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Old 12-07-2013, 01:51 PM   #21
VARSHNEY.009
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रोने का राज
राजकिशोर








वह सड़क के किनारे एक बेंच पर बैठा पर रो रहा था। मैंने सोचा, या तो कोई मर गया होगा या उसकी प्रेमिका ने उसे धोखा दिया होगा। यह भी हो सकता है कि भूमंडलीकरण की आँधी में उसकी कई साल पुरानी नौकरी सूखे पत्ते की तरह उड़ गई हो। आजकल जैसा समय चल रहा है, उसमें रोने के हजार कारण हो सकते हैं। फिर भी मुझसे रहा न गया। वह जिस तरह फूट-फूट कर रो रहा था, उसे देखते हुए कोई रुके भी नहीं और उसे सांत्वना भी न दे, तो यह रोते जाने का एक नया कारण बन सकता था। इसीलिए एक आदर्श नागरिक की तरह आचरण करते हुए मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके पास गया और उसका काँपता हुआ हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा - क्यों रो रहे हो, भाई?
उसने धीरे से सिर उठाया, मुझे गौर से देखा, फिर फफक कर पूछा, रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? ठठा कर हँसूँ? मेरी जुबान पर आ रहा था कि अगर चुनाव रोने और हँसने के बीच हो, तो हँसना ही बेहतर है, पर मैंने अपने आपको रोक कर कहा, क्या मामला ऐसा अजीबो-गरीब है कि उस पर रोया भी जा सकता है और हँसा भी जा सकता है?
वह मुझे इस तरह घूरने लगा जैसे मैं बहुत दिनों के बाद विदेश से लौटा होऊँ और भारत की स्थिति से बिलकुल अनभिज्ञ होऊँ। फिर अपने आँसू पोंछते हुए बोला, अखबार नहीं पढ़ते हो? यह देखो, क्या लिखा है।
उसने अपने झोले से दिल्ली के एक हिंदी अखबार का पन्ना निकाला और रेखांकित पंक्तियों को पढ़ने का इशारा किया। समाचार राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए और वाम दलों की उम्मीदवार के बारे में था। मैंने पढ़ा, 'प्रतिभा पाटिल के रूप में न सिर्फ उन्हें (सोनिया गाँधी को) एक स्वीकार्य, नरम और आज्ञाकारी राष्ट्रपति मिल जाएगा, बल्कि महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे कइयों की (मैंने 'कइयों की' ही पढ़ा, हालाँकि छपा था 'कईयों की') महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने वाली एक समांतर हैवीवेट प्रतिमा भी खड़ी हो जाएगी।' उसके रुदन का कारण मैं समझ गया, फिर भी खुलासा करने के लिए पूछा, ठीक तो है। इसमें तो प्रतिभा जी की तारीफ ही छपी है। आपको रोना किस बात पर आ रहा है?
उसने मुझे इस तरह देखा जैसे किसी बहुत बड़े उल्लू से उसकी मुलाकात हो गई हो। फिर बोला, क्या खाक तारीफ लिखी है? भावी राष्ट्रपति के बारे में अखबार लिख रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष को एक आज्ञाकारी राष्ट्रपति मिल जाएगा। सोनिया गाँधी को ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत हो सकती है, पर देश को तो ऐसे राष्ट्रपति पर शर्म ही आएगी, जो किसी दल विशेष के नेता का आज्ञाकारी हो। सोचिए जरा, पाँच साल लंबी शर्म... एक देश के रूप में हम कहाँ आ गए हैं!
मैंने उसे तसल्ली देना चाहा, लेकिन यह कोई नई बात तो है नहीं। इस मामले में तो हम पहले भी शर्मिंदा होते रहे हैं। वह कांग्रेस का ही चुना हुआ राष्ट्रपति था, जिसने इमरजेंसी के फरमान पर आज्ञाकारी पुत्र की तरह दस्तखत कर दिए थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह तो इंदिरा गांधी के घर में झाड़ू तक लगाने को तैयार थे।
उसकी आँखों की उदासी गहराने लगी, बीच में हम ऐसे राष्ट्रपतियों के अभ्यस्त हो चले थे जो पूरी तरह से आज्ञाकारी नहीं थे। उन्होंने कैबिनेट के कई प्रस्तावों को लौटा भी दिया था। लेकिन एक बार फिर...क्या यह सचमुच सच है कि भारत जितना बदलता है, वह उतना ही अपनी जड़ों की ओर लौट आता है?
मैंने फिर तसल्ली देने की कोशिश की, फालतू में क्यों बात बढ़ाते हो? शिवराज पाटिल, मोतीलाल वोरा, कर्ण सिंह वगैरह से तो यह बेहतर उम्मीदवार है। समझो, देश एक बड़े हादसे से बच गया। जहाँ तक छोटे हादसों का सवाल है, तो वे राजनीति में होते ही रहते हैं।
वह चौंक-सा गया। बोला, इसे छोटा-मोटा हादसा कहते हो? राष्ट्रपति पद पर लोग किसी जानी-मानी हस्ती का इंतजार करते हैं। जिसका कुछ कद हो, जिसकी कुछ उपलब्धियाँ हों, जिसने कुछ किया हो... इसके बजाय हमें दी जा रही है एक गृहिणी जैसी महिला, जिसे पता नहीं वर्तमान परिस्थिति की पेचीदगी का कुछ ज्ञान है भी या नहीं।
मैंने जवाब दिया, मुझे तो आज ऐसे ही लोगों में कुछ उम्मीद नजर आती है, जिनका सीवी सबसे छोटा हो। क्या पता, यह गृहिणी अपनी ईमानदारी में दूसरे राष्ट्रपतियों से आगे निकल जाए।
वह बोला, हो सकता है, तुम्हारी बात ठीक हो, पर यह तो भविष्य ही बताएगा। अभी तो मुझे रोने का अधिकार है और तुम चले जाओगे तो मैं फिर रोना शुरू कर दूँगा। मैं तो मानता हूँ कि इस वक्त रोना मेरा राष्ट्रीय कर्तव्य भी है। मुझे अपने कर्तव्य का पालन करने दो। क्यों नहीं तुम भी मेरे साथ बैठ कर थोड़ी देर रो लेते? तुम्हारा अंतःकरण धुल जाएगा।
मैंने कहा, मैं इतना बदकिस्मत हूँ कि मेरे पास रोने के लिए भी समय नहीं है। मुझे घर जाकर एक लेख लिखना है। मैं अपने आँसू अपने लेखों में ही उँड़ेल देता हूँ। खैर, इस पर तो खुश हुआ ही जा सकता है कि पहली बार एक महिला राष्ट्रपति का पद सँभालने जा रही है। उसने जोर से उसाँस भरी, फिर मुझे अनवरत घूरने लगा। अब उसकी आँखों से आग निकल रही थी। उसके होंठ थरथरा रहे थे, लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे। साफ था कि वह जो कहना चाह रहा था, कह नहीं पा रहा था।
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मॉडल छात्र प्रतियोगिता 2007
राजकिशोर








अवसर : सेंट रमण (उच्चारण के अनुसार, सेंट रामन) पब्लिक स्कूल का वार्षिकोत्सव। स्थान : इसी स्कूल का ऑडिटोरियम। विषय : मॉडल छात्र प्रतियोगिता 2007। निर्णायक मंडल के सदस्य : राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, कुलदीप नैयर और कृष्णा सोबती। अध्यक्ष : नामवर सिंह। विद्यार्थी एक-एक कर आते हैं और बताते हैं कि वे क्या बनना चाहते हैं।
स्वप्निल चड्ढा : मेरे आइडियल भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। इस समय उनके जैसी पोजीशन किसी की भी नहीं है। विद्वान के विद्वान और नेता के नेता। ही इज हैविंग द बेस्ट ऑफ बोथ वर्ल्ड्स। पहले मैंने प्रेसिडेंट कलाम के बारे में सोचा था। लेकिन प्रेसिडेंट के पास कोई रियल पॉवर नहीं होता। खाली उपदेश देने में क्या रखा है। मैं तो मनमोहन सिंह का रास्ता अपनाऊँगा। फिर, इस पोस्ट में रिटायरमेंट भी नहीं है।
वर्तिका सिंह : मेरे सामने दो मॉडल हैं। एक मेधा पाटकर का और दूसरा ऐश्वर्या राय का। दोनों ही फोटोजनिक हैं। लेकिन हर लड़की ऐश्वर्या राय नहीं बन सकती। ऑन द अदर हैंड, मेधा पाटकर बनने में मुश्किलें बहुत हैं। गाँव-गाँव, जंगल-जंगल घूमना पड़ेगा। ऑफ कोर्स, आई लव द रूरल सीन, बट, यू नो... इसलिए मैंने अपने लिए एक ऐसा मॉडल चुना है, जिसमें फिफ्टी परसेंट ऐश्वर्या राय हों और फिफ्टी परसेंट मेधा पाटकर। इट विल बी ए ग्रेट मिक्स।
अमिष श्रीवास्तव : मैं बड़ा होकर सलमान रुश्दी बनना चाहता हूँ। राइटिंग इज अ ग्रेट प्रोफेशन दीज डेज। सारी दुनिया घूमते रहो और साल-दो साल में एक नॉवेल लिख दो। मैं भी साल के दस महीने इंडिया से बाहर रहूँगा और सिर्फ दो महीने के लिए यहाँ आऊँगा। मुझे अपना पहला उपन्यास नॉर्थ-ईस्ट पर लिखना है। इसके लिए मैंने अभी से नोट्स लेना शुरू कर दिया है। मेरे पापा पेंगुइन में हैं। ब्रेक मिलने में कोई मुश्किल नहीं होगी।
शकुंतला नायर : टु बी वेरी फ्रैंक, मैं जर्नलिस्ट बनना चाहती हूँ। मैंने डिसाइड कर लिया है कि मुझे टीवी चैनल में नहीं जाना है। मुझे तो पि्रंट पसंद है। लेकिन मैं पॉलिटिक्स कवर करना नहीं चाहती। इट्स सो बोरिंग। मेरी पसंद लाइफस्टाइल जर्नलिज्म है। हाई सोसाइटी में मूव करना और नॉटी प्रोज में पर्सनालिटीज और ओकेजन्स के बारे में लिखना। हाउ थ्रिलिंग। मैंने अभी से फूड, वाइन, फैशन, पार्टीज, नाइटलाइफ वगैरह के बारे में जानकारी जमा करना शुरू कर दिया है।
रवि एन. दारूवाला : मनी इज माई पैशन। मैं लाखों-करोड़ों में खेलना चाहता हूँ। इसलिए मुझे इंडस्ट्रियलिस्ट बनना है। मेरा सपना मल्टी-नेशनल बनने का है - अ स्ट्रांग इंडियन मल्टीनेशनल। टाटा, अंबानी वगैरह ट्रेडीशनल धंधों में लगे हुए हैं। मैं नए एरियाज में ब्रेकथ्रू करना चाहता हूँ। जैसे मेरा एक सपना है, हर शहर में हेलिकॉप्टर सर्विस शुरू करना। अगले कुछ वर्षों में सड़कों पर कंजेशन इतना बढ़ जाएगा कि लोग वक्त पर ऑफिस नहीं पहुँच पाएँगे और ऑफिस पहुँच गए, तो घर नहीं लौट पाएँगे। प्वाइंट टु प्वाइंट हेलिकॉप्टर सर्विस से सभी को रिलीफ मिलेगी। इसके साथ मैं अस्पतालों, होटलों और सिनेमा हॉल्स को भी जोड़ूँगा। ऐसे दर्जनों आइडियाज मेरे पास हैं।
अभिषेक वैदिक : आई एम अ बॉर्न लेफ्टिस्ट। मैं बड़ा होकर लेफ्ट का सबसे बड़ा सिगनेचर बनना चाहता हूँ। हमारे यहाँ के वामपंथी पिछड़े हुए हैं। वे मार्क्स की मारकेटिंग करना नहीं जानते, जबकि दुनिया भर में मार्क्सिज्म इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया है। मेरे खयाल से मार्क्सवाद की सबसे ज्यादा जरूरत मिडिल क्लास को है। मिडिल क्लास ही समाज को लीडरशिप देता है। पर हमारे यहाँ के मिडिल क्लास में कोई दम नहीं है। उसकी एम्बीशन्स बेहद लिमिटेड हैं। मैं उसके सारे बैरियर्स तोड़ दूँगा। दरअसल, हमें लेफ्ट की नहीं, न्यू लेफ्ट की जरूरत है। सीपीएम का लीडरशिप न तो लेफ्ट है और न न्यू लेफ्ट। इसीलिए वह आगे नहीं बढ़ पा रहा है। पॉलिटिक्स में नए खून की जरूरत है। अमेरिकन न्यू लेफ्ट के इंटेलेक्चुअल्स से मैंने अभी से करेसपांडेंस करना शुरू कर दिया है। चाइना के कई लेफ्ट ब्लॉगिस्ट्स मेरे गहरे साइबर-फ्रेंड हैं।
प्रतियोगियों द्वारा अपना-अपना पक्ष रखने के बाद निर्णायक मण्डल अंक तालिका बनाने में लग जाता है। कुछ ही मिनटों में निर्णायकों के बीच विवाद होने लगता है। राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी ऊँची आवाज में बोलने लगते हैं। कृष्णा सोबती हैरत से और कुलदीप नैयर उत्सुकता से दोनों को देखते रहते हैं। तभी स्कूल की प्रिंसिपल डॉ. स्वाती कला चोपड़ा मंच पर आती हैं। वे निर्णायकों से निवेदन करती हैं कि वे एक अलग कमरे में बैठक कर अपने मतभेद मिटा लें और नामवर सिंह से अध्यक्षीय भाषण देने के लिए आग्रह करती हैं।
नामवर सिंह : मैं मूलतः साहित्य का आदमी हूँ। प्रेमचन्द ने भले ही कहा हो कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, पर युग की संवेदना साहित्य में तुरन्त नहीं पहुँच जाती। इसमें समय लगता है। इसीलिए लेखक के लिए आवश्यक होता है कि वह युवा लोगों के बीच उठे-बैठे। इससे उसकी कलम पुनर्नवा हो जाती है। अशोक जी मेरे मित्र हैं। कवि हैं। उन्होंने ध्यान दिया होगा कि नई पीढ़ी में कोई कवि नहीं बनना चाहता। आज की इस प्रतियोगिता में राजेन्द्र जी के लिए भी गहरा सन्देश है। एक ने भी स्त्री या दलित की चर्चा नहीं छेड़ी। और, कुलदीप नैयर भी सँभल जाएँ। आज की पत्रकारिता अपना अलग रास्ता तलाश रही है। नई कहानी की तर्ज पर मैं कहना चाहूँगा कि यह नई पत्रकारिता है। दरअसल, यह पूरा समय ही नया है। किसी को चाहिए कि शोध कर 'नए युग के प्रतिमान' जैसी चीज लिखे। मुझे एक और सभा की अध्यक्षता करने के लिए जाना है। इसलिए मैं और ज्यादा कहना नहीं चाहता। धन्यवाद।
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मार्क्स की वापसी
राजकिशोर








जैसे मुन्नाभाई को गांधी जी दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही मुझे कभी-कभी मार्क्स दिख जाते हैं। जिस दिन बराक ओबामा जीते, उसी शाम यह घटना हुई। मैं एक मित्र के बार-बार कहने पर टहल रहा था, तभी देखा, मार्क्स सामने से चले आ रहे हैं। बहुत परेशान दिखाई पड़ रहे थे। मैंने सोचा कि कॉमरेड से पूछूँ कि नया क्या हुआ है जो आपको तंग कर रहा है, तभी वे रुक गए और मेरी आँखों में आँख डालकर बोले, 'क्या तुम भी मेरी वापसी से बहुत खुश हो?'
मैंने पहले मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और फिर जवाब दिया, 'वापसी? क्या किसी चीज की वापसी होती है? आपने ही लिखा है कि कोई घटना दूसरी बार घटती है, तब वह कॉमेडी हो जाती है।'
मार्क्स के चेहरे पर थोड़ा-सा सन्तोष उभरा। फिर वे अपने मूड में आ गए, 'अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन की सरकारों ने अपने कुछ पूँजीवादी संस्थानों को बचाने के लिए थोड़ा-सा सरकारी रुपया लगा दिया, तो तुम पत्रकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि यह तो मार्क्स की वापसी है। तुमने शायद ऐसा नहीं लिखा है, पर जो पत्रकार तुमसे अधिक मशहूर हैं, उनका तो यही कहना है! मैंने भी पत्रकारिता की है, अमेरिकी अखबार में की है। उन दिनों के पत्रकार तो इतने जाहिल नहीं हुआ करते थे। अब जैसे-जैसे साधन बढ़ रहे हैं, पत्रकारों को ज्यादा पैसा मिलने लगा है, वे सिर्फ साक्षर भर दिखाई देते हैं। मार्क्स की वापसी! हुँह! क्या सिर्फ सरकारीकरण से ही समाजवाद की ओर बढ़ा जा सकता है? मैं कम्युनिस्ट हूँ, न कि सरकारवादी। मेरी नजर में तो जहाँ भी सरकार है, वहाँ विषमता और अन्याय है। मेरे रास्ते पर चले होते, तो अभी तक सभी सरकारें खत्म हो जातीं और समाज सक्रिय हो जाता। समाज को कमजोर कर जब सरकार मजबूत होती है, तो वह और बड़ी डायन हो जाती है।'
मैंने अपनी बात करना जरूरी समझा, 'कॉमरेड, मेरे लिए तो आपकी वापसी का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि मेरा मानना है कि आप तो पहली बार भी नहीं आए थे। जो आया था, वह मार्क्स नहीं, उसके नाम पर कोई बहुरुपिया था।'
मार्क्स ने अपनी दाढ़ी खुजलाई, 'तुम ठीक कहते हो। मैं जिन्दा होता, तो कम्युनिस्ट कहे जाने वाले सोवियत संघ और लाल चीन की धज्जियाँ उड़ा देता। याद नहीं आ रहा कि मैंने कहीं लिखा है या नहीं, पर तुम मेरे नाम से नोट कर सकते हो कि शिष्य लोग ही अपने गुरु का नाम डुबोने में आगे रहते हैं। तुम्हारे गांधी के साथ क्या हुआ? मुझे उसके किसी ऐसे अनुयायी का नाम बता सकते हो जिसे देख कर उस विचित्र आदमी की याद आती हो? मेरे साथ भी यही हुआ। यही होना ही था। इसीलिए मैंने बहुत जोर दे कर कहा था, डाउट एव्रीथिंग (हर चीज पर शक करो)। मेरा नाम लेनेवालों ने यह तो किया नहीं, मेरे विचार को ही उलट दिया। उनका सिद्धान्त यह था, डाउट एव्रीबॉडी (हर आदमी पर शक करो)। खाली शक करने से कहीं इतिहास आगे बढ़ता है?'
मैं चुप रहा। अब इतनी नम्रता तो आ गई है कि बड़ों के सामने ज्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए। मार्क्स भी कुछ क्षणों तक खामोश रहे। फिर धीमे से बोले, 'और यह ओबामा! पता नहीं सारी दुनिया इस पर क्यों फिदा है! ठीक है, एक अर्ध-काले को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया है। हाँ, उसे अर्ध-काला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि उसकी माँ श्वेत थी। अगर उसके माँ-बाप दोनों ही काले होते, तो मुझे शक है कि वह चुना जाता। फिर वह ब्लैक राजनीति में भी कभी नहीं रहा। काला है, पर गोरों जैसी बातें करता है। कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि उसके विचार क्या हैं, वह अमेरिका को कैसे ठीक करेगा, अमेरिका को सभ्य राष्ट्र बनाने का उसका कार्यक्रम क्या है आदि-आदि। सब इसी बात से इतने खुश हैं कि ओबामा राष्ट्रपति बन गए। मैं निराशावादी तो नहीं हूँ, पर आशा के कारण भी दिखाई नहीं देते।'
मैं बोला, 'शायद आपने ही लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीवादियों की कार्य समिति होती है। इस लिहाज से रिपब्लिकन पार्टी को उसका उच्च सदन और डेमोक्रेटिक पार्टी को निम्न सदन कहना चाहिए। काफी दिनों के बाद हेरफेर हुआ है, तो खुशी क्यों न मनाई जाए?'
मार्क्स की आँखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं। वे बोले, 'मैं मनहूस आदमी नहीं हूँ कि कोई खुशी मनाए, तो मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाए। जरूर खुशी मनाओ, पर जहाँ दस-बीस फुलझड़ियाँ ही काफी हों, वहाँ दिवाली मनाने का क्या तुक है? अनुपात का कुछ तो बोध होना चाहिए।'
तभी हमारे बगल में एक कार रुकी। उसके चालक की सीट से मेरे एक परिचित ने मुँह बाहर निकाला और पूछा, 'सर अकेले-अकेले किससे बात कर रहे हैं?' परिचय कराने के लिए मैंने मार्क्स की ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मार्क्स हवा में विलीन हो चुके थे।
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मायावती से मिलने के बाद
राजकिशोर








मेरे एक मित्र दलित बुद्धिजीवी हैं। उनका नाम बता कर मैं यह साबित नहीं करना चाहता कि मेरी मित्र मण्डली में इतने प्रसिद्ध लोग भी हैं। उनसे जब भी मुलाकात होती है, मैं एक नई चिन्ता में पड़ जाता हूँ। आजकल वे कुछ उदास रहते हैं। हर अगली बार पिछली बार से ज्यादा उदास दिखाई देते हैं। इससे मेरा मन भी गिर जाता है। मेरे ये मित्र शुरू में बहुत उत्साहित रहते थे। दलित संघर्ष को और धारदार बनाने के नए-नए कार्यक्रम सोचा करते थे। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि वे बुद्धिजीवी हैं। इसकी व्याख्या यह हुई कि जनता के बीच इनकी पहुँच नहीं है। दलितों का पता नहीं है कि उनका बुद्धिजीवी उनके बारे में क्या सोच रहा है। मेरे मित्र भी दलितों में लोकप्रिय होना नहीं चाहते। उनकी आकांक्षा बुद्धिजीवियों के बीच प्रसिद्ध होने की है। अपने इस लक्ष्य में वे बारह आना सफल हो चुके हैं। लेकिन अन्य बुद्धिजीवियों की तरह वे कभी जमीन से कटे नहीं। कुछ दलित नेताओं से भी सम्पर्क बनाए रखते हैं। एक बार तो उन्होंने राज्य सभा के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था। लेकिन एक अदना-से उद्योगपति ने उनका स्थान हड़प लिया। इसके बाद उन्होंने कई लेख लिखे, जिनमें इस बात पर जोर दिया गया था कि राज्य सभा की कोई उपयोगिता नहीं है, इसे समाप्त कर देना चाहिए।
इस हफ्ते मित्रवर से मुलाकात हुई, तो वे गुस्से में थे। दुःख का गुस्से में बदलना खतरनाक होता है। लेकिन यह चिंता मुझे नहीं हुई, क्योंकि मित्र बुद्धिजीवी हैं और बुद्धिजीवी जब अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं, तब भी बुनियादी तौर पर सुरक्षित ही रहते हैं। मित्र ने बताया कि वे कल ही मायावती से मिल कर आ रहे हैं - ‘उनकी बातें सुन कर तो मैं चकरा गया। मुझे कहीं से नहीं लगा कि मैं देश की सबसे तेज-तर्रार नेता से मिल रहा हूँ।’
मायावती के तौर-तरीके मुझे कभी पसन्द नहीं आए। तब भी नहीं, जब वे मनुवादियों से जूतों से बात करती थीं और आज भी नहीं, जब मनुवादी स्वयं उनकी शरण में जा रहे हैं। मनुवाद की यही विशेषता है। वह सत्ता से प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं करता। जब कोई शूद्र राजा बन जाता है, तब वह उसकी प्रशस्ति में नए छन्द लिखने लगता है। इसी के साथ-साथ वह शूद्र राजा को भीतर ही भीतर मनुवादी बनाने की कोशिश करता रहता है। मूल लक्ष्य ब्राह्मण की सत्ता को बनाए रखना है। इसके लिए अवसर के अनुकूल जो भी करना आवश्यक हो, किया जाएगा। लगता है, मनुवाद के इस भेद को मायावती समझ गई हैं। स्त्रियों की आँख तेज होती है। उस सत्य को समझने में उन्होंने ज्यादा समय नहीं लगाया, जिसे कांशीराम कभी समझ नहीं पाए।
मित्र का कष्ट यही था। उन्होंने मायावती को यह समझाने की बहुत कोशिश की कि वे बहुजनवाद को सर्वजनवाद के जिस रास्ते पर धकेल रही हैं, उससे दलित राजनीति खत्म हो जाएगी। पार्टी में जब गैर-दलितों का बोलबाला हो जाएगा, तो दलितों का क्या होगा? आज उनके पास एक ठोस पार्टी है। कल वे दलविहीन हो जाएँगे। बल्कि अपने ही दल में बेगाने हो जाएँगे। यह सुन कर मायावती हँस पड़ी थीं। उत्तर दिया था - ‘तुम बुद्धिजीवी लोग कुछ समझते नहीं हो। दलितों को जब भी सत्ता मिली है, मनुवादियों या पिछड़ावादियों से गठबन्धन करने पर मिली है। चूँकि ये तबके नहीं चाहते कि दलित सत्ता में आएँ, इसलिए सीढ़ी से चढ़ा देने के बाद खींच लेते हैं। हर बार मैं भरभरा कर गिर पड़ी। मुलायम ने तो मेरी जान लेने की भी कोशिश की थी। सो मैंने सोचा, क्यों न अपनी ही पार्टी में एक कमरा मनुवादियों के लिए खोल दूँ और एक कमरा पिछड़ी जातियों के लिए भी। मुसलमानों का क्या है! उन्हें तो गैलरी में भी टिकाया जा सकता है। इस तरह जो मकान बनेगा, वह बहुत मजबूत होगा। हमीं दलितवादी, हमीं मनुवादी और हमीं पिछड़ावादी। जाओ, कहाँ जाओगे?’
मित्र का सवाल था - ‘लेकिन मैडम, इससे तो दलितों पर होने वाले अत्याचार में कमी नहीं आएगी। वह बढ़ सकता है, क्योंकि अत्याचार करने वाले समूह भी आपकी ही छत्रछाया में होंगे।’
मायावती फिर हँसने लगीं। उन्होंने कहा - ‘जाओ, जाओ, किताबें लिखो। राजनीति तुम्हारे बस की बात नहीं है। यहाँ चाहता ही कौन है कि दलितों की हालत में सुधार हो? मैं तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बनी। दलितों के लिए मैंने कुछ किया? ऐसे करके मैं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारती? दलित जब दलित नहीं रह जाएगा, तब दलित राजनीति का क्या होगा? इसलिए दलित शक्ति को जिलाए रखने के लिए जरूरी है कि दलितों के हित की बात की जाए, पर दलितों की भलाई के लिए कुछ न किया जाए।’
मित्र ने पूछा - ‘लेकिन कांग्रेस भी तो यही करती थी। इसीलिए दलितों ने उस पर भरोसा करना छोड़ दिया।’
इस बार मायावती के गाल बैंगनी होने लगे। उन्होंने सख्ती से कहा - ‘कांग्रेस दलितों की पार्टी नहीं थी। वह दलितों पर एहसान जताती थी। दलित किसी का एहसान लेना नहीं चाहता। अब वह जग गया है। वह खुद देश को नेतृत्व देना चाहता है। तुमने यह नारा नहीं सुना - आज उत्तर प्रदेश, कल पूरा देश? बुद्धिजीवी क्षणवादी होता है। नेता आगे की सोचता है। इसलिए जब तक केन्द्र में हमारी सरकार नहीं बनती, हम दलितों को दलित ही रखना चाहते हैं। और दलित जाएगा कहाँ? उसे मुझ पर पूरा विश्वास है कि मैं जो कुछ करती हूँ, ठीक करती हूँ। तभी तो दलित विधायकों को मैं अपने सामने कुर्सी पर बैठने नहीं देती। जिस दिन वह दलित होने के दर्द को भूल जाएगा, समझौतावादी हो जाएगा।’ मित्र ने बताया - ‘मेरे मन में आया कि कहूँ ‘जैसे आप’, पर मैं चुप ही रहा।’
मित्र तो और भी बहुत कुछ बताना चाहते थे, पर मैंने उन्हें रोक दिया - ‘छोड़ो यार, अब तो तुमने सब कुछ समझ लिया। लिखने-पढ़ने में लगे रहो। तुम्हारा जो भी होगा, इसी से होगा।’
मित्र ने रूमाल निकालकर अपने रुआँसेपन को पोंछा और कहा - ‘लेकिन मैं कब तक सवर्ण बुद्धिजीवियों के बीच पापड़ बेलता रहूँगा? मैं खूब जानता हूँ, वे अपना नेतृत्व जमाने के लिए हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं।’
मेरे पास यह जवाब देने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था - ‘तब तो तुम्हें मायावती की तारीफ करना चाहिए। सवर्ण जो तुम्हारे साथ कर रहे हैं, वही वे सवर्णों के साथ कर रही हैं।’
मित्र ने मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे वह कह रहा हो - तो ब्रूटस, तुम भी?
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महाशक्ति की दीनता
राजकिशोर








अमेरिका से परमाणु करार होने के बाद भारत महाशक्ति हो गया है। यह मनमोहन सिंह तो मानते ही हैं, वे सभी लोग कहते हैं जो उन्हें आदर्श प्रधानमंत्री मानते हैं। परमाणु करार की शर्तों को लेकर जब-तब अमेरिका कुछ ऐसी बात कह देता है, जिसे लेकर हमारे यहाँ बवाल मच जाता है। इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। जब अमेरिका महाशक्ति बना था, तब वहाँ कोई बवाल नहीं मचा था। जब चीन महाशक्ति हो गया, तब भी उस देश के भीतर कोई वाद-विवाद नहीं हुआ था। लेकिन भारत महाशक्ति होने की आग में झुलस रहा है। वामपंथी दलों ने विद्रोह कर दिया। मनमोहन सिंह की सरकार जाते-जाते बची। उसके बाद भी गुल गपाड़ा होता रहता है। यह सब इसलिए कि भारत सरकार उधार का सिंदूर लगा कर सुहागन होना चाहती है। एक गरीब देश जब महाशक्ति होने की राह पर चल पड़ा है, तो मुश्किलें तो आएँगी ही। भारत के लोग अपने अनुभव से जानते हैं कि कानी के ब्याह में सैकड़ों मुश्किलें आती हैं। जब ब्याह की रस्में पूरी हो जाएँगी और भारत सरकार यूरेनियम की बिंदी लगा कर इठलाते हुए सड़क पर निकलेगी तब देखना।
एक सीधा-सादा नागरिक होने के नाते, मैं किसी झंझट में नहीं पड़ता। मुझे आम खाने से मतलब है न कि पेड़ गिनने से। राजनीतिक दल अपना घमासान जारी रखें। यह उन्हें शोभा देता है। मेरे लिए यह खबर ही काफी है कि भारत महाशक्ति हो गया है या एक दो तीन के बाद हुआ ही चाहता है। इससे हमारी पता नहीं कितनी समस्याएँ हल हो जाएँगी। लेकिन आम भारतीय की तरह मैं भी थोड़ा शक्की हूँ। अखबार में जो कुछ छपता है या टीवी पर जो कुछ बताया जाता है, उस पर पूरा यकीन नहीं करता। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। सो मैंने सोचा कि जरा एक-दो जगह जा कर पता लगाया जाए कि भारत के महाशक्ति होने का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
सबसे पहले मैं अपने इलाके के डीपीसी के यहाँ गया। वह मेरा मित्र तो नहीं है, लेकिन चूँकि मैं पत्रकारिता के पेशे में रहा हूँ, इसलिए हम दोनों एक-दूसरे को मित्र ही मानते हैं। वह तपाक से मिला। आज बहुत खुश था, क्योंकि कई महीनों के बाद उसके इलाके में पिछले दिन न कोई हत्या हुई थी, न बलात्कार हुआ था। यहाँ तक कि मामूली मारपीट भी नहीं हुई थी। मालूम हुआ कि कुछ समय से वह शनि देवता की पूजा कर रहा है। हर शनिवार को उपवास रखता है और शनि मंदिर में जा कर पाँच सौ एक रुपए का चढ़ावा चढ़ाता है। उसने बताया, 'लगता है, शनि महाराज अब जाकर प्रसन्न हुए हैं। कल देखो, मेरे इलाके में कोई क्राइम नहीं हुआ।' दूसरों को पंक्चर करने में मुझे मजा आता है। मैंने कहा, 'हो सकता है, कल अपराधियों ने छुट्टी मनाई हो। वे भी तो अपराध करते-करते थक जाते होंगे। उन्हें भी तो रेस्ट चाहिए। असली सवाल तो यह है कि बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी।' यह सुनते ही उसका मुँह लटक गया।
मित्र ही मित्र के काम आता है। अतः उसे तसल्ली देते हुए मैंने कहा, 'घबराने की बात नहीं है। तुम्हारी सारी समस्याएँ जल्द ही सुलझने वाली हैं।' उसके चेहरे पर हलकी-सी चमक आई। उसने पूछा, 'कैसे?' मैंने बताया, 'लगता है, आजकल तुम अखबार नहीं पढ़ते। नहीं तो तुम्हें पता होता कि भारत महाशक्ति हो गया है। अब उसकी शक्ति बढ़ गई है। वह अमेरिका और चीन की पंक्ति में आ गया है।' 'तो मुझे क्या? या पुलिस विभाग को क्या?' - उसने इस निराशा के साथ सवाल किया जैसे मैंने पहाड़ खोदा हो और उसके हाथ चुहिया लगी हो।
'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अरे, जब भारत महाशक्ति हो गया है, तो देश में अपराध कम नहीं होने लगेंगे? गुंडे, तस्कर, आदमियों की तस्करी करनेवाले, डकैत, बलात्कारी, रिश्वतखोर, सुपारी लेनेवाले, काले धन की सर्विसिंग करनेवाले, सट्टाखोर, रक्षा सौदों में कमीशन लेनेवाले - ये सब भारत की इस नई शक्ति-संपन्नता से डरेंगे नहीं? तुम्हें तो पता ही है, अपराधियों की खुफिया जानकारी हमसे तेज होती है। सरकार जो बात हमें आज बताती है, वह उन्हें कई हफ्ते पहले पता लग जाती है। तभी तो देश चल रहा है। नहीं तो कभी का ठप हो जाता।'
मित्र अधीर होने लगा था। बोला, 'यह कोई जन सभा नहीं है। साफ-साफ बताओ, कहना क्या चाहते हो?'
मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की, 'अब हत्यारे हत्या करने से पहले पंद्रह बार सोचेंगे कि हत्या करें या नहीं, क्योंकि भारत महाशक्ति हो गया है और हमारे साथ पता नहीं क्या सलूक करे। मुनाफाखोर उद्योगपति और व्यापारी तो थर-थर काँपने लगेंगे। दंगाइयों का तो नामो-निशान मिट जाएगा। महाशक्ति के सामने वे कहाँ ठहरेंगे? गुंडे-बदमाश खुद थाने में आकर अपने हथियार जमा कर देंगे। भ्रष्टाचार करने वाले छिप कर भी भ्रष्टाचार नहीं करेंगे। उनमें यह खौफ फैल जाएगा कि महाशक्ति भारत उन्हें पता नहीं कितनी कठोर सजा दे। जब मुकदमे कम हो जाएँगे, तो मजिस्ट्रेट और जज अदालतों में मक्खी मारते नजर आएँगे। भारत में रामराज्य आ जाएगा।'
यह सुन कर मित्र हो-हो कर हँसने लगा। बोला, 'तुम्हारी शक्ल देखते ही मैं समझ गया था कि आज सबेरे-सबेरे ही भाँग चढ़ा ली है। अब साबित भी हो गया।'
इसके बाद कहीं और जाने की इच्छा नहीं हुई। घर लौटा और चादर तान कर सो गया।
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Old 12-07-2013, 01:53 PM   #26
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महँगाई में प्रधानमंत्री
राजकिशोर








प्रधानमंत्री आज दफ्तर जाते समय बहुत प्रसन्न थे। सुबह-सुबह उन्हें पढ़ने को मिला था कि लंदन के एक अखबार ने भारत की वृद्धि पर खुशी जाहिर की है। हालाँकि उस अखबार ने थोड़ी आलोचना भी की है कि भारत में साक्षरता, सड़क, बिजली आदि की हालत बहुत खराब है। लेकिन प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ तजुर्बेदार भी थे। वे जानते थे कि 'शुद्ध मुनाफा' तो हो सकता है, पर 'शुद्ध तारीफ' नहीं हो सकती। फिर उनके प्रधानमंत्री हुए कुल ढाई साल ही तो हुए थे। उनके पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि एक सुबह लोग उठें और देखें कि पूरे देश में बिजली है और देश के हर आदमी के पास एक निजी पुस्तकालय है। हर पाँच किलोमीटर पर एक पेट्रोल पंप, एक होटल और एक एटीएम है। सुबह आठ बजे देश के सारे नौजवान और नवयुवतियाँ अपने को चिकना-चुपड़ा बना कर अपनी-अपनी गाड़ियों में दफ्तर के लिए निकल पड़े हैं। होगा, होगा, यह भी होगा, थोड़ा इंतजार तो करो। भारत के लोगों में यही तो बुरी आदत है। जब वे इंतजार करने पर आते हैं, तो सैकड़ों साल तक इंतजार कर सकते हैं। जब वे अधीर होते हैं, तो पाँच साल में ही सरकार की खाट खड़ी कर देते हैं।
अपनी नई उद्भावना पर प्रधानमंत्री के चेहरे पर एक इंच मुस्कान आई, फिर उन्होंने अपने को सँभाल लिया कि कहीं किसी की नजर पड़ गई कि क्या होगा - लोग कहेंगे कि एक तरफ देश में किसान आत्महत्या कर रहे थे और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री अपनी कार में बैठे मुस्करा रहे थे। कहीं दैनिक पत्रों में यह बहस न शुरू हो जाए कि प्रधानमंत्री आखिर किस बात पर मुस्करा रहे थे। फिर तो दस-पंद्रह दिनों तक राष्ट्रीय मीडिया इसी रहस्य की तहकीकात करता रहेगा, इस विषय पर टीवी चैनलों पर बहस होगी, बड़े-बड़े स्तंभकार इस पर टिप्पणी करेंगे। यह भी हो सकता है कि कोई पत्रिका इस मामले को बड़े पैमाने पर उठा कर देश के आठ महानगरों में 'राष्ट्रीय' सर्वेक्षण ही करा डाले कि आपकी राय में प्रधानमंत्री किस बात पर मुस्कराए थे - (क) आर्थिक वृद्धि दर के बढ़ने पर, (ख) दिल्ली के नए मास्टर प्लान पर, (ग) कावेरी नदी जल विवाद के फैसले पर, (घ) देश में इतने राजनेताओं के होते हुए भी अपनी अपरिहार्यता पर या (च) इनमें से किसी भी बात पर नहीं।
अपने कार्यालय में पहुँचते ही प्रधानमंत्री ने सभी प्रमुख नौकरशाहों को बुलाया। जैसी कि उन्हें उम्मीद थी, सभी ने शब्दावली बदल-बदल कर उन्हें बधाई दी कि लंदन के अखबार ने उनके आर्थिक नेतृत्व की इतनी सराहना की है। प्रधानमंत्री कई घंटे तक इस खबर का आनंद ले चुके थे, फिर भी उन्हें बार-बार एक ही बात सुन कर बोरियत नहीं हो रही थी। उनकी दशा उस छात्र की तरह हो रही थी, जो बोर्ड की परीक्षा में प्रथम आया हो और जिसे बधाई देने के लिए हर कोई टूटा पड़ रहा हो। लेकिन प्रधानमंत्री की बैठक कोई मुशायरा तो होती नहीं है, इसलिए बधाई और आत्म-खुशी के माहौल को बदलना जरूरी हो गया। प्रधानमंत्री ने कुछ और गंभीर हो कर पूछा - क्या इस विषय पर मुझे 'राष्ट्र के नाम संदेश' देना चाहिए? यह सुनते ही मीटिंग में एक तटस्थ सन्नाटा छा गया। वे सभी खुर्राट अफसर थे। उनमें से प्रायः 'इंडिया शाइनिंग' के जमाने में इसी तरह की बैठकों में भाग ले चुके थे।
लेकिन देश का सबसे शक्तिशाली आदमी (वैसे, इस पर अफसरों में मतभेद था; कुछ का कहना था कि इस जुमले का असली हकदार कोई और है और वह 'लाभ के पद' पर नहीं है) कुछ पूछ रहा हो और उसके मातहत मुँह सिले बैठ रहें, यह कायदा नहीं है, इसलिए एक-एक कर, दबी हुई आवाजें सुनाई पड़ने लगीं - 'सर, आइडिया अच्छा है'; 'लोगों को बहुत दिनों से कोई अच्छी खबर नहीं मिली है', वे खुश हो जाएँगे'; 'आखिर हम दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी हैं; जो बात सरकार जानती है वह जनता को भी पता चलनी चाहिए'; 'तब तो यह सीधे-सीधे राइट टु इन्फॉर्मेशन का मामला बनता है', 'नहीं तो यह आरोप भी लग सकता है कि सरकार जनता को अँधेरे में रख कर विकास करवा रही है'; 'अपोजीशन भी सवाल कर सकता है कि भारत के जिस भेद को लंदन के अखबार ने खोल दिया है, वह भेद सरकार ने संसद से क्यों छिपाए रखा? यह संसद की अवमानना है'...
एक नौजवान अफसर बहुत देर से बोलने के लिए मौके का इंतजार कर रहा था। बीच-बीच में उसके होंठ खुलने की कोशिश भी करते थे, पर कोई न कोई धाकड़ अधिकारी उसे ओवरटेक कर लेता था। प्रधानमंत्री खुद भी अल्पसंख्यक वर्ग के थे, इसलिए अल्पसंख्यक की वेदना को अच्छी तरह समझते थे। उन्होंने उस युवा अफसर की तरफ देख कर कहा - शायद आप कुछ कहना चाहते हैं। जवाबी थोड़ा खुश हुआ, थोड़ा झेंपा, फिर बोला - सर, मेरे दिमाग में एक दूसरी बात थी...'थी या है?' यह कह कर प्रधानमंत्री जरा मुसकराने को हुए कि उन्होंने अपने को रोक लिया - अफसरों से मजाक करना ठीक नहीं है, यह बहुत खतरनाक प्रजाति है। मुसकराने का काम जवाबी ने किया और माफी माँगते हुए बोला - 'सर, मेरा खयाल यह है कि अगर आपको 'राष्ट्र के नाम संदेश' देना ही है, तो महँगाई की बढ़ती हुई समस्या पर देना चाहिए। मुझे लगता है, यह मुद्दा जल्द ही गंभीर बनने वाला है। लोग कसमसा रहे हैं।'
खुर्राट अफसर इस मामले में भी पीछे नहीं रहना चाहते थे। प्रधानमंत्री के चेहरे पर बढ़ रही गंभीरता को देख कर एक बुजुर्ग-से अफसर ने धीमे से कहा, मानो कोई भूली हुई बात याद करने की कोशिश कर रहा हो, 'मेरा ड्राइवर भी कह रहा था कि आजकल उसका बजट गड़बड़ा रहा है...।' एक दूसरे अफसर ने बुरा-सा मुँह बनाया, 'दरअसल, आजकल लोगों की एंबीशंस बहुत बढ़ गई हैं। सभी फल-दूध-सब्जी खाना चाहते हैं। अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं।...मेरा ड्राइवर पहले स्कूटर पर आता था। अब उसने एट हंड्रेट खरीद ली है। महँगाई बढ़ेगी नहीं?'
प्रधानमंत्री को लगा कि मामला नियंत्रण से बाहर जा रहा है। उन्होंने घोषणा की, 'इस बारे में मैं चिदंबरम साहब से बात करूँगा। यह पीएमओ का नहीं, फाइनांस मिनिस्ट्री का मामला है।'
आज की पहली बैठक यहीं खत्म हो गई।
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महँगाई देवी
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने डिनर अभी समाप्त ही किया था कि चोबदार ने सलाम ठोक कर सूचना दी - सर, गुप्तचर विभाग के प्रमुख आपसे मिलना चाहते हैं। कहते हैं, बहुत जरूरी काम है। प्रधानमंत्री के शांत चेहरे पर तनाव की एक हलकी-सी झाँई आई। उनकी भंगिमा से ऐसा लगा कि वे कुछ और कहने वाले थे, पर झख मार कर उन्हें यह बोलना पड़ा - फोन पर बात कराओ।
वायरलेस फोन के दूसरे सिरे पर गुप्तचर विभाग का प्रधान था। प्रधानमंत्री ने पूछा - क्या वामपंथियों ने अपना समर्थन वापस ले लिया है?
उत्तर आया - नो, सर।
- क्या पाकिस्तान ने हमला कर दिया है?
- जी नहीं, यह भी नहीं।
- क्या मैडम के यहाँ किसी ने मेरी शिकायत की है?
- नो, सर।
- फिर क्यों मुझे परेशान करने चले आए? कल सुबह दफ्तर में मिलना।
- सर, एक बहुत जरूरी खबर थी...
- मैंने कहा न, कल मिलना।
जिस आदमी को यह नहीं मालूम कि जरूरी खबर क्या है और गैरजरूरी खबर क्या है, वह प्रधानमंत्री कार्यालय में मुलाकातियों की भीड़ में लाइन लगाए बैठा था। सोलहवें नंबर पर उसकी बुलाहट हुई। प्रधानमंत्री ने मानो कुछ अवमानना भाव से पूछा - बताइए, कौन-सी जरूरी खबर है कि आप रात के समय हमारे घर पहुँच गए? गुप्तचर ने अपने लम्बे सिर को थोड़ा झुका कर कहा - सर, देश के कुछ हिस्सों में महँगाई देवी प्रकट हुई हैं। लोग डर के मारे काँप रहे हैं और गाने-बजाने के साथ उनकी पूजा कर रहे हैं ताकि उनका कोप शांत हो।
प्रधानमंत्री - महँगाई देवी? मैं पहली बार इनका नाम सुन रहा हूँ।
गुप्तचर - सर, ये कई बार प्रकट हो चुकी हैं। जब भी दर्शन देती हैं, सरकार के पलटने का खतरा उपस्थित हो जाता है। चूँकि यह आपके लिए सबसे बड़ा खतरा है, इसलिए मैंने सोचा, आपको तुरन्त खबर करनी चाहिए। मेरे पास पक्की सूचना है कि महँगाई देवी जहाँ-जहाँ भी प्रकट हुई हैं, उनकी आकृति रोज-रोज बढ़ रही है। आशंका है कि वे कुछ और इलाकों में भी प्रकट होंगी। जनता के मन में डर फैल गया है।
प्रधानमंत्री - लेकिन इनके प्रकट होने से जनता कैसे प्रभावित होती है? भारत तो देवी-देवताओं का देश ही है। एक और देवी सही!
गुप्तचर- आपकी बात सही है। जब तक संतोषी माता की महिमा थी, लोग अपने जीवन से संतुष्ट रहते थे। वे ज्यादा की चाह नहीं करते थे। पर महँगाई देवी काली की तरह कोप की देवी हैं। ये जहाँ प्रकट होती हैं, चीजों के भाव बढ़ने लगते हैं। चावल, गेहूँ, आलू, प्याज, दाल, चीनी सब कुछ महँगा होने लगता है। लोगों में सरकार-विरोधी भावनाएँ पनपने लगती हैं। प्रधानमंत्री ने दुअन्नी आकार की अपनी मुस्कान छोड़ी - थैंक यू। ऐंड नोट इट कि मैं माइथोलॉजी से नहीं डरता। जाओ, पता लगाओ कि यह अफवाह भाजपा के लोग तो नहीं फैला रहे हैं? वे देवी-देवताओं के चक्कर में बहुत रहते हैं।
गुप्तचर विभाग का प्रमुख एक बार फिर निराश हुआ। वह एक अनुभवी और खुर्राट अफसर था। उसने कई सरकारों को आते-जाते देखा था। वह बहुत ही पका हुआ सरकारी कारिंदा था। इसलिए उसे इस बात से कोई मतलब नहीं रहता था कि कोई सरकार रहती है या जाती है। लेकिन जब तक कोई सरकार बनी रहती थीं, वह बड़ी निष्ठा के साथ उसका साथ देता था। उसकी दूसरी खूबी यह थी कि वह एक सरकार के समय की बातें दूसरी सरकार को नहीं बताता था। इसके बावजूद, या शायद इसी कारण, हर आने वाली सरकार उसकी इज्जत करती थी और उसके पद के साथ छेड़छाड़ नहीं करती थी।
हर गुप्तचर जानता है कि उसकी सूचनाओं का मूल्य क्या है और इस मूल्य की परख कौन कर सकता है। सो हमारा यह गुप्तचर-शिरोमणि सीधे 10, जनपथ जा पहुँचा, जहाँ भारत सरकार का नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लाक दोनों जाकर एक हो जाते थे और वहाँ के ड्राइंग रूम के फर्श पर दंडवत की मुद्रा में पड़े रहते थे। सोनिया गांधी को जैसे ही उसके आने की सूचना मिली, उन्होंने उसे तुरन्त बुला लिया। वे जानती थीं कि राज-काज कैसे चलता है। उसमें प्रकट की अपेक्षा गुप्त का महत्त्व हमेशा अधिक होता है। गुप्तचर ने मुख्तसर में उन्हें महँगाई देवी के प्रकट होने का सारा किस्सा सुनाया और अंत में कहा - मैडम, आपको तुरन्त कुछ करना चाहिए। खबर यह भी है कि वीपी सिंह अपने मित्रों से विचार-विमर्श कर रहे हैं कि इस मुद्दे को कैसे मुद्दा बनाया जाए। वामपंथी भी कसमसा रहे हैं।
सोनिया गांधी को गंभीर होने में समय नहीं लगा। उन्होंने गुप्तचर को धन्यवाद दिया और ताकीद की कि यह देवी जैसे ही कुछ और स्पॉट्स पर प्रकट हों, वह उन्हें तुरन्त इनफॉर्म करे। इसके बाद उन्होंने अपने भाषण लेखक को बुलाया और उसने कहा - सरकार के खिलाफ एक कड़ा - ज्यादा कड़ा भी नहीं - बयान तैयार करो। मैं कांग्रेस के सभी मुख्यमंत्रियों से मिलना चाहती हूँ। सेन्ट्रल मिनिस्टर्स को भी उसमें बुलाना है। इसकी तैयारी कराओ। या तो महँगाई देवी रहेंगी या मैं। यह मनमो...फिर पता नहीं क्या सोच कर रुक गईं।
बयान जारी हुआ, मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन भी बुलाया गया, और भी कई टोटके आजमाए गए। इस सबमें इतना समय लग गया कि महँगाई देवी अपने आप अदृश्य हो गईं। सुनते हैं, जाते-जाते उनकी मुखमुद्रा ऐसी थी मानो वे कह रही हों कि तुम्हारी नीतियाँ ऐसी ही रहीं, तो मुझे फिर आना पड़ेगा।
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मेरी दिल्ली मेरी शर्म
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दिल्ली में रहने वाला कोई भी हिन्दी लेखक दिल्ली से खुश नहीं रहा। मेरी पढ़ाई कम है, इसलिए इस समय तीन ही लेखक याद आ रहे हैं। पहले हैं, रामधारी सिंह दिनकर। दिल्ली ने उन्हें मंत्री पद छोड़कर सब कुछ दिया। अपने संस्मरणों में उन्होंने कई जगह अफसोस जताया है कि वे किस तरह शिक्षा मंत्री बनते-बनते रह गए। मेरे अपने अनुमान से, उनके मंत्री न बन पाने का जो भी कारण रहा हो, शिक्षा मंत्री न बन पाने का यह कारण जरूर रहा होगा कि उन दिनों किसी हिन्दी भाषी को यह पद नहीं दिया जाता था। पता नहीं हिन्दीवालों में क्या बुराई थी जो वे जवाहरलाल नेहरू को शायद धोतीप्रसाद लगते थे, या गैर-हिन्दी भाषियों में क्या खूबी थी, जिसके कारण उनसे भारत के पहले प्रधानमंत्री का लगाव कुछ ज्यादा ही था। बहरहाल, दिल्ली से दिनकर को घोर सैद्धांतिक असंतोष था। उनकी एक बहुत अच्छी कविता है- भारत का यह रेशमी नगर। इसमें उन्होंने दिल्ली के रेशमी चरित्र पर बहुविधि प्रकाश डाला है - दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी/दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है/प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला/दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है। दिल्ली की यह सुषमा दिनकर को आक्रांत करती थी। उन्हें लगता था कि 'कुछ नई आँधियाँ' इस जादू को तोड़ कर रहेंगी। उनकी भविष्यवाणी थी - ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर/इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी/जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा/तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।
ऐसा लगता है कि तीसरी दुनिया के गरीब देशों का राशिफल कवि और दार्शनिक नहीं लिखते। सो श्रीकांत वर्मा तक आते-आते दिल्ली का चरित्र 'मगध' जैसा हो गया। श्रीकांत जी ने अपने मगध का चित्रण एक ऐसे राज्य के रूप में किया है, जहाँ वैभव के साथ कुचक्र है तो सत्ता के साथ विचारों की कमी। इसे उस दिल्ली का पतन काल कहा जा सकता है, जिससे आकर्षित होकर श्रीकांत वर्मा मध्य प्रदेश के एक छोटे-से शहर से यहाँ आए थे। दिल्ली ने उन्हें भी खूब दिया। जितना दिया, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने वसूल कर लिया। आखिर कांग्रेस में थे वे। जब दिल्ली कवि से नाराज हो गई, तो कवि ने बगावत कर दी और अंतिम दिनों की अपनी कविताओं में दिल्ली का सारा हाल खोल कर लिख दिया।
रघुवीर सहाय में दिनकर की उदात्तता और श्रीकांत की तुर्शी, दोनों की झाँकी दिखाई पड़ती है। वे दिल्ली में रहते हुए 'धर्मयुग' में 'दिल्ली मेरा परदेस' कॉलम लिखते थे। इस स्तम्भ में छपी सामग्री इसी नाम की एक किताब में संकलित है। इस शीर्षक से ही आप समझ सकते हैं कि एक कवि के रूप में दिल्ली को सहाय जी ने सबसे सटीक ढंग से समझा था। दिल्ली वाकई सभी का परदेस है। यहाँ की ज्यादातर आबादी उनकी है, जो बाहर से आए हैं। दिल्ली पर कभी मुसलमानों का प्रभुत्व रहा होगा। वह खत्म हो गया। फिर पंजाबी हावी हुए। अब वे भी अल्पसंख्यक हैं। लेकिन दिल्ली को रघुवीर सहाय ने अपना परदेस बताया, तो इसका एक बृहत्तर संदर्भ भी थे। इस मायने में दिल्ली सभी संवेदनशील लोगों के लिए परदेश है। लेकिन परदेश होते हुए भी यह इतनी मोहक है कि कोई अपने देस नहीं जाना चाहता। बड़े से बड़े कलावादी और बड़े से बड़ा प्रगतिशील, सभी यहीं से देश को दिशा दे रहे हैं। कवियों, लेखकों और पत्रकारों की दिल्ली-अभिमुखता इतनी बढ़ गई है कि कुछ दिनों के बाद यह कहावत आम हो जाएगी - जो जा न सका दिल्ली, उसकी उड़ेगी खिल्ली।
दिनकर के शब्दों में मैं भी कह सकता हूँ कि 'मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूँ।' लेकिन मैं यहाँ यह नहीं लिखना चाहता कि दिल्ली से मुझे क्या मिला और क्या नहीं मिला। बताना मैं यह चाहता हूँ कि दिल्ली आजकल 'मेरे लिए' बड़ी तेजी से सँवर रही है। जिधर से भी गुजरो, एक सुन्दर-सा बोर्ड बताता है, इतनी हरियाली और कहाँ है मेरी दिल्ली के सिवा, मेरी दिल्ली सँवर रही है, दिल्ली मेट्रो मेरी शान, कितनी खुशहाल है मेरी दिल्ली, मेरी दिल्ली कितनी साफ-सुथरी है आदि-आदि। यह सिर्फ विज्ञापन नहीं है, दिल्ली को वाकई सजाया-सँवारा जा रहा है। पता नहीं कितने फ्लाईओवर बन गए हैं तथा कितने और बनेंगे। दिल्ली मेट्रो का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है। हवाई अड्डे को नया रूप मिलेगा। रेलवे स्टेशनों का पुनर्निर्माण किया जा रहा है। सड़कों को चौड़ा और सुचिक्कन बनाया जा रहा है। एयरकंडीशंड बसें चलने लग गई हैं। सभी जानते हैं, इस सबकी वजह क्या है। सन 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमंडलीय खेल जो होने वाले हैं! किसी उपन्यास में पढ़ा था कि जिस दिन नवाब साहब आनेवाले होते हैं, उस दिन लखनऊ की सबसे खूबसूरत तवायफ कितनी बेताबी से अपना शृंगार करने लगती है और उसके रईसखाने को सजाने-सँवारने में कितनी जद्दो-जहद की जाती है।
दिल्ली में कभी तवायफें अच्छी संख्या में रहती होंगी। दिल्ली ने तय किया है कि अब वह खुद तवायफ बनेगी। उसके इस सजने-सँवरने में कोई सौंदर्य चेतना नहीं है। शील के बिना सौंदर्य कहाँ! जब भी मैं दिल्ली में कोई नई चमचमाती चीज देखता हूँ, मेरी आँखें शर्म से झुक जाती हैं। मुझे लगता है, करोड़ों पुरुषों और स्त्रियों को आधे अनाज और आधे कपड़ों में रख कर यह मुटल्ली अब कुछ ज्यादा ही इतराने की तैयारी में है।
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मेरा पहला व्यंग्य
राजकिशोर








एक आधुनिक सन्त ने कहा है कि जो उत्पादन नहीं करता, उसे उपभोग करने का अधिकार नहीं है। इसी तर्क से मुझे लगा कि मुझे व्यंग्य लिखना चाहिए, क्योंकि बचपन से ही मुझे व्यंग्य पढ़ने में आनन्द आता रहा है। सवाल यह पैदा हुआ कि शुरुआत कहाँ से करूँ। एक पुराने सन्त ने कहा है कि सबसे पहले घर में दीया जलाना चाहिए। आधुनिकता के प्रभाव से मैं 'हम दो, हमारे दो' का शिकार हूँ। जहाँ तक बच्चों का सवाल है, वे व्यंग्य से परे हैं। मेरे दोनों बच्चों में से किसी एक के बारे में कोई कुछ कह देता है, तो माता-पिता यानी हम दोनों में वीर रस का स्राव होने लगता है। सो अगर मैं उन पर व्यंग्य करता हूँ, तो पड़ोसी महाव्यंग्य करना शुरू कर देंगे। फिर, वे मेरे ही उत्पाद हैं। उन पर व्यंग्य करना अपने आप पर ही व्यंग्य करना हो जाएगा। दूसरों की तरह मुझमें भी इतना खुलापन कहाँ।
तब ध्यान अपनी पत्नी पर गया। मैंने पाया है कि पत्नियों पर व्यंग्य करना आधुनिक हास्य परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान है। वैसे, स्त्रियों को मूर्ख मान कर उन पर हँसने की परम्परा पुरानी है, पर इसका व्यावहारिक दोहन हिन्दी के प्रारम्भिक हास्य-व्यंग्यवादियों ने शुरू किया। पहले साली आई, फिर घरवाली। पत्नियों को व्यंग्य के केन्द्र में रखना इसलिए भी सम्भव हुआ कि प्रत्येक मध्यवर्गीय घर स्त्रियों का तिहाड़ हुआ करता था। उनको बिल्कुल पता नहीं होता था कि उनके पति बाहर क्या कह (या कर) रहे हैं। तब पुरुष लेखक बाहर बुद्धिमती स्त्री की खोज करते थे और घर में अपनी छोटी-मोटी जागीर चलाते थे। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं इस पाखंड से परे हूँ। लेकिन जब व्यंग्य की दृष्टि से अपनी पत्नी पर विचार करने लगा, तो मेरी आँखें गीली हो गईं। बेचारी कितना सहती है, फिर भी हँसमुख बनी रहती है। उस पर मैंने इतने जुल्म किए हैं कि उसके सन्दर्भ में मैं ही व्यंग्य का पात्र हूँ। सच पूछिए, तो वह समय-समय पर मुझ पर व्यंग्य कर अपने इस ऐतिहासिक कर्त्तव्य का निर्वाह करती भी रहती है। मैं तरह दे जाता हूँ, क्योंकि औरतों के मुँह कौन लगे। वे चाहें तो हम सभी पुरुषों का भाँडा फोड़ कर रख दें। पुष्टि के लिए आप मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता, चंद्रकिरण सौनरिक्सा आदि की आत्मकथाएँ पढ़ सकते हैं। सो पत्नी को भी मैंने लिस्ट से निकाल दिया।
अब पड़ोसी की ओर ध्यान गया। वह बहुत ही दुष्ट है, जैसा कि अधिकतर पड़ोसी होते हैं। वह मुझसे जरा भी नहीं डरता, जैसे मैं उससे नहीं डरता। कई बार हमारे बीच नोकझोंक हो चुकी है, जिस दौरान हम एक दूसरे की आलोचना फ्री होकर करते थे। लेकिन जब उस पर व्यंग्य लिखने का विचार करने लगा, तो कई ऐसी बातों पर ध्यान गया, जिस पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था। बेचारा देश के एक ऐसे हिस्से से आया है, जो दशकों से अखिल भारतीय स्तर पर बदनाम है। उसके पास एमए की डिग्री है, पर उसकी बातचीत के स्तर से लगता है कि उसने यह डिग्री जरूर कहीं से चुराई (या खरीदी) होगी। लेकिन इसके बिना वह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक कैसे बन सकता था? शिक्षित बेरोजगारी की नई अर्थव्यवस्था में वह रोजगार और किस तरीके से हासिल कर सकता था? सो उसे माफ कर देना चाहिए।
उसकी पत्नी और बच्चे पूरी कॉलोनी के लिए एक समस्या हैं, पर गहराई से सोचने पर लगा कि इसमें उनका क्या दोष। पत्नी को आज तक एक बार भी मेंटल डॉक्टर के पास नहीं ले जाया गया और बच्चे तो ज्यादातर अपने माँ-बाप के ही सांस्कृतिक डुप्लिकेट होते हैं। फिर जैसे मेरे बच्चे, वैसे ही उसके बच्चे। मैं अगर अपने बच्चों को आदर्श नहीं बना सका, तो उसकी क्या बिसात! सो यह नजदीकी विषय भी छोड़ देना पड़ा। हाय, लेखक का कितना कच्चा माल यों ही बरबाद हो जाता है।
कई और पात्रों पर मैंने गौर से विचार किया। वे सभी व्यंग्य के बजाय सहानुभूति के पात्र ज्यादा लगे। बेचारे किसी तरह जन्म लेने की सजा भुगत रहे थे। उनमें बहुत-सी बुराइयाँ थीं, पर ज्यादातर बुराइयाँ उन्हें अपने परिवेश से मिली थीं। एक लेखक ने कहा है कि अक्सर हम उससे ज्यादा बुरे बन जाते हैं जितना ईश्वर ने हमें बनाया है। ईश्वर को इस पर विचार करना चाहिए और भविष्य में अपने माल में कम से कम बुराई डालनी चाहिए।
तभी अचानक घटाटोप के शिकार मेरे दिमाग में कौंधा कि मैं अपने बॉस को क्यों न व्यंग्य का निशाना बनाऊँ। आखिर सबसे अधिक व्यंग्य अत्याचारियों पर ही लिखे गये हैं। ऐसा सोचते-सोचते अपने बॉस के चरित्र का एक-एक गन्दा पक्ष सामने आने लगा। कुछ के बारे में मैं प्रत्यक्ष अनुभव से जानता था, कुछ के बारे में दूसरों ने बताया था। अपने बॉस के बारे में जब भी मेरे ज्ञान में वृद्धि होती थी, मैं यही सोचता था कि वह सौ-डेढ़ सौ वर्ष बाद क्यों पैदा हुआ। वह अपने समय पर पैदा हुआ होता, तो बहुत सफल सामन्त साबित होता। दफ्तर में कौन ऐसा नहीं था, जिसका नुकसान उसने न किया हो। जो अपनी नजर में नायक होते हैं, वे अक्सर दूसरों की नजर में खलनायक होते हैं। मैंने कलम चलाना शुरू कर दिया। कुछ पन्ने लिखने के बाद मुझे अपने आप पर गुस्सा आने लगा। मैं यह क्या कर रहा हूँ? ऐसे नराधम से तो खुले मैदान में दो-दो हाथ कर लेना ही ठीक है। जहाँ तलवार चलनी चाहिए, वहाँ कलम चला कर मैं अपनी तौहीन नहीं कर रहा हूँ? मेरी कलम गिर पड़ी।
इस तरह दुनिया मेरी पहली व्यंग्य रचना से महरूम रह गई।
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VARSHNEY.009
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अकबरी लोटा
अन्नपूर्णानंद वर्मा








लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से 100 रुपया मासिक के करीब किराया उतर आता था। कच्*चे-बच्*चे अभी थे नहीं, सिर्फ दो प्राणी का खर्च था। अच्*छा खाते थे, अच्*छा पहनते थे। पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ कभी आंख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।
इसलिए जब उनकी पत्*नी ने एक दिन यकायक ढाई सौ रुपए की मांग पेश की तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। जान पड़ा कि कोई बुल्*ला है जो बिलाने जा रहा है। उनकी यह दशा देखकर उनकी पत्*नी ने कहा, 'डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से मांग लूं।'
लाला झाऊलाल इस मीठी मार से तिलमिला उठे। उन्*होंने किंचित रोष के साथ कहा, 'अजी हटो! ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख मांगोगी? मुझसे ले लेना।'
'लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।'
'अजी इसी सप्*ताह में ले लेना।'
'सप्*ताह से आपका तात्*पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?'
लाल झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा, 'आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।'
'मर्द की एक बात!'
'हां, जी हां! मर्द की एक बात!'
लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्*यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्*हें चिंता होने लगी। प्रश्*न अपनी प्रतिष्*ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्*का वादा करके अब अगर न दे सके तो अपने मन में वह क्*या सोचेगी? उसकी नजरों में उनका क्*या मूल्*य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएं उसे सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों खाने चित हो रहे? यह पहली ही बार उसने मुंह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर वे दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्*या मुंह दिखाएंगे? मर्द की एक बात- यह उसका फिकरा उनके कानों में गूंज-गूंजकर फिर गूंज उठता था।
खैर, एक दिन और बीता। पाचवें दिन घबराकर उन्*होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्*ख थे। उन्*होंने कहा कि मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से मांग-जांचकर लाने की कोशिश करूंगा, और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूंगा।
यह शाम आज थी। हफ्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपया या तो गिन देना है या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न पाने पर उनकी स्*त्री डामल-फांसी न कर देगी - केवल जरा-सा हंस देगी। पर वह कैसी हंसी होगी! इस हंसी की कल्*पना मात्र से लाला झाऊलाल की अंतरात्*मा में मरोड़ पैदा हो जाता था।
अभी पं. बिलवासी मिश्र भी नहीं आए। आज ही शाम को उनके आने की बात थी। उन्*हीं का भरोसा था। यदि न आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे न कर सके तो?
इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए लाल झाऊलाल धुर छत पर टहल रहे थे। कुछ प्*यास मालूम पड़ी। उन्*होंने नौकर को आवाज दी। नौकर नहीं था। खुद उनकी पत्*नी पानी लेकर आई। आप जानते ही हैं कि हिंदू समाज में स्त्रियों की कैसी शोचनीय अवस्*था है! पति नालायक को प्*यास लगती है तो स्*त्री बेचारी को पानी लेकर हाजिर होना पड़ता है।
वे पानी तो जरूर लाईं पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए हुए वे प्रकट हुईं। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा नापसंद था। था तो नया, साल ही दो साल का बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि जैसे उसका बाप डमरू और मां चिलमची रही हो।
लाला झाऊलाल ने लोटा ले लिया, वे कुछ बोले नहीं, अपनी पत्*नी का वे अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्*यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्*नी की पत्*नी नहीं हुआ वह पति कैसा! फिर उन्*होंने यह भी सोचा होगा कि लोटे में पानी हो तो तब भी गनीमत है - अभी अगर चूं कर देता हूं तो बालटी में जब भोजन मिलेगा तब क्*या करना बाकी रह जाएगा।
लाला झाऊलाल अपना गुस्*सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुंडेर के पास खड़े थे। जिन बुजुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, उन्*होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया था या नहीं कि छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है इस महत्*वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।
इसलिए लाला झाऊलाल ने कोई बुराई नहीं की और वे छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी पीने लगे। पर मुश्किल से दो-एक घूंट वे पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा हाथ से छूट पड़ा।
लोटे ने न दाहिने देखा न बाएं, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्*का को लजाता हुआ वह आंखों से ओझल हो गया। किसी जमाने में न्*यूटन नाम के किसी खुराफाती ने पृथ्*वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज ईजाद की थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस लोटे के पक्ष में थी।
लाला झाऊलाल को काटो तो बदन में खून नहीं। ठठेरी बाजार ऐसी चलती हुई गली में, ऊंचे तिमंजिले से, भरे हुए लोटे का गिरना हंसी खेल नहीं है। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के खोपड़े पर काशी-वास का संदेश लेकर पहुंचेगा। कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में जोर का हल्*ला उठा। लाला झाऊलाल जब तक दौड़कर नीचे उतरे तब तक भारी भीड़ उनके आंगन में घुस आई।
लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पर नाच रहा है। उसी के पास उस अपराधी लोटे को देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया। पूरा विवरण तो उन्*हें पीछे प्राप्*त हुआ।
हुआ यह कि गली में गिरने से पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकरा गया। वहां टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज को उसने सांगोपांग स्*नान कराया और फिर उसी के बूट पर जा गिरा।
उस अंग्रेज को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुंह को उसने खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेजी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोश है।
इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आंगन में आते दिखाई पड़े। उन्*होंने आते ही पहला काम यह किया कि एक कुर्सी आंगन में रखकर उन्*होंने साहब से कहा, 'आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।' दूसरा एक जरूरी काम य*ह किया कि जितने आदमी आंगन में घुस आए थे सबको निकाल बाहर किया।
साहब बिलवासी जी को धन्*यवाद देते हुए बैठे और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले, 'आप इस शख्*स को जानते हैं?'
'बिल्*कुल नहीं और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह-चलतों पर लोटे से वार करे।'
'मेरी समझ में He is dangerous lunatic।'
(यानी, यह एक खतरनाक पागल है)
'नहीं, मेरी समझ में He is a dangerous criminal।'
(नहीं, यह एक खतरनाक मुजरिम है।)
परमात्*मा ने लाला झाऊलाल की आंखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दी होती तो यह निश्*चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आंखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय हो क्*या गया है।
साहब ने बिलवासी जी से पूछा, 'तो अब क्*या करना चाहिए?'
'पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए, जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।'
'पुलिस स्*टेशन है कहां?'
'पास ही है, चलिए मैं बता दूं।'
'चलिए।'
'अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूं। क्*यों जी! बेचोगे? मैं पचास रुपए तक इसका दाम दे सकता हूं।'
लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा, 'इस रद्दी से लोटे का आप पचास रुपए दाम क्*यों दे रहे हैं?'
'आप इस लोटे को रद्दी-सा बताते हैं? आश्*चर्य है! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।'
'आखिर बात क्*या है, कुछ बताइए भी?'
'यह जनाब! एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। मुझे पूरा विश्*वास है कि यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है, जिसकी तलाश में संसार भर के म्*यूजियम परेशान हैं।'
'यह बात?'
'जी हां जनाब! सोलहवीं शताब्*दी की बात है। बादशाह हुमायूं शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्*तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्*यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूं के बाद जब अकबर दिल्*लीश्*वर हुआ तब उसने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्*यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा, वह बराबर इसी से वजू करता था। सन 57 तक इसके शाही घराने में ही रहने का पता है पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ते के म्*यूजियम में इसका प्*लास्*टर का मॉडेल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया। म्*यूजियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएं।'
इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आंखों पर लोभ और आश्*चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार के हो गए। उसने बिलवासी जी से पूछा, 'तो आप इस लोटे को लेकर क्*या करिएगा?'
'मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है।'
'मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान पर से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियां खरीद रहा था।'
'जो कुछ हो लोटा तो मैं ही खरीदूंगा।'
'वाह, आप कैसे खरीदेंगे? मैं खरीदूंगा। मेरा हक है।'
'हक है?'
'जरूर हक है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्*नान किया या मैंने?'
'आपने।'
'वह आपके पैर पर गिरा या मेरे?'
'आपके।'
'अंगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?'
'आपका।'
'इसलिए उसे खरीदने का हक मेरा है।'
'यह सब झोल है। दाम लगाइए, जो अधिक दाम दे वह ले जाए।'
'यही सही। आप उसका पचास रुपया दे रहे थे, मैं सौ देता हूं।'
'मैं डेढ़ सौ देता हूं।'
'मैं दो सौ देता हूं।'
'अजी मैं ढाई सौ देता हूं।' यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।
साहब को भी अब ताव आ गया। उसने कहा, 'आप ढाई सौ देते हैं तो मैं पांच सौ देता हूं। अब चलिए?'
बिलवासी जी अफसोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्*होंने कहा, 'लोटा आपका हुआ, ले जाइए! मेरे पास ढाई सौ से अधिक हैं नहीं।'
यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्*नता की कूंची फिर गई। उसने झपटकर लोटा उठा लिया और बोला, 'अब मैं हंसता हुआ अपने देश लौटूंगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।'
'मेजर डगलस कौन हैं?'
'मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीजों का संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्*तान आए थे और यहां से जहांगी*री अंडा ले गए थे।'
'जहांगीरी अंडा?'
'जी हां जहांगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्*तान से वे ही ऐसी चीजें ले जा सकते हैं।'
'पर जहांगीरी अंडा है क्*या?'
'आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहां से जहांगीर का प्रेम कराया था। जहांगीर के पूछने पर कि मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहां ने उसके दूसरे कबूतर को भी उड़ाकर बताया था कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहांगीर सौ जान से निछावर हो गया; उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहां के हाथ बेच दिया। पर कबूतर का एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को उसने बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्*लौर की हांड़ी में वह उसके सामने टंगा रहता था। बाद में वही अंडा जहांगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने परसाल दिल्*ली में एक मुसलमान सज्*जन से तीन सौ रुपए में खरीदा।'
'यह बात?'
'हां, पर अब वे मेरे आगे दूर की नहीं ले जा सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहांगीरी अंडे से भी एक पुश्*त पुराना है।'
साहब ने लाला झाऊलाल को पांच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुंह पर छ: दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी के एक-एक बाल मारे प्रसन्*नता के लहरा रहे हैं। उन्*होंने पूछा, बिलवासी जी! आप मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर चले थे? पर आपको मिला कहां से? आप के पास तो थे नहीं।'
'इस भेद को मेरे सिवा ईश्*वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए। मैं नहीं बताऊंगा।'
'पर आप चले कहां? अभी मुझे आपसे काम है, दो घंटे तक।'
'दो घंटे तक?'
'हां और क्*या! अभी मैं आपकी पीठ ठोंककर शाबाशी दूंगा; एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्*यवाद दूंगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।'
'अच्*छा पहले अपने पांच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।'
रुपया अगर अपना हो तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद और सम्*मोहक कार्य है कि मनुष्*य उस समय सहज में ही तन्*मयता प्राप्*त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्*त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए थे।
वे लंबे डग भरते हुए गली में चले जा रहे थे।
उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे-से, बहुत धीरे-से, अपनी सोई हुई पत्*नी के गले से उन्*होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बंधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्*होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्*यों-के-ज्*यों रखकर उन्*होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पांव लौटकर ताली को उन्*होंने पूर्ववत अपनी पत्*नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्*होंने हंसकर अंगड़ाई ली, अंगड़ाई लेकर लेट रहे और लेटकर मर गए।
दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक वे जीवित भए।
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