My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 12-07-2013, 01:36 PM   #1
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default व्यंग्य सतसई

मैं आ रही हूँ
राजकिशोर








बहन माया आज बहुत खुश थीं। खुश थीं या खुश दिखाई पड़ रही थीं, यह बता पाना मुश्किल है। जो राजनीति में है उसके करीबी भी इसका अंदाजा नहीं लगा सकते। इस मामले में मनमोहन सिंह सबसे अधिक विश्वसनीय हैं। ठीक भारत सरकार की तरह, जिसका चेहरा नितांत अपारदर्शी है। सोनिया गांधी ने भी इस दिशा में अच्छी प्रगति की है। पर उनमें एक कमी है। उन्हें मुस्कराते हुए शायद ही किसी ने देखा हो, पर जब वे वीर या रौद्र रस में होती हैं, तो अपने को अप्रकट नहीं रख पातीं। मुझे विश्वास है कि राहुल गांधी इस कमी को दूर करने में पूरी तरह सफल होंगे।
बहरहाल, बात माया मेमसाहब की हो रही थी। पिछले दिनों वे काफी परेशान नजर आ रही थीं। उन्हें लगता था कि केन्द्र की सरकार जेल और उनके बीच की दूरी को कम करने की कोशिश में लगी हुई है। यह कोशिश करते-करते जब वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में भूतपूर्व हो गए, तब मनमोहन सिंह की सरकार ने इस मिशन को अपना लिया। लेकिन अभी तक तो माया बहन ताज कॉरिडोर से दूर रह पाने में सफल रही हैं। अब आगे कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि लखनऊ उन्हें चीख-चीख कर अपने पास बुला रहा है।
जो लखनऊ को प्यारा हो गया, आगरा और फैजाबाद जैसे शहर उसके सामने पानी भरने लगते हैं। गद्दी पर आने का सबसे बड़ा फायदा यही है। जैसे गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप कट जाते हैं, वैसे ही सत्ता में जाने के बाद आदमी कानून की सभी धाराओं से ऊपर उठ जाता है। कानून शासितों के लिए होता है, शासकों के लिए नहीं। इसीलिए मायावती को अपने तीसरे मुख्यमंत्रित्व की आहट से बहुत प्रसन्नता हो रही थी। खुशी का भार इतना ज्यादा था कि पैर जमीन पर एक जगह टिक नहीं रहे थे। इसी मूड में वे संवाददाता सम्मेलन में पधारीं।
मायावती न केवल अच्छे मूड में थीं, बल्कि अच्छा दिखने के लिए उन्होंने कोई पत्थर उठाए बिना नहीं छोड़ा था (अंग्रेजी के एक पुराने, घिसे-पिटे मुहावरे का समकालीन घटिया अनुवाद)। वे इस विचारधारा से गहराई से प्रभावित नजर आ रही थीं कि गरीब भारत के नेता को गरीब नहीं दिखना चाहिए। माया के संक्षिप्त शब्दकोश में गरीब का अर्थ है दलित। अतः उनका स्वाभाविक आग्रह रहता है कि वे आम दलित की तरह न दिखें। उन्हें दलितों का गांधी नहीं, जवाहर बनना है। गांधी तो दलित-विरोधी थे। जवाहर ने आंबेडकर को अपने पहले मंत्रिमंडल में स्थान दिया था। लेकिन आंबेडकर ज्यादा दिन सत्ता में नहीं रह सके, क्योंकि उन्हें सत्ता की बजाय अपने सिद्धान्त प्यारे थे।
यह घटना जितने ऐतिहासिक महत्त्व की थी, इससे माया बहन ने उतनी ही ऐतिहासिक सीख ली थी। चूँकि सत्ता में आए बगैर दलितों के लिए कुछ नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्होंने विचारधारा को लम्बी छुट्टी दे दी थी। कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने विचारधारा को छुट्टी पर नहीं भेजा है, बल्कि सदा के लिए रिटायर कर दिया है। सचाई जो भी हो, विचारधारा न भी रह जाए, विचार तो बना ही रहता है। एक समय कहा जाता था कि खादी वस्त्र नहीं, विचार है। इसी तरह माया बहन के कीमती कपड़ों, हीरे आदि के माध्यम से उनके विचार प्रकट हो रहे थे। इन विचारों में काफी समृद्धि थी।
एक संवाददाता ने पहला सवाल दागा : क्या आपको आभास है कि मुलायम सिंह के बाद आप ही आ रही हैं?
माया : हाँ, मैं आ रही हूँ।
दूसरा संवाददाता : सत्ता में आने के बाद आपका एजेंडा क्या होगा?
माया : तब की तब देखी जाएगी। अभी तो मैं आ रही हूँ।
तीसरा संवाददाता : मुलायम सिंह की सरकार का मूल्यांकन आप किस तरह करती हैं?
माया : कहा न, मैं आ रही हूँ।
चौथा संवाददाता : क्या बहुजन समाज पार्टी को अकेले बहुमत मिल सकेगा?
माया : यह इस बात से स्पष्ट है कि मैं आ रही हूँ।
पाँचवाँ संवाददाता : सत्ता में आने के लिए आप किन दलों का सहयोग लेना चाहेंगी?
माया : क्या इतना काफी नहीं है कि मैं आ रही हूँ?
छठा संवाददाता : कांग्रेस के प्रति आपका नजरिया क्या रहेगा?
माया : वे जानते हैं कि मैं आ रही हूँ।
सातवाँ संवाददाता : उत्तर प्रदेश के प्रशासन के लिए आपका संदेश क्या है?
माया : वे यह न भूलें कि मैं आ रही हूँ।
आठवाँ संवाददाता : सत्ता में आने के बाद कौन-कौन-से परिवर्तन करना चाहेंगी?
माया : फिलहाल इतना परिवर्तन काफी है कि मैं आ रही हूँ।
नौवाँ संवाददाता : दलित वर्ग के लिए आपका संदेश?
माया : उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है, मैं आ रही हूँ।
दसवीं संवाददाता एक लड़की थी, जो अंग्रेजी स्कूल से निकल कर सीधे एक प्रसिद्ध टीवी चैनल में घुस गई थी। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। विजुअल तो उसे मिल गए थे, पर ऑडियो जरा भी नहीं जम रहा था। अब तक उसका पेशेंस जवाब दे चुका था। उसने अपने साथियों से कहा, मैं जा रही हूँ।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:38 PM   #2
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मैं चुप रहूँगा
राजकिशोर






लोग मुझे पत्थर का सनम कहने लगे हैं। उनका मानना है कि नंदीग्राम में हुई सरकारी हिंसा पर बयान नहीं देकर मैंने मार्क्सवाद के साथ थोड़ी-सी बेवफाई की है। बेफवाई थोड़ी-सी हो या ज्यादा, है तो बेवफाई ही। इसलिए मुझे उनकी समझ पर तरस आता है। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि बंगाल के लेखकों और बुद्धिजीवियों ने प्रतिवाद जुलूस निकाल कर क्या कर लिया? बताते हैं कि बुद्धिजीवियों के आह्वान पर उस जुलूस में 60 हजार लोग शरीक हुए थे। मैं ऐसे जुलूस को जनवादी जुलूस मानने से इनकार करता हूँ। पहली बात तो यह है कि जिन बुद्धिजीवियों के आह्वान पर जुलूस में शामिल होने के लिए सौ-पचास नहीं, 60 हजार लोग उमड़ पड़ें, वे वास्तविक बुद्धिजीवी नहीं हो सकते। यह तो भीड़वाद है। मैं भीड़वादी नहीं हूँ। जनवादी हूँ। जन का अर्थ भीड़ नहीं होता। भीड़ में जब जनवादी चेतना का संक्रमण होता है, तब वह जन हो जाती है। जनवाद उसी की रक्षा के लिए है। जानम, समझा करो।
फिर, इस बात का क्या सबूत है कि कोलकाता के उस प्रतिवाद जुलूस में साठ हजार लोग ही थे? भारतीयों में न केवल इतिहास चेतना नहीं है, बल्कि उनमें संख्या की चेतना भी नहीं है। सुनते हैं, सांख्य नाम का एक वैज्ञानिक दर्शन का विकास इसी देश में हुआ था। इसके बावजूद भारतीयों की सांख्य दृष्टि बहुत अधूरी है। वे एक-दो-तीन से ज्यादा नहीं जानते। इसीलिए उनकी बुद्धि नौ दो ग्यारह हो चुकी है। अखबारों में लिख दिया, साठ हजार और सभी ने कहना शुरू कर दिया, साठ हजार। अरे भाई, किसी ने गिनती की थी? मैं बुद्धिजीवी हूँ। लोगों की बात पर क्यों जाऊँ? कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। असली बात यह है कि दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे। अगर संख्या से ही फैसला होना है, तो मेरी पार्टी कोलकाता में पाँच लाख लोगों का जुलूस निकाल सकती है। लेकिन हम संख्या नहीं, गुण देखते हैं।
इसीलिए हम जनवादी लोग बूर्ज्वा लोकतंत्र की निंदा करते हैं। अकबर इलाहाबादी ने इस लोकतंत्र की निन्दा करते हुए कहा था कि यह एक ऐसा सिस्टम है जिसमें बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते। लेकिन हमारे आलोचक गिनने में लगे हुए हैं। वे रोज गिनते रहते हैं कि नंदीग्राम में कुल कितने लोगों की हत्या की गई। इनमें से कितनी हत्याएँ कॉमरेडों ने कीं, कितनी पुलिस ने की और कितनी सीआरपीएफ ने। वे यह नहीं गिनते कि कितने जनवादियों को कितने समय से नंदीग्राम से बाहर किया हुआ था। यह कोई बात हुई? असली जनवादी तो गाँव के बाहर शरणार्थी शिविरों में और जनवादियों के दुश्मनों का नंदीग्राम पर कब्जा! यह इतिहास नहीं, इतिहास का विपर्यय है। हम ऐसे विपर्ययों को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। चाहे हमें जान देनी पड़े या जान लेनी पड़े। क्या कॉमरेड स्टालिन लाशों की गिनती करते थे? क्या कॉमरेड माओ ने यह नहीं कहा कि सत्ता बंदूक की नली में रहती है?
मैं दिल्ली में रहता हूँ। बुद्धिजीवियों के लिए आदर्श जगह। कस्बे का बुद्धिजीवी जिंदगी भर कस्बे का ही बुद्धिजीवी बना रहता है - खोसला के घोंसले में। राष्ट्रीय स्तर पर उसे न कोई जानता है न पहचानता है। हम दिल्लीवाले नील गगन की छाँव में रहते हैं। आदमी दिल्ली आया नहीं कि उसे अपने आप राष्ट्रीय स्तर का मान लिया जाता है। यही ठीक भी है। दिल्ली के हम बु़द्धिजीवियों को हमेशा देश-विदेश की घटनाओं पर निगाह रखनी होती है और समय-समय पर बयान जारी करना पड़ता है। खास तौर पर हम हिन्दी के बुद्धिजीवियों को। हमारे द्वारा जारी किए गए बयानों पर पूरे देश की निगाह टँगी रहती है। देश से मेरा मतलब है, मध्य प्रदेश (भोपाल), उत्तर प्रदेश (लखनऊ और कुछ हद तक इलाहाबाद) और बिहार (पटना और कुछ हद तक गया)। लोग बताते हैं कि कानपुर, बरेली, मुजफ्फरपुर और इंदौर में भी हमारे संयुक्त बयानों को महत्व दिया जाता है। लेकिन मैं विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कह सकता। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बयान को किसने पढ़ा और किसने नहीं पढ़ा। महत्वपूर्ण यह है कि बयान लिखा गया और जारी किया गया। इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वही-वही लोग वही-वही बयान क्यों जारी करते रहते हैं। फर्क इससे पड़ता है कि ठीक समय पर और ठीक नामों के साथ बयान जारी हुआ कि नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि बयानबाजी में भी जाति प्रथा है। जब बड़ों के नाम आते हैं, तो छोटों के नाम छोड़ दिए जाते हैं। लेकिन हम इस तरह की आलोचनाओं से भ्रमित होनेवाले नहीं हैं। मार्क्सवादी हम हैं कि वे? सचाई का ठेका हमने ले रखा है कि उन्होंने? कब क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, यह करनेवाले तय करेंगे या तमाशा देखनेवाले? राजनीति सरकस नहीं है। यह एक गंभीर कर्म है - इसे जनता के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
इसीलिए मैंने, मेरा मतलब है कि हमने, तय किया है कि हम दुनिया भर की चीजों पर बयान देंगे, हुसैन पर बयान देंगे, नरेन्द्र मोदी पर बयान देंगे, लेकिन नंदीग्राम पर चुप रहेंगे। तसलीमा पर भी हम चुप रहेंगे। मैं कहना यह चाहता हूँ कि चुप रहना भी एक बयान है, जैसे बहुत अधिक बोलने के पीछे एक भयावह किस्म की चुप्पी रहती है। मेरी चुप्पी साधारण चुप्पी नहीं है। यह एक ऐतिहासिक चुप्पी है। यह मूर्ख चुप्पी नहीं है, समझदार चुप्पी है। इसका मर्म जो नहीं समझता, वह भारत में मार्क्सवाद के चरित्र को नहीं समझ सकता।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:39 PM   #3
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मैं भूत बनना चाहता हूँ
राजकिशोर








जब मैंने सुना कि अमिताभ बच्चन भूतनाथ का अभिनय करने के लिए तैयार हो गए हैं, मेरी खुशी की सीमा नहीं रही। चन्द्रकांता और चन्द्रकांता संतति मैंने बचपन में खूब चाव से पढ़ा था। उनके ऐयारों के सामने आज के जासूस पानी भरते हैं। उन ऐयारों का एक नैतिक स्तर हुआ करता था। जो ऐयार इस संहिता की परवाह नहीं करता था, उसे ऐयार समाज में नफरत की निगाह से देखा जाता था। भूतनाथ भी मैंने पढ़ा था, पर उसकी स्मृति बहुत कमजोर है। यह जानने के लिए कि क्या भूतनाथ में अदृश्य होने की क्षमता थी, मुझे आदरणीय राजेन्द्र यादव की मदद लेनी पड़ी। इसलिए नहीं कि मैं भी उन्हें ऐयार मानता हूँ। या खुदा, ऐसे नापाक खयालों से मुझे कोसों दूर रख। यह मुमकिन नहीं, तो दूसरी तरह के नापाक खयाल मेरे भेजे में डाल दे। वहाँ और भी बहुत-से नापाक खयाल पालथी मारे बैठे होंगे। अच्छी संगत रहेगी। यादव जी से मैंने इसलिए पूछा कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है। इतनी अच्छी कि उन्हें यहाँ तक याद है कि हंस का प्रकाशन उन्होंने किस उद्देश्य से शुरू किया था।
यादव जी ने प्रथम श्रत्वा ही बता दिया कि भूतनाथ में अदृश्य होने की क्षमता नहीं थी। यह जान कर गहरी निराशा हुई। मैंने सोचा था कि नाम भूतनाथ है, तो वह भूतों के किसी गुट का हेड होगा। लेकिन वह तो बस नाम का ही भूतनाथ निकला। इसका मतलब यह है कि पहले भी ऐसे नाम रखे जाते थे जो यथार्थ से मेल नहीं खाते थे। तौबा, तौबा। इस मामले में हमने रत्ती भर भी प्रगति नहीं की है। खैर, मैं मानता हूँ कि प्रगति किसी पर थोपी नहीं जानी चाहिए, जैसे आज देश पर थोपी जा रही है। कोई चाहे तो प्रगति करे और न चाहे तो न करे। अब माता-पिताओं ने अपने बच्चों का नामकरण करने में प्रगति करना स्वीकार नहीं किया है, तो उन्हें दोषी कैसे ठहरा सकते हैं।
पर मैं भी जिद का पक्का हूँ। कायर नहीं हूँ कि कोई बात कहूँ और किसी ने उसे चुनौती दे दी, तो बात पलट दूँ। नेता भी नहीं हूँ कि कह दूँ कि मेरे बयान को ठीक से समझा नहीं गया। दसअसल, मैं तो भूतनाथ बनना चाहता था, पर संवाददाताओं ने नासमझी के कारण भूत लिख दिया। मुश्किल यह है कि देश की विकास दर चाहे जितनी बढ़ गई हो, आज भी भूतनाथ ही बना जा सकता है। बड़े-बड़े दार्शनिकों ने इस समस्या पर विचार किया है। उनके अनुसार, होने और बनने में फर्क है। आप हो सकते हैं, बन नहीं सकते। जैसे, प्रतिभाएँ होती हैं, बनाई नहीं जा सकतीं। इसी तरह, भूत होते हैं, बनते नहीं हैं।
दरअसल, भूत का मामला बहुत ही जटिल है। आजकल कहा जाता है कि यथार्थ बहुत ही संश्लिष्ट और बहु-स्तरीय होता है। अंग्रेजी में ऐसा कहते हैं, तो हिन्दी में भी ऐसा ही कहना होगा। वैसे, आज तक, नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी के सैकड़ों भाषण सुनने के बाद भी मेरी समझ में यह नहीं आ पाया कि इस दुनिया में कौन-सी चीज संश्लिष्ट और बहु-स्तरीय नहीं है। मैंने तो आदर्श को भी संश्लिष्ट ही पाया है। भूत होने का मामला भी इतना जटिल है कि आज तक इसका कोई फॉर्मूला नहीं जाना जा सका है। जो लोग कहते हैं कि अतृप्त आत्माओं को प्रेत योनि मिलती हैं, वे सरासर झूठ बोलते हैं। अगर इसमें थोड़ी भी सच्चाई होती, तो इस दुनिया में जितने इनसान हैं, उससे कई-कई गुना अधिक संख्या में भूत होते। मेरे जानते, हर आदमी में मृत्यु के क्षण तक कुछ न कुछ अतृप्ति रह जाती है। गांधी जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति भी जिस वक्त मरा, पता नहीं कितनी कामनाएँ उसके मन में उमड़ रही होंगी। विभाजन के बाद का खून-खराबा खत्म नहीं हुआ था। उनका उत्तराधिकारी नेहरू उनसे उलटी राह पर चल रहा था। गांधीवादियों ने अपने हाथों से अपनी नसबन्दी कर ली थी। ऐसी स्थिति में गांधी जैसा व्यक्ति पूर्णकाम कैसे मर सकता था? बकौल अंकल गालिब, मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों।
तो? आप क्या सोचते हैं कि मैं भूत बनने का इरादा छोड़ने जा रहा हूँ? जी नहीं, धुन का पक्का हूँ। भूत होकर ही मानूँगा। इसके लिए कई दिशाओं में सोच रहा हूँ। एक दिशा यह है कि कोई एनजीओ बनाऊँ और किसी विदेशी संस्थान से अनुदान लेकर भूतों के बारे में रिसर्च करने का प्रोजेक्ट हासिल कर लूँ। और कहीं से नहीं तो दीनदयाल शोध संस्थान से पैसा मिल ही जाएगा। दूसरी दिशा यह है कि टीवी चैनलों के प्रोड्यूसरों से दोस्ती गाँठूँ। वे बात-बात में दो-चार भूतों से मिलवा देंगे। एक तीसरा तरीका यह है कि जहाँ-जहाँ बिजली नहीं पहुँची है, वहाँ-वहाँ के दौरे करूँ। सुना है, उन इलाकों में भूतों की अच्छी आबादी है। चौथा तरीका यह है कि मैं अपने को भूत घोषित कर दूँ, जैसे रजनीश अपने को भगवान बताने लगे थे। कृपया ध्यान दें कि चौथे तक आते-आते मेरा स्तर गिर गया। मैं फ्रॉड करने पर उतर आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि भूत-वूत का सारा मामला ही फ्रॉड है? आप भी देखिए, मैं भी पता लगाता हूँ। उदय प्रकाश ने कहा है कि मैं इधर से कविता को बचाने में लगा हूँ, तुम भी उधर कोशिश करते रहो।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:40 PM   #4
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मैं राष्ट्रपति क्यों न हो सका
राजकिशोर








राष्ट्रपति बनने की चाह मेरे मन में कभी पैदा नहीं हुई। मुझे लगता है कि यह एक रिटायरमेंट के बाद वाला पद है, जिस पर गाजे-बाजे के साथ आरूढ़ होने के बाद कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ती। परिस्थितियाँ उससे खुद ही सब कुछ करवा लेती हैं। उसमें कोई गुण होना चाहिए तो यह कि देश की दुर्दशा देखते रहने के बाद भी अपने अखंड मौन को साधे रखने का माद्दा हो। उसे यह सुविधा जरूर है कि वह कठिन समय पर कुछ न बोले, बाद में किसी मौके पर कोई चलता हुआ उपदेश झाड़ दे। मैं इसे अवसरवाद मानता हूँ। दूसरे, मैं मरने के पहले रिटायर नहीं होना चाहता। गले का कोई रोग होने के पहले मैं चुप रहना भी पसंद नहीं करूँगा।
लेकिन जब मैंने देखा कि देश के पास राष्ट्रपति पद के लिए कोई अच्छा उम्मीदवार नहीं है, तो मुझे दया आ गई। देश के बिगड़ते हालात पर दया तो मुझे बहुत दिन से आती रही है, तभी से जब यह निश्चित हो गया कि हालात को बदलने की क्षमता मुझमें नहीं है, पर यह तो हद है कि देश चाह रहा हो और राष्ट्रपति पद के लिए कोई बेहतर आदमी न मिले। भाजपा कहती है कि प्रतिभा पाटिल का अतीत स्वच्छ नहीं है। कांग्रेस का मानना है कि शेखावत अंग्रेजी राज में सरकार के जासूस थे। फिर वोट किसे दिया जाए? दुर्लभता की इस स्थिति में मैंने अपनी सेवाएँ देश को अर्पित करने का फैसला किया। मेरा अतीत न कांग्रेसी है, न भाजपाई। मेरे अतीत में भी दाग होंगे, पर वे प्रतिभा पाटील या शेखावत जैसे नहीं हैं। इसलिए मुझे स्वीकार करने में किसी को दुविधा नहीं होनी चाहिए।
सबसे पहले मैं कांग्रेस के दफ्तर में गया। अपना परिचय दिया, सीवी दिखाई। वहाँ मौजूद नेता और कार्यकर्ता हो - हो कर हँसने लगे। मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, 'इसमें हँसने की बात क्या है? निश्चित रूप से मुझमें प्रतिभा पाटील से अधिक योग्यता है। मैंने कानून की पढ़ाई भी की है, सो संविधान की बारीकियों को समझता हूँ। प्रभाष जोशी के स्तर का तो नहीं, फिर भी ठीक-ठाक पत्रकार माना जाता हूँ।' एक नेता ने अपनी हँसी रोक कर कहा, 'सर, हमें राष्ट्रपति पद के लिए आदमी चाहिए। इसमें योग्यता का सवाल कहाँ उठता है?' मुझे लगा कि बात तो ठीक है। योग्यता का सवाल तो प्रधानमंत्री और
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए भी कभी नहीं उठा। मैं समझ गया, यहाँ बात नहीं बनेगी।
उसके बाद मैं एक बड़े कम्युनिस्ट नेता से मिलने गया। मैंने सोचा कि ये पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं। शायद मेरी योग्यता का सही मूल्यांकन कर सकें। कम्युनिस्ट नेता मेरी बात अंत तक ध्यान से सुनते रहे। फिर बोले, 'हमें किसी प्रगतिशील उम्मीदवार की तलाश नहीं है। वे तो हमारी पार्टी में भरे पड़े हैं। मैं खुद क्या किसी से कम प्रगतिशील हूँ? लेकिन हम अभी इस सरकार में भाग लेना नहीं चाहते। यह कांग्रेस की सरकार है। इससे हमारा क्या नाता?' मैंने याद दिलाया, 'लेकिन राष्ट्रपति तो दलगत राजनीति से बहुत ऊपर होता है। वह सिर्फ देश और संविधान के प्रति प्रतिबद्ध होता है।' इस पर लाल नेता भड़क उठे। बोले, 'लगता है, तुम दूसरों के लेख अपने नाम से छपवाते हो। इतना भी नहीं जानते कि राष्ट्रपति आम तौर पर सत्तारूढ़ दल का प्रतिनिधि होता है। जब सरकार बदल जाती है, तो उसकी वफादारी नई सरकार के प्रति हो जाती है। तुम क्या राष्ट्रपति बनोगे? जाओ, मेरा वक्त बरबाद न करो। हम अभी प्रतिभा पाटील को जितवाने की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं।'
मेरी निराशा दुगुनी हो गई। राजनाथ सिंह के पास जाने का मन नहीं हो रहा था। वे मुझे हमेशा हाई स्कूल के किसी कड़क टीचर की तरह लगते हैं। फिर उनके पास अपनी पार्टी का एक छिपा हुआ उम्मीदवार है ही। इसके अलावा उनके पास सांप्रदायिकता विरोधी लेखकों और पत्रकारों की सूची भी होगी। तभी मुझे मायावती में कुछ आशा दिखाई पड़ी। सुनता हूँ कि वे समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहती हैं। पत्रकार भी तो समाज का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। हो सकता है, उन्हें लगे कि कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोगों का समर्थन भी हासिल किया जाए।
आज की मायावती से मिल पाना बहुत कठिन है। वे किसी से फालतू नहीं मिलतीं। दिन-रात अगला प्रधानमंत्री बनने की रणनीति पर काम करती रहती हैं। फिर भी मैंने जुगाड़ भिड़ा लिया। भारत की यही खूबी है। कोई भी काम हो, जुगाड़ भिड़ ही जाता है। मायावती के कमरे में प्रवेश कर मैंने सबसे पहले उन्हें प्रणाम किया (कई लोगों ने बताया था कि सीधे पैरों पर गिर पड़ोगे, तो काम जल्दी सिद्ध होगा, पर मुझे हिम्मत नहीं हुई - मेरी अंतरात्मा कुछ ज्यादा ही जिद्दी है), फिर बहुत संक्षेप में अपनी बात रखी। मायावती का पहला सवाल था, 'कितना पैसा लाए हो?' मैंने किसी मूर्ख की तरह दुहराया, 'पैसा?' मायावती की पेशानी पर बल पड़े, 'खाक पत्रकारिता करते हो? तुम्हें पता नहीं है कि मैं बिना पैसा लिए किसी को टिकट नहीं देती? टिकट तो क्या, टिकट के लिए किसी का आवेदनपत्र भी हाथ में नहीं लेती। फिर यह तो बड़ा मामला है - राष्ट्रपति पद का।' मेरे चेहरे पर सुलगता हुआ सन्नाटा देख कर मायावती ने आवाज में थोड़ी और तुर्शी ला कर कहा, 'इस मामले में तो पैसे से भी बात नहीं बनेगी। तुम स्वतंत्र पत्रकार हो। राष्ट्रपति बन जाने के बाद भी स्वतंत्र रहना चाहोगे। जबकि मुझे जल्दी ही प्रधानमंत्री बनना है। उस समय ऐसा राष्ट्रपति ही मेरे काम आएगा जिसे हवा का रुख भाँप कर चलने की आदत हो। घर जाओ, मेरा वक्त बरबाद मत करो।'
उसी रात मैंने दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। घर आकर पहली प्रतिज्ञा यह की कि अब मैं कभी देश पर दया नहीं करूँगा। जिसे देश पर दया आती है, वह खुद दयनीय बन जाता है।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:40 PM   #5
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मत्स्य न्याय
राजकिशोर








पन्द्रह अगस्त का दिन था। दिल्ली के एक मुहल्ले में चौराहे पर एक बीस साल का लड़का सोलह साल के एक लड़के को जमीन पर गिरा कर दबोचे हुए था। छोटा लड़का छटपटा रहा था और स्वाधीन होने की कोशिश कर रहा था। बड़ा बार-बार छोटे के दाहिने हाथ की उँगलियों को अपने मुँह में ले जाने की कोशिश कर रहा था। पर सफलता नहीं मिल पा रही थी। काटे जाने के पहले ही छोटा लड़का अपने पंजा खींच लेता था। बड़े ने धीरता से कहा, 'क्यों मुझे परेशान कर रहे हो? मैं तुम्हें खाऊँगा। शान्ति से खाने दो।' छोटा लड़का चीखा, 'क्या बकते हो? तुम भी आदमी हो, मैं भी आदमी हूँ। तुम मुझे नहीं खा सकते। यह न्याय नहीं है।' बड़ा लड़का मुसकराया, 'यह मत्स्य न्याय है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।'
'लेकिन हम मछली नहीं हैं। आदमी हैं। मछलियों के बीच जो न्याय चलता है, वह हम आदमियों में नहीं चल सकता।' छोटे लड़के ने तर्क किया।
बड़े लड़के ने बाएँ हाथ से एक तमाचा जड़ते हुए कहा, 'कम पढ़े-लिखे होने से यही होता है। अपनी हैसियत का एहसास ही नहीं होता। अखबार पढ़ा होता, तो तुम्हें पता होता कि हमारे देश में न्याय नहीं, मत्स्य न्याय चल रहा है। यह बात किसी और ने नहीं, खुद भारत-रत्न अमर्त्य सेन ने संसद के सेंट्रल हॉल में कही और उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्रियों, सोनिया गांधी आदि सभी पॉवरफुल लोगों ने सुनी। उनमें से एक ने भी अमर्त्य सेन की बात को नहीं काटा। किसी ने यह भी नहीं कहा कि हम संसद के सेंट्रल हाल में यह कसम खाते हैं कि अब हमारे देश में मत्स्य न्याय नहीं चलेगा। समझे बेटा, इसका मतलब यह हुआ कि देश में मत्स्य न्याय है और यही न्याय चलेगा। इस विचार पर मैं रात भर कसमसाता रहा। नींद नहीं आई। फिर मैंने तय किया कि अगर बड़े-बड़े लोगों को मत्स्य न्याय ही न्याय लगता है, तो मैं भी इसी राह पर चलूँगा। उसके बाद मैं जम कर सोया। तभी से मेरा मन भी शांत है।...अब ज्यादा शरारत मत करो। आज मैं सिर्फ शुरुआत करने जा रहा हूँ। सिर्फ तुम्हारा एक पंजा खाऊँगा।'
तब तक वहाँ बीस-पचीस आदमी जमा हो गए थे। कुछ को मजा आ रहा था। कुछ सकते में थे। कुछ चिंतित थे। दोनों लड़कों का विवाद जारी था। मामला सुलझ नहीं रहा था। न वह खा पा रहा था, न वह खाने दे रहा था। तभी वहाँ गश्त लगाता हुआ एक सिपाही आ गया। उसकी कमर में बन्दूक खुँसी हुई थी। उसने सीन को गौर से देखा और सिर हिलाया, नहीं, ये आतंकवादी नहीं हो सकते। इस पर ध्यान देना बेकार है। फिर उसे लगा, ऊपर से पूछ लेना ठीक रहेगा। उसने मोबाइल से किसी को फोन किया। आदेश मिला कि उन्हें तुरन्त पकड़ कर थाने ले आओ। सिपाही ने बड़े लड़के के बाल खींच कर दोनों को अलग-अलग किया। जेब से रस्सी निकाल कर उनकी कमर में पहनाई और जैसे मेले से खरीद कर बैल ले जाते हैं, वैसे ही रस्सी के अगले सिरे को खींचते हुए उन्हें थाने ले जाने लगा। भीड़ छँट गई।
बड़े लड़के ने छोटे लड़के से स्नेहपूर्वक कहा, 'यह भी मत्स्य न्याय है।'
दोनों को थाने में जमा कर सिपाही आतंकवादियों की खोज में निकल गया। थाने के मुख्य अधिकारी को उनसे बात करने में बहुत मजा आया। उसने पिछले साल ही पत्राचार विश्वविद्यालय से मानव अधिकारों पर डिप्लोमा किया था। उसके बाद उसका थानाध्यक्ष के रूप में प्रमोशन हो गया था। सारी बात सुनने के बाद उसने त्यौरियाँ चढ़ाईं और छोटे लड़के को बाहर जा कर बैठने को कहा। फिर बड़े लड़के से कहा, 'हरामीपन कर रहे थे? आदमी को जिन्दा ही खा जाने का इरादा है? बता, तेरे साथ क्या करूँ? गिन कर दस जूते लगाऊँ? या, तेरा मूत तुझी से पिलवाऊँ?' लड़का कुछ नहीं बोला। थानाध्यक्ष ने तरस खाते हुए कहा, 'अपने बाप से बोल कि पाँच हजार लेकर तुरन्त यहाँ आ जाए। नहीं तो यहीं बँधा पड़ा रहेगा।'
लड़का सिद्धांत का पक्का था। उसने आजाद होने के लिए रिश्वत नहीं दी। उसे हिरासत में डाल दिया गया। छोटे को छोड़ दिया गया।
सोमवार को बड़े लड़के को अदालत में पेश किया गया। मजिस्ट्रेट के सामने इस तरह का पहला केस था। सारा प्रसंग सुनने के बाद उसने आदेश दिया, 'अदालत की निगाह में यह एक अलग किस्म का केस है। अभियुक्त दिल का बुरा नहीं है। वह सिद्धान्तवादी है। पर वह अमर्त्य सेन के भाषण की रिपोर्ट पढ़ कर गुमराह हो गया है। सम्भव है कि भारत में सभी स्तरों पर मत्स्य न्याय चल रहा हो, पर सेन साहब को यह बात इस तरह से खुलेआम नहीं कहनी चाहिए थी। बुरी बातों के प्रचार से बुराई फैलती है। लोगों पर गलत असर पड़ता है। अभियुक्त को मुक्त किया जाता है और स्थानीय पुलिस को निर्देश दिया जाता है कि कम से कम एक साल तक इस लड़के की गतिविधियों पर निगाह रखी जाए।'
थानाध्यक्ष बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने सहयोगी से कहा, 'बेटा हुआ करे सिद्धान्तवादी। पैसा इसका बाप देगा। नहीं तो हर दूसरे दिन पूछताछ के लिए इसे थाने बुलाएँगे और घण्टों बिठाए रखेंगे।'
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:41 PM   #6
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मनमोहन सिंह से बातचीत
राजकिशोर








डॉ. मनमोहन सिंह मेरे प्रिय नेता रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि जहाँ दूसरे विद्वान और बुद्धिजीवी विश्वविद्यालयों और सेमिनारों में व्यस्त रहते हैं, मनमोहन सिंह ने, वह भी इस उम्र में, देश की जिम्मेदारी सँभाली है। राजनेता तो प्रायः सभी बुद्धिजीवी कहलाने के लिए लालायित रहते हैं, जिसके कारण उन्हें शक की निगाह से भी देखा जाता है। यह राष्ट्रीय राहत की बात है कि मनमोहन ने उलटे रास्ते पर चलने का फैसला किया, तो किसी की भौंहों पर बल नहीं पड़ा। मैं तो सिफारिश करूँगा कि अमर्त्य सेन को अमेरिका का राष्ट्रपति या ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, ताकि इस बुरे समय में इन देशों की अर्थव्यवस्था में भी सुधार आ सके। लेकिन इन अभागे देशों को सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व कहाँ हासिल है। सो, डॉ. मनमोहन सिंह से इंटरव्यू का मौका मिला, तो मैं फूला न समाया। वैसे तो यह बातचीत पूरी तरह व्यक्तिगत थी, पर सूचना का अधिकार कानून के तहत इसे न छिपाए रखने के लिए मैं विवश हूँ।
मेरा पहला सवाल यह था कि मनमोहन सिंह जी, आपने प्रधानमंत्री पद क्यों स्वीकार किया? वे मुस्कराए : 'मजबूरी थी। अगर मैंने इनकार कर दिया होता, तो क्या पता मुझे कोई और पद मिलता या नहीं।'
मैंने आश्वस्त करना चाहा, वित्त मंत्री का पद तो आपके लिए सुरक्षित था ही। उससे आपको कौन रोक सकता था। उनका जवाब था, 'मेरा पूरा कॅरियर गवाह
है...मैंने जो पद त्याग दिया, बाद में उससे ऊँची जगह पर ही गया। वैसे, किसी भी नौकरशाह से पूछ लीजिए, वह यही कहेगा कि प्रमोशन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।'
मनमोहन सिंह नरसिंह राव के साथ काम कर चुके हैं और अब सोनिया गांधी उनकी नेता हैं। मैंने जानना चाहा, आपको कौन नेता बड़ा लगता है - नरसिंह राव या सोनिया गांधी? वे जरा भी विचलित नहीं हुए। कहा, दोनों की अपनी-अपनी खूबियाँ हैं। मेरे लिए तो एक कमल था, दूसरा गुलाब है।'
अब मैंने जानना चाहा कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में काम करना उन्हें कैसा लग रहा है। मनमोहन सिंह स्पष्टवादी व्यक्ति हैं। बोले, 'बहुत ही अच्छा। वैसे, नरसिंह राव जी के साथ भी काम करना मुझे अच्छा ही लगा था। आपको एक राज की बात बताता हूँ। दरअसल, मुझे किसी के साथ भी काम करने में दिक्कत नहीं आती। जैसे मेरा अर्थशास्त्र फ्री मार्केट का है, वैसे ही मेरा व्यक्तित्व फ्री साइज का है - हर कहीं फिट आ जाता है।'
यह पूछने पर कि सोनिया गांधी से क्या आपके मतभेद नहीं होते, उन्होंने बताया कि 'सवाल ही नहीं उठता। जब मुझे लगता है कि किसी मामले में मेरा मत अलग है, तो मैं तुरन्त अपने को सुधार लेता हूँ। मुझमें किसी प्रकार की कट्टरता नहीं है। मैं शुरू से ही मानता हूँ कि मत मेरे लिए है, मैं मत के लिए नहीं हूँ।' मेरा अगला सवाल था, क्या सोनिया जी भी जरूरत पड़ने पर अपना मत बदल लेती हैं? मनमोहन सिंह ने उत्तर दिया, 'उन्हें ऐसा करने की जरूरत ही क्या है? वे पार्टी और देश की सर्वोच्च नेता हैं, उनका मत ही हम सभी का मत है।'
इस आरोप का खंडन करते हुए कि यह तो साफ-साफ व्यक्ति-पूजा है, मनमोहन सिंह ने स्पष्ट किया, 'सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सोनिया जी व्यक्ति नहीं, संस्था हैं। कांग्रेस में व्यक्ति-पूजा के लिए कभी स्थान नहीं रहा। हम व्यक्तियों के बजाय विचारों पर ज्यादा जोर देते हैं। श्रीमती सोनिया गांधी भी व्यक्ति नहीं, विचार हैं, जैसे एक जमाने में खादी वस्तु नहीं, विचार थी।'
यह पूछने के बजाय कि राजनीति में आकर आपको कैसा लगता है, ताकि मैं कहीं टीवी एंकर जैसा न लगूँ, मैंने जानना चाहा कि राजनीति में आना ही था, तो क्या वे बहुत देर से नहीं आए? मनमोहन सिंह ने फिर खरेपन के साथ जवाब दिया - 'आ तो मैं बहुत पहले ही जाता, पर मुझे लगता था वहाँ मुझसे भी ज्यादा काबिल लोग हैं, उनके सामने मैं कहाँ टिक पाऊँगा।' और अब? 'अब मुझे लगता है कि राजनीति में काबिलियत की एक ही पहचान है कि आप सत्ता में कितनी उँचाई तक जा सकते हैं। इस दृष्टि से मैंने अपनी काबिलियत थोड़े-से समय में ही साबित कर दी है।' लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस कहीं हार गई तो? मनमोहन सिंह अपनी परिचित शैली में मुसकराए, 'मेरे लिए जॉब्स की कोई कमी नहीं है। यहाँ से हटा तो विश्व बैंक में चला जाऊँगा। सुना है, वे अभी से मुझे विश्व बैंक का अध्यक्ष बनाने पर विचार कर रहे हैं।' यानी आपके विरोधियों का यह आरोप आधारहीन नहीं है कि आपकी सरकार विश्व बैंक की नीतियों पर चल रही है? 'पूरी तरह आधारहीन है। वाशिंगटन में तो अफवाह है कि विश्व बैंक हमारी नीतियों पर चल रहा है।'
अमेरिकी राष्ट्रपति की हाल की भारत यात्रा के सन्दर्भ में मैंने जानना चाहा कि इस आरोप पर आपका क्या कहना है कि आपकी सरकार अमेरिका की ओर झुक रही है। इस पर हमेशा शांत रहने वाले प्रधानमंत्री थोड़ा तमतमा गए, बोले, 'सच तो यह है कि अमेरिका ही भारत की ओर झुक रहा है, हम तो उसके लिए सिर्फ जगह बना रहे हैं, जैसे एक महाशक्ति दूसरी महाशक्ति के लिए जगह बनाती है। क्या एक समय हमने सोवियत संघ के लिए जगह नहीं बनाई थी? यह हमारी मजबूती है कि हम अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रहते हुए किसी के लिए भी जगह बना सकते हैं। हमारी विदेश नीति में किसी तरह की जड़ता नहीं है। हम हवा का रुख देखते हैं और उसके अनुसार अपनी नीतियाँ बनाते हैं। यह अवसरवाद नहीं, अवसर के अनुसार आचरण है। ऐसी विचारगत स्वतंत्रता कितने लोकतांत्रिक देश दिखा सकते हैं?'
अब तक मैं मानसिक रूप से थक चुका था। इसलिए मैंने सोचा कि अंतिम प्रश्न पूछने का क्षण आ गया है। मैंने सवाल किया, क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि आपने राजनीति में आकर भूल की है? इसके पहले आप कभी इतने विवादास्पद नहीं रहे। अचानक आप एक के बाद दूसरे विवाद के केन्द्र में आते जा रहे हैं। आपके सहयोगी वामपंथी ही आपके खिलाफ होते जा रहे हैं। क्या आपको इस कीचड़ भरी राजनीति में आकर कभी अफसोस नहीं होता? मनमोहन सिंह दार्शनिक उदासीनता के साथ बोले, 'राजनीति में आकर हर ईमानदार आदमी को यही लगता है कि उससे भूल हो गई है। लेकिन मैंने अपने जीवन में हर चुनौती का डटकर सामना किया है। अगर मैंने अधबीच में राजनीति छोड़ दी, तो मैं और भी बड़ी भूल करूँगा। मैं ईमानदार हो सकता हूँ, पर कायर नहीं हूँ।'
वापस आते समय मैं सोच रहा था कि हमारे बुद्धिजीवी भी क्या चीज हैं! वे जब राजनीति में आते हैं, तो राजनेता भी उनके सामने पानी भरने लगते हैं। क्या इसलिए राजनेता बुद्धिजीवियों से थोड़ा दूर रहना ही पसंद करते हैं?
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:41 PM   #7
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मेरे आम
राजकिशोर


लेखक को जानिए





आम के बारे में लतीफे बहुत-से होंगे, मैं एक ही जानता हूँ। कहते हैं, एक सज्जन के पास एक आदमी आया और बोला, मियाँ जी, आम आए हैं। मियाँ जी ने जवाब दिया, तो मुझे क्या? आदमी ने बताया, आपके लिए आए हैं। मियाँ जी ने पहले जैसी ही तुर्शी के साथ जवाब दिया, तो तुझे क्या?
मुझे पूरा यकीन है कि यह किस्सा आम का महत्त्व समझाने के लिए नहीं गढ़ा गया होगा। इसमें आम की नहीं, नैतिकता की खुशबू (कुछ लोग कहेंगे, बदबू) है। सीख की बात यह है कि जो चीज तुम्हारी नहीं है, उससे कोई मतलब मत रखो। संस्कृत की एक उक्ति में बताया गया है कि दूसरे के धन को तृण की तरह, दूसरे की स्त्री को माँ की तरह समझो आदि-आदि। अच्छा हुआ कि मानवता ने इस सीख के कम से कम एक हिस्से को गंभीरता से नहीं लिया। आज का अर्थशास्त्री कहेगा, यदि नैतिक शिक्षाओं पर अमल किया जाता, तो सभ्यता का विकास ही नहीं होता। दूसरे के धन को तृणवत समझने की बात मान लेने पर पूँजीवाद चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरता? साम्यवादी विद्वान तक मानते हैं कि दास प्रथा ने सभ्यता के विकास में अद्वितीय योगदान किया है। अगर दास न होते, तो उन शुरुआती दिनों में अतिरिक्त मूल्य कहाँ से पैदा होता और अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं होता, तो सभ्यता और संस्कृति का विकास कैसे होता? हम पूर्व-सामंती युग में ही टापते रह जाते। इसी तरह, पूँजीवादी व्यवस्था अगर श्रमिकों के अभूतपूर्व शोषण से भारी अतिरिक्त मूल्य नहीं पैदा करती, तो इतनी संपन्नता कहाँ से आती और टेक्नोलॉजी के विकास के लिए निवेश कैसे हो पाता? भूमंडलीकरण तो पूरा का पूरा ही पराए धन को हस्तगत करने की कला पर टिका हुआ है। जहाँ तक पर-दारा का सवाल है, उसकी ओर ललचाई निगाहों से देखने में सभ्यता के विकास में कितना योगदान हुआ है, इस पर कोई अच्छी पुस्तक देखने में नहीं आई है। विद्वानों से निवेदन है कि वे इस विषय पर प्रकाश डालने की कृपा करें। वैसे, अनेक जानकार लोगों का कहना है कि यह अकादमिक शोध का विषय नहीं, प्रयोग और अनुभव का मामला है। जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। बताते हैं कि आधुनिक साहित्य में यह 'गहरे पानी पैठ' का मामला नहीं रहा। यहाँ समुद्र तल के बजाय समुद्र तट पर ज्यादा मोती मिलते हैं।
आप सोच रहे होंगे, मैं पुराने विद्वानों की तरह विषय पर आने में ज्यादा समय ले रहा हूँ। ऐसी बात है भी और नहीं भी है। हर भारतीय मुलाकात के दौरान या फोन पर आधे से ज्यादा समय इधर-उधर की बातें करने में खो जाता है। दर्जनों बार 'और क्या हाल है?' पूछने के बाद ही वह विषय आता है कि कहाँ सिफारिश भिड़ानी है या कहाँ कौन-सा काम करवाना है। मैं इस टेकनीक का प्रयोग लिखने में करता हूँ, क्योंकि तुरन्त विषय पर आ जाने से बहुत जल्द खलास हो जाने का डर रहता है। भला हो उन संपादकों का जो लेखों की शब्द सीमा घटाते-घटाते आठ सौ पर ले आए हैं। सो अब पृष्ठभूमि बनाने में मेहनत नहीं करनी पड़ती। लेकिन निवेदन है कि मैं यह बताने के लिए शुरू से ही पृष्ठभूमि बना रहा हूँ कि मेरे आम मेरे नहीं रहे, क्योंकि अब उनका निर्यात बढ़ने लगा है। अच्छे आम भले ही भारत में पैदा होते रहें, पर वे अमेरिकी रस मीमांसा का विषय बन जाएँगे और भारत सरकार खुश होती रहेगी कि चलो, आम भी हमारा विदेशी मुद्रा कोष बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं। मैं चीख-चीख कर कहना चाहता हूँ कि यह भारतीय आम का अपमान है, भारत की रस परम्परा का अपमान है और भारत के आम आदमी का अपमान है। लोकतंत्र खास को भी आम बनाने की कला का नाम है, यहाँ तो आम को भी खास बनाया जा रहा है।
आम भारत में पैदा होता है, तो उस पर सबसे पहला हक हम भारतीयों का होना चाहिए। अभी तक किसी ने यह दावा नहीं किया है कि भारत में आम का उत्पादन इतना अधिक हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जी भर कर, मसलन आम फलने के मौसम में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कम से कम एक, आम खाता रहे, तब भी हमारे पास निर्यात करने के लिए आम की कमी नहीं रहेगी। भारतीय ज्यादा हैं, आम कम। अलफांसो जैसे आम तो, जिन पर कलावादियों को कविताएँ लिखनी चाहिए और ललित निबन्धकारों को निबन्ध, और भी कम हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता का ही नहीं, मानवता का भी तकाजा है कि आधे से ज्यादा भारतीयों को आमों की उचित संख्या से वंचित कर विदेशी मुद्रा कमाने के लिए उसका निर्यात करना अपराध है। अगर अस्पृश्यता मानवता के प्रति अपराध है, अगर युद्ध मानवता के प्रति अपराध है, तो पैसे के लालच में आम का देशांतरण भी मानवता के प्रति कोई मामूली अपराध नहीं है। ईश्वर ने कितने लगन से आम जैसा रसीला और खुशबूदार फल पैदा किया होगा और उसी आम को हमारे व्यापारी पता नहीं कहाँ-कहाँ ले जाकर बेच रहे हैं। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई कि हम अपनी सुष्मिता सेनों और ऐश्वर्या रायों को अमेरिका और यूरोप की मंडियों में नीलाम कर दें। अगर मानव व्यापार यानी दास प्रथा फिर से खोल दी जाए, तो ऐसा होने में हफ्ता भर भी नहीं लगेगा। मेरे जैसे अनेक लोगों की मान्यता है कि फलों की दुनिया में आम का स्थान वही है, जो सुन्दरियों के समारोह में सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय का है।
अभी तक हम राम के लिए लड़ते आ रहे हैं। सुनते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में इस बार 'मेरे राम' कोई मुद्दा नहीं बन पाए। इसके लिए थैंक्यू। लेकिन यह अगर खुश होने का मामला है, तो धिक्कार की बात यह है कि 'मेरे आम' को चुनाव का मुद्दा नहीं बनाया गया। आम के अर्थशास्त्र को भारत की जनता के सामने ठीक से रखा जाए, तो बहुत आसानी से उसे समझाया जा सकता है कि हमारे विदेश व्यापार में कहाँ-कहाँ विसंगतियाँ हैं और भूमण्डलीकरण हमारे लिए क्यों बुरा है। मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि जो मुझे 'मेरे आम' से वंचित रखता है, वह मुझसे 'मेरे राम' को भी छीन रहा है। राम इतने कृपालु न होते, तो आम कहाँ से आते? बताइए मनमोहन सिंह जी, बताइए मोंटेक सिंह अहलूवालिया जी! अगर आम की राष्ट्रीय चोरी के खिलाफ मुझे थाने में एफआईआर लिखानी पड़े, तो सबसे पहले मैं आप दोनों को ही नामजद करूँगा।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:41 PM   #8
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

मेरा प्रिय प्रधानमंत्री
राजकिशोर








आज मैं वह काम करने जा रहा हूँ, जिसे करने की हिम्मत बड़े-बड़े नहीं कर पाते। बड़े-बड़ों में मेरी गिनती कोई नहीं करता। इतना इंतजार करने के बाद अब तो मैंने भी अपनी गिनती बड़े-बड़ों में करना छोड़ दिया है, फिर भी मैं यह साहसिक काम करने जा रहा हूँ। दरअसल, साहसिक काम हम जैसे लोग ही कर सकते हैं, क्योंकि बड़े-बड़ों में आजकल वही आते हैं, जो कोई साहसिक काम नहीं कर सकते। दुस्साहसिक कामों की बात अलग है। यह तो कोई भी कर सकता है और मुझे यह बताते हुए हर्ष होता है कि जिसे मैं अपना प्रिय प्रधानमंत्री घोषित करने जा रहा हूँ, वह एक दुस्साहसिक व्यक्ति है। आप समझ ही गए होंगे, मेरा संकेत डॉ. मनमोहन सिंह की ओर है। उनके दुस्साहसी होने की बात आप भी स्वीकार कर लेंगे, जब मैं यह कहूँगा कि जब सोनिया गांधी ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया, तो उन्होंने इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया, जैसे कोई भी लेखक नोबेल पुरस्कार को सहज ही स्वीकार कर लेता है और यह नहीं कहता कि मेरी क्या बिसात, मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि मुझे यह उच्चतम पुरस्कार दिया जाए - इससे बेहतर होता कि यह अमुक जी को या तमुक जी को दिया जाता। मनमोहन जी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन जब यह पका हुआ आम उनके झोले में आ गिरा, तो वे अपनी जेब से चाकू निकाल कर इसे छीलने-काटने-खाने लगे। मेरे खयाल से, कोई और विद्वान होता, तो कम से कम शिष्टाचारवश ही यह निवेदन करता कि मुझे काँटों में क्यों घसीट रही हैं, मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी का पद सँभालने लायक नहीं हूँ। मैं तो कोई यूनिवर्सिटी भी ठीक से नहीं चला सकता - इतना बड़ा और इतनी समस्याओं से ग्रस्त देश कैसे चला सकूँगा। लेकिन क्या पता! आजकल के विद्वानों के बारे में मैं ज्यादा जानता नहीं हूँ। हो सकता है, वे मनमोहन सिंह से ईर्ष्या ही कर रहे हों कि अगर मैडम को किसी विद्वान की ही जरूरत थी, तो मैं क्या मर गया था!
मनमोहन सिंह ही मेरे प्रिय प्रधानमंत्री हैं, इसका एक कारण यह है कि वे वर्तमान प्रधानमंत्री हैं। शराब पुरानी अच्छी मानी जाती है और नेता वह जो सत्ता में है। जवाहरलाल अच्छे प्रधानमंत्री थे या मोरारजी, इस बहस में क्या रखा है। मरे हुए लोगों के साथ हम न रात काट सकते हैं, न दिन बिता सकते हैं। उनके साथ सबसे तार्किक सलूक यह है कि उन्हें मरा हुआ मान लिया जाए, नहीं तो वे जिंदा आदमियों को मार डालेंगे। जिंदा आदमी ही जिंदा आदमी के काम आ सकता है। अगर अटलबिहारी वाजपेयी आज प्रधानमंत्री होते, तो मैं कहता कि वाजपेयी ही मेरे प्रिय प्रधानमंत्री हैं।
प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं, इसका दूसरा कारण यह है कि वे प्रधानमंत्री हैं भी और नहीं भी हैं। अगर वे सफल प्रधानमंत्री साबित होते हैं - हालांकि आज तक तो कोई ऐसा हुआ नहीं, तो उन्हें इसका श्रेय जरूर मिलेगा। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों द्वारा कहा जाएगा कि देखा, एक गैर-राजनीतिक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना देश के लिए कितना हितकर रहा। फिर यह बहस छेड़ दी जाएगी कि क्यों न प्रत्येक राज्य में मुख्यमंत्री के पद पर भी किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को ही बैठाया जाए और पाठकों से अनुरोध किया जाएगा कि वे एसएमएस से अपनी राय भेजें। अगर वे एक विफल प्रधानमंत्री साबित होते हैं, जिसकी संभावना रोज बढ़ती जा रही है, तो विख्यात पत्रकार इसका स्पष्टीकरण यों देंगे कि जो काम राजनीति का है, वह राजनेता ही कर सकते हैं - हम तो शुरू से ही यह मान कर चल रहे थे कि मैडम ने एक गैर-राजनीतिक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना कर हिमालयन ब्लंडर किया है। इस तरह मनमोहन सिंह एक ऐसे जुए का नाम है, जिसमें चित हो या पट, वही जीतेंगे। नागार्जुन की तरह वे कभी भी कह सकते हैं कि मैं एक गलत मुहल्ले में चला गया था।
मेरे पास कारण ज्यादा नहीं हैं - वैसे किसी को प्रिय मानने के लिए एक ही कारण काफी होता है, इसलिए मैं जल्दी से तीसरे और अंतिम कारण पर आता हूँ। वह यह है कि वे दुर्योधनों के बीच युधिष्ठिर की तरह रहते हैं। सभी लोग कहते हैं कि उनकी ईमानदारी संदेह से परे हैं। मैं तो शुरू से ही बहुत के साथ रहा हूँ। मेरा एक असमी दोस्त कहता है, 'मनमोहन सिंह ने दो बार अपने को असम का स्थायी निवासी बता कर राज्य सभा का चुनाव लड़ा, जो सरासर झूठ था, इसलिए मैं तो उन्हें ईमानदार नहीं मानता।' क्षमा करें, मैं अपने इस दोस्त से कभी सहमत नहीं हो सका, क्योंकि इस तरह की कसौटियों पर विद्वानों को कसना उनके साथ न्याय नहीं है। अगर किसी विद्वान को एसी सेकंड का किराया मिलता है और वह स्लीपर क्लास में 'सफर' (श्लेष अनिच्छित) करता है, तो क्या यह उसकी बेईमानी मानी जाएगी? मनमोहन सिंह मेरे प्रिय प्रधानमंत्री इसलिए हैं कि वे जल में कमल की तरह रहते हैं। कैबिनेट की बैठक में चारों ओर साँप फुँफकार रहे हों, तब भी वे अपनी कोमल, मधुर मुसकान को कायम रख सकते हैं और गंभीर बातें कर सकते हैं। कोई कह सकता है कि विद्वानों में इतना संयम नहीं होता, तो वे विद्वान कैसे कहलाते! इसके जवाब में मैं खींस निपोर दूँगा और कहूँगा, आप ठीक कहते हैं, सर।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:43 PM   #9
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

हिन्दी की शोक सभा
राजकिशोर








साल : 2015 से 2020 के बीच का कोई साल। दिन : 14 सितंबर। स्थान : जवाहरलाल नेहरू सभागार, दिल्ली। समय : सायं 6 बजे। उपस्थिति : 12 पुरुष (उम्र 65 और 75 के बीच) और दो महिलाएँ (दिखने में अधेड़, उम्र अननुमेय)। विषय : हिन्दी की शोक सभा। वक्ता : एक मंत्री, एक लेखक, एक प्रोफेसर और एक प्रकाशक। अध्यक्ष : वही (कुछ वर्षों से अस्वस्थ रहने के कारण स्ट्रेचर पर लाए गए हैं, पर बोलते समय सीधे खड़े हो जाते हैं। बोल चुकने के बाद फिर स्ट्रेचर पर जाकर लेट जाते हैं)। प्रेस दीर्घा : खाली। टीवी कैमरे : नदारद।
प्रोफेसर : आप सबको ज्ञात ही है कि हम यहाँ किसलिए इकट्ठा हुए हैं। जब मुझे इस कार्यक्रम की सूचना दी गई, तो पहले तो मैं अवाक् रह गया। क्या ऐसा हो सकता है? क्या हिन्दी जैसी जीवंत भाषा कभी मर सकती है? लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मैं देख रहा हूँ कि हिन्दी विभाग में एडमिशन नहीं हो रहे हैं। इस साल एमए (हिन्दी) में कुल पाँच छात्रों ने प्रवेश लिया है, जबकि रिक्त पदों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी पढ़ाने वालों की संख्या पंद्रह है। एक-एक छात्र को तीन-तीन प्राध्यापक कैसे पढ़ाएँगे? यही स्थिति बनी रही तो प्राध्यापकों में पढ़ाने को लेकर मारपीट भी हो सकती है। क्लास लेने के उद्देश्य से छात्रों का, खासकर छात्राओं का, अपहरण भी हो सकता है। पिछले सात सालों में हिन्दी में एक भी पीएचडी सबमिट नहीं हुई। मैं हिन्दी माता को श्रद्धा के फूल चढ़ाते हुए माँग करता हूँ कि सरकार हिन्दी को पुनर्जीवित करने के लिए एक आयोग बैठाए। इसके साथ ही, मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि इस प्रस्ताव में मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं है। मेरे दोनों बेटे स्टेट्स में सेटल हो चुके हैं। बेटी डेनमार्क में है। लेकिन मैंने हिन्दी का नमक खाया है। इसलिए मैं हिन्दी की अकाल मृत्यु नहीं देख सकता।
लेखक : मैंने बहुत पहले ही पहचान लिया था कि हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है। फिर भी मैं हिन्दी में लिखता रहा, क्योंकि मैं अंग्रेजी में नहीं लिख सकता था। मेरे कई महत्त्वाकांक्षी लेखक मित्रों ने लिखने के लिए उसी तरह अंग्रेजी सीखी, जैसे चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी थी। वे हिन्दी से अंग्रेजी में वैसे ही गए, जैसे प्रेमचंद उर्दू से हिन्दी में आए थे। लेकिन हमारे इन मित्रों को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। कारण, वे जो अंग्रेजी लिखते थे, वह हिन्दी जैसी ही होती थी। फिर बुकर वगैरह मिलने का सवाल ही कहाँ उठता था? बहरहाल, मुझे हिन्दी में लिखने का कोई अफसोस नहीं है। अफसोस इस बात का है कि मुझे अपने घर से पैसे खर्च कर अपनी किताबें छपवानी पड़ीं। अगर मेरे बड़े भाई पुलिस महानिदेशक न होते तो मैं अपने बल पर इस खर्च का प्रबंध नहीं कर सकता था। रॉयल्टी मिलने का कोई सवाल ही नहीं है। उलटे, प्रकाशक कहता है कि जगह महँगी हो गई है, इसलिए आप या तो अपनी किताबें अपने घर ले जाइए या गोदाम का किराया दीजिए। इसलिए मैं इसे हिन्दी की मृत्यु नहीं, उसकी मुक्ति कहता हूँ।
प्रकाशक : हिन्दी की शोक सभा में शामिल होना मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा है। आखिर यह मेरी भी मातृभाषा है। हिन्दी में किताबें छाप कर एक जमाने में मैंने कितना कमाया था। मेरा घर, मेरी गाड़ी, मेरे लड़के-लड़कियों की विदेश में पढ़ाई - यह सब हिन्दी की बदौलत ही संभव हुआ है। इसके लिए मैं अनेक हिन्दी-प्रेमी सरकारी अधिकारियों का ऋणी हूँ। लेकिन हिन्दी से मेरा रिश्ता व्यावसायिक है। जब हिन्दी की किताबें बिकती ही नहीं, तो मैं उन्हें क्यों छापूँ? इसीलिए मैं समय रहते अंग्रेजी में शिफ्ट कर गया। जो प्रकाशक अभी भी हिन्दी में पड़े हैं, जरा उनकी हालत देखिए। कल गाड़ी में चलते थे, अब स्कूटर के लिए पेट्रोल जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। हाँ, सरकार हिन्दी को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ विशेष प्रयास करे और हिन्दी किताबों की थोक खरीद फिर शुरू कर दे, तो मैं वादा करता हूँ कि हिन्दी में प्रकाशन फिर शुरू कर दूँगा। आखिर यह मेरी भी मातृभाषा है।
मंत्री : आज सचमुच बड़े शोक का दिन है। जिस हिन्दी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका निभाई थी, वह आज भरात की समृद्धि देखने के लिए जीवित नहीं है। लेकिन मित्रो, मैं निराशावादी नहीं हूँ। लोग कहते हैं कि संस्कृत इज ए डेड लैंग्वेज। लेकिन हमने संस्कृत को अभी तक बचा कर रखा है। रेडियो पर अभी भी संस्कृत में समाचार पढ़ा जाता है। इसी तरह हम हिन्दी को भी बचा कर रखेंगे। क्षमा करें, आज कई जगहों पर हिन्दी की शोक सभाएँ हैं और उनमें मुझे बोलना है। लेकिन मैं यह आश्वासन देकर जाना चाहता हूँ कि मैं संसद के अगले सत्र में हिन्दी को बचाने के लिए एक निजी विधेयक जरूर लाऊँगा।
अध्यक्ष : आज का दिन एक ऐतिहासिक दिन है। दुनिया भर में यह एक विरल घटना है कि एक भाषा को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए सभा का आयोजन किया गया। वह श्रेय न संस्कृत को मिला, न पाली को, न अपभ्रंश को और न किसी यूरोपीय या अन्य एशियाई भाषा को। इस दृष्टि से हिन्दी विशेष रूप से गौरवशाली है। लेकिन मित्रो, यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं, शहादत है। दरअसल, हिन्दी शुरू से ही शहादत की भाषा रही है। मुझे महादेवी जी की पंक्तियाँ याद आती हैं : मैं नीर भरी दुख की बदली, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। वैसे भी, किसी खास भाषा से मोह रोमांटिकता है। मैंने हिन्दी आलोचना में शुरू से ही रोमांटिकता का विरोध किया है। हमें यथार्थवादी बनना चाहिए। आज का यथार्थ यही है कि हिन्दी नहीं रही। अतः इस पर शोक मनाना अतीत के शव की पूजा करना है। हिन्दी नहीं रही तो क्या हुआ, उसका साहित्य तो है। हमें इस विपुल साहित्य का पठन-पाठन, चिंतन-मनन करना चाहिए। यही हिन्दी को साहित्य प्रेमियों की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 01:43 PM   #10
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

हिन्दू और आतंकवादी
राजकिशोर








कोई भी देश कितना सभ्य है, यह जानने की तीन कसौटियाँ हैं - रेल रुकने पर चढ़नेवाले और उतरनेवाले एक-दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, घरों में स्त्रियों और बच्चों के साथ कैसा सलूक होता है और सार्वजनिक शौचालयों की हालत कैसी है। हाल ही में पहले अनुभव से मेरा पाला पड़ा। अब मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमने अभी तक सभ्य होने का सामूहिक फैसला नहीं किया है।
जब मैं किसी तरह अपने डिब्बे में चढ़ गया और अपनी सीट पर कब्जा करने के लिए विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ा, तो मैंने महसूस किया कि आज मेरी किस्मत अच्छी है। आमने-सामने की तीनों सीटें भरी हुई थीं। रेलगाड़ी के चलते ही सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने एक दैनिक पत्र निकाल कर अपने सामने फैला दिया, जैसे हम सिर पर छाता तानते हैं। एंकर की जगह पर एक बड़ा सा शीर्षक चीख रहा था : हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता - राजनाथ सिंह। मेरे बाईं ओर बैठे सज्जन खिल उठे। पता नहीं किसे सम्बोधित करते हुए वे बोले, 'एकदम ठीक कहा है। हिन्दू को आतंकवादी होने की जरूरत क्या है? यह पूरा देश तो उसी का है। वह क्यों छिप कर हमला करेगा? यह तो अल्पसंख्यक करते हैं। पहले सिख करते थे। अब मुसलमान कर रहे हैं।'
अखबार के स्वामी को लगा कि उन्हें ही सम्बोधित किया जा रहा है। उन्होंने न्यूजप्रिंट के पीछे से अपना सिर निकाला, 'तो क्या साध्वी प्रज्ञा सिंह और उनके सहयोगियों के बारे में पुलिस जो कुछ कह रही है, वह गलत है? साध्वी ने तो अपना बयान मजिस्ट्रेट के सामने दिया है। अब वह इससे मुकर नहीं सकती।'
बाईं ओर वाले सज्जन का मुँह जैसे कड़वा हो आया। फिर कोशिश करके हँसते हुए वे बोले, अजी, यह सब मनगढ़ंत बातें हैं। पुलिस पर यकीन कौन करता है? उससे जो चाहो, साबित करा लो।
सामनेवाले सज्जन : चलिए फिलहाल आपकी बात मान लेते हैं। क्या आप मेरे एक सवाल का जवाब देंगे
- जरूर। क्यों नहीं। कुछ वर्षों से सबसे ज्यादा सवाल हिन्दुओं से ही किए जा रहे हैं। मुसलमानों और ईसाइयों से कोई कुछ नहीं कहता।
- अच्छा, यह बताइए कि हिन्दू गुंडा हो सकता है या नहीं?
- (कुछ क्षण रुक कर) हिन्दू गुंडा क्यों नहीं हो सकता? गुंडों की भी कोई जात होती है?
- तो यह भी बताइए कि हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है कि नहीं?
बगलवाले सज्जन मुसकराने लगे, आपने कहा था कि आप सिर्फ एक सवाल पूछेंगे।
सामने वाले सज्जन : अजी, यह सवाल और आगे के सारे सवाल आपस में जुड़े हुए हैं। तो, हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है या नहीं?
- हो सकता है, बल्कि हैं। इसीलिए तो हिन्दू समाज को संगठित करने की जरूरत है, ताकि वह मुसलमानों और अंग्रेजों से ली गई बुराइयों को रोक सके।
अखबारवाले सज्जन के दाईं ओर बैठे सज्जन ने मुसकराते हुए हस्तक्षेप किया, सुना है, अटल बिहारी वाजपेयी को शराब पीना अच्छा लगता है। वे मांस-मछली भी खूब पसंद करते हैं।
मेरे बाईं ओर वाले सज्जन : इस बहस में व्यक्तियों को क्यों ला रहे हैं? खाना-पीना हर आदमी का व्यक्तिगत मामला है।
अखबार वाले सज्जन : खैर, इसे छोड़िए। यह बताइए कि हिन्दू चोर या डकैत हो सकता है या नहीं?
- हो सकता है। हम लोग तथ्यों से इनकार नहीं करते।
क्या वह वेश्यागामी हो सकता है?
...
- क्या वह बलात्कार भी कर सकता है?
...
- जब हिन्दू यह सब कर सकता है, तस्करी भी कर सकता है, लड़कियों को भगा कर दलालों को बेच सकता है, बच्चों के हाथ-पाँव कटवा कर उनसे भीख मँगवा सकता है, किडनी खरीदने-बेचने का बिजनेस कर सकता है, मर्डर कर सकता है, दहेज की माँग पूरी न होने पर अपनी नवब्याहता की जान ले सकता है, तो वह आतंकवादी क्यों नहीं हो सकता?
यह सुनकर मेरे पड़ोसी हिन्दूवादी मित्र तमतमा उठे, आप कहीं कम्युनिस्ट तो नहीं हैं? या दलित? यही लोग हिन्दुओं की बुराई करते हैं। जिस पत्तल में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। आप जो बुराइयाँ गिनवा रहे हैं, वे दुनिया में कहाँ नहीं हैं? हमारा कहना यह है कि भारत में हिन्दू बहुसंख्यक हैं, फिर भी उनकी उपेक्षा की जा रही है। उन्हें वेद-शास्त्र के अनुसार देश को चलाने से रोका जा रहा है। इसलिए हिन्दू अगर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हथियार भी उठाता है, तो इसमें हर्ज क्या है? लातों के देवता बातों से नहीं मानते।
अब अखबारवाले सज्जन के बाईं ओर बैठे सज्जन तमतमा उठे, हर्ज कैसे नहीं है? हर्ज है। अगर देश के सभी धर्मों के लोग, सभी जातियों के लोग, सभी वर्गों के लोग, सभी राज्यों के लोग देश में अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए हथियार उठा लें, तो गली-गली में खून नहीं बहने लगेगा? उसके बाद क्या भारत भारत रह जाएगा? फिर कौन कहाँ अपना वर्चस्व कायम करेगा?
- आप हिन्दू विरोधी हैं। आप लोगों से कोई बहस नहीं की जा सकती।
- आप भारत विरोधी हैं। आपसे भी बहस नहीं की जा सकती।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 04:22 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.