
"क्यों नहीं?"
"क्यों कि बेटे, आपके पंख नहीं हैं।"
"पिता जी, क्या चिड़िया, तोता और कबूतर मेरे साथ नहीं रह सकते हैं? क्या शाम को मैं उनके साथ खेल नहीं सकता हूं?"
"क्यों नहीं बेटे? हम आज ही आपके लिए चिड़िया, तोता औ कबूतर ले आएँगे।
जब जी चाहे उनसे खेलना। हमारा बेटा हमसे कोई चीज़ माँगे और हम नहीं लाएँ, ऐसा कैसे हो सकता है?"

शाम को जब चन्द्र प्रकाश घर लौटे तो उनके हाथों में तीन पिंजरे थे - चिड़िया, तोता और कबूतर के। तीनों पंछियों को पिंजरों में दुबके पड़े देखकर पुत्र खुश न हो सका।
बोला- "पिता जी, ये इतने उदास क्यों हैं?"
"बेटे, अभी ये नये-नये मेहमान हैं। एक-दो दिन में जब ये आप से घुल मिल जाऐंगे तब देखना इनको उछलते-कूदते और हंसते हुए?" चन्द्र प्रकाश ने बेटे को तसल्ली देते हुए कहा।

दूसरे दिन जब चन्द्र प्रकाश काम से लौटे तो पिंजरों को खाली देखकर बड़ा हैरान हुए। पिंजरों में न तो चिड़िया थी और न ही तोता और कबूतर। उन्होंने पत्नी से पूछा-"ये चिड़िया, तोता और कबूतर कहाँ गायब हो गये हैं?"
"अपने लाडले बेटे से पूछिए।" पत्नी ने उत्तर दिया।
चन्द्र प्रकाश ने पुत्र से पूछा-"बेटे, ये चिड़िया, तोता औ कबूतर कहाँ हैं?"
"पिता जी, पिंजरों में बंद मैं उन्हें देख नहीं सका। मैंने उन्हें उड़ा दिया है।" अपनी भोली ज़बान में जवाब देकर बेटा बाहर आंगन में आकर आकाश में लौटते हुए पंछियों को देखने लगा।

सच है सच्ची खुशी जिन्हें हम प्यार करते हैं उनको खुश देखने में है। उन्हें बाँधकर अपने सामने रखने में नहीं।
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Old 29-06-2013, 09:07 AM   #27
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पुरानी नाक एक ग़रीब मनुष्य ने देवता से वर प्राप्त किया था। देवता संतुष्ट हो कर बोले तुम ये पासा लो। इस पाँसे को जिन किन्हीं तीन कामनाओं से तीन बार फेंकोगे वे तीनों पूरी हो जाएँगी।
वह आनंदोल्लासित हो घर जाकर अपनी स्त्री के साथ परामर्श करने लगा क्या वर माँगना चाहिए। स्त्री ने कहा धन दौलत माँगो किंतु पति ने कहा देखो हम दोनों की नाक चपटी है उसे देख कर लोग हमारी बड़ी हँसी करते हैं। अत: प्रथम बार पाँसा फेंक कर सुंदर नाक की प्रार्थना करनी चाहिए। किंतु स्त्री का मत वैसा नहीं था। अंत में दोनों में खूब तर्क प्रारंभ हुआ। आख़िर पति ने क्रोध में आकर यह कह कर पाँसा फेंक दिया - हमें सुंदर नाक मिले, सुंदर नाक मिले, सुंदर नाक मिले।
आश्चर्य! जैसे ही उसने पासा फेंका वैसे ही उसके शरीर में तीन नाकें उत्पन्न हो गईं। तब उसने देखा यह तो विपत्ति आ पड़ी। फिर उसने दूसरी बार पासा फेंक कर कहा नाक चली जाएँ। इस बार सभी नाकें चली गईं। साथ ही अपनी नाक भी चली गई।
अब शेष रहा एक वर, तब उन्होंने सोचा यदि इस बार पासा फेंक कर चपटी नाक के बदले में सुंदर नाक प्राप्त करें तो लोग अवश्य ही चपटी नाक के स्थान पर अच्छी नाक देख कर उसके बारे में पूछताछ करेंगे। फिर तो हमें सभी बातें बतानी पड़ेगी। तब वे हमें मूर्ख समझ कर हमारी और भी हँसी उडाएँगे। कहेंगे कि ये लोग ऐसे तीन वरों को प्राप्त कर के भी अपनी अवस्था की उन्नति नहीं कर सके। यह सोच कर उन्होंने पासा फेंक कर अपनी पुरानी चपटी नाक ही माँग ली।
ठीक ही है समझबूझ कर काम न करने वाले लोग अवसरों को अपने हाथ से यों ही गँवा देते हैं। उनका लाभ नहीं उठा पाते।
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Old 29-06-2013, 09:07 AM   #28
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प्रेमचंद की गाय

उन दिनों प्रसिद्ध उपन्यास-लेखक मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर में अध्यापक थे। उन्होंने अपने यहाँ गाय पाल रखी थी। एक दिन चरते-चरते उनकी गाय वहाँ के अंग्रेज़ जिलाधीश के आवास के बाहरवाले उद्यान में घुस गई। अभी वह गाय वहाँ जाकर खड़ी ही हुई थी कि वह अंग्रेज़ बंदूक लेकर बाहर आ गया और उसने ग़ुस्से से आग बबूला होकर बंदूक में गोली भर ली।
उसी समय अपनी गाय को खोजते हुए प्रेमचंद वहाँ पहुँच गए।

अंग्रेज़ ने कहा कि 'यह गाय अब तुम यहाँ से ले नहीं जा सकते। तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुमने अपने जानवर को मेरे उद्यान में घुसा दिया। मैं इसे अभी गोली मार देता हूँ, तभी तुम काले लोगों को यह बात समझ में आएगी कि हम यहाँ हुकूमत कर रहे हैं।' और उसने भरी बंदूक गाय की ओर तान दी।
प्रेमचंद ने नरमी से उसे समझाने की कोशिश की, 'महोदय! इस बार गाय पर मेहरबानी करें। दूसरे दिन से इधर नहीं आएगी। मुझे ले जाने दें साहब। यह ग़लती से यहाँ आई।' फिर भी अंग्रेज़ झल्लाकर यही कहता रहा, 'तुम काला आदमी ईडियट हो - हम गाय को गोली मारेगा।' और उसने बंदूक से गाय को निशान बनाना चाहा।
प्रेमचंद झट से गाय और अंग्रेज़ जिलाधीश के बीच में आ खड़े हुए और ग़ुस्से से बोले, 'तो फिर चला गोली। देखूँ तुझमें कितनी हिम्मत है। ले। पहले मुझे गोली मार।' फिर तो अंग्रेज़ की हेकड़ी हिरन हो गई। वह बंदूक की नली नीची कर कहता हुआ अपने बंगले में घुस गया।
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Old 29-06-2013, 09:07 AM   #29
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पूजनीय कौन
एक मंदिर में स्थापित प्रस्तर प्रतिमा पर चढ़ाए गए पुष्प ने क्रोधित होकर पुजारी से कहा,
"तुम प्रतिदिन इस प्रस्तर प्रतिमा पर मुझे चढ़ाकर इसकी पूजा करते हो। यह मुझे कतई पसंद नहीं है। पूजा मेरी होनी चाहिये क्योंकि मैं कोमल, सुंदर, सुवासित हूँ। यह तो मात्र पत्थर की मूर्ति है।
मंदिर के पुजारी ने हँसते हुए कहा,
हे पुष्प, तुम कोमल, सुंदर, सुवासित अवश्य हो पर तुम्हें ईश्वर ने ऐसा बनाया है। ये गुण तुम्हें सहजता से प्राप्त हुए हैं। इनके लिये तुम्हें कोई श्रम नहीं करना पड़ा है। पर देवत्व प्राप्त करना बड़ा कठिन काम है। इस देव प्रतिमा का निर्माण बड़ी कठिनाई से किया जाता है। एक कठोर पत्थर को देव प्रतिमा बनने के लिये हजारों चोटें व पड़ी सहनी पड़ती है। चोट लगते ही अगर यह टूट कर बिखर जाता तो शायद यह कभी देव प्रतिमा नहीं बन सकता था। एक बार ग कठोर पत्थर देव प्रतिमा में ढल जाए तो लोग उसे बड़े आदर भाव से मंदिर में स्थापित कर प्रतिदिन उसकी पूजा अर्चना करते हैं। इस प्रस्तर की सहनशीलता ने ही इसे देव प्रतिमा के रूप में पूजनीय तथा वंदनीय बना दिया है।

यह सुनकर पुष्प मुस्कुरा दिया। वह समझ गया कि कठिन परीक्षा को सफलता पूर्वक पार करनेवाला ही देवत्व प्राप्त करता है।
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Old 29-06-2013, 09:08 AM   #30
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प्रगति और अभिमान

एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अपने पुत्र को मूर्ति बनाने की कला में दक्ष करना चाहता था। उसका पुत्र भी लगन और मेहनत से कुछ समय बाद बेहद खूबसूरत मूर्तियाँ बनाने लगा। उसकी आकर्षक मूर्तियों से लोग भी प्रभावित होने लगे। लेकिन उसका पिता उसकी बनाई मूर्तियों में कोई न कोई कमी बता देता था। उसने और कठिन अभ्यास से मूर्तियाँ बनानी जारी रखीं। ताकि अपने पिता की प्रशंसा पा सके। शीघ्र ही उसकी कला में और निखार आया। फिर भी उसके पिता ने किसी भी मूर्ति के बारे में प्रशंसा नहीं की।
निराश युवक ने एक दिन अपनी बनाई एक आकर्षक मूर्ति अपने एक कलाकार मित्र के द्वारा अपने पिता के पास भिजवाई और अपने पिता की प्रतिक्रिया जानने के लिये स्वयं ओट में छिप गया। पिता ने उस मूर्ति को देखकर कला की भूरि भूरि प्रशंसा की और बनानेवाले मूर्तिकार को महान कलाकार भी घोषित किया। पिता के मुँह से प्रशंसा सुन छिपा पुत्र बाहर आया और गर्व से बोला- "पिताजी वह मूर्तिकार मैं ही हूँ। यह मूर्ति मेरी ही बनाई हुई है। इसमें आपने कोई कमी नहीं निकाली। आखिर आज आपको मानना ही पड़ा कि मैं एक महान कलाकार हूँ।"
पुत्र की बात पर पिता बोला, "बेटा एक बात हमेशा याद रखना कि अभिमान व्यक्ति की प्रगति के सारे दरवाजे बंद कर देता है। आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नहीं की। इसी से तुम अपनी कला में निखार लाते रहे अगर आज यह नाटक तुमने अपनी प्रशंसा के लिये ही रचा है तो इससे तुम्हारी ही प्रगति में बाधा आएगी। और अभिमान के कारण तुम आगे नहीं पढ़ पाओगे।"
पिता की बातें सुन पुत्र को गलती का अहसास हुआ। और पिता से क्षमा माँगकर अपनी कला को और अधिक निखारने का संकल्प लिया।
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