09-02-2013, 09:51 AM | #31 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
गली में देवी लाला का प्रवेश एक कॉमिक रिलीफ की तरह था। देवी लाला रोज की तरह सुबह गली से निकल गए थे और रोज की ही तरह गिरते-पड़ते गली में लौट रहे थे। फर्क सिर्फ इतना था कि रोज 9-10 बजे रात के बाद लौटते थे और आज दो-तीन घंटा पहले लौट रहे थे। रोज गली के ज्यादातर लोग जिस समय खाना खा रहे होते हैं उसी समय देवी लाला की शराब डूबी कर्कश स्वर-लहरी हवा में तैरती है। आज देवी लाला कुछ पहले आ गए थे। रोज की तरह न तो वे चहक रहे थे और न ही शराब पीने से पैदा हुआ आत्मविश्वास ही उनके अंदर था। वे कुछ परेशान से थे। एक तो उन्हें शराब नहीं मिली थी और दूसरे उनको रास्ते में कई जगह गिरते-पड़ते आना पड़ा था। इससे उनके जिस्म पर जगह-जगह खरोचें आ गई थीं और उनके पाजामे के पाँयचे नालियों के पानी और गंदगी से सराबोर थे। |
09-02-2013, 09:52 AM | #32 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
देवी लाला पेशेवर खून बेचने वालों में से थे। वह हर दूसरे-तीसरे दिन स्वरूपरानी अस्पताल में जाकर अपना खून बेचते थे और चालीस-पचास रुपया लेकर लौट आते थे। इसी आमदनी के बल पर वे शाम को ठर्रा चढ़ाकर लौटते थे। आज उन्होंने खून जरूर बेचा पर पी नहीं पाए। उसके पहले ही कर्फ्यू लग गया। वे तब तक कर्फ्यू वाले इलाके में प्रवेश कर गए थे। अगर कहीं उन्हें पहले पता चल जाता तो वे शराब पीकर ही कर्फ्यू में घुसते। एक बार घुस जाने के बाद उन्होंने बाहर निकलने की कोशिश भी की लेकिन शटरों के गिरने, लोगों के बदहवास भागने-दौड़ने और पुलिस की लाठियों ने एक अजीब-सा चक्रव्यूह निर्मित कर दिया था। इस चक्रव्यूह में वे सिर्फ आगे को भाग रहे थे और काफी देर बाद उन्हें सँभलने का होश आया तो वे अपने घर की गली के मुहाने पर थे। देवी लाला को देखते ही गली के कुछ बच्चे इकट्ठे हो गए और रोज का कोरस शुरू हो गया-
देवी के दो टोपी बकरी के दो कान देवी लाला हगने पहुँचे उनको पकड़ लिया शैतान औरतों ने इस परेशानी के माहौल में भी हँसना शुरू कर दिया। दो-एक ने बच्चों को डाँट-डपट कर चुप कराना चाहा। पता नहीं यह माहौल में छाए आतंक और उदासी का असर था या देवी लाला की निष्क्रिय प्रतिक्रिया का कि बच्चे आज चुप हो गए। रोज की तरह उन्होंने रोकने पर और ज्यादा उछल-उछल कर देवी लाला की मिट्टी पलीद नहीं की। शराब न पीने की वजह से देवी लाला को अपना शरीर टूटता-सा नजर आ रहा था और उन्हें बोलने में दिक्कत महसूस हो रही थी। |
09-02-2013, 09:52 AM | #33 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
‘‘कस लाला, दंगे में बहुत लोग मरे का? “
प्रश्न देवी लाला से पूछा गया था। वे अकेले आदमी थे जो कर्फ्यू लगने के बाद, कर्फ्यूग्रस्त इलाके में घुसने के बाद मुहल्ले में पहुँचे थे इसलिए विशिष्ट होने के एहसास से ग्रस्त थे। उन्होंने अपनी खास शैली में आँखें सिकोड़ीं और पूरे आत्मविश्वास से बोलने की कोशिश की। यद्यपि शराब न पीने से उनकी जबान लड़खड़ा रही थी, फिर भी उन्होंने संयत होने की पूरी कोशिश की। ‘‘अरे चाची, शहर में लहाश ही लहाश हैं। दुई टरक में लहाश जाते तो हम खुद देखा... पुलिस वाले जमुना में बहाने ले जा रहे थे। मुसल्ले मार छुरा-चाकू चमकाए घूम रहे हैं। हिंदुन बेचारों का तो कोई रखवाला नहीं है।’’ ‘‘हे भगवान, जो लोग अभी घर नहीं लौटे उनका क्या होगा? “ जिन औरतों के पति और बच्चे घरों को नहीं लौटे थे उनके चेहरे उतर गए और कुछ ने तो हौले-हौले विलाप भी करना शुरू कर दिया। जिनके घर के लोग सही-सलामत लौट आए थे उन्होंने चटखारे लेने शुरू कर दिए- ‘‘तो लाला, क्या मुसलमान पुलिस के रहते चाकू-छुरा लिए घूम रहे है? “ ‘‘... घूम रहे हैं अरे घोंप रहे हैं। कई तो हम अपने सामने मारते देखे। हिंदू बेचारे पट-पट गिर रहे हैं। अब इन मुसल्लों को जान लेने में कितनी देर लगती है। पुलिस इनका क्या बिगाड़ लेगी। कितनी लहाशें तो हमारे पैर के नीचे आते-आते बचीं।’’ देवी लाला हाँके जा रहे हैं। शराब न पिए रहने से थोड़ा आत्मविश्वास जरूर बीच-बीच में गड़बड़ा जाता है लेकिन लोगों के चेहरों पर तैरने वाली जिज्ञासा और आतंक उन्हें फिर से बोलने की प्रेरणा दे देता है। वे बोल रहे थे और उत्सुक-परेशान चेहरे उन्हें सुन रहे थे। यह क्रम तभी टूटता जब बाहर से गिरता-पड़ता कोई और प्राणी गली में प्रवेश कर जाता और सुनने वालों की भीड़ उसे घेर लेती। कर्फ्यू लगने के तीन-चार घंटे बाद चूँकि जमकर बारिश हुई थी इसलिए आने वाला बुरी तरह बारिश में नहाया होता और पाजामे या पैंट के नीचे का पाँयचा गली के कीचड़ से लथपथ होता। हर आने वाला आता और उत्सुक भीड़ के पास खड़े होकर कुछ न कुछ तथ्य बताता। जब तक उसकी बीवी या बच्चे उसे घसीट न ले जाते तब तक वह लोगों के चेहरे पर खिंची विस्मय और अविश्वास की लकीरों का आनंद लेता रहता। |
09-02-2013, 09:52 AM | #34 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
पुलिस और पी.ए.सी. के सात-आठ जवान डंडे जमीन पर फटकारते गली के मुहाने से मोहल्ले के अंदर घुसे। उनके घुसते ही लोग हड़बड़ाकर भागे। गिरते-पड़ते लोगों को भागते देखकर पुलिस वालों में से एक-दो को मसखरी सूझी। उन्होंने और जोर से लाठियाँ जमीन पर पटकीं और हवा में गालियाँ उछालते हुए दौड़ने का नाटक किया। लोग और जोर से भागे और गली के कीचड़ और नालियों के पाखानों में पैर सानते हुए अपने-अपने घरों में दुबक गए। जिनके दरवाजे बंद थे उन्होंने उन्हें बुरी तरह पीट डाला।
घरों में बंद होकर बच्चों ने खिड़कियों से अपनी नाक सटा दी और आँखें बाहर एकत्रित पुलिस वालों पर केंद्रित कर लीं। औरतें किवाड़ों की दरारों से चिपक गईं। मर्द अपने मर्द होने के एहसास से दबे अपनी उत्सुकता का प्रदर्शन नहीं कर सकते थे अतः बंद उमस-भरे कमरों में पंखों के नीचे बैठे अपने उघड़े बदन खुजलाते रहे। बारिश बंद हुए काफी देर हो चुकी थी ओर एक बार फिर से उमस पूरे माहौल पर तारी हो गई थी। पुलिस वाले बाहर एक चबूतरे पर बैठ गए। उनमें से एकाध चबूतरे की जमीन पर पसर गए। इस भगदड़ में देवी लाला भी डरकर एक कूड़े के ढेर के पीछे छिप गए थे। दिन में भागते समय दो-चार लाठियाँ उनके पैर और पीठ पर पड़ी थीं इसलिए पुलिस वालों को देखकर वे डर भी गए थे। थोड़ी देर तक वे दुर्गंधमय कूड़े को अपने चेहरे व नाक पर झेलते रहे फिर साहस बटोरकर उन्होंने उचककर देखा कि पुलिस वालों में एक स्थानीय थाने का सिपाही भी था जिसे वे मिश्रा नाम से जानते थे और जिसके साथ बैठकर उन्होंने कई बार शराब पी थी। मिश्रा को देखते ही उनका साहस लौट आया और वे कूड़े के ढेर को लगभग ढकेलते हुए उठ बैठे। |
09-02-2013, 09:52 AM | #35 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
‘‘जयहिंद पंडित जी। हम तो बेकार डर रहे थे।’’
‘‘कौन देवी लाला जय हिंद, जय हिंद। कहो भाई कहाँ छिपे हो?” “कइसा मोहल्ला है भाई... ससुर पानी को भी तरस गए। आज दोपहर से एक बूँद पानी नहीं गया हलक में। कुछ चाय-वाय का इंतजाम करो भाई।’’ देवी लाला झपटकर एक मकान के बंद दरवाजे पर पहुँचे और लगे दरवाजा पीटने। ‘‘कौन है? क्या है? घर में कोई मानुष नहीं है।’’ अंदर से जनानी आवाज आई। ‘‘है कैसे नहीं, अरे हम खुद देखा रामसुख कंपोजीटर को अंदर आते। भाई हम देवी लाला हैं। बाहर दारोगा जी खड़े हैं। खोलो, दरवाजा खोलो, पानी चाहिए।’’ रामसुख कंपोजीटर ने तो नहीं लेकिन देवी लाला की आवाज से आश्वस्त होकर उसकी बीवी ने आधा दरवाजा खोला। बाहर लाठियों और बंदूकों के साथ पुलिस उनके साथ थी इसलिए देवी लाला काफी जोश में थे। उन्होंने कड़कदार आवाज में एक बार फिर से रामसुख को बाहर आने को ललकारा। रामसुख की पत्नी ने एक बार फिर मिमियाते हुए बताया कि रामसुख घर में नहीं हैं। पर देवी लाला ने मानने से इन्कार कर दिया। अंत में बात इस पर खत्म हुई कि रामसुख की घरवाली गरमागरम चाय बनाकर सबको पिलाए। चाय बनकर जब तक बाहर आई तब तक कुछ घरों की खिड़कियों के पल्ले आधे-पूरे खुल चुके थे। कुछ बच्चों ने दरवाजों के बाहर निकलने की कोशिश की लेकिन सिपाहियों ने उन्हें डाँटकर अंदर कर दिया। पर जब चाय बाहर आने लगी तो देवी लाला ने रामसुख के दो लड़कों को मदद के लिए बाहर बुला लिया। उनकी देखा-देखी अगल-बगल के दो लड़के और निकल आए। सिपाहियों ने बेमन से उन्हें डाँटा और फिर चाय पीने में लग गए। लड़के भी ढीठ की तरह पहले अपने दरवाजों से चिपके रहे और फिर धीरे-धीरे गली में उतर आए। थोड़ी देर में बच्चों की अच्छी-खासी भीड़ पुलिस वालों के इर्द-गिर्द इकट्ठी हो गई। वे ललचाई आँखों से उनके हथियार देखते रहे और उन हथियारों के नाम एक-दूसरे को बताते रहे। बीच-बीच में पुलिस वालों में से कोई उन्हें झिड़क देता या अपनी लाठी जमीन पर पटक देता। बच्चे भागते और थोड़ी दूर पर फिर इकट्ठा हो जाते। वे कोरस में गाते- |
09-02-2013, 09:53 AM | #36 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
हिंदू-पुलिस भाई-भाई, कटुआ कौम कहाँ से आई।
पुलिस वाले हँसते और कोई गाली-वाली देकर फिर चाय पीने में लग जाते। देवी लाला उनके खाने का इंतजाम करने लगे। कर्फ्यू हर दूसरे-तीसरे साल लगता था। पुलिस वाले हर बार इसी गली में या बगल की किसी गली में खाना खाते। यहाँ खाना खाकर मुहल्ले वालों से कुछ हँसी-मजाक करते और फिर पाकिस्तानी गलियों में कर्फ्यू लगाने चले जाते। गली में कोई घर ऐसा नहीं था जो अकेले इस पूरी टुकड़ी के लिए माकूल इंतजाम कर सकता। देवी लाला एक-एक घर का हाल जानते थे इसलिए उन्होंने किसी घर पूड़ी छनवायी, कहीं आलू की भुजिया तली गई और दो-एक घरों से डाँटकर अचार और चटनी इकट्ठा की गई। पुलिस वाले जब तक खाने बैठे तब तक काफी लोग साहस बटोरकर उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे। ये हिंदू लोग थे। इसलिए स्वाभाविक रूप से देश की सबसे ज्यादा चिंता उन्हें ही थी। उन्होंने पुलिस टुकड़ी में अपने परिचितों को तलाश लिया या नए सिरे से परिचय प्राप्त कर लिया और उन्हें उत्तेजित लहजों में गोपनीय ढंग की सूचनाएँ देने लगे। किसी को जानकारी थी कि पाकिस्तानी गली में फलाँ के घर में ट्रांसमीटर लगा हुआ है जिससे एक-एक पल की सूचना भेजी जा रही है। इसीलिए तो जो दंगा दोपहर बाद हुआ उसकी खबर शाम को बी.बी.सी. से आ गई। जो सज्जन ट्रांसमीटर वाली जानकारी दे रहे थे उनके एकाध ईर्ष्यालु पड़ोसियों ने पूछा भी कि उन्होंने बी.बी.सी. कब सुना लेकिन सबने यह मान लिया कि बी.बी.सी. ने जरूर यह खबर दी होगी। कुछ लोगों ने पाकिस्तानी गली के कुछ मकान बताए जिनमें उनके अनुसार हथियारों के जखीरे थे। इन हथियारों की तफसील लोगों ने अपने-अपने सामान्य ज्ञान की जानकारी के अनुसार अलग-अलग दी। ज्यादातर लोगों ने सिनेमा और अखबारों में पिस्तौलों और बमों के बारे में देखा पढ़ा था इसलिए उनके अनुसार उनमें पिस्तौलों और बमों को इकट्ठा किया गया था। कुछ लोगो ने स्टेनगन भी छिपाए जाने की सूचना दी। पुलिस कर्मियों ने जानकारियाँ इकट्ठी कीं। वे हर बार दंगों में पाकिस्तानियों को सबक सिखाते थे। इस बार भी ये जानकारियाँ उनके काम आने वाली थीं। |
09-02-2013, 09:53 AM | #37 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
पुलिस वालों ने खाना खाया और नालियों पर खड़े होकर हाथ-मुँह धोया। वे थोड़ी देर तक दाँत-वाँत खोदते रहे फिर बगल वाली गली में पाकिस्तानियों को सबक सिखाने चले गए।
रात काफी ढल चुकी थी। आम तौर से इस समय तक यह गली थक-थकाकर सो जाती थी लेकिन आज गली में घरों, सीढ़ियों और चबूतरों पर लोगों के छोटे-छोटे समूह इकट्ठा थे। फर्क सिर्फ इतना था कि गली की नालियों पर चारपाइयाँ नहीं पड़ी थीं। बावजूद इसके कि यह हिंदुओं की गली थी और कर्फ्यू सिर्फ इस हद तक लगा था कि लोग गलियों के बाहर मुख्य सड़क तक नहीं जा सकते थे फिर भी वे उमस-भरी रात में घर के अंदर सोने को मजबूर थे। घरों के अंदर जाने की कल्पना ही उबाऊ थी इसलिए लोग बाहर गलियों में बैठ गए और गप्प लड़ाते रहे। दूसरे, वे निश्चिंत थे कि गली में बैठने में कोई खतरा नहीं था। दिहाड़ी कमाने वाले जरूर परेशान थे कि अगर कर्फ्यू तीन-चार दिन चल जाएगा तो घर में जलने वाले चूल्हे की रफ्तार मंद होती जाएगी। पिछले सालों में जब तक शहर के हुक्मरानों को लगता कि शहर को अच्छी तरह सबक नहीं सिखाया गया है तब तक वे कर्फ्यू उठाने को टालते जाते। दो-तीन दिन लगातार कर्फ्यू रहते ही दिहाड़ी वाले त्राहि-त्राहि करने लगते। |
09-02-2013, 09:53 AM | #38 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
गली के एक कोने पर अचानक दो-तीन पत्थर किसी दरवाजे से टकराए। सीढ़ियों-चबूतरों पर बैठे लोग भड़भड़ाकर भागे। कुछ लोग नालियों में फँसकर गिर गए। कुछ औरतों ने चीखना शुरू कर दिया। बच्चों को सँभालने के चक्कर में औरतें गिर-गिर पड़ीं। लेकिन यह बदहवासी चंद मिनटों की रही। जल्द ही लोगों को समझ में आ गया कि गली पर बाहर से कोई हमला नहीं हुआ बल्कि गली के किनारे इकट्ठे बैठे लड़कों ने ही उठकर यूसुफ दर्जी के मकान के बंद दरवाजे पर दो-तीन अद्धे मार दिए थे। यूसुफ दर्जी इस गली में अकेला मुसलमान था। देश-विभाजन के समय उसके सभी भाई पाकिस्तान चले गए थे और सिर्फ वही रह गया था। हर दंगे में उसकी बीवी उसे तीस-पैंतीस साल पुरानी बेवकूफी पर कोसने लगती और हर दंगे में वह फैसला करता कि इस गली का मकान बेचकर वह किसी सुरक्षित जगह पर मकान ले लेगा। लेकिन हर बार दंगा खत्म होने के बाद वह दो-तीन दिन सभी जगह पर मकान तलाशता और फिर चुपचाप सिर झुकाए कपड़े सीने लगता। दंगों में यूसुफ दर्जी के परिवार के लिए फर्क सिर्फ यह पड़ता कि वह अपने मकान में कैद हो जाता। मकान चारो तरफ से बंद कर दिया जाता। दरवाजों पर तख्त और चारपाइयाँ टिका दी जातीं और घर के कमरों में लोग चुपचाप सन्न होकर बैठ जाते।
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09-02-2013, 09:53 AM | #39 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
यूसुफ दर्जी के नौ बच्चे थे। इनमें छह लड़कियाँ थीं। लड़कियाँ विभिन्न उम्रों की थीं और अपनी-अपनी उम्र के मुताबिक लफड़ों में लिप्त थीं। ये लफड़े मुहल्ले के तमाम लड़के-लड़कियों के लफड़ों की तरह थे, जो स्कूल जाने की उम्र से शुरू होते थे और शादी होते ही खत्म हो जाते थे। आज तक तो इस गली में ऐसा हुआ नहीं कि जिसके साथ छुप-छुपाकर आँखें लड़ाई गई हों, किताबों-कापियों में छुपाकर चिट्ठियाँ भेजी गई हों, उसी से शादी हो गई हो। भविष्य में भी ऐसा होने की संभावना नजर नहीं आती थी। इसलिए यूसुफ दर्जी की लड़कियाँ स्कूल आते-जाते या अपने घर की खिड़की-दरवाजे पर खड़े होकर निष्काम भाव से लड़कों को देखकर मुस्करा देतीं या आँखें नीची करके तेजी से बगल से निकल जातीं।
आज भी कर्फ्यू लगने से उत्पन्न हुई बोरियत को दूर करने के लिए ये लड़कियाँ बारी-बारी से खिड़की पर आकर बैठ जातीं और नीचे गली में चबूतरे पर बैठे लड़कों की सीटियों और फब्तियों पर मुस्कराकर हट जातीं। यूसुफ दर्जी का पुश्तैनी मकान इस मुहल्ले के मकानों के लिहाज से काफी बड़ा था। नीचे दो कमरे थे, आँगन था और रसोई थी। ऊपर एक कमरा था और खुली छत थी। छत की दीवारें जरूर यूसुफ ने अपनी लड़कियों और दंगों की वजह से काफी ऊँची करा दी थी। |
09-02-2013, 09:54 AM | #40 |
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Re: शहर में कर्फ्यू
पूरे घर में सहमा हुआ सन्नाटा था। यूसुफ और उसकी बीवी ने बाहरी दरवाजा बंद करके उस पर तख्ते और चारपाइयाँ खड़ी करके मजबूती प्रदान की थी। यूसुफ कर्फ्यू लगते ही बड़ी मुश्किल से गिरता-पड़ता अपनी दुकान बंद करके घर आया था। वह काफी देर तक घर के दरवाजे बंद करके औंधे मुँह बिस्तर पर पड़ा रहा। उसकी बीवी स्वर नीचा किए उसे कोसती रही। लड़के-लड़कियाँ सहमे-सहमे कोनों में दुबके रहे। अँधेरा होने पर लड़कियाँ बारी-बारी से ऊपर कमरे में खिड़की तक आने-जाने लगीं। माँ ने खाना पकाना शुरू किया और लड़कियों में से दो-एक को धौल-धप्पे लगाकर अपने साथ रसोई में लगा लिया। बाप बीच-बीच में जरा भी शोर होने पर दाँत पीस-पीसकर अपनी संतानों को गालियाँ देता।
खाना बन जाने पर यह क्रम टूटा और पूरा परिवार नीचे इकट्ठा होकर खाना खाने बैठा। बीवी परोसती रही और यूसुफ दर्जी और बच्चे अपनी आदत के विपरीत बिना कुछ बोले खाना खाते रहे। इस बीच बाहर चबूतरे पर बैठे लड़कों का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने पहले तो एकाध कंकड़ियाँ ऊपरी खिड़की पर फेंकीं और जब कोई लड़की खिड़की पर नजर नहीं आई तो तीन-चार अद्धी और पूरी ईंटें उठाकर दरवाजे पर दे मारी। दरवाजे पर ईंट लगते ही जो भगदड़ की आवाजें हुईं, उन्होंने यूसुफ दर्जी के पूरे परिवार को खौफ के समुद्र में डुबो दिया। छोटे बच्चों ने रोना शुरू कर दिया। यूसुफ ने दहशत-भरी आँखों से दरवाजे की तरफ देखा। दरवाजे पर चारपाइयाँ रखी थीं लेकिन फिर भी अगर बाहर से दबाव बढ़ता तो पुराने वक्त की मार खाया दरवाजा कितनी देर तक रुक पाता। उसने अपने छोटे लड़के को कुछ इशारा किया और उसने खिड़की बंद कर दी। यूसुफ और उसकी बीवी ने दो-तीन भारी सामान और उठाकर दरवाजे से लगा दिए। बच्चों के ग्रास निगलते हाथ रुक गए और उन्होंने अपनी खौफजदा आँखें दरवाजों पर टिका दीं। |
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