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Old 12-07-2013, 01:44 PM   #11
VARSHNEY.009
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Default Re: व्यंग्य सतसई

सीमा पर नागरिक
राजकिशोर








भारत का एक आदमी पाकिस्तान की सीमा पर गया। उसने दाएँ-बाएँ देखा। कोई न था। जैसे ही उसने सीमा पार करने के लिए कदम बढ़ाए, उसके सिर के ऊपर से होते हुए गोली निकल गई। एक मिनट में दोनों ओर से आ कर चार सिपाहियों ने उसे घेर लिया। एक ने जेब से रस्सी निकाली। दो सिपाहियों ने रस्सी उसकी कमर में बाँध दी। चौथे ने उसका एक सिरा अपने हाथ में ले लिया। पहला सिपाही गरजा - अब देखें कैसे भागते हो। नागरिक ने पूछा - लेकिन आपने गोली क्यों चलाई? कहीं लग जाती तो? दूसरा सिपाही बोला - शुक्र मनाओ कि बच गए। हमें 'देखते ही गोली मार दो' का आदेश है। नागरिक ने पूछा - और यह रस्सी? तीसरे सिपाही ने कहा - ताकि तुम भाग न सको। नागरिक - मैं भाग कहाँ रहा था? पहला सिपाही - तो और क्या कर रहे थे? नागरिक - मैं पाकिस्तान के भाई-बहनों को यह समझाने जा रहा था कि हम युद्ध नहीं चाहते।
दूसरे सिपाही - तो हुजूर, आप नेता हैं? तीसरा सिपाही - नहीं, ये भारत-पाकिस्तान मैत्री संघ के अध्यक्ष होंगे। पहला सिपाही - नहीं जी, कोई छोटा-मोटा तस्कर होगा। इसकी तलाशी ले लो, मेरी बात सही साबित न हो तो कहना। दूसरा सिपाही - यह तो बहुत मामूली आदमी लगता है। मामूली आदमी तस्कर नहीं होते। तीसरा सिपाही - जो भी हो, इसके इरादे ठीक नहीं लगते।
नागरिक - आप लोग परेशान न हों। मैं अपनी हकीकत बताता हूँ। देश भर में युद्ध का वातावरण बन रहा है। उधर की सही खबर इधर नहीं आती। इधर की सही खबर उधर नहीं जाती। तो मैंने सोचा कि जरा खुद जा कर देखूँ। जिससे भी भेंट हो जाए, उसे समझाऊँ कि भारत की आम जनता युद्ध नहीं चाहती। सिर्फ कुछ लोग हैं, जो जंग-जंग चिल्ला रहे हैं।
पहला सिपाही - तो वीसा-पासपोर्ट क्यों नहीं लिया? नागरिक - ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं। साधारण लोग तो वैसे ही जहाँ-तहाँ चले जाते हैं। तीसरा सिपाही - आतंकवादी तो नहीं हो? नागरिक - कोई यह स्वीकार करता है कि वह आतंकवादी है? दूसरा सिपाही - यानी आतंकवादी हो सकते हो। नागरिक - चाहता तो हूँ कि अपने देश में नागरिकों का कुछ आतंक बने। लेकिन हमारी कोई सुनता ही नहीं। दूसरा सिपाही - जेब में कितने पैसे हैं?
पाकिस्तान का एक आदमी भारत की सीमा पर आया। उसने दाएँ-बाएँ देखा। कहीं कोई न था। वह सीमा पार करने ही वाला था कि दोनों ओर से चार सिपाही आए। एक ने उसका कॉलर पकड़ा। दूसरे ने उसके हाथ मरोड़ कर पीठ की ओर कर दिए। तीसरा उसकी तलाशी लेने लगा। चौथा उसकी ओर रिवॉल्वर ताने खड़ा रहा।
पहला सिपाही - तो, हुजूर, आप किधर तशरीफ ले जा रहे थे? दूसरे सिपाही ने कहा - गनीमत हुई कि हमने तुमको देख लिया, वरना हम गोली चला देते। दूसरा सिपाही - हमें हुक्म है कि हम किसी के साथ रियासत न करें। चौथा सिपाही - जल्दी से बताओ, तुम्हारे इरादे क्या हैं? वरना मेरी उँगलियाँ बेचैन हो रही हैं। तीसरा सिपाही - जेब में कुल तीन सौ रुपए हैं और चले हैं बॉर्डर लाँघने।
नागरिक - आप लोग परेशान न हों। मैं एक सीधा-सादा इनसान हूँ। इंडिया जा रहा था, ताकि वहाँ के लोगों से बात कर सकूँ। उन्हें समझाऊँ कि पाकिस्तान का अवाम जंग नहीं चाहता। यह तो लीडरान हैं, जो तुर्की-बतुर्की बोल कर सनसनी फैला रहे हैं।
तीसरा सिपाही - तुम तो गद्दार लगते हो। लीडरान के खिलाफ आयँ-बायँ बक रहे हो। तुम्हें पता है, इसी बात पर तुम्हें अरेस्ट किया जा सकता है? दूसरा सिपाही - मामूली आदमी हो तो मामूली आदमी की तरह बरताव करो। सियासत के बारे में तुम्हें क्या मालूम? चौथा सिपाही - ऐसे ही लोग तो हिन्दुओं का मन बढ़ा रहे हैं।
नागरिक - यह आप लोगों की गलतफहमी है। इंडिया में मुसलमानों की तादाद हमसे कम नहीं है। मैं उनसे मिल कर समझना चाहता हूँ कि इंडिया-पाकिस्तान उलझाव के बारे में वे क्या सोचते हैं। गैर-मुसलमानों से भी बातचीत करने की तबीयत है। दूसरे, पाकिस्तान में अब जमहूरियत है। यहाँ के लोग अपनी किस्मत का फैसला खुद कर सकते हैं।
चारों सिपाही हँसी से लोटपोट हो गए। दूसरा सिपाही - जमहूरियत! तुम्हारे बाप ने भी कभी जमहूरियत देखी है? पहला सिपाही - यहाँ दो ही ताकतें हैं। अल्लाह की ताकत और फौज की ताकत। पहले अमेरिका की भी ताकत थी, पर अब हम उन पर यकीन नहीं करते। वे हमें भाड़े का टट्टू मानते हैं।
नागरिक - तो क्या पाकिस्तान में इनसानी ताकत की कोई वकत नहीं है?
चारों सिपाही फिर हँसने लगे। तीसरा सिपाही - तो क्या तुम समझते हो कि इंडिया में इनसानी ताकत मायने रखती है?
दूसरा सिपाही - इनसान हो तो यहाँ क्या करने आए हो? घर में रहो, बीवी-बच्चों का खयाल रखो। खुदा का खौफ खाओ। मुल्क को हम लोगों पर छोड़ दो।
नागरिक - अब तक यही तो कर रहा था। अब लगता है, इससे काम नहीं चलेगा। इसीलिए तो हिंदुस्तान जा रहा था।
पहला सिपाही - तो आप अमन के फरिश्ते हैं। जाइए, घर जाइए। अपने दोस्त-अहबाब को बताइए कि मुल्क जनता से नहीं, फौज से चलते हैं। जिस दिन फौज का साया हट गया, धरती से पाकिस्तान का नक्शा ही मिट जाएगा।

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सिर पर शौचालय
राजकिशोर








वह देखो, वह आदमी अपने सिर पर एक बड़ा-सा शौचालय लिए जा रहा है। नहीं, नहीं, यह शौचालय नहीं, उसका एक छोटा-सा मॉडल है। इसे देखने से आदमी यह अनुमान लगा सकता है कि असली शौचालय कैसा होता होगा। लेकिन इसमें तो कोई नल नहीं है। फिर शौच करने के लिए पानी कहाँ से आता होगा? हाँ, यह एक बड़ा सवाल है। लेकिन यह किसी फ्लैट का शौचालय तो है नहीं। यह तो किसी ग्रामीण इलाके का, किसान का या खेतिहर मजदूर का शौचालय है। देखते नहीं, इसकी बनावट ही बता रही है। यह शौच का उत्सव नहीं, शौच का शोक है। चूँकि भारत सरकार को आजादी के अट्ठावन साल बाद अचानक यह बुरा लगने लगा है कि लोग खुले में शौच करें, इसलिए गाँव-गाँव में ऐसे, कम लागत के शौचालय बनाए जा रहे हैं। इसे ही संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम दिया गया है। गोया शौच स्वच्छ हो गया, तो बाकी सब अपने आप स्वच्छ हो जाएगा।
लेकिन यह आदमी कौन है, जो अपने सिर पर शौचालय का यह मॉडल लिए घूम रहा है? अरे, पहचाना नहीं? ये तो अपने ग्रामीण विकास मंत्री हैं - रघुवंश प्रसाद सिंह। हाँ, हाँ, वही, जो लालू प्रसाद की पार्टी से जीत कर आए हैं। कौन लालू प्रसाद? अरे, उनको नहीं जानते? आजकल रेल मंत्री हैं। रेल व्यवस्था में काफी सुधार कर रहे हैं। नई-नई रेलें दौड़ा रहे हैं। रेलों की रफ्तार बढ़वा रहे हैं। पर बेचारे के वश में इतनी-सी बात नहीं है कि हर डिब्बे में, खासकर शौचालय में, पानी हमेशा मौजूदा रहे। शायद उनका खयाल यह है कि जिस तरह मुसाफिर पीने का अपना पानी लेकर चलने के आदी हो गए हैं, उसी तरह शौच के लिए भी पानी ले कर चलें। क्या इसीलिए रघुवंश प्रसाद सिंह को इस बात की चिंता नहीं है कि शौचालय में पानी है भी या नहीं। उनका कहना है कि पानी हो या नहीं, गाँव के हर आदमी के घर में या घर के बाहर एक शौचालय - निजी शौचालय - जरूर होना चाहिए।
चाहे जो कहो भाई, हमारे ग्रामीण विकास मंत्री बहुत ही सूझ-बूझ वाले मंत्री हैं। तुम्हें पता नहीं कि हाल में उन्होंने क्या कहा? तुम किस दुनिया में रहते हो? क्या खाली फिल्म स्टारों की चर्चा पढ़ते हो या सिर्फ टीवी सीरियल देखते हो? इसीलिए तो असली बात तुमसे छूट जाती है। सुनो, ध्यान से सुनो। हमारे ग्रामीण विकास मंत्री का कहना है कि किसी देश के स्वास्थ्य की सूचना सेंसेक्स या जीडीपी से नहीं मिलती, यह सूचना इस बात से मिलती है कि लोगों के पास शौचालय है या नहीं है। है न पते की बात! यहाँ लोग रोज सेंसेक्स का चढ़ाव-उतार देखते रहते हैं, यह जानने के लिए कि देश आगे बढ़ रहा है या पीछे जा रहा है। इसके लिए जीडीपी पर भी नजर रखी जाती है। लेकिन ये सब तो अमीर लोगों के चोंचले हैं। इनसे यह पता नहीं चलता कि देश का स्वास्थ्य कैसा है। देश के स्वास्थ्य का नवीनतम हाल जानने के लिए हमारे रघुवंश प्रसाद सिंह यह मालूम करते रहते हैं कि आज भारत में शौचालयों की कुल संख्या क्या है। जिस दिन यह पता चल जाएगा कि देश भर में जितने परिवार हैं, उतने ही शौचालय हैं, उस दिन वे राहत की साँस लेंगे, क्योंकि इससे यह साबित हो जाएगा कि देश पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया है।
कह सकते हो कि मैं एक गंभीर बात का मजाक बना रहा हूँ। बात निश्चय ही काफी गहरी है। जहाँ लोगों के पास शौचालय न हों, उन्हें शौच के लिए मैदान या झाड़ियों के पीछे जाना पड़ता हो, वहाँ सेंसेक्स से देश की प्रगति को मापना क्या पागलपन नहीं है? सेंसेक्स कूदता-फाँदता रहे, जीडीपी हर साल छलाँग लगाता रहे, लेकिन अगर खुले में शौच करने से गाँवों में बीमारियाँ फैल रही हों, इन बीमारियों से लोग मर रहे हों, तो लानत है देश चलाने वालों पर। पहले वे हर घर में एक शौचालय का इंतजाम तो कर दें, फिर मेट्रों रेल दौड़ाएँ या जेट विमान उड़ाएँ, हमारी बला से। आदमी की एक बुनियादी जरूरत तो पूरी होनी चाहिए। सोचो, जरा और गहराई से सोचो। हमारे ग्रामीण विकास मंत्री ने बहुत दूर की बात कह दी है। प्रत्येक घर में शौचालय की माँग करते हुए उन्होंने इशारे से यह भी कह दिया है कि हर आदमी के पेट में पर्याप्त अन्न भी जाना चाहिए। आदमी पूरा खाना नहीं खाएगा, तो वह शौच करने कैसे जाएगा? देखा, रघुवंश जी देश के योजनाकारों को कितना गहरा पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं!
अब लोगों को पूरा खाना मिले, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा भाई, यह बहुत कठिन काम है। माना कि देश तेजी से विकास कर रहा है। माना कि बहुत जल्द ही वह आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है। लेकिन एक अरब से ज्यादा लोगों के लिए अन्न का इंतजाम करना मामूली बात नहीं है। इतना अनाज कहाँ से आएगा? मान लो कि अनाज का इंतजाम भी हो गया, तो गरीब लोगों की टेंट में पैसा कौन भरेगा? राम, राम, जो काम महाबली अंग्रेज सरकार नहीं कर सकी, वह हमारी सरकार क्या खाकर कर सकती है? लेकिन यह मत समझो कि सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। वह भरसक कोशिश कर रही है। अभी तक वह इस मुकाम पर पहुँची है कि साल में कम से कम सौ दिन तो लोगों को काम यानी खाना मिले। इसीलिए तो राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की गई है। साल में सिर्फ सौ दिन क्यों? अजीब सवाल है! तुम घोंचू के घोंचू ही रहोगे। अरे, सरकार जब पूरे साल भर काम की गारंटी नहीं दे सकती तो क्या वह सौ दिन की गारंटी भी न दे? क्या तुमने यह मुहावरा नहीं सुना है - भागते भूत की लँगोटी ही सही। जहाँ सरकार एक दिन की भी गारंटी लेने को तैयार नहीं थी, वहाँ सौ दिन क्या तुम्हें कम लग रहे हैं? भारतीय होकर भी गाँवों के लोग क्या हर हफ्ते दो-तीन दिन उपवास नहीं रख सकते? क्या सरकार उनके लिए अपना सारा खजाना लुटा दे? पैसे नहीं होंगे, तो इतनी भारी-भरकम सरकार कैसे चलेगी? मंत्री और अफसर क्या खाएँगे-पिएँगे? और खाएँगे-पिएँगे नहीं, तो वे शौच कैसे जाएँगे? क्या शौच जाने का अधिकार सिर्फ गाँव वालों को है?

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सांसदों की कीमत
राजकिशोर








क्या जमाना है! किसी भी चीज की कीमत स्थिर नहीं रही। जो शेयर कल तक सोने के भाव बिकते थे, अब वे मिट्टी की दर पर मिल रहे हैं। सोना कभी फिसलता है, कभी उछलता है। मकान कभी महँगे होते हैं, कभी सस्ते हो जाते हैं। बैंक भी अपनी ब्याज दर घटाते-बढ़ाते रहते हैं। कारों की कीमत भी ऊपर-नीचे होती रहती है। जो कर्मचारी कल अस्सी हजार रुपए महीने पाने के काबिल माना जाता था, वह आज अचानक टके के भाव भी महँगा हो जाता है। ठीक ही कहा था हमारे पुरखों ने, लक्ष्मी स्वभाव से ही चंचला है। पुरुष पुरातन की वधू ठहरी।
लेकिन लोकतंत्र? इसके बारे में हम लगातार अपने आपको और खुद से ज्यादा विदेशियों को लगातार आश्वस्त करते आ रहे हैं कि भारत में यह खूब मजबूत और सघन होता जा रहा है। भइया, हमें तो कभी ऐसा लगा नहीं। आखिर हम भी इसी लोकतंत्र में रहते हैं। लोकतंत्र मजबूत होता रहता, तो हम भी मजबूत और सघन होते जाते। लेकिन मुझे यह एहसास कभी नहीं हुआ। अन्याय का विरोध करते हुए कई बार पिटते-पिटते बचा हूँ। हर महीने कोई न कोई ऐसी खबर मिलती है, जिससे यह बात पुष्ट होती है कि अयोग्य व्यक्तियों की पूछ बढ़ती जा रही है। जब किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति का मामला उठता है, तो सबसे पहले उन्हीं पर नजर जाती है। हम ठीक से नहीं जानते। हो सकता है, लोकतंत्र इसी तरह पुष्ट होता हो।
लेकिन लोकतंत्र पुष्ट हो रहा है, तो सांसदों की कीमत में अस्थिरता क्यों आ रही है? अभी उस दिन लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने कुछ संसद सदस्यों को बताया कि तुम लोगों की कीमत एक रुपए की भी नहीं है। सभी को पता है कि संसद में कही गई बातों पर मानहानि का मामला ले कर अदालत में नहीं जाया जा सकता। संसद की विशेषाधिकार समिति को मामला सौंपा जा सकता है, लेकिन अब यह भी संभव नहीं। इस लोक सभा की मीयाद पूरी हो रही है। अगली बार जब लोक सभा जुड़ेगी, तो वह दूसरी लोक सभा होगी। वह इस लोक सभा के मामलों पर विचार नहीं कर सकेगी। इस तरह मामला रफा-दफा हो जाएगा। सांसदों की वास्तविक कीमत बताने के लिए स्पीकर महोदय ने सटीक समय चुना है।
सच कहूँ तो सोमनाथ चटर्जी की बात मेरी समझ में आई नहीं। कुछ समय पहले यही सांसद थे, जिनकी कीमत लाखों और करोड़ों में लगाई जा रही थी। यह साबित करने के लिए कुछ सांसद अपनी सांसद निधि ले कर लोक सभा में आए और एक करोड़ रुपए की गड्डियाँ भी उछालीं। पर लोक सभा को सदमा नहीं लगा। हलकी-सी तफतीश कर रुपए सरकारी खजाने में जमा करवा दिए गए। यह पता लगाने की जरूरत नहीं समझी गई कि ये रुपए आए कहाँ से थे और किसलिए किसने किसको दिए थे। स्पीकर महोदय को लगा होगा कि सांसदों की कीमत बढ़ रही है, तो यह जश्न मनाने की बात है न कि चिंता करने की।
मुझे लगता है कि एक करोड़ से सांसदों की वास्तविक कीमत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अनुभवी लोगों का कहना है कि एक-करोड़-रुपया-रिश्वत कांड की जाँच संसद मार्ग थाने के किसी सब-इंस्पेक्टर को सौंप दी गई होती, तो बेहतर था। वह भी शायद वही करता जो लोक सभा ने किया। लेकिन इस बीच दो-तीन करोड़ रुपए खुद भी कमा लेता। आजकल के भाव से एक करोड़ की लाज बचाने के लिए इससे कम क्या खर्च करने होंगे। सरकार चाहती, तो उस पुलिस सब-इंस्पेक्टर से सौदा भी कर सकती थी कि इस कांड से तुम जितना चाहो, कमा लो - बस उसका आधा सरकारी खजाने में जमा कर देना। इससे एक नई परंपरा शुरू हो सकती थी। फिलहाल लोक सभा पर खर्च ही खर्च होता है। सब-इंस्पेक्टर यह साबित कर देता कि लोक सभा से सरकार को कमाई भी हो सकती है।
आजकल सभी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों तथा अन्य अनेक संस्थानों से कहा जा रहा है कि वे अपना खर्च खुद उठाएँ। जो आमदनी नहीं कर सकता, उसे खर्च करने का अधिकार नहीं है। देश में नोट छापने का अधिकार सिर्फ एक ही संस्था को है, जिसका नाम है भारत सरकार। बाकी लोगों को नोट कमाने होंगे। इस तर्क से लोक सभा को भी बाध्य किया जाना चाहिए कि वह भी आमदनी करके दिखाए। इसका सबसे आसान तरीका यह है कि चुन कर आनेवाले सांसदों पर एंट्री फी लगा दी जाए। जब संसद की एक सीट जीतने के लिए दस-पंद्रह करोड़ खर्च कर देना मामूली बात है, तो संसद में बैठने की जगह पाने के लिए एक-दो करोड़ खर्च करने से कौन पीछे हटेगा? इसी तरह, संसद में बोलने की दर भी तय की जा सकती है। शोर-शराबे के कारण संसद जितनी देर तक स्थगित रहती है, उसका सामूहिक जुर्माना शोर-शराबा करनेवालों से वसूल किया जा सकता है। निवर्तमान हो रहे सदस्यों पर पाबंदी लगाई जा सकती है कि अगला चुनाव लड़ने के लिए उन्हें संसद से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना होगा। इस प्रमाणपत्र की कीमत सांसद के आचरण को देखते हुए एक हजार से एक करोड़ रुपए तक रखी जा सकती है। संसद की आय बढ़ाने के लिए एमबीए उपाधिधारकों की टोलियाँ नियुक्ति की जा सकती हैं - इस शर्त पर कि जो टोली जितनी ज्यादा आमदनी के स्रोत सुझाएगी, उसे उतना ही ज्यादा पारिश्रमिक दिया जाएगा।
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स्वयंवर
राजकिशोर








मैंने कभी किसी का स्वयंवर नहीं देखा था। जब सुना कि राखी सावंत का स्वयंवर टीबी पर, माफ कीजिएगा, टीवी पर मंचित होने वाला है, तो उत्सुकता पैदा हो गई। उत्सुकता राखी में नहीं, स्वयंवर में थी। रोज सैकड़ों राखियाँ टीबी पर, फिर माफ कीजिएगा, टीवी पर आती रहती हैं। इसलिए किसी एक को महत्व देना लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। लोकतंत्र का महत्व कम करके न आँकिए। यह लोकतंत्र का ही प्रताप है कि स्वयंवर सार्वजनिक रूप से दिखाया जा रहा है।
किताबों में जो पढ़ा है, उसके अनुसार स्वयंवर इस तरह खुलेआम नहीं होते थे। स्वयंवर का तरीका भी कुछ और था। संभावित वरों के लिए कोई कठिन परीक्षा रख दी जाती थी। जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता था, उसे चुन लिया जाता था। सीता और द्रौपदी के लिए वर इसी तरह खोजा गया था। दूसरी युवतियों के लिए स्वयंवर हुआ था या नहीं और हुआ था, तो उसमें जीत की कसौटी क्या रखी गई थी, यह मालूम नहीं। जो लोग प्राचीन इतिहास पर शोध करते हैं, उनके लिए यह एक अच्छा विषय है। अगर सौ-दो सौ स्वयंवरों के ब्यौरे निकाल कर ले आएँ, तो हम समझ पाएँगे कि उस जमाने में विवाह के लिए कौन-सी योग्यताएँ अपेक्षित मानी जाती थीं।
वैसे, यह बात समझ में नहीं आती कि राजकुमारी सीता के योग्य वर होने और शिव का धनुष उठा लेने की क्षमता के बीच संबंध क्या है। राजा जनक को सुयोग्य पात्र चाहिए था या कोई गँठा हुआ पहलवान? मुहावरे में कहा जाए तो कोई भी विवाह शिव का धनुष उठाने की चुनौती से कम नहीं है। लेकिन यह वर के बारे में जितना सच है, उतना ही वधू के बारे में भी सच है। मैत्रेयी पुष्पा वगैरह के उपन्यास पढ़ने पर तो लगता है कि यह चुनौती वधू के लिए ज्यादा है। स्त्रीवादी लेखिकाओं का कहना है कि प्रत्येक पुरुष एक तनी हुई प्रत्यंचा है। पर आजकल यह उपमा स्त्रियों पर भी लागू होने लगी है। ऐसा लगता है कि आधुनिक सभ्यता में स्त्री-पुरुष नहीं मिलते, बल्कि दो तनी हुई प्रत्यंचाएँ मिलती हैं। क्या पता पहले भी ऐसा होता हो। उन दिनों की व्यक्तिगत डायरियाँ नहीं मिलतीं। वरना हम समझ पाते कि अहल्या की मनःस्थिति क्या थी और उसके पति गौतम ऋषि के मन में किसी बात को लेकर कोई कुंठा तो नहीं थी। चंद्रमा को छिछोरा छोकरा माना जाता है। हो सकता है, अहल्या से उसका वास्तविक अनुराग रहा हो और अहल्या भी उस पर अनुरक्त रही हो। यह भी एक तरह का स्वयंवर ही था, जो गौतम ऋषि को ठीक नहीं लगा।
द्रौपदी को पाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, उसमें वजन उठाने की शक्ति के बजाय सही निशाना लगाने की क्षमता पर स्वयंवर को केन्द्रित किया गया था। इस शर्त की प्रासंगिकता भी समझ में नहीं आती। आदर्श पति जरूरी नहीं कि अपने मुल्क का सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज ही हो। अगर उन दिनों स्वयंवर में सफल होने के लिए ऐसी ही ऊटपटाँग शर्तें रखी जाती थीं, तो यह दावा किया जा सकता है कि लड़कियों के, माफ कीजिएगा, राजकुमारियों के माता-पिता की नजर में सभी वर एक-जैसे ही थे। उनके बीच चयन की मुश्किल को दूर करने के लिए कोई ऐसी चित्र-विचित्र परीक्षा रख दी जाती थी जिसमें पास होना जरा कठिन हो। बस हो गया फैसला। जाहिर है, वर के चयन में वधू की कोई भूमिका नहीं होती थी। उसकी पसंद-नापसंद का खयाल नहीं रखा जाता था। कहलाता था स्वयंवर, पर जयमाला किसके गले में डालनी है, इसका फैसला वधू की आँखें, हृदय या मस्तिष्क नहीं, वह शर्त तय करती थी, जिस पर खरा उतरना स्वयंवर जीतने की कसौटी थी। मान लीजिए कि जिस राजकुमार ने यह शर्त पूरी कर दी, उसके निकट जाने पर राजकुमारी साँसों की बदबू से परेशान हो गई या राजकुमार का चेहरा देखकर उसकी आँखें मुँद गईं, तो क्या? उसने स्वयंवर जीता था और अब वही उसका भावी पति था। राजकुमारी के विकल्प खत्म हो चुके थे।
उस सब से तो राखी सावंत का ही स्वयंवर बेहतर है। वह खुद उम्मीदवारों को देख-परख रही है। काश, यह असली होता। लेकिन तब, सवाल-जवाब भी तो कुछ और होते। असली जीवन में स्वयंवर आँखें खोल कर नहीं, आँखें मूँद कर किए जाते हैं।
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सर्वदलीय सांसद महासंघ का प्रस्ताव
राजकिशोर








अखिल भारतीय सर्वदलीय सांसद संघ का यह विशेष अधिवेशन एक आपातकालीन स्थिति पर विचार करने के लिए आहूत किया गया है। यह आपातकालीन स्थिति बाबूभाई कटारा की असंसदीय और लोकतंत्र-विरोधी गिरफ्तारी से पैदा हुई है। सांसदों को गिरफ्तार करने की सही जगह संसद है, जहाँ पुलिस का प्रवेश वर्जित है। सेना भी उन्हें गिरफ्तार कर सकती है, लेकिन इसके लिए उसे संसद भवन में प्रवेश करना पड़ेगा, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। किसी भी स्थिति में, सांसद को हवाई अड्डे या रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह लोकतंत्र और संसदीय प्रजातंत्र की सरासर अवमानना है। पिछले कुछ समय से भारत में सांसदों की जिस तरह अवमानना की जा रही है, उन्हें परेशान और लज्जित किया जा रहा है, उनके स्वतंत्र आवागमन के अधिकार को रोका जा रहा है, उन्हें संसद भवन की जगह जेल और हवालात में ले जाया जा रहा है, उन्हें अकारण या मामूली कारणों से संसद से निष्कासित किया जा रहा है, इसे अखिल भारतीय सर्वदलीय सांसद महासंघ घोर शंका और अविश्वास की निगाह से देखता है और अपनी यह सुचिंतित राय प्रकट करता है कि यदि इस प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियाँ जारी रहीं, तो भारत में संसदीय लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा और हम पुलिस और न्यायपालिका की तानाशाही के शिकार होकर रह जाएँगे। हमारे कई पड़ोसी देशों में फौज की तानाशाही है। हम देश की शांतिप्रिय और लोकतंत्रवादी जनता को चेतावनी देना चाहते हैं कि पुलिस की तानाशाही फौज की तानाशाही से कम खतरनाक नहीं है।
भारत में लोकतंत्र के भविष्य को सुरक्षित करने और संसद की छीजती हुई मर्यादा को बहाल करने के लिए अखिल भारतीय सर्वदलीय सांसद महासंघ सर्वसम्मति से ये प्रस्ताव पारित करता है :
1. सांसद भारत की संप्रभु जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। अतः सांसदों का किसी भी प्रकार का अपमान वस्तुतः भारत की जनता का ही अपमान है।
2. जिस तरह भारत की जनता को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, उसके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, उसे सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह उसके निर्वाचित प्रतिनिधि भी इन सब चीजों से मुक्त हैं। देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों के इस मूल अधिकार को संविधान के अगले संस्करण में शामिल करना आवश्यक है, नहीं तो भ्रम की वर्तमान स्थिति बनी रहेगी।
3. सांसद भी आखिर मनुष्य ही हैं और अपने समय और समाज की उपज हैं। वे उन्हीं उपायों से चुनाव जीत कर आते हैं, जिन उपायों से देश की सभी सरकारें चल रही हैं, सभी औद्योगिक घराने चल रहे हैं, खेल और साहित्यिक संगठन और विभिन्न अकादमियाँ चल रहा हैं, फिल्म और कला की दुनिया चल रही है और विभिन्न प्रकार के आंदोलन और अभियान चल रही हैं। अगर सांसद इन उपायों का सहारा न लें, तो कोई भी व्यक्ति संसद के लिए नहीं चुना जा सकता और हमारी महान संसद एक खाली मकान बन कर रह जाएगी। इसलिए सांसदों से उच्चतर आचरण की माँग छोड़ देनी चाहिए और उन्हें हाड़-मांस के सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करने की अबाधित स्वतंत्रता उपलब्ध होनी चाहिए। व्यवहार में तो ऐसा चल ही रहा है। कथनी और करनी की एकता के हित में अब इसे सिद्धान्त के स्तर पर भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए।
4. संसद भारत की राज्य व्यवस्था की क्रीम है और सांसद क्रीमी लेयर हैं। जब देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने क्रीमी लेयर के सिद्धान्त को मान्यता दे दी है, तो सरकार को भी इस सिद्धान्त को मान लेना चाहिए और अपने सभी अंगों को यह निर्देश जारी करना चाहिए कि सांसदों के साथ गैर-क्रीमी सलूक न किया जाए।
5. भारत में संसद ही कानून निर्माता है। इस तर्क से सांसद भी कानून निर्माता हुए। जो कानून बनाते हैं, वे कानून से ऊपर होते हैं। स्रष्टा हमेशा अपनी सृष्टि से बड़ा होता है, जैसे ईश्वर इस सृष्टि का अंग नहीं है, उससे परे है। इसलिए अखिल भारतीय सर्वदलीय सांसद महासंघ माँग करता है कि सांसदों को देश के कानूनी ढाँचे से परे घोषित किया जाए। जब तक सांसदों पर देश के वही कानून लागू होते रहेंगे, जो साधारण नागरिकों पर लागू होते हैं, तब तक संसद की मर्यादा खतरे में रहेगी और कोई भी ऐरा-गैरा पुलिस अधिकारी, जज या मजिस्ट्रेट सांसदों की आबरू के साथ खिलवाड़ करता रहेगा।
6. कबूतर एक बहुत ही निर्दोष और शांतिप्रिय पक्षी है। वह पंचशील का सार्वभौमिक प्रतीक है। पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे महान नेता समय-समय पर तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कबूतर उड़ाया करते थे। अतः सांसदों के सन्दर्भ में कबूतरबाजी जैसे आशालीन मुहावरों के उपयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
7. कुछ सांसदों के आचरण से संसद की इज्जत पर धब्बा लगा है, यह हम भी मानते हैं। लेकिन इसका इलाज संसदीय लोकतंत्र के दायरे में ही खोजा जाना चाहिए, उससे बाहर नहीं। इसलिए अखिल भारतीय सर्वदलीय सांसद महासंघ की माँग है कि सांसदों की किसी भी अवांछित गतिविधि पर विचार सिर्फ संसद में ही हो और किसी भी सांसद को अर्थदण्ड से बड़ी सजा न दी जाए। जिस तरह उद्योगपतियों को जेल नहीं भेजा जाता, मामूली-सा अर्थदण्ड लेकर छोड़ दिया जाता है, वैसा ही सांसदों के साथ भी किया जाए। महासंघ सभी सांसदों से अनुरोध करता है कि वे हर महीने एक निश्चित धनराशि संसद के समेकित कोष में जमा कर दिया करें, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन पर लगाए गए अर्थदंड की वसूली उस कोष से होती रहे और किसी के डिफाल्टर होने का खतरा न रह जाए। बल्कि जिस तरह सरकार ने सांसद कोष की व्यवस्था की है, उसी तरह सरकारी खर्च पर सांसद अर्थदंड कोष की स्थापना की जा सकती है। इसे न्याययुक्त बनाने के लिए ऐसा किया जा सकता है कि इस कोष में सरकार और सांसद बराबर-बराबर योगदान करें, जैसा कि पीएफ के मामले में होता है।
8. अन्त में, सांसदों का कितना सम्मान होता है, इसी से दुनिया यह अनुमान लगाएगी कि भारत में संसदीय लोकतंत्र कितना मजबूत है। इसलिए सांसदों के साथ व्यवहार का प्रोटोकॉल क्या हो, इस बारे में संसद एक पुस्तिका प्रकाशित करे और उसकी प्रतियाँ देश के हर नागरिक और संगठन को मुफ्त मुहैया कराई जाएँ। प्रत्येक पुलिस अधिकारी के लिए इस पुस्तिका को हमेशा अपने साथ रखना अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
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Old 12-07-2013, 01:46 PM   #16
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सबसे बड़ी चुनौती
राजकिशोर








आज सुंदरलाल जी बहुत खुश नजर आ रहे थे। अड्डे पर पहुँचते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि आज मैं सबको चाय पिलाऊँगा। मैंने पूछा, सुंदरलाल जी, आज तो आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं। बात क्या है?
सुंदरलाल - हाँ, आज मैं वाकई खुश हूँ। अभी तक मुझे पता नहीं था कि देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है। अब पता चल गया है।
मैंने जानना चाहा, क्या है?
सुंदरलाल - देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, नक्सलवाद।
अनवर भाई बोल उठे - अच्छा! लेकिन इस नतीजे पर आप पहुँचे कैसे? मैं तो समझ रहा था कि देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, सांप्रदायिकता। अभी गुजरात में भाषण करते हुए सोनिया गांधी ने ऐसा ही कहा था। देश का बुद्धिजीवी वर्ग तो 1992 से ही यही बता रहा है। तब से आज तक उन्होंने किसी अन्य चुनौती की ओर इशारा तक नहीं किया। क्या दिसंबर 2007 में स्थिति कुछ बदल गई है?
ऐसे मौके पर सपना बहन क्यों चुप रहतीं। उन्होंने कहा - मेरे ख्याल में, सांप्रदायिकता से बढ़ कर चुनौती है, मर्दवाद। मर्दवाद से दबी हुई स्त्रियाँ सांप्रदायिकता का ठीक तरह से सामना नहीं कर सकतीं। उन्हें धर्म घुट्टी में ही पिला दिया जाता है। बाद में यही धर्म सांप्रदायिक लोगों के काम आता है। मैंने अभी-अभी राजेंद्र यादव की एक सौ बारहवीं किताब पढ़ी है। इसमें भी उनका कहना यही है कि जब तक मर्दवाद की मिट्टी पलीद नहीं की जाती, भारतीय समाज का विकास नहीं हो सकता। भारत का मर्द बहुत बदमाश है। वह सत्ता पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहता है।
अनवर भाई ने चुटकी ली - यादव जी मर्द आदमी हैं। जो कुछ कहते हैं, खरी-खरी कहते हैं।
कपूर साहब - इस मामले में राजेन्द्र यादव गांधी की तरह हैं। गांधी जी को स्त्रियों का साथ बहुत पसंद था। राजेन्द्र जी ने भी अपने बारे में यह तथ्य स्वीकार किया है।
पूरी सभा में हास्य की लहर दौड़ पड़ी। बहुत कम हँसनेवाले रामसहाय जी के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई। हमारे बीच वह अकेले दलित थे।
सुंदरलाल अभी तक इंतजार कर रहे थे कि ये छोटे-छोटे ब्रेक खत्म हों, तो वे अपनी बात कहें। मौका मिलते ही बोल उठे, आप लोग जानना चाहते हैं न कि नक्सलवाद के बारे में यह बात मुझे कैसे मालूम हुई? तो सुनिए, यह किसी ऐरे-गैरे का नहीं, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बयान है। प्रधानमंत्री झूठ क्यों बोलेंगे! उन्हें जरूर खुफिया एजेंसियों से खबर मिली होगी कि नक्सलवाद ही इस समय देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। देश को यह चेतावनी दे कर उन्होंने बहुत अच्छा किया। वरना नेता लोग तो असली खबर को हमेशा दबा देते हैं। मनमोहन जी ने यहाँ तक बता दिया है कि बेहतर हथियारों व विस्फोटकों से लैस ये वामपंथी उग्रवादी अपने हमले तेज कर सकते हैं। भाई, हम सबको सावधान रहना होगा।
कपूर साहब - इसका मतलब यह है कि नक्सलवादियों का सालाना बजट हमारी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के सलाना बजट से ज्यादा है!
रामसहाय - सुंदरलाल जी, आप फिजूल में हमें डरा रहे हैं। दिल्ली नक्सलवाद-प्रभावित क्षेत्र नहीं है। यहाँ कोई हमला-वमला नहीं होनेवाला है।
अनवर - सर, आप क्या कहते हैं! यहाँ आए दिन विस्फोट होते रहते हैं। अगर बाहर से आ कर लोग दिल्ली में बसना छोड़ दें, तो आतंकवाद के कारण यहाँ की आबादी चार-पाँच साल में आधी हो जाए! अभी परसों ही पुलिस ने दो आतंकवादियो को पकड़ा था। वे क्रिसमस के मौके पर कनॉट प्लेस में कोई बड़ी घटना करनेवाले थे।
सपना - दिल्ली पुलिस आतंकवादियों को धड़ाधड़ पकड़ती रहती है, तब तो यह हाल है। वह आतंकवादियों का पीछा करना छोड़ कर गुंडों-बदमाशों को पकड़ने लग जाए, तब तो दिल्ली पर पूरी तरह से आतंकवाद का राज्य हो जाएगा।
रामसहाय - तो क्या आप लोग आतंकवाद को नक्सलवाद से बड़ी समस्या मानते हैं?
अनवर - इसमें शक ही क्या है? अभी हाल ही में विज्ञान भवन में आतंकवाद-विरोधी सम्मेलन हुआ था। उसमें हमारे प्रधानमंत्री ने ही कहा था कि आतंकवाद भारत के ही सामने नहीं, विश्व के सामने सबसे बड़ी समस्या है।
सपना - भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिसके मन में जो आए बोल सकता है। आप किसी की जबान नहीं बाँध सकते।
सुंदरलाल - सो तो है। पर आप मेरी जबान क्यों बाँधना चाहती हैं? मुझे पूरी बात बोलने तो दीजिए।
मैंने आश्वस्त किया - हाँ, हाँ, आप जरूर बोलिए। प्रधानमंत्री ने आगे क्या कहा?
सुंदरलाल - प्रधानमंत्री ने एक खास बात यह बताई कि पिछले कुछ सालों में नक्सलवादी गुटों की गतिविधियों के नए पहलू उजागर हुए हैं। वे अब प्रमुख आर्थिक ठिकानों को निशाना बना रहे हैं।
रामसहाय - ऐसा लगता है कि वे देश के तीव्र आर्थिक विकास से जलते हैं। अगर उनके मंसूबे सफल हो गए, तो हमारी विकास दर घट कर 9.6 हो जा सकती है। फिर हम महाशक्ति के रूप में चीन से प्रतिद्वंद्विता कैसे कर सकेंगे?
मैंने एक बार फिर हस्तक्षेप करना जरूरी समझा - यह नक्सलवादियों के अस्तित्व का भी सवाल है। मगर मनमोहन सिंह के बताए हुए रास्ते पर चलने से देश से गरीबी खत्म हो जाए, तो फिर नक्सलवादी क्या करेंगे?
सपना - मुझे तो लगता है कि मनमोहन सिंह और नक्सलवादी, दोनों का लक्ष्य एक समान है - गरीबी मिटाना। इसलिए उनमें आपसी द्वेष है।
रामसहाय - तो क्या देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती गरीबी हटाना है?
अड्डे पर सन्नाटा छा गया।
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सच का सामना
राजकिशोर








एक सच कई दिनों से मेरा पीछा कर रहा है। बहुत दिनों तक मैंने सच का पीछा किया था। समझ लीजिए, बचपन से ही। अब इस काम में मेरी रुचि नहीं रही। मैंने हर क्षेत्र में पाया कि सच बहुत भयानक है। राजनीति में, आर्थिकी में, समाज में, शिक्षा व्यवस्था में, नौकरी के तंत्र में, पत्रकारिता में, मीडिया में, बुद्धिजीवियों में, धर्माचायों में, श्रमिक नेताओं में, विवाह में, विवाह के बाहर, प्रेम में, अप्रेम में, श्रद्धा में, श्रद्धाहीनता में, कार्यालयी दोस्तियों में, साहित्यिक दुश्मनियों में, अधेड़ों में, युवाओं में, बच्चों में, व्यवसाय में, उद्योग में, ठेकेदारी में और यहाँ तक कि वात्सल्य में भी। सच की खोज करते-करते मैं घबरा गया। अन्त में मैंने यूटोपिया की शरण ली। पर वहाँ भी घपला था। किसी भी यूटोपिया को मैंने परफेक्ट नहीं पाया। सब में कुछ न कुछ गड़बड़ी थी। तब मैंने निश्चय किया कि सच और झूठ के चक्कर से बाहर निकल आना चाहिए। जैसे हम आलू या गोभी को लेते हैं, वैसे ही मैं आदमियों को लेने लगा। वे भी मुझे आलू या गोभी की तरह ही लेते थे। इस तरह जो समीकरण बना, वह ज्यादा यथार्थ, ज्यादा कामकाजी था। इस रास्ते में शुरू में बहुत उलझन थी, पर एक बार मूल सिद्धान्त को मान लेने के बाद जीना आसान हो जाता है। लेकिन सच के दायरे से बाहर निकल आने के बाद आप सच से मुक्त थोड़े ही हो जाते हैं। जब आप सच का पीछा करना छोड़ देते हैं, तब सच आपका पीछा करना शुरू कर देता है।
शुरुआत एक छोटी-सी घटना से हुई थी। हम लोग एक पार्टी में बैठे थे। खाना जितना लजीज था, संगत उससे कहीं ज्यादा लजीज थी। मेरे सिवाय सभी अपने-अपने क्षेत्र के मास्टर थे। अचानक किसी के मुँह से यह सवाल उछला, क्यों न हम लोग एक-एक कर बताएँ कि हमने अपनी जिंदगी में किसे तहे-दिल से प्यार किया है? विषय बहुत मजेदार था। प्यार होता ही मजेदार है। दो-चार मिनट की खामोशी के बाद हरएक ने बताना शुरू किया कि उसने किसे सबसे ज्यादा प्यार किया था। किसी ने कहा, कला को, तो कोई बोला, साहित्य को। किसी को अपनी बीवी सबसे प्यारी लगी थी, तो किसी ने उस लड़की के बारे में बताया जो उसकी जिंदगी में आई, पर परिवार में नहीं आ सकी। किसी ने अपने शिक्षक का नाम लिया, तो किसी ने अपनी माँ को यह ओहदा दिया। एक ने अपने एक दोस्त को सबसे ज्यादा प्यार किया था, तो एक किसी फिल्म अभिनेत्री पर मरता था। क्रिकेट और टेनिस का भी जिक्र हुआ। सिर्फ दो आदमी कुछ बोल नहीं पाए। उस महफिल में एक ही स्त्री थी। वह बहुत फ्रैंक और बिंदास थी। पर उसकी जबान खुली ही नहीं। दोस्तों ने बहुत इसरार किया, पर उसकी आँखों में खालीपन भरा हुआ था। जब जिदें बढ़ चलीं, तो वह वॉशरूम की तरफ चली गई। लौटी, तो लगा, वह खूब रो कर आई है। उसकी आँखों का सूनापन और बढ़ गया था।
दूसरा मैं था। मेरे पास भी कोई जवाब नहीं था। मैंने कुछ कहने के लिए कई बार मुँह खोला, फिर रुक गया। मैं समझ रहा था कि अभी तक जिन लोगों ने अपने-अपने प्रेम-पात्रों का नाम लिया था, उनमें से किसी ने भी पूरा सच नहीं कहा था। या वह सच कहा था, जो सिर्फ उनकी निगाह में सच था। पर मैं इस मौके पर झूठ नहीं बोलना चाहता था। या, यों कहिए कि मैं जो भी बोलना चाहता था, वह उसी क्षण झूठ लगने लगता था।
बस उसी समय से सच का सामना मेरे गले लग गया। चार-पाँच दिनों तक सवाल वही था जो वहाँ पूछा गया था यानी तुमने सबसे ज्यादा किसे प्यार किया है? फिर उसका रूप बदल गया। अब सच की चुनौती यह थी : क्या तुमने किसी को प्यार किया भी है? मैंने अपने आपको कभी कोई उत्तर दिया, कभी कोई। व्यक्तियों से लेकर साहित्य, अध्ययन, बौद्धिकता और समाज, राष्ट्र, विश्व, मानवता आदि से होते हुए लोकतंत्र, समाजवाद, बराबरी आदि विषयों के इर्द-गिर्द मँडराता रहा। सत्य को प्यार किया है या नहीं, इस पर तो पूरे दो दिन सोचता रहा। लेकिन कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिल सका। फिर यह हैरत होने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मैंने इतना लंबा जीवन जिया और किसी को प्यार ही नहीं किया हो! यह अगर सच है, तो शर्म की बात है। प्यार पर ही तो यह दुनिया टिकी हुई है। जिसकी जिंदगी में प्यार नहीं आया, उसका जीना न जीना बराबर है।
अन्त में उत्तर मैंने खोज ही लिया। वह बहुत सीधा-सादा था। मैंने अपनी डायरी में लिखा : हाँ, मैंने एक आदमी को तहे-दिल से प्यार किया है। वह मैं खुद हूँ। उसके बाद कुछ देर तक डायरी के उस पन्ने को घूरता रहा। फिर लिखा : नहीं, अपने आपको भी मैंने तहे-दिल से प्यार नहीं किया।
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सूखे के समय
राजकिशोर








सूखा पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने के लिए जब मैं दयाल साहब के घर पहुंचा, तो वे नहा रहे थे। उस समय नौ बज कर पंद्रह मिनट हुए थे। दयाल साहब के कर्मचारी ने (नौकर कहने से कर्मचारी कहना मुझे बेहतर लगता है, हालांकि दोनों शब्दों का मूल अर्थ एक ही है) मुझे बैठकखाने में आदर के साथ बिठाया और तुरंत एक गिलास ठंडा पानी पेश किया। थोड़ी देर बाद वह फलों का रस ले आया, तब भी दयाल साहब नहा रहे थे। मुझे शक हुआ कि कहीं वह महीने भर का कोटा आज ही तो नहीं निपटा रहे हैं। फिर थोड़ी देर बाद उनका कर्मचारी भाप छोड़ती हुई चाय का बड़ा-सा प्याला लाया, तब भी दयाल साहब नहा रहे थे। अब मुझे शक हुआ कि कहीं यह मुझसे न मिलने का बहाना तो नहीं है!
दस बज कर बीस मिनट पर दयाल साहब बाथरूम से प्रसन्नचित्त निकले। दो सुदर्शन तौलियों में लिपटे वे भारत के भविष्य की उस सुंदर तसवीर की तरह लग रहे थे जिसके विविध रूप हमारे आशावादी विद्वान और संपादक हमारी मायूसी को दूर करने के लिए अकसर पेश करते रहते हैं। मुझे अपनी समझ पर झेंप आ गई। दयाल साहब ने मुझसे दोस्ताना हाथ मिलाने के बाद सामने के सोफे पर बाबा रामदेव की मुद्रा में बैठते हुए कहा, 'आज छुट्टी का दिन है। सो सोचा, जम कर नहा लूँ। घंटे भर पानी में पड़ा रहा। बड़ी दिव्य अनुभूति होती है!' फिर ठठा कर हँसे, 'अगर मैं कवि होता, तो कहता, जैसे भगवान विष्णु क्षीर सागर में लेटे रहते हैं, मुझे भी वैसा ही अनुभव हो रहा था।' मुझे मुसकराना जरूरी लगा, 'बस लक्ष्मी जी की कमी थी।' दयाल साहब एक बार फिर ठठा कर हँसे, मानो यह कोई मजाक हो।
तभी उनके दोनों मोबाइलों पर धड़ाधड़ फोन आने लगे, जैसे सभी को पता था कि वे कितने बजे स्नानघर से निकलेंगे। मुझे धीरज रखने का इशारा करते हुए दयाल साहब ने सभी से दो-दो मिनट बात की और पाँचवाँ फोन निपटाने के बाद दोनों मोबाइल बंद कर दिए। कर्मचारी को बुला कर आदेश दिया कि कोई भी फोन आए, तो कहना कि साहब बाथरूम में हैं। फिर मेरी ओर मुखातिब हुए, 'यार, ऐसा है कि परसों से पेरिस में विश्वव्यापी जल संकट पर इंटरनेशनल सेमिनार हो रहा है। मुझे उसके एक सेशन की सदारत करनी है। इसी सिलसिले में दिन भर फोन आते रहते हैं।... और तुम्हारा क्या हाल है? आजकल क्या लिख रहे हो?'
मैं कहना चाहता था, आजकल कोई कुछ नहीं लिख रहा है, सभी एक-दूसरे को दुहरा रहे हैं। कुछ बोलूँ, इसके पहले ही दयाल साहब ने पूछ लिया, 'लेकिन यह रोनी सूरत क्यों बना रखी है? लगता है, कई दिनों से बाथरूम में गए ही नहीं हो।'
वह फिर हँसे। मैं फिर झेंपा। फिर भी कुछ कहना जरूरी था, 'दरअसल, जब से सूखे की खबर आई है, मैं हफ्ते में एक बार ही नहा रहा हूँ। दिन में दो बार भीगे तौलिए से बदन पोंछ लेता हूँ।'
दयाल साहब अचानक गंभीर हो गए। बोले, 'मैं तुम्हारी भावना की कद्र करता हूँ। पर सूखे से निपटने का यह कोई तरीका नहीं है। तुमने यह फिकरा नहीं सुना कि मरों के साथ कोई मर नहीं जाता?'
मैं चुप रहा, वे बोलते रहे।
'सूखे की समस्या अब स्थानीय समस्या नहीं रह गई है। इस पर बहुत बड़े पैमाने पर विचार-विमर्श होना चाहिए। मैं तो मानता हूँ कि इस सब्जेक्ट पर अभी तक कायदे का कुछ रिसर्च हुआ ही नहीं है। पेरिस कान्फ्रेंस में मैं खुद एक बहुत बड़ा रिसर्च प्रपोजल रखने जा रहा हूँ। मेरा प्रस्ताव है कि संसार भर में जहाँ-जहाँ भी पिछले दस सालों में सूखे की टेंडेंसी देखी जा रही है, वहाँ की क्लाइमेटिक कंडीशंस का विस्तृत अध्ययन करने के लिए एक इंटरनेशनल कमीशन सेटअप किया जाए। अब फुटकर स्टडीज और फुटकर समाधानों से काम चलनेवाला नहीं है। मेरा मन है कि अगर यह कमीशन बन जाए, तो अगले पाँच-सात साल इसी काम में अपने को होम कर दूँ।'
मैं फुसफुसाया, 'मेरे कुछ पर्यावरणवादी मित्रों का कहना है कि अगर देश भर में छोटी-छोटी नहरों का जाल बिछा दिया जाए, तो कम से कम खेती का तो नुकसान नहीं होगा। बताते हैं कि हमारी खेती का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी मानसून पर निर्भर है। यह देश हित में नहीं है। नहरें बिछाने का काम, पिछले साठ वर्षों में बड़ी आसानी से किया जा सकता था।'
दयाल साहब की भृकुटि तन गई, 'सो तो है, सो तो है। हमने खेती की उपेक्षा करके बहुत बड़ा अनर्थ किया है। मैं तो कहता हूँ कि इस मामले में हम सभी अपराधी हैं। मेरा बस चले तो ऐसे सभी एक्सपर्ट्स को फाँसी पर चढ़ा दूँ, जिन्होंने भारत की गरीब जनता के साथ इतना बड़ा धोखा किया है।...'
मैं दंग। दंग से ज्यादा स्तब्ध। लगा कि सूखा पीड़ितों के लिए राहत भेजने की बात छेड़ने का यही मौका है। तभी दयाल साहब बोले, 'सोचता हूँ, पेरिस में यह मुद्दा भी क्यों न उठा दूँ कि सूखा राहत कार्यक्रमों के लिए एक इंटरनेशनल फंड बनाया जाना चाहिए - वाइल्डलाइफ फंड की तरह। ब्यूटीफुल आइडिया! आज ही इस पर काम करता हूँ।'
मैंने महसूस किया, इस समय मुझसे ज्यादा अप्रासंगिक आदमी कोई नहीं है।
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वियोगी बाबा
राजकिशोर








बाबाओं के प्रति मेरे मन में शुरू से ही श्रद्धा रही है। सच तो यह है कि मैं बचपन में खुद भी बाबा बनना चाहता था। उन दिनों बाबा-सम्राट रजनीश की बहुत धूम थी। मैंने देखा कि हर्रे-फिटकरी लगे बिना भी रंग कितना चोखा आ सकता है। पार्ट-टाइम काम मुझे बहुत पसंद है। नौकरी की नौकरी, आजादी की आजादी। बाबावाद में इसकी पूरी गुंजाइश दिखती थी। सुबह या शाम दो घंटे भाषण दो, बाकी समय मस्त रहो। अपनी एक कमी के कारण मैं इस धंधे में जाते-जाते बचा। कमी यह थी कि मैं बहुत कम उम्र में एक समाजवादी सज्जन के असर में आ चुका था। रोज झूठ बोलने का पेशा अपनाने की हिम्मत नहीं हुई। इसलिए जब भी टीवी के रंगीन परदे पर बाबा रामदेव को देखता हूँ, तो उनके प्रति सहज ही श्रद्धा उमड़ आती है। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उन्होंने योग को देश भर में चर्चा का विषय बना दिया है। हर कोई जानता है कि भारत वियोग का नहीं, योग का देश रहा है। सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती...अहा, कितनी सुंदर जोड़ियाँ हैं। पूजा बजरंगबली की भी होती है, पर अपने कारण नहीं, उस युगल-मूर्ति के कारण जिसकी सेवा में उन्होंने अपनी जवानी होम कर दी। पंत जी (आज की पीढ़ी के लिए : गोविंद वल्लभ पंत नहीं, सुमित्रानंदन पंत) ने कहा, वियोगी होगा पहला कवि...। यह कविता वियोग की नहीं, योग को महत्व देने की कविता है। जब दो जन मिलते हैं, तब अपने आप कविता पैदा हो जाती है। वियोग में वह सिर्फ लिखी जाती है।
योग का असीम महत्व जानते हुए भी पता नहीं क्यों बाबा रामदेव समलैंगिकों को वियोग की स्थिति में देखना चाहते हैं। पहले समाजवाद के और बाद में बाबा रामदेव के प्रभाव से मैं यह मानने लगा था कि मनुष्य-मनुष्य सब एक हैं। क्या स्त्री, क्या पुरुष। दोनों को ही भगवान ने बनाया है। इनमें भेद हो सकता है, विभेद नहीं। इसलिए पुरुष-स्त्री साथ रहें, जैसा कि वे रहते आए हैं, या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री, इससे क्या फर्क पड़ता है? साथ ही रहते हैं, एक-दूसरे के साथ थुक्का-फजीहत तो नहीं करते। आपस में प्यार ही तो करते हैं, लड़ते-झगड़ते तो नहीं। फिर समलैंगिकों को आशीर्वाद देने के बजाय बाबा उनके खिलाफ अदालत जाने की क्यों सोच रहे हैं, समझ में नहीं आता।
बाबा को क्या यह पता नहीं कि अदालत में सत्य का परीक्षण नहीं हो सकता? अदालत का सत्य जो भी हो, वह क्षणिक होता है। भारत की एक अदालत ने भगत सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया था। आज उस अदालत के जज दिखाई पड़ जाएँ, तो जनता उन्हें मार-मार कर भरता बना देगी। विदेश की दर्जनों अदालतों ने 'लेडी चैटर्जी'ज लवर' को अश्लील करार दिया था। लोग छिप-छिप कर इस किताब को पढ़ते थे। फिर वह अदालत आई जिसने कहा कि इस उपन्यास में कहीं भी अश्लीलता नहीं है। इसलिए मैं तो ईश्वर की अदालत को छोड़ कर और किसी अदालत में विश्वास नहीं करता। मैं समझता था कि बाबा रामदेव भी ईश्वरवादी हैं। इसलिए यह देख कर बड़ी हैरत हुई कि वे ईश्वर से ज्यादा वेतनभोगी जजों पर भरोसा करते हैं। क्या जजों में भी समलैंगिकता नहीं हो सकती?
बाबा रामदेव का कहना है, समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक है। बाबा अपनी जिम्मेदारी पर ऐसा कहते हैं तो होगा। पर इस दुनिया में सर्वज्ञ कौन है? अंतिम तौर पर यह जानने का दावा कौन कर सकता है कि क्या प्राकृतिक है और क्या सांस्कृतिक। विद्वान लोग बताते हैं कि जो सांस्कृतिक है, वह प्राकृतिक भी है। यदि मानव प्रकृति में सांस्कृतिक होने की स्वाभाविक चाह न होती, तो संस्कृति का इतना बड़ा ताना-बाना कैसे खड़ा होता? फिर मानव अपनी गलतियों से सीखता भी है। सौ साल पहले तक राजशाही प्राकृतिक लगती थी। आज लोकशाही ही प्राकृतिक लगती है। आज जो राजशाही का समर्थन करेगा, उसे पागल करार दिया जाएगा।
इसी तरह, हो सकता है, आज समलैंगिकता ऊटपटाँग चीज लगती हो, पर कल यही स्वाभाविक लगने लगे। स्त्रियों के जोड़े एक तरफ, पुरुषों के जोड़े एक तरफ - अभी भी धार्मिक सत्संग में, क्लबों में, शादी-ब्याह के मौकों पर क्या स्त्री-पुरुष अलग-अलग नहीं बैठते? विषमलैंगिकता को आग और फूस के साथ की तरह खतरनाक माना जाता है। इससे बेहतर है कि आग आग के साथ रहे और फूस फूस के साथ। या आग में फूस के गुण पैदा हो जाएँ और फूस में आग के। फिर, कौन किसके साथ घर बसाता है, इससे पड़ोसियों को क्या मतलब? दूसरों के बेडरूम में झाँकना शिष्टाचार के विरुद्ध है। सोच रहा हूँ, बाबा से जल्द ही मिलूँ और उनसे पूछूँ कि योग अच्छा है या वियोग।
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VARSHNEY.009
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लो, मैं आ गई
राजकिशोर








मैंने पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि मैं आ रही हूँ। मुझसे पूछा गया कि मुलायम सिंह के शासन के बारे में आपके क्या विचार हैं, तो मैंने जवाब दिया था कि मैं आ रही हूँ। मुझसे सवाल किया गया कि चुनाव जीतने के बाद आप क्या करेंगी, तो मेरा उत्तर था, मैं आ रही हूँ। हर सवाल के रू-ब-रू मेरे पास एक ही जवाब था, मैं आ रही हूँ। इतिहास ने मुझे सही साबित किया। मैं आ रही थी। मैं आ गई हूँ।
कुछ लोगों को मेरा आना सुहा नहीं रहा था। वे देख रहे थे कि मैं आ रही हूँ, फिर भी इस कटु सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। दरअसल, उन्हीं में से कुछ ने मुझे बताया था कि मैं आ रही हूँ। फिर मैं सचमुच आने लगी। लेकिन जैसे-जैसे मतदान के दिन नजदीक आने लगे, मेरे आने के बारे में शक किया जाने लगा। सर्वेक्षणकर्ता लिखने लगे कि मैं आ तो रही हूँ, पर पूरा नहीं आ रही हूँ। पहले से ज्यादा आ रही हूँ, पर इतना नहीं आ रही हूँ कि अपने दम पर सरकार बना सकूँ। अब वे लोग माफी माँगते घूम रहे हैं। उनकी गलती यह थी कि मेरे आने को उन्होंने कम करके देखा। वे अगर समाज के सच्चे खैरख्वाह होते, तो दूसरे प्रकार की गलती करते। मैं जितना आ रही थी, मेरे आने को उससे ज्यादा आना दिखाते। तब भी उन्हें माफी माँगनी पड़ती। लेकिन क्या पता, मैं सचमुच जितना आ पाई हूँ, उससे अधिक ही आ जाती।
सर्वेक्षणकर्ताओं को भूलना नहीं चाहिए कि वे जनमत बताते नहीं, जनमत बनाते भी हैं। उन्हें यह भविष्यवाणी करने की उतावली क्यों रहती है कि कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, कौन कितना आ रहा है, कौन कितना जा रहा है? अरे भैया, वोटर को खुद क्यों नहीं तय करने देते कि किसे आना है, किसे जाना है, किसे कितना आना है, किसे कितना जाना है? तुम दाल-भात में मूसलचन्द बनने की आकांक्षा क्यों रखते हो? पढ़ने-लिखने वाले आदमी हो, पढ़ो-लिखो। राजनीति में क्यों पड़ते हो? क्या कहा, यह तुम्हारा पेशा है? क्या बताया, तुम्हें इसके लिए मोटे पैसे मिलते हैं? तब तो भैया, तुम भी मेरी तरह बिजनसमैन ही निकले। हम वोट से कमाते हैं, तुम वोट की दिशा बता कर कमाते हो। फिर बीच-बीच में हमारी आलोचना क्यों करते हो? हम दोनों ही इस पूँजीवादी व्यवस्था की जोंक हैं। एक जोंक को दूसरी जोंक के हितों पर प्रहार करने का कोई अधिकार नहीं है।
लोगों को यही समझाने के लिए ही तो मैं आई हूँ। मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए न मेरे पास समय है और न इसमें मेरी दिलचस्पी है। क्या हनुमान जी हनुमान चालीसा पढ़ा करते थे? क्या रामचन्द्र को वाल्मीकि रामायण याद थी? गीता लिखवाने के बाद कृष्ण ने कितनी बार गीता का पाठ किया होगा? क्या जीसस को मालूम था कि बाइबिल में उनके बारे में क्या लिखा जा रहा है? मेरी स्थिति यही है। जो इतिहास बनाते हैं, वे इतिहास पढ़ते नहीं हैं। मुझे आगे के बारे में सोचना है कि वर्तमान को रगड़ते रहना है? मैं वर्तमानजीवी होती, तो इतिहास बनाने के लिए टाइम कहाँ से निकाल पाती?
इसलिए जब मेरे चाटुकार आ-आकर मुझे यह बताते हैं कि मेरे बारे में बार-बार यह लिखा जा रहा है कि दलित-ब्राह्मण संयोग कर मैंने कमाल कर दिया, तो मुझे हँसी छूटने लगती है। मुझे दलितों से क्या मतलब? जब कहीं दलितों पर जुल्म होता है, उनके घर जलाए जाते हैं, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती है, तो मैं कभी चीखती हूँ? कभी चिल्लाती हूँ? कभी ऐसे घटना स्थलों का दौरा करती हूँ? मैंने कभी दलितों के लिए कोई आंदोलन किया है? लोग मुझे बेकार ही दलितवादी कहते हैं। मैं मायावादी हूँ। मैंने बहुत पहले ही देख लिया था कि माया ही सत्य है। इसी तरह, मुझे ब्राह्मणों से भी क्या मतलब है? दलित मेरे लिए दाल-भात हैं और ब्राह्मण दही-मिठाई। इन दोनों को मिलाने से ही भोजन में पूर्णता आती है। पहले मैं सिर्फ भात-दाल पर आश्रित रहती थी और सोचती थी कि आज नहीं तो कल दही-मिठाई भी मिल जाएगी। पर थोड़ा समय बीतते ही दही-मिठाई वाले मेरा दाल-भात भी छीन लेते थे। तब मैंने तय किया कि दही-मिठाई का इंतजाम भी मुझे ही करना होगा। जैसे ही मैंने यह शुरू किया, मेरी थाली भरने लगी। और लो, मैं आ गई।
यह भी मेरे लिए कम अचरज की बात नहीं है कि लोग मुझसे तरह-तरह की उम्मीदें जताने लगे हैं। कल एक अमेरिकी पत्रकार आया। पूछने लगा कि सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला आपने कैसे ईजाद किया? मैंने साफ-साफ कह दिया, 'न मैं सोशल हूँ, न मैंने इंजीनियरिंग पढ़ी है। मैं राजनीति करती हूँ और अपने राजनीतिक अनुभवों से मैंने यह सबक सीखा है कि सब पर हुकूमत करनी है, तो सबको साथ लेकर चलना होगा। सिर्फ दलित मुझे जहाँ तक पहुँचा सकते थे, उन्होंने मुझे पहुँचा दिया। इससे आगे वे मुझे नहीं ले जा सकते। तो मुझे नई जमीन तोड़नी पड़ी। फसल भी अच्छी हुई है।' वह हँसने लगा। शायद उसके देश के नेता इतनी बेबाकी से अपने मन की बात नहीं कहते होंगे। फिर उसने पूछा, 'अब आगे आप क्या करेंगी?' मैंने और भी बेबाकी से कहा, 'कुछ करना ही होता, तो मैं राजनीति में क्यों आती? समाज सेवा नहीं करती।' उसने पूछा, 'फिर भी? सत्ता में आने के बाद तो कुछ न कुछ करना हीे होता है।' मैंने जवाब दिया, 'वही करूँगी, जो पहले करती थी। भारत की जो हालत है, उसमें कुछ भी करो, तो बवाल हो जाता है। इसलिए कुछ करने से कुछ न करना ही अच्छा है।'
वह समझदार था। समझ गया। भारत के पत्रकार पता नहीं क्यों यह मोटी-सी बात नहीं समझ पाते। पश्चिम बंगाल के वामपंथी तब तक सुखी थे जब तक वे कुछ नहीं करते थे। कुछ करने की ठानी, तो सिर पर ओले पड़ने लगे। मेरे लिए इतना ही काफी है कि मैं आ गई। जब मेरे लिए इतना ही काफी है, तो दूसरों के लिए भी इतना ही काफी नहीं होना चाहिए?
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